नवभोर

आज पापा के निःधन का चौथा दिन था। बाहर से शोक प्रकट करने आए सभी मित्र-रिश्तेदार अब तक जा चुके थे। पापा का जाना घर पर गाज़ गिरने जैसा था। ईश्वर का शुक्र है गत माह मैं सरकारी नौकरी चढ़ गया अन्यथा घर पर आर्थिक गाज़ भी गिर जाती।

पापा के पास ले-देकर था ही क्या ? यह छोटा-सा दो कमरों का मकान, एक मोपेड एवं बाहर किताबों की एक दुकान जहाँ वे किताबें बेचते कम पढ़ते अधिक थे। माँ बताती है ये शौक उन्हें जवानी से ही था। दुकान पर बिकने वाला शायद ही कोई कथा-कविता संग्रह अथवा उपन्यास हो जिन्हें वे नहीं पढ़ते थे। प्रेमचंद, टैगोर, खलील जिब्रान आदि के तो वे दीवाने थे। अक्सर कहते, ये महान लोग लेखक से कहीं अधिक समाज सुधारक थे। मेरे बचपन से अब तक जो सामाजिक सुधार हुए हैं , उसमें उनका अहम् योगदान था।

हमारी दुकान में धार्मिक पुस्तकें भी खूब बिकतीं एवं मैंने अनेक बार पापा को मानस, गीता, क़ुरान, बाइबल एवं अन्य देवी-देवताओं की कथाएं भी टटोलते हुए देखा था। भूगोल की पुस्तकें वे खास चाव से पढ़ते। ग्लोब घुमाकर जाने क्या देखते रहते। इन्हीं पुस्तकों के अध्ययन ने उन्हें भी एक बड़ा चिंतक बना दिया था। वे सड़क पर मशाल लेकर चलने वाले समाज सुधारक तो नहीं थे , वे ऐसा बनते तो शायद हम बर्बाद हो जाते, पर ऐसे कई छोटे सुधारों का श्रीगणेश उन्होंने जीते-जी कर दिया था, जिन्हें देख कुछ मोहल्ले वाले गुपचुप कहते – बनिया सटक गया है तो कुछ ये भी कहते रामनिवास जाजू जैसे लोग हर मोहल्ले में हो तो देश बदल जाए।

मुझे याद है एक बार बाबा के श्राद्ध पर वे एक हरिजन को न्यौता दे आए।  ढगलाराम नाम का वह हरिजन डरते-डरते हाथ जोड़े हमारे मुख्य दरवाजे पर आया एवं वहीं ठिठक गया। उसे भयभीत देख पापा ने उसके कंधों पर हाथ रखा तत्पश्चात् खुद उसका हाथ पकड़कर भीतर लाए, उसे चौके में बिठाकर बड़े आदर से भोजन करवाया। उस दिन माँ सकते में थी पर पापा के आगे किसकी चलती। ढगला के जाने के बाद माँ ने कहा भी किसी ब्राह्मण को ही ले आते तो पापा ने हंसकर कहा, “निर्मला! आज निश्चय ही मेरे पिता की आत्मा तृप्त हुई होगी। ब्राह्मण को तो सभी बुलाते हैं, एक ब्राह्मण जगह-जगह भोजन कर हाजमा खराब करे उससे अच्छा है एक भूखे को तृप्त करें। खाने वाला भूखा होना चाहिए, जात-धर्म चाहे कोई हो।”

यह एक अप्रत्याशित बदलाव था। इस घटना की खबर आग की तरह फैली। गली-मोहल्लों में खूब चर्चा हुई एवं पापा की तर्ज़ पर अनेक सुधारवादी युवक भी यह कहते हुए आगे आए कि जाजूजी ठीक कहते हैं, महत्वपूर्ण भूख है न कि जात। यह बात अखबारों की सुर्खियां बनीं एवं माँ ने जब अखबार में पापा का नाम देखा तो कहे बिना न रह सकी, “आप सचमुच महान हैं, आपके साथ मैं भी गंगा नहा गई।” उस दिन पापा की छाती फूल गई। वे तब ये कहते हुए दुकान चले गए , “देर आए दुरुस्त आए।” विभिन्न ग्रन्थों के अध्ययन से पापा मानो धर्म का तात्पर्य-अर्थ समझ गए थे।

