निर्णय

भाग (1)

दोपहर का सूर्य तेजी से संध्यारानी की ओर क्यों भागता है? क्या वह भी बुजुर्गियत में आँख लड़ाने का शौकीन हो गया है?

टैगोर पार्क में आज शाम यही चर्चा छिड़ी थी। आखिर देवड़ा साहब एवं श्रीमती मेहता को इस उम्र में हो क्या गया है? दोनों को लोक-लाज की कुछ परवाह है कि नहीं? बात अगर बीस-पच्चीस साल के युवक-युवती की हो तो लोग गले भी उतार लें हालांकि वो भी इतनी जल्दी गले नहीं उतरती पर साठ साल की उम्र में यह उबाल! बड़े बुजुर्ग शायद ठीक ही कह गए हैं- साठे बुद्धि नाटे अर्थात् साठ के पार बुद्धि को जंग लग जाता है। खुदा बचाए इन आशिकों से जो दिन देखते हैं न रात, रूप देखते हैं न रंग और अब तो उम्र का लिहाज भी नहीं।

टैगोर पार्क तीन किलोमीटर की परिधि में पसरा एक सरकारी पार्क था। शाम के समय वहाँ वृद्धों, युवक-युवतियों, बच्चों एवं अधेड़ वय के लोगों का हुजूम नज़र आता। बच्चे एवं युवक-युवतियाँ वहाँ पार्क के एक कोने में बने इन्डोर कोर्ट में टी.टी. एवं बैडमिंटन खेलने आते। अधेड़ एवं वृद्ध वय के लोग इवनिंग वाॅक के लिए आते। सभी आने-जाने वालों ने एक ‘टैगोर पार्क क्लब’ बना लिया था। सभी आते-जाते थोड़ी देर मिलकर मन का गुबार निकालते, कभी-कभी भाषण-चाटण भी हो जाता।

पार्क शहर की प्रसिद्ध टैगोर झील के किनारे बना था सम्भवतः इसीलिए पार्क का नाम टैगोर पार्क था। पार्क में नीम, पलाश, पीपल, यूक्लीपट्स, खजूर एवं अमरूद के भी कुछ पुराने पेड़ लगे थे। कभी-कभी तोतों एवं पक्षियों के काटने से अमरूद के फल नीचे गिर जाते तो पार्क में घूमने वाले इन्हें ऐसे उठाते जैसे पूर्व पुण्याई से प्राप्त सौभाग्य को भाग्यशाली झपट लेते हैं। साँझ के समय शांत झील में पड़ती इन पेड़ों की परछाइयाँ ऐसे लगती मानो जीवन के उतरकाल में सूर्यास्त देखते हुए, शांत-गंभीर बुजुर्ग कतारबद्ध खड़े हों। झील पर पंक्तिबद्ध उड़ते श्वेत पक्षी, यत्र-तत्र तैरती बतखें एवं झील के उस पार पड़ती पहाड़ों की परछाई झील को और मनमोहक बनाती। सूर्यास्त के पूर्व इन पेड़ों पर झुण्ड के झुण्ड पक्षी आते। तोते, सारस, कबूतर एवं जाने कितनी प्रकार की रंग-बिरंगी चिड़ियाँ। शायद इन्होंने भी टैगोर पार्क काॅलोनी बना रखी हो। पक्षियों का कलरव मन को सुख, सुकून एवं शांति देता। उत्साह एवं व्यग्रता से भरे पक्षी एक दूसरे से पूछते हुए नजर आते, माँ आ गई क्या! बापू आ गए क्या! इन्हीं में से शायद कोई उत्तर देता, दोनों बाबा को साथ लेकर आ रहे हैं। पक्षियों का कलरव इसीलिए शोर नहीं कहलाता। जिस रव में मिलन की उत्कंठा हो, अपनो को सम्भालने का भाव हो, सहयोग एवं प्रेम की उत्कट पुकार हो, वो शोर कैसे होगा !

