मेरे घर के ठीक सामने गोल बगीचे के आगे लगे गुलमोहर के फूल एवं पत्ते अब गिरने लगे हैं। लगता है पतझड़ इसे नंगा करके मानेगा। अभी कुछ माह पूर्व यह दूल्हे की तरह सजा था, नीचे होकर जो भी गुजरता, उसके कदमों तले फूल बिछाता, ताजे सुर्ख फूल, मानो हर आने वाले को रेड कार्पेट ऑनर दे रहा हो। यही पेड़ अब ऐसे खड़ा है मानो नानी मर गई हो।
इस गुलमोहर के दिन तो फिर एक-दो माह में बदल जाएंगे पर मुझे कतई उम्मीद नहीं है कि अंजना बदल जाएगी? इतने वर्ष हो गए, जस की तस है, वही ढाक के तीन पात। अरे यार ! कोई कब तक भुगते ? ऋतु बदलने की अवधि की तरह मनुष्य के संताप का समय भी तय होना चाहिए, ऐसा थोड़े है कि भुगतते जाओ, भुगतते जाओ। ये सफेद दाढ़ीधारी ब्रह्मा भी टेढ़ी खीर है, जड़ पेड़-पौधों का दुःख तो मास-दो मास में दूर कर देते हैं, चेतन मनुष्य का दुःख रबड़ की तरह यूँ खींचते हैं मानो रचयिता न होकर रबड़ची हों। चार मुंह, आठ आंखें लेकर और बैठ गए, जो जिधर दिखे उसे खींचो। कोई दिशा नहीं छोड़ी। यकायक मुझे कुछ वर्ष पूर्व पुष्कर में देखी उनकी मूर्ति का स्मरण हो आया है। मैंने दर्शन किए तब तो अत्यंत सौम्य थे , आज ऐसे मुस्कुरा रहे हैं मानो कह रहे हो तू ही तो आया था लुगाई मांगने। अब प्रभु तीस बरस तक ब्याह न हो तो अच्छे-अच्छे माथा टेक देते हैं।
मेरी एवं अंजना की शादी को अब दस वर्ष हो चुके हैं। अभी कुछ माह पूर्व ही हमने दसवीं वेडिंग एनिवर्सरी मनाई थी। जगत के सामने तो हम मुस्कुरा कर ऐसे पोज दे रहे थे जैसे हम-सा ‘मेड फ़ॉर इच अदर’ जोड़ा अन्य न हो पर मैं जानता हूँ , जानता क्या भुगत रहा हूँ कि वह आई तब से कितनी शक्की है। इतनी नज़र तो मेरे बैंक का चौकीदार तिजोरी तक पर नहीं रखता। माना तिजोरी की हिफाज़त उसी का काम है पर वह भी सांस लेता है लेकिन अंजना तो मेरी हर गतिविधि यहाँ तक कि मेरे बैंक जाने से लौटने तक पर निगाह रखती है। अरे यार अब तो बख्शो, अब तो दो बच्चे हो गए हैं। बड़ी अभिज्ञा आठ वर्ष की है, उसके दो वर्ष बाद अभिजीत हुआ। दोनों पूरे माँ पर गए हैं, कहते कुछ नहीं पर उनकी आंखें बताती हैं जैसे कह रहे हो माँ को तंग मत करो वरना बड़े होकर पेल देंगे। पिल्लों ! उसी की गोद में पड़े रहो। पापा तो सिर्फ गाड़ी में घुमाने, चॉकलेट दिलाने, आइसक्रीम खिलाने के लिए हैं। आइसक्रीम शब्द मुंह से निकलते ही दल बदल लेते हैं। तब दौड़कर मेरे पास खड़े हो जाते हैं , मैं कुछ कहूँ न कहूँ , फुर्र से उड़कर गाड़ी में ऐसे बैठते हैं कि कहीं मन न बदल लूं। कुल मिलाकर अंजना और उसकी बालसेना मेरे आंख की किरकिरी बन गई है। इन टाबरों को तो फिर मैं यदा-कदा आंख दिखाकर वश में कर लेता हूँ , अंजना दाव ही नहीं देती।
