दस वर्ष बाद पुनः अपने घर आया हूँ। इस घर का कौन-सा ऐसा पत्थर, कौन-सी ऐसी वनस्पति, कौन-सी ऐसी वस्तु है जिसे भला मैं नहीं पहचानता। इस प्रेमालय का चप्पा-चप्पा मेरी मोहब्बत की महक से भरा है। समय की बलिहारी है कि अपने ही घर के बाहर अजनबी-सा खड़ा हूँ।
अभी मैं मुख्य दरवाजे के बाहर खड़ा हूँ। दरवाजे के दोनों ओर दो खूबसूरत खंभे हैं। दाँयी ओर के खंभे पर हल्के लाल रंग के ग्रेनाइट की पट्टी चिपकी है जिसके ऊपर लिखा है ‘नेह-नीड़’। दूसरे खंभे पर मेहता साहब की नेमप्लेट टंगी है। कभी यहाँ मेरे और सुशीला के नाम की नेमप्लेट टंगी होती थी लेकिन वह इतनी गंदी नहीं थी। लगता है मिसेज मेहता इसे साफ नहीं करती। सुशीला हमारी नेमप्लेट सदैव कपड़े से साफ करती थी, यही नहीं उस पर एवं नेह-नीड़ पर जड़े पीतल के अक्षरों पर सप्ताह में एक बार पाॅलिश भी करती थी। तब अक्षर चमक उठते थे। मजाल है उसके होते घर की नेमप्लेट गंदी लगे। कई बार तो वह इसे अपने साड़ी के पल्लु से ही साफ कर देती। मेरी अंगुलियाँ अनायास ही नेह-नीड़ के अक्षरों पर घूमने लगी हैं। अतीत का पूरा इतिहास अब मेरी आँखों के आगे विचरने लगा है।
‘नेह-नीड़’ नाम हमने यूँ ही नहीं रख लिया था। पूरे पन्द्रह दिन इस विषय पर गहन चिंतन हुआ था। हिंदी के एक प्रोफेसर एवं शहर के कतिपय विद्वद्जनों से भी एक सुंदर नाम सुझाने के लिए मैं कई बार मिला था। सारे नामों की सूची मैंने सुशीला को बतायी, पर उसे एक भी नाम पसंद नहीं आया। कहती थी, “विद्वानों द्वारा सुझाये नामों में अहंकार की बू होती है। प्रेमियों के हृदय से निकले नाम भले शब्द-उत्कर्ष को न छूते हो, भाव-उत्कर्ष को अवश्य छूते है।” उस रात अपना सर मेरी छाती पर रखते हुए उसने निर्णय दे दिया, “हमारे मकान का नाम ‘नेह-नीड़’ होगा, दो प्रेमी परिंदों का घोंसला।” कोई ओर समय होता तो मैं बहस अवश्य करता पर उसके कहने का समय एवं अंदाज ही कुछ ऐसा था कि मैं प्रतिकार नहीं कर सका। वैसे नाम भी अच्छा ही था। उसके सुझाव का मुझे यही उत्तर सूझा, “सिंपली ब्यूटीफुल! सुशी, तुमने कितना सुंदर नाम सोचा है!” मैं उसे प्यार से सुशी ही कहता था। उस दिन उसका चेहरा फूल-सा खिल गया था।
दरवाजा खोलकर अब मुख्य द्वार के अंदर आ गया हूँ। नेपथ्य से जैसे एक आवाज गूंजी है, “दार्शनिक महोदय! जरा दरवाजा बंद करके आना, कल ही तीन पौधे आपके दर्शन की भेंट चढ़ गये थे।” मैंने मुड़कर दरवाजा बंद कर दिया है। कई बार जाने क्या सोचते हुए मैं दरवाजा खुला ही छोड़ आता था। तब सुशी के ऐसे ही निर्देश मेरे कानों में गूंजते रहते थे।