इस पार्क में देवड़ा साहब एवं श्रीमती मेहता भी नित्य इवनिंग वाॅक पर आते। दोनों करीब छः बजे दिन ढलते-से आते। कभी कोई जल्दी आ जाता तो दूसरा पार्क के मुख्य दरवाजे पर व्यग्रता से इंतजार करता, हाँ यह बात तय थी दोनों वाॅक साथ-साथ करते। वाॅक के पश्चात् दोनों झील के किनारे लगी लम्बी सरकारी बैंच पर बैठकर गुफ्तगू करते। दोनों को टैगोर पार्क क्लब की सदस्यता का आमंत्रण दिया गया पर दोनों ने मना कर दिया। दोनों को दीन-दुनिया की कोई परवाह नहीं। कई बार दोनों खिलखिलाकर हँसते हुए नजर आते, कई बार हँसते-हँसते श्रीमती मेहता उनसे हाथ मिला लेती। एक बार तो देवड़ाजी ने पार्क से जाते हुए श्रीमती मेहता को कंधे तक पास खींच लिया। इतना होने पर भी श्रीमती मेहता के चेहरे पर संकोच के किंचित् चिन्ह नहीं उभरे वरन् उन्होंने ऐडियों से ऊँची होकर देवड़ा साहब के कान में जाने क्या कहा कि देवड़ा साहब की बांछें खिल गई। कितने लोगों ने इस अभिराम दृश्य को विस्फारित आँखों से देखा था।

उस दिन “टैगोर पार्क क्लब” को चर्चा का विषय मिल गया। ऐसी रसभरी चर्चा का सुअवसर कब-कब मिलता है। सभी मन का गुबार निकालने लगे। इस दृश्य के चश्मदीद गवाह दो वृद्धों में से एक ने चर्चा का शुभारंभ किया।

“मैं तो कहता हूँ घोर कलियुग आ गया है। अगर बूढे़ रासलीला करने लग गए तो युवा बच्चों को किस मुँह से सीख देंगे। देवड़ा को भी बुढ़ापे में जाने क्या सूझी है।” कहते-कहते उसने अपने साथी वृद्ध की ओर इस तरह देखा कि कुछ तू भी तो उगल।

‘‘तुम ठीक कहते हो यार! लोक-मान्यताएं एवं सामाजिक मर्यादाओं की अब किसको परवाह है। जिस उम्र में मनुष्य को थम जाना चाहिए उस उम्र में भी लोग अंगड़ाई लेने लगे हैं। जवानी में क्या दोनों सो रहे थे?’’ दूसरे वृद्ध ने सुर मैं सुर मिलाया।

दोनों वृद्ध विधुर थे। अक्सर अकेले डोलते। अगर उन्हीं का हम उम्र विधुर रंगरेलियाँ मनायेगा तो उनके मन में साम्यवाद के अंकुर नहीं फूटेंगे? जिस सुख से हम वंचित है, उस सुख को दूसरे को भोगते हुए देखेंगे तो तन-मन में आग लगेगी ही। साहस का इतना पूंजीवाद क्या उचित है?

वृद्धों के पास दो युवक-युवती भी खड़े थे। दोनों अभी-अभी बेडमिंटन खेलकर आए थे। ऐसी मीठी बातों के चलते दोनों कुछ देर वहीं रुक गए। सोचा, कुछ बातों की चटनी हम भी बाँट ले। अक्सर बूढ़े उपदेश देते रहते हैं, आज मौका है तो क्यों न इनकी भी गत बनाएँ। युवक वृद्धों की बात को ताल देता हुआ बोला, “अंकल, मुझे तो लगता है, कुछ चक्कर है। श्रीमती मेहता जिस तरह देवड़ाजी से बातें करती है वैसे तो कोई पति-पत्नी भी नहीं बतियाते। कल मैं उधर से निकल रहा था तो श्रीमती मेहता देवड़ाजी से कह रही थी,  यू आर सिंपली अे वंडरफुल पर्सन। आप जैसे जवांदिल को कौन बूढ़ा कहेगा !” इसमें से कुछ-कुछ बात सही थी पर युवक ने नमक-मिर्च लगाकर बात का स्वाद और तीखा किया। कहते-कहते उसने पास खड़े अधेड़ की ओर देखा जिसके पेट में विचार मतली की तरह बाहर आने को मचल रहे थे। कोई और न बोल पड़े उसके पहले ही वह बोला, “बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम। छिः! यह भी कोई उम्र है ऐसी बातें करने की। सारे बाल सफेद हो गए, आधा चेहरा झुर्रियों से भर गया। मास्टरनी को रिटायर हुए दो साल से ऊपर हुए पर अब भी मठ में मटकड़े सूझ रहे हैं।’’ बात उगलते ही, अधेड़ का चेहरा एक अबूझ तृप्ति से भर गया।