उसका शक करना कोई आजकल की बात नहीं है , शादी हुई तब से वह इस रोग से ग्रस्त है। अब तो यह समस्या गहरा गई है। कोई एक बात हो तो बताऊँ, यहाँ तो बातों का अंबार लगा है।
मेरा विवाह हुए तीन वर्ष हुए होंगे , तब मेरी सेक्रेटरी रीटा थी। वह सुंदर , सुशील तो थीं ही, कार्य भी बहुत अच्छा करती थी। कपड़े पहनने का सलीका काबिले तारीफ था। गोरे रंग पर अतिक्रमण करता सांवला रंग, पतले होंठ जिस पर वह अक्सर हल्की गुलाबी लिपस्टिक लगाती, तीखे नक्श एवं औसत से ऊपर कद उसके रूप को निखारते। सच कहूं तो उसे मेरे साथ देख स्टाफ वाले जलते थे, दोनों साथ खड़े ऐसे लगते जैसे फ़िल्म के हीरो हीरोइन हों।
एक शाम बैंक से निकलते हुए रीटा की आंखों में आंसू देख मैं हैरान रह गया। उस दिन कार्य सामान्य दिनों से अधिक था , उसे एक घण्टे अधिक बैठना पड़ा। सारा स्टाफ जा चुका था, आज बैंक भी मुझे ही बंद करनी थी। स्थिति देख मैंने कहा, ‘‘सॉरी रीटा ! आज जरा देरी हो गई।’’
‘‘अरे नहीं सर! ऐसी कोई बात नहीं है। इस तरह बैठना हमारे कार्य का हिस्सा है।’’ रूमाल की कोर से आंखें पोंछते हुए उसने उत्तर दिया।
‘‘फिर क्या बात है? निश्चय ही कुछ तो है।’’ मेरा जिज्ञासु मन सही बात जानने को आतुर था।
‘‘सर! मेरे पिता को कैंसर है। आज लौटते हुए मुझे उनकी रिपोर्ट्स बतानी थी। जाने क्यों उनका दर्द ज़हन में आ गया।’’ आप अपने हैं अतः दर्द आंखों में तैर गया। उस दिन मैं भीतर तक पिघल गया, मेरे भीतर एक अनचाहा दरिया उमड़ पड़ा। मैंने वहीं खड़े उसे छाती से लगाया एवं आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘आप समझदार हैं। धैर्य रखें, ईश्वर सब ठीक करेगा।’’
घर आकर कपड़े बदले तो कुछ देर बाद श्रीमतीजी उतारा हुआ सफेद शर्ट लेकर आई एवं उस पर लगा लिपस्टिक का हल्का दाग दिखाते हुए कहा, ‘‘जरा ध्यान रखा करें, ये दाग मुश्किल से छूटते हैं।’’
मैं सकपका गया, कुछ कहता उसके पूर्व ही उसने एक लंबा काला बाल आगे कर दिया एवं सीधे बोल पड़ी, ‘‘किस माशूका को बाहों में भरकर आ रहे हो।’’ उसकी आँखों से चिंगारियां बरस रही थीं। उसकी बात आधी सच थी, रीटा को मैंने बाहों में लिया था। मैं उसके शक्की स्वभाव से परिचित था। सच बताता तो वह चीर देती।