मैं बरामदे में जाने वाले रास्ते पर धीरे-धीरे चल रहा हूँ। यहाँ कुछ भी तो अपरिचित नहीं है। रास्ते पर बाँयी ओर लगे गुलमोहर एवं आम का पेड़ बड़े अवश्य हो गये हैं। मेरी गर्दन अनायास ऊपर उठ गई है। वाह! गुलमोहर तो सुंदर फूलों से भर गया है। जिस दिन हमने यह पेड़ लगाया तो उसने कहा भी था, “एक दिन इस पेड़ पर हल्के लाल रंग के गुलमोहर खिलेंगे। आप जब भी घर आयेंगे ये फूल आपकी कदमबोसी करेंगे। मैं रहूँ या न रहूँ इन फूलों का नर्म, कोमल अहसास आपको मेरी याद दिलायेगा।” मेरी आँखें अब पांवों पर ठहर गई है, सचमुच गुलमोहर मेरी कदमबोसी कर रहे हैं। ठण्डी हवा के झोंके के साथ ही मुझे उसकी याद हो आयी है। नम आँखों को मैंने अभी-अभी रुमाल की कोर से पौंछा है। मैं थोड़ा और आगे बढ़ आया हूँ और यह आम का पेड़, इसे लगाते वक्त तो वह खिलखिला उठी थी, “इसके फल तो हमारे पोते ही खायेंगे।” आज यह पेड़ भी फलों से लद गया है। मैं अवश्य ही एक दिन मेरे दोनों पोतों को यहाँ लाऊँगा। मैंने राह में पड़ी एक कच्ची केरी उठा ली है, उसे उलट-पुलट कर न जाने उसमें क्या देख रहा हूँं। मेरी चिर-संचित यादें ही मानो उथल गई हैं।
दायें बगीचे में कितनी बेतरतीब घास उगी है! क्या ये लोग देखभाल नहीं करते? कुछ गमले हमारे समय के लगते हैं, वो सीमेन्ट से बने गमले, शायद न भी हों। सुशी के गमले इतने गंदे नहीं हो सकते। वह तो एक-एक गमले को अपने हाथों से पेन्ट करती थी। इन्हें शायद फुरसत न हो।
मुख्य द्वार से बरामदेे में आते-आते मानो सारा इतिहास लौट आया है। मेरी धमनियों में उसकी यादों का प्रवाह तीव्र हो उठा है। मैंने बेल बजाने के लिए हाथ उठाया पर हाथ यंत्र-चलित सा नीचे हो आया है। वर्षों पूर्व हारा-थका स्कूल से घर आता तो लपककर बेल बजाता था। वह दौड़ी आती पर मुझे यही लगता वह इतनी देरी क्यों करती है। शायद बच्चों को पढ़ा रही हो पर अब तो बच्चे इतने बड़े हो गये हैं, वे खुद पढ़ सकते हैं। शायद रसोई में कुछ बना रही हो, यह भी हो सकता है सज-संवर के आ रही हो। कहीं उस पड़ौसी शर्मा से तो नहीं बतिया रही। उसेे सुशीला से बतियाने में अनोखा रस आता है। नीच साला! कितनी हसीन, भ्रामक कल्पनाएं मेरे मस्तिष्क में बवण्डर बनकर नाचती। वह दरवाजा खोलती तो मैं निहाल हो जाता। बस एक बार उसका मुस्कुराता चेहरा देखभर लेता तो दिन भर की थकान उड़न-छू हो जाती।
हाथ से बैग लेते हुए वह निर्देशों का अंबार लगा देती, जल्दी से मुँह-हाथ धो लो, ड्रेस बदल लो, सीधे डाइनिंग टेबल पर आ जाओ, आज मैंने आपके लिए पनीर पकौडे बनाये हैं, यह, वह और जाने क्या क्या! ओह! उसके बनाये पनीर पकौडे एवं अदरक की चाय को याद कर मुँह में पानी भर आया है। उसकी बनायी हर चीज में मोहब्बत के मसाले एवं प्रेम की छोंक होती थी। अब तो मानो सारे स्वाद मर गये।
यह घर भी अब मेरा कहाँ! दस वर्ष पूर्व मैंने ही तो इसे मेहताजी को बेचा है, पूरे पाँच लाख में। अब तो इसकी कीमत बीस लाख हो गई है, लेकिन मेहता पच्चीस-तीस से कम बात नहीं करता। पक्का बनिया है, लोगों की एक रुपये की चीज पचहत्तर पैसे में खरीदता है एवं अपनी एक रुपये की सवा रुपये में बेचता है। शायद धन छाती पर बांधकर मरेगा। मुझे पता चला है कि वह इसे बेचकर नये मकान में जाना चाहता है, मैं इसी सिलसिले में यहाँ आया हूँ।