पास खड़ी युवती से भी अब रहा न गया। नारी स्वाभिमान ने उसे गहरे से ललकारा। उसने भी चटनी में नींबू निचोड़ते हुए कहा, ‘‘मि. देवड़ा कम हैं क्या? एक दिन दोनों झील के किनारे बैठे थे। उनकी बैंच के कुछ दूर पीछे खड़ी मैं सूर्यास्त का नजारा ले रही थी। मि. देवड़ा न जाने क्या कहते-कहते श्रीमती मेहता से सट कर बैठ गए। मैंने अपने कान तेज किए, कह रहे थे,”मिसेज मेहता, आप नौकरी से रिटायर हुई है काम से नहीं। आज भी आप चुस्त-दुरुस्त हैं। हँसती हैं तो लगता है सुबह की धूप खिली है। कपोलों में आज भी संध्या की लाली है। आज भी आपके कानों के बुंदें युवतियों की तरह मनमोहक लगते हैं। आज भी आप कितने सलीके से साड़ी पहनती हैं। आपका ड्रेस सेंस काबिले तारीफ है। तिस पर आपकी कुशाग्र बुद्धि सोने पर सुहागा है। यह आप ही का खिंचाव है कि नित्य शाम यहाँ समय पर आ जाता हूँ।” बात पूरी करते-करते लड़की ने सबकी ओर ऐसे देखा मानो पूछ रही हो, लड़के से अधिक रोचक बात मैंने कही कि नहीं।

“कभी-कभी बासी कढ़ी में भी उबाल आ जाता है, भाई ! जो जवानी में नहीं उबलते वे बुढ़ापे में ज्यादा ही उबलते हैं। इंसान की दबी कुण्ठा रेचन तो करती ही है।” पहले वाले वृद्ध ने पुनः चटखारे लेते हुए कहा।

“अरे काहे का उबाल यार! पुराने पेटीकोट में नया रेशमी नाड़ा सुहाता है क्या? अवस्था सम्मत व्यवहार ही इंसान को सम्मान देता है।” दूसरा वृद्ध चिढ़ते हुए बोला।

कुछ समय पूर्व ही एक वृद्धा भी वाॅक पूरी कर वहाँ आकर खड़ी हो गई थी। रसभरी बातों में उसने भी तड़का लगाया। हाँ, युवती की तरह स्त्री स्वाभिमान की उसने भी पूरी रक्षा की। दोनों वृद्धों की ओर आँखें तरेर कर बोली, “बंदर बूढ़ा हो जाए पर छलांग लगाना नहीं छोड़ता। आदमी की जात बंदर से ही तो निकली है। हर उम्र में वह बंदर होता है। बस, फरक इतना ही पड़ता है कि बूढा बंदर कम उछलता है। बिचारी विधवा ने दो बातें क्या कर ली, बाकी सब सुलगने लग गए। साफ क्यों नहीं कहते हमें घास क्यों नहीं डाली।”

बुढ़िया की बात में दम था। दोनों बूढ़ों ने जीभ आगे कर अपनी बत्तीसी ठीक की।

अब तक सूर्य सांझ को अपने शयनकक्ष में लेकर अंधेरे दरवाजा को बंद करने लगा था। पक्षियों का कलरव भी थम चुका था।

देवड़ा साहब एवं श्रीमती मेहता भी पार्क के बाहर आ चुके थे।

भाग (2)

