धरोहर

सूरज की पगड़ी सिर पर रखकर दिवस ने गंभीर आँखों से चारों ओर निहारा तो संपूर्ण जगत एक विचित्र भय से सिहर गया। जाने क्या सोचकर किसानों ने अपने हल सम्हाले, कामगारों ने औजार एवं जुलाहे करघों पर बैठ गये। चराचर जगत क्षण भर में क्रियाशील हो गया। पक्षी जब पेड़ों पर चहके एवं भौरों ने मधुपान प्रारंभ किया तो दिवस ने दोनों हाथों से एक बार फिर पगड़ी को सम्हाला एवं मन ही मन मुस्कराकर बोला, ‘यह सब इस पाग (पगड़ी) का चमत्कार है।’’

सर्दी में मोर्निंग वाॅक करना मुझे जरा नहीं सुहाता। ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले किटकिटाते दांतों के साथ कदम बढ़ाने से तो अच्छा है घर की रजाई का आनंद लो, पर घरवाली माने तो। अनुराधा रोज घड़ी में पाँच बजे का अलार्म भर देती है। मैं उस-मुस कर कोई बहाना बनाऊँ, तब तक चाय बनाकर रख देती है। फिर उठने के अलावा चारा क्या रह जाता है? औरतों की आकाशी अक्ल के आगे पुरुषों की चतुराई कितनी वामन है।

मोर्निंग वाॅक कर घर लौटा तो सिर से पैर तक कंपकंपी छूट रही थी। अनुराधा बगीचे में पानी दे रही थी, देखते ही बोली, ‘‘कितनी बार कहा मंकी टोपी लगाकर जाया करो। फिर रात को कहोगे मेरी छाती मल दो, ठण्ड बैठ गई है। उम्र जबाब दे गई पर अकड़ नहीं गई।’’

‘‘मुझे नहीं सुहाती मंकी टोपी। हर कोई ऐसे देखता है जैसे ठेठ का बूढ़ा हो। मैं तो शिवपुरी जैसी इंग्लिश कैप लाऊँगा। क्या जंचता है, फौज का मेजर लगता है। लड़कियां उसे देखकर तो ‘अंकल गुड मोर्निंग’ कहती है, मुझे ‘दादाजी राम-राम!’ मैंने आराम कुर्सी पर बैठते-बैठते उत्तर दिया।

‘‘अब कौन-सी जवानी रह गई है आप में! सारी हड्डियाँ तो हरिनाम बोल रही है पर भरम अभी भी जवानी का है।’’ कहते-कहते जाने कौन-सा रहस्य आँखों में भरकर उसने मेरी ओर देखा कि मेरी रूह कांप गई।

आदमी की जवानी की असली गवाह औरत ही तो है। जवानी में आँख के इशारे से सहम जानी वाली औरतें बुढ़ापे में ताने मारकर ही सारी कुण्ठा निकालती हैं।

उसकी आँखों का व्यंग्य पढ़कर मैं कुढ़ गया। कुछ और कहता उसके पहले ही बेटे के कमरे की चटखनी बजी। श्याम अलसाते हुए बाहर आ रहा था। बहूरानी सपना पीछे-पीछे गाउन पहने खड़ी थी। मुझे देखते ही ऐसे आगे बढ़ी जैसे घर की सारी चिंता उसी को हो। मैं समझता नहीं क्या! उसके उठते-उठते अनुराधा आधा काम निपटा लेती है।

सवेरे की चाय भी रोज वही बनाती है।

मुझे बैठक में देख दोनों वहीं आकर सोफे पर बैठ गये। मुझे देखते ही एक साथ बोले, ‘‘गुड मोर्निंग पापा!’’