हमारा परिवार फकत चार लोगों का छोटा-सा परिवार था। मैं पच्चीस पार था , मुझसे छोटी गीता की शादी गत वर्ष ही हुई थी एवं माँ जो पुल की तरह हम सभी का सेतु थी। पापा पर बस चलता नहीं था अतः उनसे जुड़े सभी कार्यों के लिए हम माँ की शरण होते। पापा का मानसिक कद ही नहीं, शारीरिक कद, चेहरा-मोहरा भी ऐसा था कि अनेक बार जब वे आंखें घुमाते सबका खून सूख जाता। अच्छे लंबे थे, तीखे नक्श एवं बोलने का एक विशिष्ट अंदाज उनके रुआब को दूना करता। मुंह पर खिचड़ी दाढ़ी उनके गाम्भीर्य में और इज़ाफ़ा करती। लोग अक्सर कहते मैं उन पर गया हूँ।

पापा की इन्हीं यादों के बीच विचरते मैं  माँ की आवाज़ सुनकर चौंका , “पंडित रमाशंकर आए हैं। अभी आधे घण्टे बाद ठीक पांच बजे गरुड़-पुराण पढ़ी जाएगी।” मैं उठा एवं पण्डित को लेकर भीतर आया। मुझे आश्चर्य था माँ ने ऐसा क्यों किया ? मैं माँ को एकतरफ ले गया तो उसने बताया कि हमें ऐसा करना होगा अन्यथा लोग कहेंगे मैंने तुम्हारे पापा के परलोक की भी सुध नहीं ली। समाज की आंख भी देखनी पड़ती है। पहले मैं मरती तो वे मन चाहे करते, उनका दबदबा था पर मुझे समाज के हिसाब से चलना होगा। ऐसा न करने पर मोहल्ले की औरतें आसमान सर पर उठा लेगी।

ठीक पांच बजे पंडित ने गरुड़-पुराण पढ़ना प्रारम्भ किया। पढ़ने के पूर्व उसने पुस्तक की भूमिका बताई कि यह विष्णु एवं उनके वाहन गरुड़ का संवाद है। यह पुस्तक दो खंडों में है- पूर्व खण्ड एवं उत्तरखंड यानी प्रेतखण्ड। पहले खण्ड में भक्ति, दान, तप, कर्म की महत्ता का बखान है एवं दूसरे खण्ड में प्रेतलोक, जीव की गति, वैतरणी नदी जिसे पार कर जीव को जाना होता है आदि-आदि बातों का उल्लेख है। कौन स्वर्ग जाएगा कौन नरक एवं कितने प्रकार के नरक हैं का भी इसमें वर्णन है। इसमें यह भी लिखा है कि जीव के मरते ही आत्मा तत्काल नए शरीर में प्रयाण कर जाती है , कुछ मोहग्रस्त अथवा अकालमृत्युग्रस्त आत्माओं को तीन से तेरह दिन भी लग जाते हैं। ऐसी आत्माएं अनेक बार घर-रिश्तेदारों के इर्दगिर्द भटकती हैं एवं अंततः वे भी जन्म ले लेती हैं, इसी हेतु गरुड़-पुराण तीन से तेरह दिन तक सुविधानुसार पढ़ते हैं। आपके यहाँ नित्य सांयः इसी समय पढ़कर दस दिन में समापन कर देंगे।

पंडित का बयान दिलचस्प तो था ही खौफनाक भी था। मैं नित्य सायं अन्य लोगों के साथ गरुड़-पुराण सुनता। मेरी खास रुचि प्रेतखण्ड में थी जिसे सुनकर मुझे विस्मय हुआ, किंचित् भयभीत भी हुआ पर मुझे लगा स्वर्ग-नरक की सजाएं कर्म के अनुरूप हैं अतः ऐसी पुस्तकों ने लंबे समय तक आम रियाया के दुञश्चतन, लोभ, मोह आदि पर अंकुश लगाया होगा। पापा अन्य ग्रन्थों की कथाएँ भी सुनाते रहते थे अतः मुझे पता था ऐसे आख्यान लगभग हर धर्म में हैं बस उनका रूप अलग है।