मैंने डोरबेल बजा दी है। मुझे मालूम है गाउन पहने मि. मेहता अभी दरवाजा खोलेंगे और रावण की तरह अट्टहास करते हुए कहेंगे, ओह दाधीच साहब, वेलकम! वही हुआ जो मैंने सोचा, वही अंदाज, वही स्टाइल। हाँ, मि. मेहता पहले से कुछ पक गये हैं । सर पर आधे बाल सफेद हैं, कुछ सफेद बाल मूंछों से भी झांक रहे हैं, उसके चतुर बच्चों की तरह जिन्होंने अपनी माँ को बता दिया है कि भीतर कोई आया है।
हम और मि. मेहता ड्राईंगरूम में बैठे चाय पी रहे हैं। मैं फिर दीवारों में कुछ खोजने लगा हूँ। मि. मेहता ने ही पहले मौन तोड़ा है, “कुछ भी कहो दाधीच साहब, आपका मकान है बड़ा शगुनी। मेरी तो दस वर्ष में मिल्कियत आठ गुना हो गई। आपके बेचने के बाद मैंने इस पर खर्च भी बहुत किया।” मुझे ऐसा कुछ भी नजर नहीं आ रहा। पास ही बैठी उसकी बीवी हाँ में हाँ मिला रही है। मैंने बेचा तब हजार मीन-मेख निकाल रहा था, अब खुद बेचना चाहता है तो यशोगान कर रहा है। ब्रह्मा ने बनियों को फुरसत में गढ़ा होगा। मतलब हो तो मोती की चमक बढ़ा देते हैं एवं न हो तो पलभर में पानी उतार देते हैं।
मैं पुनः अपना मकान देख रहा हूँ। अब लाॅबी में खड़ा हूँ, यहीं तो हमारी डाइनिंग टेबल रखी होती थी, किचन से सटी हुई। कैसी खूबसूरत टेबल थी! एक बार जैसलमेर गया तब वहाँ से स्पेशल बनवाकर मंगवाई थी। कैसा सुंदर, कलात्मक कार्य था! पूरी काॅलोनी में ऐसी सुंदर टेबल किसी के पास नहीं थी। हमारी पारिवारिक गोष्ठियाँ अक्सर यहीं होती। कितने गंभीर विषयों की विवेचना हमने इसी टेबल पर की थी। एक बार तो बहस पूरे एक घण्टे चली, जाने क्या विषय था, हाँ याद आया, माँ-बाप में कौन महान है। मैंने पिता के पक्ष में दलीलें रखी। उस दिन बच्चे जो अक्सर माँ के साथ होते, मेरी तरफ हो लिए। कुछ समय पूर्व ही मैंने उन्हें मेटिनी शो दिखाने का वादा किया था। वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। मैंने सिद्ध कर दिया कि पिता की भूमिका माँ से कहीं बड़ी, कहीं ऊँची होती है। उस दिन वह कैसी भुनभुनायी थी, “फिर बच्चे भी तो पिता ही पैदा कर लिया करें।” तब डाइनिंग टेबल पर हंसी के फव्वारे छूट गये थे।
इसी लाॅबी से सटा बाथरूम जहाँ फव्वारे के नीचे खड़ा मैं देर तक नहाता। वह चीखती रहती इतना मत मस्ताओ, कभी नजर लग गई तो जार-जार रोओगे। गत दस वर्षों में सचमुच जार-जार रोया हूँ।
लाॅबी से खुला आंगन साफ दिख रहा है। स्नान करने के बाद वह अक्सर यहीं बाल सुखाती, मस्त-रेशमी-लंबे एवं काले बाल, जिनकी तुलना में सावन की घटाओं से करता था। बाल सुखाते हुए कई बार मुझे कनखियों से देखती। वह थी भी हुस्न परी, अंग-अंग सांचे में ढला था, साक्षात् मूर्तिवत सौन्दर्य जिसका आनन्द वही जानता है जिसने उसे भोगा है।