‘‘गुड मोर्निंग, गुड मोर्निंग!’’ मैंने शिवपुरी वाले अंदाज में उत्तर दिया।

अनुराधा रसोई से चाय लेकर आई तब तक सभी अखबार के अलग-अलग पन्ने पढ़ रहे थे। कितनी बार मैंने उससे कहा कि दो अखबार मंगवाया करो पर मक्खीचूस समझे तो। मुझे पूरा अखबार एक साथ पढ़ना अच्छा लगता है, पढ़ता भी तो जरा जल्दी हूँ, एक पन्ना पढ़ते ही लगता है सामने वाले से दूसरा छीन लूँ। श्याम और सपना दोनों एक-से है, एक-एक पंक्ति आँख गड़ाकर पढ़ते हैं। अखबार कोई बेडरूम है कि भीतर घुसकर चटखनी लगा दो।

हमारे सुबह की चाय एवं अखबार-पान बैठक में ही होता है। उसके बाद हम कई देर तक आपस में बतियाते हैं। हमें हाजत भी एक दूसरे की खोपड़ी चाटने के बाद होती है। फिर भागते भी सब एक साथ है। शुक्र है घर में चार बाथरूम है वरना सुबह-सुबह ही महाभारत हो जाये।

अखबार पढ़ते-पढ़ते श्याम ने कोई महत्त्वपूर्ण समाचार देखा लगता है। उसकी आँखें ठहर गई है। चेहरे पर थोड़ा-थोड़ा रोष भी उभरने लगा है।

मेरा अनुमान सही था। सपना को अखबार दिखाते हुए बोला, ‘‘यह खबर पढ़ो, महर्षि पब्लिक स्कूल के आज नये भवन का उद्घाटन है। मैंने एवं शेखर ने साथ-साथ स्कूल खोले, लेकिन देखते-देखते ये लोग कहाँ से कहाँ बढ़ गए। हम अभी भी किराये के भवन में स्कूल चला रहे हैं।’’

वह कुछ भी बोलता तो सपना पहले मेरा रुख देखती। हमारे वाकयुद्धों में वह मेरा ही साथ देती लेकिन यह मुद्दा दोनों के अहम् एवं महत्त्वाकांक्षा से जुड़ा था। दोनों गत पाँच वर्ष से किराये पर स्कूल चला रहे थे, अतः आज ऊंटनी की तरह उसकी तरफ बैठ गई। चाय का सिप लेते हुए बोली, ‘‘डार्लिंग, उनमें और हममें उतना ही अंतर है, जितना जमीन और आसमान में। नंगे क्या नहाए क्या निचोड़े। आधी ऊर्जा तो आर्थिक प्रंबंधन में ही चली जाती है। उनको पुरखों का माल कितना मिला है।’’

‘‘सच कहती हो सपना, यहाँ तो खून-पसीना बहाकर जोड़ते हैं, फिर वही रकम स्कूल में लग जाती है। शेखर के पिता ने अपने खेत बेचकर उन्हें रकम दी है। यहाँ तो पापा को दस बार पुरानी हवेली बेचने को कह दिया पर वे मानें तो।’’ कहते-कहते श्याम ने एक बार फिर मेरी पुरानी रग छूने का प्रयास किया। यह मुद्दा बहू-बेटे इशारे से पहले भी उठा चुके थे।

जैसे मलाई को देखते ही बिल्ली लपकती है, बहू श्याम की बात बढ़ाते हुए बोली, ‘‘बार-बार कहने से क्या फायदा है श्याम, हवेली का पैसा तो बाबूजी बेचेंगे तभी आयेगा।’’

‘‘तू ठीक कहती है सपना! सब पैसों की खीर है। धनहीन मनुष्य बिना पानी का बादल है। वह गड़गड़ा सकता है, बरस नहीं सकता।’’