गरुण-पुराण पंडित के लिए भी चांदी थी। श्रोता नित्य पाठ पूरा होने पर भेंट चढ़ाते जो दो-तीन हज़ार तक बन जाती। समापन पर मैंने माँ से धीरे से  पूछा – पंडित को कितनी रकम देनी होगी तो माँ ने पच्चीस हजार बताया। यह रकम बहुत अधिक थी पर जाने क्या सोचकर मैं चुप रहा। मेरा माथा तब ठनका जब माँ ने कहा इसे शैय्या-दान भी करना होगा। मैं हैरान था। माँ ने गुपचुप यह क्या तय कर लिया? मैंने माँ से पूछा , यह शैय्या-दान क्या होता है ?

 “शैय्या-दान में वे वस्तुएं देनी होती हैं जो पापा इस्तेमाल करते थे, कपड़े-पलंग-बिस्तर आदि सभी सामान,  बिल्कुल नया। रसोई का पूरा सामान भांडे भी देने होंगे। इसके अतिरिक्त हमारी प्रतिष्ठा के अनुरूप दो-तीन तोला सोना एवं चांदी के बर्तन भी देने होंगे।’’ आशंकित माँ ने मुझे समझाया।

माँ की बात सुनकर मैं सहम गया। कुल जमा जोड़ मधुमक्खी की तरह मेरे सर पर मंडराने लगी। इतनी बड़ी रकम हमारे जैसे मध्यवर्गीय परिवार के लिए बड़ी बात थी। ओह ! पापा ने कितनी मेहनत कर कुछ रकम जोड़ी , जीते-जी भोग भी नहीं सके एवं मरने पर पंडित यूँ हड़प लेगा इस विचार से ही मेरे औसान जाते रहे। तनाव में भेजा घूम गया, मैं फट पड़ा-

‘‘पापा वैतरणी अपने कर्मों की नाव से पार करेंगे, माँ! इसमें पंडित क्या करेगा?’’ मैंने माँ को आड़े हाथों लिया। जवाब देते हुए मेरी आवाज तेज़ हो गई।

‘‘तू भी कैसा मूर्ख है ! यह वैतरणी पंडित ही तो पार कराएगा। वैतरणी के कष्ट तो तूने सुन ही लिए हैं। पैसों के लिए उन्हें त्रास देगा क्या?’’ कहते हुए माँ ने मुझे ऐसे देखा जैसे समझा रही हो यहां तो चुप रह, इत्ते लोग-लुगाइयों में भद्द करवा रहा है।

अब मुझे समझ आया असल माजरा क्या है एवं धर्म का भय दिखाकर किस तरह शोकग्रस्त परिवार के मानसिक अवसाद, लोकभय की आड़ में लोगों को लूटा जाता है। पापा इसीलिए तो इन कुरीतियों का विरोध करते थे। पापा की याद आते ही मेरी मुट्ठियाँ तन गईं। मैं भी लेकिन अरजन का बेटा फ़रजन था। मेरे भीतर जैसे उनका प्रेत उतर आया। अब मेरी आँखें एक अभिनव संकल्प से चमक उठी। मैं इन कुरीतियों का विरोध करूंगा, अवश्यमेव करूंगा, आज, अभी, इसी पल। धर्म आत्म-बोध, आत्म-उत्थान का जरिया है , लूट का नहीं।

मैंने मोर्चा संभाला। मैं इस बात से किंचित् प्रभावित नहीं हुआ कि घर में पच्चीस लोग-लुगाई बैठे हैं। कब तक हम इन कुरीतियों की जंजीरों में जकड़े रहेंगे ? आखिर ये कुरीतियां, कुप्रथाएं, आडम्बर कब तक चलेंगे ? इन कुरीतियों ने समाज का जीना हराम कर दिया है। समाज इन्हें ढोते-ढोते थक गया है। एक आम आदमी इनका बोझ कंधे पर उठाए दम तोड़ देता है। उसके पसीने की कमाई, गाढ़ी बचत इन्हीं फालतू कार्यों में चली जाती है। वह बेहतर जीवन की कल्पना भी करे तो कैसे ? समाज का भय उसे कोल्हू की तरह पीस डालता है।