झील के किनारे सरकारी बैंच पर बैठे मि. देवड़ा एवं श्रीमती मेहता बतिया रहे थे। आसमान पर उड़ते सफेद बादलों की परछाई मन-भावन लग रही थी। सूर्य के अस्ताचल की ओर जाने से बादलों के सफेद रंग में अब हल्की लालिमा घुलने लगी थी। बादलों के बदलते रंगों की तरह दोनों की चर्चाएँ भी बहुरंगी होतीं। कभी बादलों के श्वेत रंग के अनुरूप वैराग्य एवं भक्ति की बातें करते तो कभी गुलाबी रंग के अनुरूप यौवन के गुलाबी क्षणों को याद करते। लाल वारिदों के अनुरूप वेे उन क्षणों को याद करते जब वे आग-बबूला हुए थे। पीले बादल उन्हें जीवन के वासंती दिनों की याद दिलाते। काले मेघ उन्हें उन दिनों की याद दिलाते जब उन्हें कठोर संघर्ष से गुजरना पड़ा। हरा रंग उन स्मृतियों को ताजा कर देता जब कलह के बाद विवेक उनकी भावनाओं पर लगाम लगाता। तब पुनः वे ऐसे मिलते मानो कुछ हुआ ही न हो। चटकीले रंग उनके वैभव एवं ऐश्वर्य के दिन थे। कभी-कभी मिश्रित रंग के बादलों की तरह सुख-दुख दोनों ने उनके जीवन आँगन में साथ- साथ आँख-मिचौली की। दोनों बातें करते हुए इतने खो जाते कि कई बार आसपास का भान भी नहीं रहता। कई बार स्मृतियों के अतीत में झाँकते हुए दोनों की आँखें गीली हो जाती, अनेक बार वे हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते तो कई बार मन का मवाद झर-झर आँसुओं में बह जाता।

दोनों की मित्रता उनके जीवन-जहाज को अनायास प्राप्त अनुकूल वायु के समान थी। अब तक दोनों एक दूसरे के नेत्रों के अतिथि थे। 

बहुत देर बतियाने के बाद दोनों अब डूबते हुए सूर्य को देख रहे थे। सितम्बर का महीना था। इस बार अच्छी बारिश होने से झील पूरी भरी थी। डूबते हुए सूर्य की झील में पड़ती परछाई से ऐसा लग रहा था मानो अपने एकाकीपन को मिटाने के लिए सूर्य ने एक नया साथी खोज लिया हो। 

बाहर आते-आते आज कुछ ज्यादा ही देरी हो गई।

मि. देवड़ा कद काठी में आज भी अच्छे लगते थे। सर पर सफेद बाल, विशाल ललाट, चौड़ा वक्षःस्थल एवं मुख पर बसे तेज से वे विद्वान नजर आते। आँखों पर लगा प्लास्टिक का गोल चश्मा उनके व्यक्तित्व को और निखारता। रिटायरमेन्ट के पूर्व सरकारी काॅलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। एक लड़का जिसकी पाँच वर्ष पूर्व शादी हुई थी, अब यू.एस.ए. में सेटल हो गया था। मियाँ-बीवी दोनों डाॅक्टर थे। बेटी इंग्लैण्ड अपने पति के साथ गत तीन साल से रह रही थी। गत वर्ष पत्नी का निधन हुआ तो देवड़ा साहब अकेले रह गए। विदेश में बसना न तो उन्हें अच्छा लगता था, न माँ की मृत्यु पर आए बच्चों ने उन्हें साथ चलने को कहा। इन दिनों निपट अकेले थे। पार्क से आधे किलोमीटर पर ही उनका घर था।

मिसेज मेहता के पति को गुजरे सात वर्ष से ऊपर हुए। पाँच वर्ष पूर्व ही इकलौती बेटी का विवाह किया था। दामाद एक मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्य करते थे। विवाह के दो वर्ष बाद उन्हें आस्ट्रेलिया जाना पड़ा, उसके बाद बेटी-दामाद आस्ट्रेलिया में ही सेटल हो गए। साल में एकाध बार बेटी-दामाद आते, चार-पाँच दिन रुकते एवं चले जाते। अक्सर फोन पर ही माँ-बेटी की वार्ता होती। पिछली बार आये तो बेटी की इच्छा थी कि माँ भी आस्ट्रेलिया चले, पर दामाद ने एक बार भी आग्रह नहीं किया तो श्रीमती मेहता ने जाना मुनासिब नहीं समझा। लड़का चतुर था- धन अगर बिना सेवा किए ही मिल जाने वाला हो तो सेवा का कष्ट क्यों करें।

