परमात्मा नदारद है

तब चारों ओर शून्य था, मात्र शून्य। सर्वत्र अंधेरा था, गहन अंधेरा। परमात्मा ध्यानमग्न, चिर योगनिद्रा में सोया था। समूचे शून्य में मात्र उसके अतिरिक्त और कहीं कुछ भी नहीं था। 

सहस्रों वर्षों की योगनिद्रा के पश्चात् परमात्मा जागा तो उसने दोनों हाथ ऊपर कर अंगड़ाई ली, स्वयं को प्रमादहीन किया, तत्पश्चात् सोचने लगा, अगर मैं ही कर्महीन हो गया तो समूचा अंतरिक्ष प्रमादयुक्त होकर यथास्थिति ठहर जाएगा। 

परमात्मा एक अभिनव संकल्प के साथ उठ खड़ा हुआ। अंतरिक्ष को क्षुब्ध कर उसने असंख्य तारों का निर्माण किया। इन्हीं तारों के निर्माण के साथ असंख्य आकाशगंगा, निहारिकाएं, उल्कापिण्ड, पुच्छल तारे एवं अन्य क्षुद्र तारे यहां तक कि छोटे-बड़े ब्लैकहाॅल तक बन गए। यह एक अद्भुत दृश्य था। इन्हीं भौतिक पिण्डों में जब उसने अपनी चैतन्य शक्ति का स्फुरण किया तो सभी गतिशील हो गए। 

वह इतने भर से नहीं रुका। उसने पुनः अपनी भौतिक एवं चैतन्य शक्तियों के ओज से पृथ्वी का सृजन किया, तत्पश्चात् सूरज-चांद बनाए ताकि पृथ्वी पर आधा समय दिवस एवं आधा समय रात्रि हो सके। उसके पश्चात् पुनः पंचतत्त्वों को क्षुब्ध कर प्रकृति का निर्माण किया तो एकबारगी समूची पृथ्वी कांप उठी। पृथ्वी पर जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं छिति के संसर्ग से यत्र-तत्र  समुद्र, नदियां, तालाब बन गये एवं इन्हीं के पुनः पुनः संयोग से बादल बने, झमाझम बरसात हुई एवं देखते-देखते असंख्य वनस्पतियां उग आई। पृथ्वी को शस्यश्यामला देख परमात्मा मुस्कुरा उठा। 

अब परमात्मा के मन-मस्तिष्क में संकल्प दर संकल्प उठते गए। उसने अपने झोले से असंख्य बीज निकाले एवं इन बीजों को फूंका तो पृथ्वी पर यत्र-तत्र अनेक पशु-पक्षी विचरने लगे। पृथ्वी चहक उठी। 

यकायक परमात्मा के चेहरे पर विषाद के भाव उभर आए। इन सभी प्राणियों में कोई भी ऐसा नहीं था जो उसकी प्रतिकृति हो, उसके जैसा बुद्धिमान, विवेकशील एवं श्रमवीर हो। थके हुए परमात्मा ने तब अपने माथे का पसीना पौंछा, इन्हीं श्रमकणों में पहले अपनी चैतन्यशक्ति एवं तत्पश्चात् पंचतत्त्वों को क्षुब्ध कर प्रथम पुरुष का सृजन किया। वह पुरुष ठीक वैसा ही था जैसे एक दीपक से जलकर दूसरा दीपक उतना ही प्रकाशमान हो जाता है। ऐसी सुन्दर प्रतिकृति देख परमात्मा प्रसन्नता से सराबोर हो गया। उस पुरुष के समीप आकर उसने उसके कंधे पर हाथ रखा, उसे अत्यन्त स्नेहभरी आंखों से देखकर बोला, “वत्स! तुम मेरी अनुकृति, प्रतिकृति एवं पराकल्पना हो। तुम्हारे मेरे मध्य किंचित अंतर ही है। जब तुम मेरे जैसे बन जाओगे, तुम क्षणभर भी पृथ्वी पर नहीं रहोगे, सीधे मेरे पास चले आओगे। मुझे पाना तुम्हारी दौड़ होगी, यही तुम्हारी मुक्ति भी होगी।’’ 

