नेत्रों का लाभ संतों का दर्शन है। विप्रवर संत शिवेश्वर गोस्वामीजी के प्रवास एवं प्रवचन का गांधी मैदान में आज अन्तिम दिन था। सारा का सारा शहर आज इसी मैदान की तरफ भाग रहा था। लगता जैसे हर सड़क इसी मैदान की तरफ जा रही हो। सड़कों पर कारों की चिल्लपों थी, परिवार के परिवार कारों में बैठे शिवेश्वर के दर्शनों को उमड़ रहे थे। कोई स्कूटर पर, कोई टैक्सी में तो कोई साइकल के पीछे ही अपनी बूढ़ी माँ को बिठाये दौड़ा जा रहा था। सड़क के दोनों किनारों पर भी झुण्ड के झुण्ड लोग पैदल भागते नजर आ रहे थे। दिसम्बर की कंपकंपाती सर्दी में दिन अभी उगा ही था। भक्ति की गर्मी शिशिर की कड़कड़ाती ठण्ड को भी शिकस्त दे रही थी, हल्की गुनगुनी धूप अब पसरने लगी थी।
सुबह आठ बजे से कार्यक्रम शुरु होना था। गत सात दिनों से प्रवचन हो रहे थे, जैसे सारा शहर उमड़ा आता था। पाण्डाल को विशेष साज-सज्जा से बनाया गया था, लाखों रुपये तो व्यवस्था में ही लग गए। सारे रास्ते बंदनवार पताकाओं से सजाये गए थे। श्रोताओं की सुविधा के लिए जगह-जगह टी.वी. लगे थे ताकि जिनकी नजर मंच तक नहीं पहुंचे वो कम से कम टी.वी. पर तो दर्शन कर सकें। सारा पाण्डाल यहां-वहां मर्करी लाइटों की तेज रोशनी से चुंधिया रहा था। चेतना के पंख लगाकर हर व्यक्ति अनंत के विशाल आसमान पर उड़ना चाहता है, हर अंतःकरण स्वाधीनता के सोपान छूना चाहता है, हर आत्मा परमात्मा की दिव्य ज्योति के स्पर्श को लालायित है। संतों के सहयोग के बिना क्या यह संभव है? माया के बवंडर एवं संसार के फंदों ने हर आत्मप्रकाश को धूमिल कर दिया है। संतों के मार्गदर्शन से ही इन फंदों को काटा जा सकता है।
अपनी ओजस्वी एवं तेज वाणी में संत शिवेश्वर मंच से अमृत बरसा रहे थे, ‘‘नमक के बिना जैसे भोजन फीका हैं, भक्ति के बिना मनुष्य। भक्ति मानव जीवन का स्वाद है। मनुष्य की देह सबसे दुर्लभ है, इसी जन्म में इंसान धर्म और मोक्ष की सीढ़ी चढ़ सकता है। चराचर जगत के जीव ईश्वर से अनवरत यही प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु! हमें मनुष्य की देह दो, हमें मानव जन्म दो ताकि हम भक्ति कर हमारे जीवन को सुफल बनाएं, संसृति का अंत करें। आश्चर्य है जिन्हें मनुष्य का जन्म मिल गया है उनके स्मृति नेत्र ही नहीं खुल रहे। भक्ति स्मरण के बिना अधूरी है। प्रभु स्मरण सुख का मूल है। जिसके नाम जप से सारे अमंगल मिट जाते हैं, चारों पदार्थ मुट्ठी में आ जाते हैं, जो हमारे अस्तित्व का मूल कारण है-हमने उसे ही विस्मरित कर दिया है। विषयों के फंदों ने हमें ऐसा जकड़ लिया है कि हमें बोध ही नहीं होता। इंसान कितना मूर्ख है कि वह अपने हाथ में पड़े हीरों को फेंककर कंचो को उठा रहा है।’’ संत शिवेश्वर का विषयान्वेषण एवं वाक्चातुर्य देखते ही बनता था। वाणी के जादूगर की तरह सारी भीड़ उनके सम्मोहन में बंधी थी। ‘‘संत शिवेश्वर गोस्वामी की जय’’, एकाएक भीड़ से आवाज गूंज उठी।
पल भर रुक कर आज के वक्त की नजाकत के अनुरूप उन्होंने विषय बदला-‘‘पुण्यात्मा पुरुषों के लिए पृथ्वी सुखों से छायी हुई है। दानी व्यक्ति को संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं। जो धर्म के कल्याण के लिए, संतों के लिए, दीन-दुखियों के लिए अपने धन का व्यय करे, उसी का धन धन्य है। उस पुण्यपुंज, वैराग्यपरायण, तपोमना भक्त के लिए स्वर्ग के द्वार खुले हैं, ऐसे धर्मरत, तेजपुंज लोग ही पृथ्वी का शृंगार हैं।’’ प्रवचन का भीड़ पर ऐसा मोहिनी असर हुआ कि जिसके पास जो था वही संत की सेवा में अर्पण कर दिया। औरतों ने अपने गहने तक दे डाले। नोटों और गहनों से लदी एक बड़ी गठरी संत की सेवा में अर्पित कर दी गई। संत को माया से क्या काम? जनकल्याण के लिए उनसे अच्छा धन का उपयोग कौन कर सकता है?