और यह लाॅबी से ही सटा बेडरूम, हमारे प्रेम एवं रसखेलिया का मूक गवाह। कभी यहाँ हमारे प्रेम के महागीत गूंजते थे, प्रणयकेलियाँ कामदेव के अहम को मात देती थी। मुझे यौवन के रसभरे दिन याद हो आये हैं। वो वजह-बेवजह रूठने-मनाने के दिन, वो मोहब्बत के लंबे करार, वो चरमोत्कर्ष का सुख देते समागम सभी यहीं तो घटित हुए थे। ओह! उसे छेड़ने में कितना आनन्द आता था। हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने थे। वे सुख अमृत से सींचे हुए थे। वह मेरे मन में ऐसे बसी थी जैसे सूर्य में प्रभा एवं चन्द्रमा में चाँदनी बसी होती है।
फिर वह रात तो मैं कैसे भूल सकता हूँ। हमारी पाँचवीं वेडिंग एनिवरसरी थी। भेंट करने के लिए मैंने बहुत जोड़-तोड़ कर कंगन बनवाये थे। हाथों में कंगन पहनते समय वह कितना खुश थी, उस दिन उसका अंग-अंग खिल उठा था। तब बच्चों की भी क्या तो उम्र थी। बड़ा हेमन्त तीन वर्ष एवं छोटा हिमांशु एक वर्ष का ही तो था।
अच्छे दिन पानी की तरह बह गये। दिन-महीने-वर्ष पलक झपकते निकल गये। देखते ही देखते बड़ा लड़का अठारह वर्ष का गबरू जवान हो गया एवं छोटा सोलह वर्ष का किशोर। अब जीवन कुछ थमने लगा था।
लेकिन सौभाग्य कब चिरस्थायी रहा है? मनुष्य का भाग्य पहिये के अर्रे की तरह ऊपर-नीचे होता रहता है। सिर्फ एक घटना ने मेरी हंसती-इठलाती, जीवन-सरिता को रुदन में बदल दिया। एक दिन ब्रा पहनते हुए उसने कहा, “जरा देखना यहाँ कुछ गांठ सी लगती है।” मैंने हाथ लगाकर देखा सचमुच वहांँ कुछ असामान्य कठोर सा उभरते हुए लग रहा था। मैं यह सोचकर हैरान था कि जो स्त्री अपने अंगो को छिपाने के लिए, अपनी लाज की रक्षा के लिए असंख्य यत्न करती है वही अपने पति के समक्ष सब कुछ खोलकर रख देती है, वह भी पूरे इत्मीनान एवं आत्मविश्वास के साथ। उसका समर्पण सर्वस्व होता है।
हमने डाक्टर से संपर्क किया, कई टेस्ट हुए। जब टेस्ट रिपोर्ट्स आई तो मैं भौंचक्का रह गया, उसे थर्ड स्टेज ब्रेस्ट केंसर था। उस दिन मेरी हालत ऐसी थी जैसे किसी हरे वृक्ष पर बिजली गिर गयी हो।
वे कयामत के दिन थे। मैंने सेवा में कोई कसर नहीं रखी। मेरी हैसियत उन दिनों कमजोर थी। पैसा पानी की तरह बहाया , जीवन भर की बचत क्षण भर में खर्च हो गई। अब आगे इलाज के लिए मेरे पास एक ही विकल्प था , नेह-नीड़ का बेचान। शायद उसे इस बात की गंध लग गई। एक रात उसके पास बैठा तो उसने कसकर बाहों में जकड़ लिया। मैं कुछ कहता, तब तक फफक कर रो पड़ी। मैं कई देर उसकी पीठ सहलाता रहा। मन हल्का हुआ तो बोली, “एक वादा करो!” मैंने हाँ कहा तो बोली, “इस नेह-नीड़ को कभी नहीं बेचना। अब तुम्हारा और बच्चों का यही तो आसरा है।” मैंने उसे वादा तो कर दिया पर मेरे पास भी इसके अतिरिक्त क्या स्रोत था। मुझे लगा बेचने की बजाय बैंक से मोर्टगेज लोन ले लिया जाय, भाग्य ने साथ दिया तो बाद में छुड़वा लेंगे। मैंने मोर्टगेज लोन लेकर उसका इलाज करवाया, लोन की सारी रकम फुंक गई फिर भी मौत ने अपने बेरहम पंजों से उसे जकड़ ही लिया। इसी कमरे में उसने दम तोड़ा था। मरते समय उसका हाथ मेरे हाथ में था। बच्चे अनाथों की तरह माँ से लिपट कर रो रहे थे। उसकी खुली आँखें मानो कह रही थी, सुशीला हर जन्म में तुम्हारे दर्शन की आकांक्षी रहेगी। मैंने ही बिलखते हुए उन आँखों को बंद किया था।