इतना कहकर परमात्मा पुनः कुछ समय के लिए योगनिद्रा में चला गया। 

चकित, भ्रमित पुरुष ने पृथ्वी का कार्यभार संभाला। अथक श्रम कर उसने पृथ्वी का कायाकल्प कर दिया। इतना सब कुछ करने पर भी उसके भीतर एक विचित्र अपूर्णता, रिक्तता बनी रहती। वह दिन भर दौड़ लगाता पर उसे मंजिल नहीं दिखती। अंततः अवसादग्रस्त, बेचैन होकर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया। 

परमात्मा योगनिद्रा से पुनः जागा एवं पुरुष की ऐसी दशा देखी तो सोचमग्न हो गया। उसने पुरुष के पास जाकर बेचैनी का कारण पूछा तो पुरुष ने उत्तर दिया ,  “प्रभु! मेरा अकेले मन नहीं लगता। इन पशु-पक्षी-वनस्पतियों को देख-देखकर मैं उकता गया हूं। इनमें से कोई भी मुझसे बातें नहीं करता, मैं अपने मन का रेचन किसके सम्मुख करूं ? श्रम करते-करते अनेक बार मैं बेहाल हो जाता हूं, तब मुझे लगता है कोई मेरे श्रम की सराहना करे, मेरा स्पर्श करे, मेरी थकान दूर करे।’’ 

तब परमात्मा पुनः मुस्कुराया। इस मुस्कुराहट के नेपथ्य में अनेक पेच एवं अनंत रहस्य छुपे थे। 

“ तुम चिंता न करो। मैं अवश्य तुम्हारे लिये कुछ करूंगा।’’ यह कहकर परमात्मा चुप हो गया। 

“लेकिन जो करें, देव! जल्दी करें। मैं हताश हो चुका हूं। ऐसा न हो इन्तजार करते मैं मर ही जाऊं।’’ विवश, थके पुरुष ने परमात्मा से आग्रह किया। 

“तू यहीं ठहर! कुछ दिन बाद मैं तुमसे यहीं मिलूंगा।  ’ इतना कहकर परमात्मा वहां से चलकर दूर एकांत जंगल में आकर बैठ गया। उसने वहीं बैठे मिट्टी का एक लौंदा लिया, पुनः पंचतत्त्वों को क्षुब्ध कर कुछ बनाने ही वाला था कि उसकी पीठ पर पड़ती तेज धूप ने उसका ध्यान भंग किया। उसने धूप की तेजी को महसूस किया, सोचा, इतनी तेज धूप में वनस्पतियां, जीव-जन्तु जल जाएंगेे। उसने धूप से किंचित् तेज, ओज एवं रूप निकालकर उस लौंदे में प्रतिष्ठित किया। ऐसा करते हुए उसने जंगल के चारों ओर नजर दौड़ाई। 

वहां डालियों पर अनेक सुन्दर फूल झूम रहे थे। इन फूलों से भीनी-भीनी महक आ रही थी। इनके चारों ओर तितलियां, भौंरे मंडरा रहे थे। पेड़ो पर कोयल कूज रही थी। 