‘‘हरगिज नहीं ! वह तो आज किसी औरत का लॉकर खुलवाते हुए वह कदम चूक गई एवं मुझ पर गिर पड़ी। मैंने उसे संभाला।मुझे क्या पता था वह ये निशानियां दे जाएगी। ये तो होम करते हुए हाथ जल गए।’’ मैं साफ मुकर गया। रीटा ने सुना एवं चुप रसोई में चली गई। उस रात वह मुझसे कुछ नहीं बोली। उसकी आँखों में मेरे प्रति मूक तिरस्कार उतर आया था। मैं भी चुप रहा, मुझे लगा एक बताने से दस पूछेगी। यही सोच लेकिन मुझ पर भारी पड़ गया।
उसी दिन से शक का कीड़ा उसके भीतर तैर गया। वह मुझ पर निगाह रखने लगी। कब उसका कॉल आता है, मैं कितनी देर बात करता हूँ आदि-आदि। उसका सीधा शक रीटा पर था।
मैं ताड़ गया। अब जब भी रीटा का कॉल आता, मैं मोबाइल बंद कर देता। थोड़ी देर बाद अंजना को व्यस्त देख दरवाजे के बाहर सड़क पर आता अथवा बगीचे में जाता एवं वहीं बात करता। बात पूरी कर तुरंत नम्बर डिलीट कर देता। अब आवश्यक निर्देश व्हाट्सअप पर अथवा ईमेल पर देता एवं यथासंभव इन्हें भी हटा देता। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी। मैंने बचपन में एक लोकोक्ति सुनी थी, शंका डायन मनसा भूत अर्थात् भूत डायन सभी मन से उपजते हैं , इन्हें जड़ से मिटाना ही उचित है। बड़े बुजुर्ग ठीक कह गए हैं वहम् का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं था।
मेरा दुर्भाग्य! इन सभी बातों ने अंजना का शक और पुख्ता कर दिया। वह जब-तब मेरा मोबाइल देखने लगी। वह भी एमएससी कंप्यूटर साइंस थी , इन सभी तकनीकियों से खबरदार थी।
रीटा को लेकर घर में एक लंबे समय तक क्लेश रहा। एक बार मैंने उसे डांटते हुए जब कहा कि उसका दिमाग खराब है तो वह फट पड़ी, ‘‘मुझे समझ नहीं आता आप रीटा को कॉल कर डिलीट क्यों करते हो? आखिर आपके मन में क्या पक रहा है ? आपके अन्य व्हाट्सअप महीनों रखे रहते हैं , रीटा के मैसेज आप तुरत हटा देते हैं, क्यों ? रात घण्टों चैट करते हो, वह भी तत्क्षण नदारद कर देते हो।’’ उसका चेहरा तमतमा रहा था।
‘‘तुम खामख्वाह बात का बतंगड़ बना रही हो। मेरे रीटा के मध्य महज ऑफिशियल रिश्ता है। वह अच्छी वर्कर है तो उससे समय-समय पर राय मिला लेता हूँ। ऐसे में स्नेह लाज़मी है। वह मुझसे दस वर्ष छोटी है, मैं ऐसा क्यों सोचूंगा ?’’ मैंने प्रतिरोध किया।
‘‘मर्दों को फंसाने के लिए ऐसी चिरकुंवारियां ही तो चाहिए। खूब जानती हूँ आपको। पूरे रसिया हो। वह अच्छी कार्यकर्ता इसलिए नहीं है कि वह अच्छा कार्य करती है, वह अच्छी इसलिए है कि वह एक सुंदर लड़की है। पिछले माह पिकनिक गए तब कैसे उससे चिपक कर चल रहे थे। स्टाफ तो चटकारे ले रहा था। मैं अच्छी तरह जान गई हूं तुम झूठ गढ़ने में पारंगत हो।’’ वह एक सांस में सब कुछ कह गई।