ऐसा सोचते ही पापा का प्रेत सर चढ़ गया।

मैंने पंडित के हाथ में दस हजार रखे एवं हाथ जोड़कर कहा ‘हम यही दे सकते हैं। शैय्या-दान तो हमारे लिए बिल्कुल सम्भव नहीं है’ तो उसकी आंखें अंगारे उगलने लगीं। पंडित हट्टा-कट्टा लगभग मेरी उम्र का था, माथे पर वैष्णवी तिलक, ऊपर सफेद अंगरखा एवं नीचे लाल धोती पहने था। वह कुछ बोला तो नहीं पर उसके हावभाव बता रहे थे जाने कब तैश में आकर गुड़-गोबर कर दे। माँ भी यह सब देख घबरा गई।

वहां खड़े लोगों में पड़ौसी मालूजी भी खड़े थे। वे अस्सी पार बुजुर्ग थे। पापा उन्हें बड़ा भाई जैसा मानते थे। हमारा परिवार ही नहीं पूरा मोहल्ला उन्हें आदर देता था। स्थिति देखकर वे आगे आए एवं मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले-

‘‘बेटा !  मैं वर्षों से देखता आया हूँ  यह सब तो होता रहा है। पापा की सद्गति के लिए तुम्हें यह सब करना भी चाहिए।’’  कहते हुए उन्होंने मेरी ओर आग्रह भरी दृष्टि से इस तरह देखा मानो कहना चाह रहे हो, तुम पढ़े लिखे हो मेरी बात मानो।

‘‘अंकल ! पापा की सद्गति इन पंडितों की झूठी, दम्भी मांगों से नहीं होगी। यह तो सरासर लोभ है , अन्याय है। ग्रन्थों का स्वाध्याय , पठन-मनन जब लोभ से जुड़ जाता है तो इन पुस्तकों के तात्पर्य-अर्थ भी गौण हो जाते हैं। मृतक के घरवाले पहले से शोकग्रस्त होते हैं, ऐसी अनुचित मांगे उनका दुःख और बढ़ा देती हैं। यह तो मरे को और मारने वाली बात हुई।’’  मेरा सटीक , सत्य उत्तर सुनकर मालूजी चुप हो गए पर अन्य लोग खुलकर मेरे पक्ष में उतर आए। सभी पहल नहीं करना चाहते थे पर उन्हें भी बीड़ा उठाने वाले का इंतजार था। अब हममें से राठौड़ साहेब आगे बढ़े, वे अपनी मुंहफट प्रकृति एवं सत्यवादिता के लिए मोहल्लेभर में मशहूर थे।

‘‘तुम ठीक कहते हो माधव ! पहले धार्मिक आयोजनों का अर्थ आम रियाया को ज्ञान समृद्ध करना होता था। इसका एक कारण समयानुकूल तनाव-प्रबंधन भी था। अब तो ये आयोजन व्यवसाय बन गए हैं, अब दरें तय होती हैं। गरुड़-पुराण ही क्यों अन्य ग्रन्थों , देवी-देवताओं की कथा-वाचन तक में लाखों का खर्च होता है। एक विश्वविद्यालय का उच्च शिक्षित प्रोफेसर तीन घण्टे पढ़ाने का पांच हज़ार वेतन पाता है, कथा-वाचक इतने समय के लाखों प्राप्त कर लेते हैं। अनेक बार आयोजनों का खर्च करोड़ो में चला जाता है। इन आयोजनों के मध्य हज़ार स्वांग और होने लग गए हैं।’’  राठौड़ साहब बेधड़क बोलते गए। उनके रुकते ही गट्टाणी साहब ने मोर्चा संभाला-