परमात्मा पुनः एक अभिनव संकल्प से भर उठा। उसने फूलों से कोमलता, तितलियों से चंचलता एवं भौरों से किंचित् बावरापन लेकर उस लौंदे में प्रतिष्ठित किया। इस अद्भुत मिश्रण को देख परमात्मा स्वयं भ्रांत हो गया। उसे लगा यह क्या हो गया ? वह इस लौंदे को बिखेरने ही वाला था कि यकायक वहां अनेक प्रकार की चिड़िया, पक्षी आदि आकर नाचने लगे। उनकी अदाएं ,शोखियां अत्यन्त मन भावन थी। पूर्ण के दर्शन कर अंश का उन्मत्त होना लाजमी था। परमात्मा ने मन बदला। उसने इन पक्षियों से किंचित् शोखियां, अदाएं प्राप्त कर उस लौंदे में डाल दी। तभी दूर पेड़ पर एक कोयल की आवाज सुन परमात्मा मुग्ध हो गया। क्या उसका सृजन इतना अद्भुत था? लेकिन यह क्या ! परमात्मा के देखते-देखते वही कोयल पेड़ से उतरकर उसके समीप आई एवं उसके चरणों में लोट गई। उसके पीछे-पीछे एक कौवा कांव-कांव करता चला आ रहा था। 

परमात्मा ने कोयल के सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “मृदुभाषिणी! तुम्हें क्या कष्ट है ?’’

  “आपने मेरी आवाज इतनी मीठी बनाई है कि जंगल में अनेक बार जब मैं कूूजती हूं, पशु-पक्षी निद्रा में चले जाते हैं। इतना ही नहीं, यह ईर्ष्यालु कौवा मेरे अण्डे तक उठा ले जाता है।’’ कहते-कहते कोयल कांपने लगी। 

“तुम चिंता न करो। मैं तुम दोनों की समस्या हल कर दूंगा।’’ परमात्मा ने उसे आश्वस्त किया। 

परमात्मा ने तब कोयल से किंचित् मिठास एवं कौवे से कड़वी वाणी लेकर उसे भी इस लौंदे में प्रतिष्ठित कर दिया।

परमात्मा ने ऐसा किया ही था कि जंगल में चारों ओर चीत्कार के शब्द आने लगे। परमात्मा ने आंख उठाकर देखा। सभी जानवर शेर से डरकर भाग रहे थे। परमात्मा ने तब शेर से किंचित् साहस खींचकर उस लौंदे में डाल दिया। 

शेर के पीछे-पीछे उन्मत्त चाल में चलता हुआ हाथी आया। वह अपनी सूंड को ऊपर-नीचे कर अनेक करतब दिखा रहा था। परमात्मा ने उसकी सूण्ड का सारतत्त्व लेकर लौंदे की जांघों में प्रतिष्ठित किया। 

तभी वहां भागते हुए खरगोश आया । वह कांप रहा था। ओह! वह कितना कोमल था। परमात्मा ने उसे अपने हाथों में लेकर सहलाया, फिर बोले, “ तुम इतना कांप क्यों रहे हो ?’’ 

“प्रभु! मेरे पीछे लोमड़ी लगी है।’’ कांपते हुए खरगोश ने उत्तर दिया। 

तभी उसके पीछे लोमड़ी आकर खड़ी हो गई। 

परमात्मा को लगा खरगोश को इतना भीरु एवं लोमड़ी को इतना चालाक नहीं होना चाहिए। उन्होंने दोनों का किंचित् सारतत्त्व लेकर लौंदे में रख दिया। 

तभी वहां एक हिरनी दौड़ती हुई आई। ओह! उसकी चाल कितनी तेज, सुन्दर थी। परमात्मा ने उसकी चाल से किंचित् सार लेकर लौंदे में प्रतिष्ठित किया। 

यकायक वहां बादल उमड़ने-घुमड़ने लगे। परमात्मा ने लौंदा अपने हाथ में लिया एवं वहां से थोड़ी दूर एक गुफा के भीतर चला आया। वहां दीवारों पर गोहें अर्थात बड़ी-बड़ी छिपकलियां चिपकी थी। वे इतनी हठी थी कि वर्षों टस से मस नहीं होती थी। दीवारेां के कोने में कुछ विषधर सर्प घूम रहे थे। गुफा के दांये कोने में उल्लू बैठा था, छत पर चमगादड़ें लटक रही थी। दूसरे कोने में एक-दो गिरगिट घूम रहे थे। परमात्मा ने इनसे भी कुछ-कुछ लिया एवं लौंदे में डाल दिया। 