‘‘यार ! राई का पहाड़ मत बनाओ। इतना शक लाज़मी नहीं है।’’इस बार मैं ठंडा होकर बोला। मैंने सुना था ठंडा लोहा गरम लोहे को काटता है।
‘‘बिगुल तुमने बजाया है मैंने नहीं।’’ वह रुकने वाली नहीं थी।
‘‘तुम्हें पता नहीं है शक करने वाले दम्पतियों के घर तबाह हो जाते हैं। यह रोग कैंसर के रोग से भी असाध्य है। अभी बच्चा छोटा है, आगे इस तरह की बातें होंगी तो वह भी प्रभावित होगा। अभी दस रोज पूर्व ही मैंने एक रिसर्च पढ़ी थी कि शक करने वाले दम्पतियों के बच्चे अविवाहित रहना पसंद करते हैं। ऐसे दम्पति भी यौनिक उदासीनता का शिकार बन जाते हैं।’’ इस बार सुनते हुए उसने अभिज्ञा की तरफ देखा एवं चुप हो गई हालांकि यह स्पष्ट था कि शक का तीखा कांटा उसके हृदय में धंस गया है।
संयोग से इस वार्ता के एक माह बाद रीटा का स्थानांतरण इसी शहर की अन्य शाखा में हो गया। मुझे उसका जाना बहुत अखरा पर मैं भीतर ही भीतर खुश था, चलो समस्या मिटी। इत्तेफ़ाक़न हमारी समस्या का समाधान हो गया हालांकि रीटा मेरे घर की बातों से बेखबर थी। उस दिन घर आकर अंजना को यह खबर दी तो वह बोली तो कुछ नहीं पर लग रहा था भीतर बांछे खिल गई है।
इस घटना के दो वर्ष बाद अभिजीत हुआ तो पूरा माहौल बदल गया। उसके आने की खुशी में हम पुराने सभी दर्द भूल गए। दूध का जला छाछ को फूंक-फूंक कर पीने वाले की तरह मैं भी अंजना का पूरा ध्यान रखता, उसके दैनन्दिनी कार्यों में हाथ बंटाता, जब-तब उसके पसंद की डिशेज बाजार से लाता, कारण-अकारण प्रशंसा करता। इसी सहयोग के चलते गाड़ी पुनः पटरी पर आने लगी, हमारा पुराना प्रेम रंगत दिखाने लगा।
बूढ़े ब्रह्मा को लेकिन यह असह्य था। इस शाखा में आए अब मुझे पांच वर्ष बीत चुके थे। आज बैंक आकर कुर्सी पर बैठा, डाक खोली तो इसमें मेरा स्थानांतरण आदेश था। मेरा तबादला रीटा की शाखा में मुख्य प्रबंधक पद पर हुआ था। रीटा अब सहायक प्रबंधक थी। ये ऐसे दो पद थे कि घड़ी-घड़ी अनेक मुद्दों पर बात करनी होती। कई बार निरीक्षण आदि पर साथ बाहर भी जाना होता।
अंजना को पता था कि मैं उस शाखा में आ गया हूँ जहां रीटा है पर इस बार मैंने पहले ही यह कहकर पालबन्दी कर ली कि अब रीटा से मेरे कार्य का कोई सम्बन्ध नहीं है, उसके सीधे बॉस अब एक अन्य प्रबंधक सतीश चौपड़ा हैं एवं वह उन्हीं को रिपोर्ट करती है। मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं है। मुझे लगा मुश्किल से अच्छे दिन आए हैं , झूठ बोलो बला काटो।
एक शाम बैंक से घर लौटा, अंजना को टिफ़िन बॉक्स दिया एवं आरामकुर्सी पर बैठा ही था कि अंजना रसोई से आकर बोली ,‘‘आज लंच नहीं लिया क्या ?’’