  ‘‘राठौड़ साहेब , आप ठीक कहते हैं। आज धर्म के नाम पर चौतरफा लूट मच गई है। अभी हमारे एक रिश्तेदार ने नरसी मेहता रचित ‘नानी बाई का मायरा’ करवाया। इसे पढ़ने के कथा-वाचक कोे न सिर्फ लाखों दिए , कथा के बाद लाखों के मायरे का स्वांग हुआ जिसे भी वही ले गया। क्या ये आयोजन मायरे जैसी कुप्रथाओं को आगे नहीं बढ़ाते? कथा का सार तो इतना भर था कि आपकी अनन्य पुकार पर प्रभु दौड़े चले आते हैं, पर इतनी छोटी सी बात समझाने के लिए दसों स्वांग जोड़ दिए जाते हैं। हम रिस-रिस कर कमाते हैं , ये मौज उड़ाते हैं। ‘मोडा करे मल्हार पराये धन पर’ जैसी सदियों से चली आ रही कहावतें यूँ ही थोड़ी बनी हैं। कहावतों में लोक अनुभूति का निचोड़ होता है। क्यों न हम इन ग्रन्थों का सच्चे मन से घर में भी पारायण करें। इससे हमारी अंतर-अनुभूति तो बढ़ेगी ही, अपव्यय भी नहीं होगा।’’ कहते हुए गट्टाणी साहेब कांपने लगे। वे सत्तर पार थे, उनकी उम्र सर चढ़कर बोलने लगी। अब उपस्थित लोगों से चौहान साहब बोल रहे थे।

‘‘गट्टाणीजी ! ग्रन्थों के स्वाध्याय में भी तो अनेक भ्रांतियां फैला दी गई हैं कि लोग इन्हें घर में नहीं रखें , इससे घर में बलवा हो जाएगा। यही ग्रन्थ पंडितों के घर रहें तो बलवा नहीं करेंगे , हमारे घर बलवा कर देंगे। गरुड़-पुराण ही नहीं, महाभारत एवं कुछ अन्य ग्रन्थों को लेकर भी जनमानस में ऐसी भ्रांतियां फैली हुई हैं। ये ग्रन्थ तो ज्ञान के अक्षय कोष हैं पर भ्रांतियों से भयभीत आम आदमी घर में यह ग्रन्थ न होने से इनके असल स्वाध्याय से चूक जाता है। युद्ध, बलवा, मृत्यु तो अन्य धर्मावलंबियों के ग्रन्थों में भी हैं, वे बड़े आदर से इन्हें घर में रखते हैं, इनका मनन करते हैं, हम चूक जाते हैं। ऐसे में हमारी आस्था कमज़ोर नहीं होगी ?’’ चौहान साहब के चेहरे पर भवानी उतर आई थी। पास ही गाँव सालावास के पटेल भाई भी वहीं खड़े थे। उन्होंने कुछ समय पूर्व ही हमारे मोहल्ले में मकान खरीदा था। उन्हें ग्राम्य जीवन का लंबा अनुभव था। उनके विचारों का खमीर भी आज फूट पड़ा –

“आप सभी ठीक कहते हैं। शहरों में ही नहीं इन कुप्रथाओं को लेकर गांवों में स्थितियां और बुरी हैं । वहां मृत्युभोज, ज्योतिष कर्मकांडों की बाढ़ आ गई है। बीघे-बीघे भूत, बिस्वा-बिस्वा डायने उतरवाने के नाम पर गरीबों की जेब काटी जाती है। इनकी तादाद हर सीमा को लांघ गई है। पितृदोष उतरवाने के नाम पर लाखों हड़पे जा रहे हैं। विश्वभर में ऐसी लूटमारी कहीं नहीं है। मंदिरों की लूट व्यवस्था इससे भी भयानक है। वहां लूट के अन्य तरीके हैं। देश के अनेक मंदिर बड़े औद्योगिक घरानों से भी बड़े बन गए हैं। तीर्थ में जाओ तो मढ़ी एक मोडा घणा वाली स्थितियां हैं। जनम, परण से लेकर मरण तक हमारी गर्दन इनके हाथ में है। हम चाहकर भी नहीं छूट पाते। हम सभी ने गत दिनों गरुड़-पुराण सुनी। इस पुस्तक में जिन नरकों की बात करते हैं, लूटमार करने पर क्या वे स्वयं इन नरकों में नहीं गिरेंगे ? परमात्मा का विधान क्या इनके लिए भिन्न है ? ’’ बोलते हुए पटेल साहेब का चेहरा लाल हो गया।