मि. देवड़ा एवं मिसेज मेहता दोनों का परिचय पार्क में ही आते-जाते हुआ। एक दिन घर जाते हुए श्रीमती मेहता फिसलकर गिरी तो उनका टखना मुड़ गया। संयोग से देवड़ा साहब वहीं खड़े थे। उस दिन वे श्रीमती मेहता को अपनी कार में बिठाकर अस्पताल ले गए, तभी से दोनों के बीच दोस्ती परवान चढ़ी थी। मिसेज मेहता के लिए तो यह मित्रता ऐसी थी मानो बेल मजबूत शाख का सहारा पा गई हो।

दोनों फिर पार्क में सरकारी बैंच पर बैठे थे। आसमान में श्वेत बादलों के इर्द-गिर्द कुछ काले एवं भूरे बादल भी तैर रहे थे। मि. देवड़ा आज कुछ उदास, गंभीर एवं क्षोभ से भरे नजर आ रहे थे। कमोबेश मिसेज मेहता भी अन्यमनस्क थी। दोनों बहुत देर चुप बैठे रहे फिर देवड़ाजी ने बात छेड़ी। अतीत की खिड़की खोलकर यौवन के आँगन में झाँकते हुए बोले, “मिसेज मेहता! यह जीवन भी कितना रहस्यमय है। एक समय मिसेज देवड़ा एवं बच्चों के साथ मुझे फुरसत नहीं मिलती थी। कभी यह काम, कभी वह काम। कभी यहाँ घूमते, कभी वहाँ। सारा जीवन हमने मेहनत कर बच्चों को पढ़ाया और जब सहारे की जरूरत पड़ी तो बच्चे कहीं और बस गए। कई बार तो घर में पड़े आशंका हो जाती है कि कभी मर गए तो कौन सुध लेगा। जब भी बीमार पड़ते हैं तो अकेले ही भुगतते हैं। कोई दवाई तक लाने वाला नहीं। घर प्रेतों का निवास लगता है। मिसेज देवड़ा थी तब तक रिश्तेदार, मित्र भी रिस्पांड करते थे। अब अकेले जाते हैं तो उनकी आँखों में खटकते हैं। मन के मैले एवं मुँह के मीठे रिश्तेदारों के यहाँ जाकर भी क्या करें। समय फिर जाने पर सभी शत्रुवत् हो जाते हैं। स्वार्थ की रस्सी से बँधे इन नातों को कैसे निभायें? आज सुबह कमर में दर्द होने से अन्यमनस्क था, सोचा लड़के को फोन करूँ, मन का दर्द बाँटने से सुकून मिलेगा पर आज न जाने क्यों, वह भी चिढ़ा हुआ था। मैंने कमर दर्द की बात की तो खीझकर बोला, ‘पापा! अब मैं यहाँ बैठे तो आपका दर्द ठीक नहीं कर सकता। आपकी मक्खी आपको ही उड़ानी पड़ेगी, थोड़ा सेल्फ सफिसियेन्ट होने की कोशिश करें, अगर अकेले नहीं रह सकते तो कोई वृद्धाश्रम ज्वाइन कर लें।’ मुझे काटो तो खून नहीं। भैंस के आगे बीन बजाई और गोबर का इनाम मिला। अब तुम्हीं बताओ मिसेज मेहता! वृद्धाश्रम जाकर रहूँ तो अन्य रिश्तेदार एवं मित्र क्या सोचेंगे ! लोग जीने ही नहीं देते। खुद कुछ करेंगे नहीं और हम अगर कोई रास्ता निकालें तो वे आलोचना करने से बाज नहीं आते। यहाँ तक कि मैं तुम्हारे साथ थोड़ी देर क्या बैठ जाता हूँ लोग ऊलजूलूल बकने लगते हैं। दुनिया की जीभ कौन पकड़े? कल ही मुझे किसी ने बताया कि टैगोर पार्क क्लब के लोग हमारे बारे में गलत बातें करते हैं। अब इस उम्र में तुम्हें फ्लर्ट करूंगा? क्या मनुष्य की मात्र यौनिक आवश्यकताएं होती हैं? आखिर हम कहाँ जायें? सरकार की तरफ से कोई सुरक्षा नहीं, परिवार-रिश्तेदारों का सहारा नहीं और खुद सहारा एवं सुकून ढूंढ़ें तो समाज अंगुलियाँ उठाता है।” कहते-कहते उनका गला रुंध आया।