‘‘आज दोपहर किसी फर्म के निरीक्षण पर था, वे हमारे पुराने ग्राहक हैं, उन्होंने जोर दिया तो मैंने लंच वहीं कर लिया। टिफिन इसीलिए पड़ा रहा गया।’’ उत्तर देते हुए स्वर मंद पड़ गया।
‘‘अकेले थे अथवा कोई और भी साथ था ? ‘‘वह ऐसे देख रही थी जैसे सिपाही थाने पर आए चोर की ओर देखता है।’’
‘‘अकेले ही था बाबा ! यह कैसे अनर्गल प्रश्न पूछ रही हो ?’’ रीता साथ थी यह भेद बता देता तो वह आसमान न उठा लेती। उत्तर देते हुए मैंने पेट की दाढ़ी जरा नहीं हिलने दी।
‘‘कौन पार्टी थी ?’’ उसने एक और प्रश्न ऐसे दागा जैसे बंदूकची बंदूक दागता है।
‘‘एबीसी एंटरप्राइज वाले तापड़ियाजी। उन्होंने अच्छी आवभगत की। मिसेज तापड़िया ने क्या खूब खाना बनाया। मलाई कोफ्ता कोई उनसे बनाना सीखे।’’ मुझे लगा मैं अधिक बोल रहा हूँ पर उत्तर तो देना ही था।
वह आश्वस्त हुई अथवा नहीं मुझे नहीं पता पर इसके पश्चात् मैं और अधिक सावधान हो गया। हद तो तब हुई जब एक बार दुःखी माँ को देखकर दोनों बच्चों ने मेरी और ऐसे देखा मानो कह रहे हों, ‘‘चोट्टे पापा।’’ मैं अकारण झुंझला गया।
मैं निश्छल, निष्कपट, निष्पाप था लेकिन मेरे पास अन्य कोई इलाज न था। झूठ की बांबी में हाथ भी तो मैंने ही डाला था। मेरी अंतर-इच्छा यही थी कि अंजना येन-केन-प्रकारेण खुश रहे। उसके आश्वस्त होने से घर में शांति रहेगी। सुखी पत्नी गृहस्थ सुख का मूल है। वह बिगड़ी तो परिवार ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा।
अनेक बार मैं सोचता अंजना इतना शक क्यों करती है जबकि वह रीटा से अधिक सुंदर है। सच कहूँ तो मैं उसकी सूरत-सीरत दोनों पर मुग्ध था। तब मेरा मन यही कहता वह मुझे प्रेम करती है, मुझको लेकर पजेसिव है, संभवतः इसीलिए ऐसा हो।
फरवरी के दिन थे। इस बार पतझड़ कुछ लंबा हो गया। सामने खड़ा गुलमोहर जो बरसात में रंगत बिखेर रहा था, अब विरक्त संत की तरह ठूंठ लग रहा था। यही हाल बगीचे के भीतर लगे पीपल, नीम, अमरूद, जामुन, आम आदि अन्य पेड़ों का था। इनकी दुर्दशा देखकर मुझे कोफ्त होती, यह पतझड़ आता ही क्यों है ? क्या ब्रह्माजी को किसी का खिलना, प्रसन्न होना सुहाता नहीं ? ब्रह्माजी फिर मेरी आँखों के आगे आए, ‘‘मैंने उन्हें कहा माना आप विधाता हैं पर यह कैसा न्याय है ?’’ इस बार वे होंठ काटकर मुस्कुराए। क्या उनके मंसूबे कुछ और थे ? सोचते हुए मेरी खोपड़ी तप गई। मैंने चादर खींची और सो गया।
होनी होकर रहती है। आज शाम बैंक से लौटे दो घण्टे बीते होंगे कि दरवाजे पर बेल बजी। मैंने उठकर दरवाजा खोला तो देखकर दंग रह गया। डॉयफ्रूट्स का पैकेट हाथ में लिए दरवाजे पर मि. तापड़िया खड़े थे। उनके साथ उनकी पत्नी भी थी। मैं झेंपा तो मि. तापड़िया बोले , ‘‘भीतर आने का नहीं कहोगे ?’’ इस बार मैं और अधिक झेंपा, स्वयं को संयत करते हुए बोला, ‘‘आइए तापड़िया जी। मेरा सौभाग्य आप हमारे घर पधारे।’’