प्रवचन समाप्ति के बाद संत शिवेश्वर के चरणों में चंदन लगाने की अन्तिम रस्म होनी थी। किस बड़भागी को यह सुअवसर मिलेगा? संतों की पद सेवा तो नवधा भक्ति का ही एक रूप है। बीती रात पाण्डाल में शहर के मानी धर्मप्रेमियों की बोली लगी थी। अंतिम बोली इक्कीस लाख पर ठहरी थी। बोली शहर के धर्मात्मा सेठ रामप्रसाद ने जीती थी। वही अब शिवेश्वरजी को थैली भेंट देंगे एवं उन्हें ही संत के चरणों में चंदन लगाने का सौभाग्य मिलेगा। सारी भीड़ की आँखें उन्हीं पर अटकी थी। सेठजी ने सारी उम्र चाहे शोषण, कालाबाजारी एवं लूटमार की हो पर आज उनकी सात पीढ़ियां तरने वाली थी। ऐसे पुण्यपुंज धर्मरत व्यक्ति के दर्शनों को भीड़ लालायित थी। धर्म की शक्ति अकूत है, गंदा नाला भी गंगा में मिलकर गंगा ही कहलाता है।
भाग (2)
जल और जल की लहर के बीच में क्या भेद है ? इसी पाण्डाल के बाहर मूंगी नाम की भिखारिन एक साल के बच्चे को गोदी में चिपकाये घूम रही थी। तार-तार साड़ी में उसकी सूखी कृश काया साफ नजर आती थी। बच्चे के शरीर को उसने इसी साड़ी से ढक रखा था। दो माह पूर्व ही उसके पति का निधन हुआ था, जैसे दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। इस हरिजन परिवार का वही एक मात्र सहारा था। गत दो माह से मूंगी मारी-मारी फिरती थी। कुछ लोग तो उसे देखकर ही दूर हट जाते। आजादी मिले आधी शताब्दी से ज्यादा बीत गई, पर इतने वर्षों के तोता-पाठ के बाद भी अछूतों के प्रति लोगों की मनोवृत्ति में कोई खास अन्तर नहीं आया है। कानून ने हमारे इतिहास के काले पन्ने पर लकीर अवश्य खींची है पर लोगों के मन का अछूत आज भी जिंदा है।
मूंगी करुण नेत्रों से आने-जाने वालों को निहार रही थी। दो दिन से भूखी थी, पेट पीठ में धँसा था। उसके पीले और सूखे चेहरे में वह विपत्ति की मूर्ति, दरिद्रता का जीवित चित्र नजर आ रही थी। आँतें कुलबुला रही थीं पर मन मसोस कर खड़ी थी। कंपकपाती ठंड उसकी पीड़ा को और बढ़ा रही थी। अपने दुर्भाग्य को समेटे वह ठठरी बने खड़ी थी। पाण्डाल में भक्तों पर छिड़के जाने वाले गुलाबजल की खुशबू बाहर तक आ रही थी पर इसमें दया की गंध कहां थी। सोच रही थी धर्मात्माओं की भीड़ में कोई उसे भी भीख दे देगा पर आज लोगों को फुर्सत कहां थी। सभी प्रवचन लाभ लेने एवं ‘चंदन पाद सेवन’ समारोह को आँखों से देखकर निहाल होना चाहते थे।
मूंगी हाथ पसारे हर आने वाले के आगे गुहार कर रही थी पर आज उसके ग्रह ही खराब थे। समुद्र के बीच वह प्यासी खड़ी थी। थोड़ी देर पहले ही उसने नाली से दूध बहते देखा था, संत शिवेश्वर ने प्रवचन से पूर्व शिव अभिषेक किया था। मनों दूध अभिषेक में बहाया गया। बाहर कुत्ते एवं जानवर इस पर डटे थे।
दो-चार बार उसने पाण्डाल में जाने का असफल प्रयास भी किया पर न जाने कैसे वह चौकीदार की शक्की निगाहों के हत्थे चढ़ गई। उसने हर बार उसे झिड़क कर बाहर निकाल दिया। वह लहू का घूंट पीकर रह गई। करती भी क्या, भिखारी का गुस्सा अपनी जान पर।