यह सब सुनकर पंडित सकते में आ गया। उसे मानो सांप सूंघ गया। ‘जैसी जजमान की इच्छा’ कहकर जाने लगा तो तो मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा, ‘‘पंडितजी! आप मेरे जितने ही पढ़े-लिखे हो। कब तक इन भयों की आड़ में पेट भरोगे? क्या ही अच्छा हो आप मेरी तरह प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी करो। ग्रन्थों का पाठ बुरा नहीं है , बुरा है इनके नाम पर होने वाली लूट जो आपको भी अधोगति में ले जाएगी। गत दिनों गरुड़-पुराण में आपने स्वयं ये उपदेश पढ़े हैं।’’ मेरी बात सुनकर पंडित की आंखें नीची हो गई।  मैंने जो भी दिया उसे लेकर वह चुपचाप चला गया। लम्बी बहस में सांझ का सूरज कब डूबा पता ही नहीं चला। ऊपर आसमान में तारे आशा के दीयों की तरह  टिमटिमाने लगे थे।

इस बात को एक वर्ष बीता होगा। आज रविवार था। सवेरे के नो बजे होंगे। मैं बाहर आंगन में बैठा ठंडी हवाओं का आनंद ले रहा था कि सामने एक स्कूटर रुका। मैंने गौर से देखा, यह तो वही गरुड़-पुराण वाला पंडित था जो हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए घर के बाहर खड़ा था। भीतर आकर उसने डिब्बा मेरे हाथ में दिया तो मैं दंग रह गया। परिपाटी से हटकर उसने मेरे चरण छुए तो मैं हैरान हुआ। मैंने उसे ऊपर उठाते हुए कहा , “अरे ! ये क्या कर रहे हैं ? यह तो हमारा काम है। आप उल्टी गंगा क्यों बहा रहे हैं ?’’ पंडित को वहां देख माँ भी रसोई से चलकर हमारे समीप आकर खड़ी हो गई। माँ के चरण छूकर वह मेरी ओर देखकर बोला, ‘‘उल्टी गंगा तो अब तक हमने बहाई है एवं हमें ही इस धारा को निर्मल, सीधी करनी होगी। उस दिन आपकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आंखों से धुंध छट गई। मैं नए युग की आहट समझ गया। मैंने प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने की ठान ली। पुरुषार्थहीन, दीनचित्त होकर जीना भी कोई जीना है। मैंने वर्षभर कड़ा परिश्रम किया। कल शाम ही मेरे सरकारी बैंक में चयन का नियुक्ति-पत्र आया है। मैं सबसे पहले इसे आप ही को दिखाने आया हूँ। यह सब आपकी बदौलत हुआ है। आपकी बातों ने मेरा जीवन बदल दिया। गरुड़-पुराण मैं अब भी पढ़ सकता हूँ पर अब मैं समझ गया हूँ स्वाध्याय, पठन एवं लूट में बड़ा अंतर है। आपने अनायास मुझे एक महान पाप से बचा लिया।’’ बात पूरी करते हुए पंडित की आंखों में आंसू छलक आए। विह्वल मैंने उसे अंक में भर लिया। लगा जैसे छोटे भाई को बाहों में लिए खड़ा हूँ।

पंडित के जाने के बाद मैं पुनः आंगन में आया एवं ऊपर आसमान की ओर देखा। सूरज अब चढ़ आया था। मुझे जाने क्यों उसकी चमक नित्य से अधिक लगी।

आज का दिन कितना शुभ था।

आज की सुबह एक नवभोर  का आगाज़ थी। हर्ष गद्गद् मैं भीतर चला आया।

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11.10.2022

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