‘‘मैं एवं शशि इधर से निकल रहे थे तो सोचा आपसे मिलता चलूं। वैसे भी आपकी कार्यशैली, निष्पादन इतना त्वरित है कि मुझे लगा आपके घर आकर आपको धन्यवाद कहूँ।’’ मि. तापड़िया का कार्य मैंने दो दिन पूर्व ही निपटाया था। वे इसीलिए इतना खुश थे।
‘‘अरे ! इसकी क्या जरूरत थी ?’’ मैं डॉयफ्रूट्स के डिब्बे की ओर देखकर बोला।
‘‘यह नज़राना नहीं है हुजूर ! मुझे पता है आप जैसे ईमानदार आदमी अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। यह तो एक मित्र द्वारा मित्र को छोटी-सी भेंट है। मनीष भार्गव साहेब ! उस दिन आप और रीटाजी पधारे तब भाभीजी नहीं थीं। इसकी भरपाई तो करनी ही थी। हम भी तो देखें ऐसे सफल, कर्मठ व्यक्ति के पीछे कौन औरत खड़ी है ?’’ कहते हुए मि. तापड़िया ठहा कर हंस पड़े।
वे कुछ देर बैठे और चले गए।
मुझे मानो सैंकडों बिच्छु एक साथ काट गए। चेहरा डूब गया। तापड़िया झाड़ू मार गया।
मैंने अंजना की ओर देखा। उसकी आँखों से मोटे-मोटे आंसू टपक रहे थे। ओह ब्रह्माजी ! यह क्या किया ? धर्म भी छूटा तुम्बा भी फूटा। सिर पर घड़ों पानी पड़ गया। मैं रंगे हाथों पकड़ा गया।
मैं अंजना से अगले दस दिन तक आंख नहीं मिला पाया। अब शक नहीं वह आश्वस्त थी कि मैं महज झूठा ही नहीं, लुच्चा, लफंगा, लोफर एवं एक नम्बर का अय्याश हूँ। संदेह के स्याह बादलों ने उसके सोच को आवृत कर लिया।
एक शाम बैंक से घर आया तो अंजना की तेज, भरी हुई आवाज सुनकर दरवाजे पर ठिठक गया। अंजना फूट-फूट कर रोते हुए अपने भाई से बात कर रही थी। चिकडोर के पीछे खड़े मैंने कान चौकन्ने किए। वह कह रही थी, ‘‘भय्या ! मेरे तो भाग फूट गए। इतने वर्षों की तपस्या खाक में मिल गई। तेरे जीजा को मैं देवता समझती थी, इतने तीज-त्यौहार किए, करवा चौथ के व्रत किए, पर ये तो धोखेबाज निकले। ऐसी ज़िंदगी से तो मर जाना अच्छा है। मैं मरूंगी तभी इन्हें अक्ल आएगी। ऐसे विश्वासघाती को सबक मिलना ही चाहिए।’’ इसके आगे मैं सुन नहीं पाया, वहीं काठ हो गया।
अब स्थिति गम्भीर थी। दूसरे दिन मैं एक मनोचिकित्सक से मिला। उसने कहा, “आप जो कुछ बता रहे हैं उससे लगता है आपकी पत्नी ‘डिल्यूजनल डिसऑर्डर्स’ अर्थात् भ्रांति के रोग की शिकार है। पजेसिव, अति मोहग्रस्त लोग बहुधा इसके शिकार बनते हैं। आत्म-विश्वास की कमी इसे और बढ़ाती है। इसी के चलते उसकी असुरक्षा एवं भय दिनोंदिन बढ़ता गया। आपके झूठ बोलकर बचने, डिफेंस लेने के तात्कालिक समाधान ने इस समस्या की आग में घी का काम किया है। आप उससे बात करें, उसे स्पेस दें। यहां-वहां देशाटन पर जाएं, फिल्म देखें, इससे शायद समाधान मिले।’’ डॉक्टर ने बात पूरी की।
मैंने सब कुछ किया। उसे मनाया, उसके गुणों का बखान किया, देशाटन पर गया, कीमती उपहार लाया, पर हर प्रयास समाधान की बजाय उसका शक पुख्ता करता गया।
अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। मैं थक गया। अच्छा खासा स्मार्ट बंदा था, दिन-दिन सूखने लगा। अंजना ने कुछ अप्रत्याशित कर लिया तो ? तब क्या किसी को मुंह दिखा सकूंगा ?