मूंगी को समझ में आ गया कि आज यहाँ दाल नहीं गलने वाली। हताश वह बाहर ही बैठ गई। थोड़ी देर बाद उसने देखा कि चौकीदार वहां से नदारद था। नजर बचाकर वह सीधे पाण्डाल में गई एवं भीड़ की अंतिम पंक्ति में सिमट कर बैठ गई। सोचा, क्यों न मैं भी आज संतों का दर्शन लाभ लूं, शायद कोई पुण्य चढे़ तो पेट भर जाए लेकिन यहाँ भी दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा। बच्चा भूखा था, अब वह राग अलापने लगा। उसने बच्चे को चुप करने की कोशिश की पर बच्चा रोये जा रहा था। सूखी छाती से उसने स्तनपान करवाने की कोशिश की पर यहां मांस के लोथड़े के अलावा क्या था। बच्चा अब तेज रोने लगा। सामने सेठ रामप्रसाद ‘चंदन पाद सेवन’ कर संत शिवेश्वर को इक्कीस लाख की थैली भेंट कर रहे थे।
यकायक पाण्डाल का चौकीदार वहां आया व मूंगी को पकड़कर बाहर ले गया, ‘‘रांड ! तूं अंदर कैसे घुस गई ? किसी की जेब तो नहीं काटी? बता! हमें बदनाम कराएगी।’’ दो दिन की भूख एवं बच्चे के रुदन को तो वह सह गई पर आत्मसम्मान को आहत करने वाले चौकीदार के तानों ने उसे बींध दिया। तमक कर बोली, ‘‘जेब काटी होगी तेरी माँ ने। भीख नहीं दे सकता तो चोरी का इल्जाम क्यूं धरता है ? कमीने! क्या संतों के दर्शन हम नहीं कर सकते?’’ फिर कुछ रूककर बोली, ’’ अंदर पापी पिशाच बैठे हैं। जो मेरी और मेरे बच्चे की भूख नहीं समझ सकते वो धरम को क्या समझेंगे?’’ चौकीदार गुस्से से आग बबूला हो उठा। वहीं खड़े दो चप्पत रसीद किए। हाथ भारी था, मूंगी कंकाल की तरह नीचे गिर गई। किसी तरह बच्चे को सम्भालकर वापस उठी। चौकीदार अब भी आँखें फाड़े उसे घूर रहा था। इससे आगे विरोध का साहस मूंगी में नहीं था।
मूंगी तड़प उठी। उसने प्रण कर लिया कि वह अब भीख नहीं मांगेगी। मांगने से मरना भला। ऐसे अपमान एवं बहिष्कार भरे जीवन से तो मृत्यु श्रेयस्कर है। हताश वह रोने लगी। आंसू की बूंदों ने उसके हृदय के संताप एवं अग्नि को तो शांत कर दिया पर पेट की आग अभी बुझानी थी। सारे दिन उसने यहाँ-वहाँ जाकर काम की गुहार की पर उस हरिजन से अपने घर में काम करवाने को कोई तैयार नहीं था।
अंदर धर्म का पाठ पढ़ाया जा रहा था, बाहर अधर्म अपनी लीला रच रहा था। जिस इंसान की सेवा करने से प्रभु दर्शन के द्वार खुलते हैं उसे ठोकरें मिल रही थी।
भाग(3)
कपट करने में चतुर व्यक्ति के भाव जानने में नहीं आते। मीठे व्यक्ति के मन में कितना विष है, यह कौन बता सकता है ? मुखौटों के पीछे छुपी कहानियों को विधाता के अतिरिक्त कौन जान सकता है ? ईश्वर ही छिपकर किए पापों का साक्षी है।
तीन दिन बाद अखबार के मुखपृष्ठ पर खबर थी, ‘संत शिवेश्वर चरस गांजे की तस्करी में गिरफ्तार’। उसके प्रवास स्थान एवं शिष्यों के पास से चरस, गांजे और अफीम के भण्डार मिले थे। वह एक विदेशी गैंग का आदमी था।’
इसी अखबार के अन्तिम पृष्ठ पर एक कोने में यह भी खबर थी-गांधी मैदान के पास कल रात एक अज्ञात भिखारिन एवं उसके बच्चे ने सर्दी में दम तोड़ दिया। बच्चा भिखारिन की छाती पर चिपका था।
………………………..
02.09.2002