यकायक परमात्मा को लगा पुरुष उसकी राह तक रहा होगा। उसने लौंदे की ओर देखा। यह तो विचित्र, अगड़म-बगड़म मसाला तैयार हो गया । लेकिन अब क्या हो सकता था ? देरी बढती जा रही थी। परमात्मा ने अब अपनी शक्तियों को केन्द्रित कर लौंदे को सम्भाला, उसे ठीक से अवस्थित किया, तत्पश्चात् उसमें प्राण फूंक दिए। 

परमात्मा के सामने अब एक अप्रतिम सुंदरी खड़ी थी। उसकी मुस्कुराहट, रूप-लावण्य देखते बनता था। वह नख-शिख सौन्दर्य की मूर्ति थी। उसे देख परमात्मा स्वयं उस पर फिदा हो गया। उसने उसकी ओर देखा तो वह हिरणी की तरह दौड़ी, परमात्मा उसके पीछे भागा तो वह वहां आ गई जहां पुरुष लेटा था। 

उसे देखकर पुरुष चकित रह गया। उसके भीतर सैकड़ों बिजलियां एक साथ कौंध गई। वह उसे छूने के लिये लालायित हो उठा। तभी वहां परमात्मा तेज गति से चलकर आए एवं पुरुष की ओर देखकर बोले, “यह नारी है। इसे मैंने तुम्हारे लिए बनाया है। इसमें अनेक गुण-अवगुण हैं। तुम इसे दौड़कर भी नहीं पकड़ पाओगे एवं अनेक बार यह तुम्हें सहज ही मिल जाएगी। तुम्हारे समीप होने पर भी यह तुम्हारी पकड़ से दूर होगी। इसमें फूलों की कोमलता, तितलियों-सी चंचलता होगी। इसकी वाणी कोयल जैसी मीठी होगी। कभी-कभी कौए की तरह इतना कांव-कांव करेगी कि तू परेशान हो जाएगा। इसमें खरगोश का भीरुपन एवं शेर का साहस भी होगा। यह ऐसे साहसी कार्यों को अंजाम दे देगी जिसके बारे में तू वर्षों सोचता रहेगा। छिपकलियों से सारतत्त्व लेने के कारण यह हठी भी होगी। इसका हठ जगतविख्यात होगा। इसमें लोमड़ी की चालाकी भी होगी।’’

“मैं समझा नहीं प्रभु!’’ पुरुष हाथ जोड़कर बोला। 

“यह सरल भी होगी कठोर भी होगी। तंगदिल भी होगी उदार भी होगी। यह चौकन्नी भी होगी, देखकर भी नहीं देखेगी एवं न देखकर भी सबकुछ देख लेगी। सुनकर भी नहीं सुनेगी न सुनकर भी सबकुछ सुन लेगी। वैसे इसे दो दिन पुरानी बात याद नहीं रहेगी, लेकिन अपनी पर उतर आई तो वर्षों पुरानी बात दोहरा देगी। इस अनंतगुणी में अन्य अनेक गुण भी होंगे।’’ 

“ क्या प्रभु!’’ विस्मयविमुग्ध पुरुष ने पूछा । 

‘मैंने मनोयोग से इसका सृजन किया है अतः यह परम बुद्धिमान होगी लेकिन उल्लू से किंचित् सारतत्त्व लेने के कारण कभी-कभी परम मूर्खता का प्रदर्शन भी करेगी। कभी-कभी यह गिरगिट की तरह रंग भी बदलेगी। इसके इन्हीं गुणों पर रीझ कर तू इसे बेहद प्रेम करेगा। इसका हृदय विशाल एवं यह ममता की आगार होगी। अपनी संतानों के लिए यह जान तक दे देगी। इसमें नशा भी होगा एवं यह तेरा नशा काफ़ूर भी कर देगी। यह वफ़ा की देवी होगी पर तुमने इसे भड़काया तो बेवफ़ाई से गुरेज भी नहीं करेगी। यह सत्य भी बोलेगी, झूठ गढ़ने में भी पारंगत होगी। इन सबके बावजूद यह तुम्हारी सच्ची पथगामिनी होगी।’’ परमात्मा धाराप्रवाह बोलता गया। 