मिसेज मेहता ने मनःस्थिति भाँपते हुए उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “ठीक कहते हैं देवड़ाजी! कई बार तो लगता है हम सामाजिक भय से हमारा सारा जीवन दुखमय बना लेते हैं। कोई पुरुष मित्र बनाओ तो समाज को अच्छा नहीं लगता एवं अकेले जीवन में एक गहरा सूनापन कचोटता है। लोग क्या सोचेंगे, यह सोच-सोच कर हम हमारा जीवन शोचनीय बना लेते हैं।” कहते-कहते मिसेज मेहता की आँखें भी आज गीली हो गई।

मि. देवड़ा अब एक गहरे शून्य में ताकने लगे थे। उनकी आँखों में आज वर्षों का अनुभव एवं गांभीर्य उभर आया था। उन्हें यौवन के वो रसभरे दिन याद आ गए जब मिसेज देवड़ा को प्रणय प्रस्ताव भेजने में उन्हें दो वर्ष लगे थे। तब मिसेज देवड़ा ने खिलखिलाकर कहा था, “अरे बुद्धू! दो साल यूँ ही व्यर्थ कर दिए।” क्या आज वो इंतजार कर सकते थे? ऐसा सोचते ही उनका संकोच क्षणभर में काफूर हो गया। मिसेज मेहता का मन टटोलते हुए बोले, “कई बार तो लगता है बुढ़ापे में विवाह क्यों नहीं हो सकता। इंसान आखिर अकेले कब तक जीएगा। न जाने हम कितना जी जाएं। आजकल औसत उम्र पचहत्तर से अस्सी वर्ष हो गई है। अमेरिका एवं यूरोप में हर उम्र में कपल कल्चर है। वहाँ हर उम्र के मेट्रीमोनियल्स आते हैं। हम क्यों एक ही लकीर पर जीने के आदी हो गए हैं? हम नया रास्ता क्यों नहीं खोज सकते? जो समाज हमारी परवाह नहीं करता, उसकी दमघोंटू रूढ़ियों एवं संस्कारों की हम क्यूँ परवाह करें ? क्या दुःखाग्नि में जीवन की आहुति देना ही संस्कारवान होना है? साहस तो हमें ही जुटाना होगा। हमारे पास सब कुछ है तो हम दुःखी क्यों? हमारे सामने दो ही विकल्प है, साहस का कल्पवृक्ष अथवा कायरता का बबूल। विकल्प तो हमें ही चुनना होगा।’’ कहते-कहते देवड़ाजी की आँखें लाल हो गई।

“आप ठीक कहते है देवड़ाजी! हमारे सोच की नपुंसकता एवं रूढ़ियों के खाली ढोल को बजाते-बजाते एक दिन जीवन ही व्यतीत हो जाएगा। न बच्चों से मदद, न समाज से सहारा। ऐसे में क्यों न हम निर्णय लेने का साहस जुटाएं?” कहते-कहते मिसेज मेहता के गंभीर चेहरे पर एक विशिष्ट गुलाबी रंग उभर आया। 

मि. देवड़ा इस रंग का अर्थ समझ गए। 

उन्होंने पहल कर मिसेज मेहता के कंधे पर हाथ रखा। 

सामने डूबता हुआ सूर्य संध्या के कपोलों को लाली दे रहा था, वही लाली जिसे चेहरे पर मलकर भोर नई अंगड़ाई लेकर आती है।

भाग (3)

टैगोर पार्क क्लब’ में दोनों विधुर वृद्ध आकर बैठे ही थे कि पार्क के चौकीदार ने भीतर आकर उनमें से एक के हाथ में बंद लिफाफा दिया। लिफाफा खोलकर उसने पत्र पढ़ा एवं साथी वृद्ध को दे दिया। उसने पत्र पढ़कर पुनः पहले वृद्ध को थमाया। दोनों के चेहरों की दशा ऐसी थी जैसे सूर्यास्त के समय मुरझाये फूलों की होती है। बहुत देर तक दोनो एक गंभीर मौन में डूबे रहे, अंततः पहले वृद्ध ने मौन तोड़ा। उसके  आंतरिक  भाव  चेहरे पर उभर आए, अपने साथी के कंधे पर हाथ रखकर बोला, “देवड़ा एवं मिसेज मेहता ने तो विवाह करने का निर्णय ले लिया। काश, हम भी ऐसा कर पाते !”

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29.08.2006

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