इसी उधेड़बुन में मुझे स्वर्गीय माँ की याद आई जो कहती थीं जब सारे प्रयास निरर्थक हो जाएं तो सच्चे दिल से ईश्वर को पुकारो , अवश्य कोई उपाय निकलेगा।
मैं हनुमानजी का भक्त था, बचपन में माँ के साथ अक्सर चालीसा पढ़ता पर अब तक वह भी भूल चुका था। माँ कहती थी विकट समय में उनसे बड़ा कोई अवलम्ब नहीं है।
आज शाम बैंक से घर लौटा तो मैंने नहा-धोकर पूजा की अलमारी से हनुमान चालीसा निकाली। मैं पूर्ण तन्मयता से पढ़ने लगा। आश्चर्य ! मुझे दूसरी पंक्ति में ही समस्या का समाधान मिल गया..निज मन मुकुर सुधार। ओह ! जितनी सुंदर पंक्ति थी उतना ही सुंदर भावार्थ भी था। पहले हम मन का दर्पण साफ करें, प्रभुकृपा फिर दूर कहां है! वे तो सदैव निर्मल मन में निवास करते हैं। ये बात संसार के हर ग्रन्थ में लिखी है, हम समझते कहां हैं। हमारे संतों, पैग़म्बरों ने हमें ज्ञान के बहुमूल्य नगीने दिए, हम ही इन्हें तराश नहीं सके। हमने तो इन्हें शो केसेज में बंद कर दिया है। हम इन्हें पढ़ते, समझते, अमल करते तो यही नगीने हमारी आत्मा को दीप्त करते।
उस रात मैंने अंजना को गत आठ वर्षों में बोले सारे झूठ उगल दिए। उससे बात करते हुए मैं लगभग रो पड़ा , ‘‘अंजना तुम्हारी इस दुर्दशा, भीतर घुटते धुएं का एकमात्र कारण एवं अपराधी मैं हूँ। तुम्हारे प्रेम, सेवा में ऐसा लसा कि इसे खोना नहीं चाहता था। फकत एक झूठ ने मुझसे सौ झूठ बुलवा लिए। काश! मैं पहला झूठ नहीं बोलता तो इतने झूठ नहीं बोलने पड़ते।’’ मैंने सच्चे दिल से क्षमा मांगते हुए उसे ‘सॉरी’ कहा तो उसने मेरा मुंह अपनी हथेलियों से ढक दिया।
‘‘खबरदार जो आपने मुझे सॉरी कहा। अब ये सुनना ही बचा था। गलती आपकी थी तो मेरी भी थी। मुझे आप पर विश्वास करना चाहिए था। विश्वास दाम्पत्य जीवन का प्राण है एवं इसकी हिफाजत का जिम्मा दोनों पर बराबर है।’’ कहते हुए मेरी दशा देख उसके कपोलों से भी आंसू बह गए।
तालाब से काई हट गई। गद्गद् हम दोनों ने एक-दूसरे को बाहों में भर लिया।
अगली सुबह बैंक जाने के लिए निकला तो मैंने सर उठाकर सामने खड़े गुलमोहर को देखा। इसकी कुछ टहनियों पर सुर्ख, ताजे फूल फिर महकने लगे थे। बसंत एक बार फिर दस्तक दे चुका था।
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01.08.2022