“ प्रभु ! क्या मैं इसके साथ रह लूंगा ?’’ इस बार प्रश्न करते हुए पुरुष की आँखें फैल गई।

“तू इसके साथ रह भी लेगा, न भी रह सकेगा। इसके साथ और इसके बिना दोनों अवस्था में तेरी हालत देखने लायक होगी। चिंता न कर! बस इतनाभर स्मरण रखना की तुम अगर इसके दुर्गुणों को पचा सके तो यह अपने अद्भुत गुणों से तुम्हारा जीवन धन्य कर देगी। जहां इसका आदर हुआ वे परिवार स्वर्ग से अधिक सुखकर होंगे एवं जहां अनादर मिला वे परिवार दोजख की आग में जल उठेंगे। इससे ज्यादा और क्या कहूं ? संक्षेप में यही कहूंगा कि तुम इसे समझ पाए तो यह तुम्हारे आनंद का स्रोत बन जायेगी एवं न समझ पाये तो मुक्ति का सोपान बन जाएगी।’’ कहते हुए परमात्मा कुछ क्षण के लिए ठहर गया। 

पुरुष के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई। 

“ प्रभु क्या मैं आपकी इस अगड़म-बगड़म कृति को सम्भाल लूंगा ?’’ कहते हुए पुरुष के मस्तिष्क में हजारों प्रश्न उभर आए। 

“ अब जो बन गया सो बन गया। तू इसे संभाल सकता है तो बता! मैं तो इसे बनाते हुए इतना थक गया हूं, कनफ्यूज भी हो गया हूं कि फिलहाल नया सृजन असंभव है। तू कहे तो इसे नष्ट कर दूं ? अगली बार योगनिद्रा से लौटकर सबसे पहले तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा।’’ उत्तर पूरा करते हुए इस बार परमात्मा ने पुरुष के कन्धे पर हाथ रखा।

“प्रभु! इसकी कोई कमजोरी भी तो बताओ ?’’ प्रश्न करते हुए पुरुष की सांस फूल गई।

“इसकी एक मात्र कमजोरी इसकी प्रशंसा होगी। प्रशंसा की आंच में इसके तमाम कष्ट, अवसाद एवं कुण्ठाएं पिघल जाएगी।’’ उत्तर देते हुए परमात्मा का स्मितहास देखने लायक था। 

अब परमात्मा चुप खड़ा था। 

वर्षों के इंतजार में थके-मांदे पुरुष ने नारी की ओर पुनः देखा तो वह मुस्कुराकर उसकी ओर आई। उसकी मुस्कुराहट में असंख्य पेच एवं अगणित शोखियां थी। उसने आगे बढ़कर पुरुष का हाथ अपने हाथ में लिया तो पुरुष के शरीर में सनसनी फैल गई।वह अद्भुत रोमांच से भर गया । उसकी नस-नस, बोटी-बोटी में विद्युत प्रवाह बह गया। उसे लगा वह उसके बिना रह नहीं सकता। बदहवास उसने उसे आगोश में ले लिया। वह उसकी देहयष्टि के नशे में आकण्ठ डूब गया। 

कुछ देर पश्चात पुरुष होश में आया तो उसने मुड़कर देखा।

परमात्मा वहां नहीं था। 

अब उसके पास विकल्प ही क्या था ?

सदियां बीत गई, पुरुष आज भी विकल्प ढूंढ रहा है। मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों, गुरूद्वारों में माथा टेक रहा है। ग्रन्थों में सर खपा रहा है।

वह पुकारे भी तो किसे ?

तब से परमात्मा भी तो नदारद है। 

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दिनांक 22.03.2015

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