बैंक लोन मैं चुका नहीं पाया। एक अध्यापक की तनख्वाह कितनी भर होती है। बैंक ने नोटिस पर नोटिस भेजे, मैं हार गया। अंततः मकान बेचकर ऋण चुकता किया। उस दिन घर आकर उसकी तस्वीर के आगे बिलख पड़ा, सुशी! मुझे माफ कर देना, मैं वादा नहीं निभा पाया।
बुरा समय अकेला नहीं आता। इन्हीं दिनों विद्यालय में एक चपरासी ने गबन किया। कैश का चार्ज मेरे पास था। वह शातिर था, चतुराई से निकल गया, मैं निरपराध फंस गया। मुझे नौकरी से निकाल दिया गया, कंगाली में आटा और गीला हो गया। मैं महीनों दर-दर भटकता रहा, बच्चों की फीसें तक भारी पड़ गयी, रोटियों के लाले पड़ गये।
मजबूरी में मैंने एक बिल्डिंग कान्ट्रेक्टर के यहां काम किया। सौभाग्य से कुछ ही महीनों में उसका विश्वासपात्र बन गया। बढ़ते काम के साथ उसने मुझे अपना भागीदार बना लिया। फिर तो मानो लक्ष्मी मेरे भाग्य पर सवार हो गई। गत दस वर्षों में मैंने बेशुमार दौलत कमाई, मेरी आशा से कहीं अधिक। इन्हीं दिनों बच्चों के विवाह किये एवं कुछ वर्षों में दो पोतों का दादा भी बन गया।
आज फिर वही मकान खरीदने यहाँ आया हूँ। मुझे मालूम है मकान बीस लाख से ज्यादा नहीं है पर मेहता सत्ताईस लाख पर अड़ा है। शायद उसने मेरे सर पर सवार भूत को अपनी पैनी आँखों से देख लिया है अथवा मेरे चेहरे की गरज पढ़ ली है।
मैंने हाँ भर दी है। सुशीला का वादा पूरा करने के लिए कोई भी रकम अधिक नहीं है। मि. मेहता एवं उसकी बीवी की आँखें चमक उठी है। भला ऐसा मूर्ख खरीददार कहाँ मिलेगा, लेकिन मैं जानता हूँ जो नफा मैंने आज कमाया है वह जीवन भर काम करके भी नहीं कमा पाता।
वक्त ने एक बार फिर करवट ली है। अपने बेटे-बहू-पोतों के साथ मैं पुनः ‘नेह-नीड़’ आ गया हूँ। कल ही मैंने दोनों पोतों को आम के पेड़ पर चढ़ाया था। दोनों ने जी भर कर केरियाँ तोड़ी हैं।
आज रात उसी बेडरूम में अकेला पड़ा हूँ। मन पुनः सुशीला को ढूँढ़ रहा है, मानो उसे कहना चाहता हो, प्रिये! मैंने अपना वादा पूरा कर लिया है।
मैं उंघने लगा हूँ पर यह क्या! बेडरूम के कोने में इतना प्रकाश क्यों? यह सफेद साड़ी पहने वहाँ कौन खड़ा है? मैं देखने का प्रयास करता हूँ लेकिन मैं हिल-डुल क्यों नहीं पा रहा? अरे! यह तो सुशीला है! मुझे कह रही है, इस बेडरूम में मेरे बिना सोओगे क्या! चलो, मैं तुम्हे लेने आई हूँ।
अभी-अभी मेरी देह से एक श्वेत पुरुष प्रकट हुआ है। सुशीला उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर ऊपर उठ रही है, एक अज्ञात उड़ान की ओर, एक नया ‘नेह-नीड़’ बसाने।
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19.01.2007