अनुराधा अब तक चुप बैठी थी। बेटे-बहू की पीड़ा सुनकर वह भी भड़क गई। हवेली के मुद्दे पर वह भी इन दोनों का साथ देती, बिफर कर बोली, ‘मोर तो मेहू-मेहू करे पर बरसात तो इंदर के हाथ है। इनमें अक्ल होती तो इतनी सुनते क्या! जब देखो एक ही रट लगाते रहते हैं , हवेली नहीं बेचूँगा, यहाँ से लोन दिला दूँगा, वहाँ से दिला दूँगा, मेरी इससे पहचान है, उससे पहचान है पर अब तक लोन नहीं मिला। बस ऊँची-ऊँची बाते करते हैं। अंदाज नवाबी है पर लंगोटा टाट का है।’’ कहते-कहते अनुराधा ने मानो ढोल बजा दिया।

अक्सर जब तीनों मिल जाते, मैं कुछ नहीं बोलता पर आज तो मानो सभी मिलकर मेरे स्वाभिमान को ऊखल में कूट रहे थे।

अब मैंने मोर्चा सम्हाला। सबसे पहले श्याम से ही निपटना ठीक होगा।

‘‘तुमने स्कूल प्रारंभ किया तब मैंने पी.एफ. की एफ.डी. तुड़वाई थी।’’ कहते-कहते मैंने आँखों में रोष भरकर श्याम की ओर देखा। मेरे रौद्ररूप से वह सहम गया, लेकिन माँ-बीवी को साथ देखकर उसमे पुनः दम भर आया। सोचा तवा गरम है आज रोटी सेक ही लें। आर-पार की लड़ाई से ही काम बनते हैं। इस बार आँखों में विनम्रता भरकर बोला, ‘‘उसके लिए कौन मना करता है, पापा! मैं तो दम ठोककर कहता हूँ कि मैं जो कुछ हूँ पापा की वजह से हूँ। लेकिन अब जमाना बदल गया है। बिना आधार कुछ नहीं होता। आखिर इस पुरानी हवेली से हमारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध हो रहा है?’’

उसकी कूटनीतिक चाल से मैं शांत तो हुआ पर मन में अब भी उबाल था। कलेजा ठण्डा करते हुए बोला, ‘‘हवेली मैंने थोड़े ही बनाई थी जो मैं बेच दूँ। वह तो बाप-दादों की अमानत है, ले-देकर एक यादगार ही तो बची है।’’

‘‘तो रखिए उस यादगार को दिल में बसाकर! अब हम आगे नहीं बढ़ें तो कोसना मत।’’
श्याम कौन-सा रुकने वाला था।

‘‘आदमी अपने वजूद पर बढ़ता है। जंगल में हजारों कमल अपने दम पर खिलते हैं, सूरज का ताप अपने बूते पर प्राप्त करते हैं। वे तुम्हारी तरह पुरखों के आगे हाथ नहीं पसारते।’’

श्याम हिंदी पढ़ाता है। मेरी बातों से उसका हिंदी ज्ञान चुनौती पर आ गया। इस बार गंभीर होकर बोला, ‘‘जंगल के कमल भी जल के आधार पर खड़े हैं, पापा! जिन कमलों के नीचे जल नहीं होता सूर्य उनको सहारा देने की बजाय जला देता है।’’

आज के वाक्युद्ध में भले वह मेरा प्रतिद्वंदी था पर उसकी बात में दम था। उसकी विद्वत्तापूर्ण बातों को सुनकर मेरी छाती अभिमान से चौड़ी हो गई।

मैंने मन ही मन सोचा श्याम कहता तो ठीक ही है। बच्चों को सहारा तो चाहिए और माँ-बाप के अलावा कोई ओर तो देने से रहा। इन्होंने हवेली देखी हो तो इन्हें मोह हो। सारी उम्र तो मैं सरकारी नौकरी में इधर-उधर भटकता रहा। यहाँ आने के पहले यह मकान खरीद लिया। सबके विरुद्ध चलकर मैं कौन-सा चैन से जी जाऊँगा। हवेली बेच भी दी तो कौन-सा पैसा नाले में बहा देंगे। जिन पुरखों ने इसे बनाया उन्हीं की संतति की बढ़ोतरी के लिए रकम काम आएगी। घी मूंगों में ही गिरेगा। मैं भी उम्र के आखिरी पड़ाव पर टिमटिमाता दिया हूँ। बिना मतलब क्यों बुरा बनूं। सदा न जग में जीवणो सदा न काला केश। मेरे मरने के बाद भी तो ये वही करेंगे जो यह चाहेंगे। मुझे कौन-सा छाती पर बांधकर ले जाना है। पुरखे ले गए जो मैं ले जाऊँगा। रात दिन की चिक-चिक से मैं भी परेशान हो गया हूँ। बला टालो, आँख फूटी पीर गई।

मैंने सबको हवेली बेचने का निर्णय सुना दिया। मेरी बात सुनकर बेटे-बहू-बीवी तीनों की आँखों में अलौकिक मुस्कान फैल गई।

अगले इतवार मैं श्याम के साथ हवेली की तरफ बढ़ रहा था। शहर में भीड़ होने से गाड़ी हमने कुछ कदम पूर्व पार्क कर ली थी। एक-एक घर, एक-एक दुकान, मंदिर, मस्जिद, गलियाँ यहाँ तक की मोहल्ले के लोग तक परिचित लग रहे थे, हाँ उम्र बढ़ जाने से उनके चेहरे पर बुजुर्गियत अवश्य आ गई थी। शरीर ढल गये पर आँखें आज भी स्नेह से लबालब थी।

मैं श्याम को बता रहा था , ‘‘यह खुदाबख्श की दुकान है, वह जो बूढा बैठा है, खुदाबख्श ही तो है। तब कैसा बांका लगता था। बचपन में हम यहाँ से साईकल किराये पर लेते थे। यह हिसाब का बहुत कच्चा था। हम उसे गच्चा देकर घंटों साईकल चलाते। बाद में उसे समझ आती तो बहुत चिल्लाता। इसके आगे शंकरलाल खिलौने वाले की दुकान है। इसको कम दिखता है, बचपन में हम अक्सर यहाँ से खिलौने पार कर लेते और वह जो ऊँची पेढ़ी की दुकान है वह निजामुद्दीन की है। उसे गुजरे तो वर्षों हुए, यह तो उसका बेटा लगता है। दिवाली के दिन हम यहीं से पटाखे खरीदते। दिवाली के तीन-चार रोज पहले से मैं बाबा की सेवाचाकरी में लग जाता। मुझे आगे-पीछे भागता देख वे खुद ही कह देते, ‘‘पटाखे लेने है क्या ?’’ मुझे मन मांगी मुराद मिल जाती। पूरे दस रुपये के पटाखे दिलाते। फुलझड़ी, अनार, बम एवं जाने क्या-क्या! टोकरी भर जाती। तब दस रुपये की वखत भी थी।

मेरे भीतर का उद्रेक मानो उमड़ कर बहने लगा था। मैं श्याम को बताये जा रहा था, ‘‘वह जो छोटे दरवाजे वाली बंद ऊँची दुकान है यह मियां मिट्ठू की है। नाम तो उसका शाकिर था, पर मोहल्ले वाले उसे मिट्ठू कहते थे। यहाँ पतंगे बिकती थी। उस जमाने में पैसे-पैसे को तरसता था। बिचारे के आठ औलादें थी, सारे दिन गृहस्थी के जंजाल में उलझा रहता। बाबा उसकी हर ज़रूरत पूरी करते। वह भी बाबा पर जान देता। एक बार बाबा तरकारी लेकर आ रहे थे कि एक तांगे वाले ने उन्हें टक्कर मार दी। उस दिन मिट्ठू ने तांगेवाले की धुनाई कर दी। बेचारे का बस नहीं चला तो धरम का सहारा लिया। पिटते-पिटते मिट्ठू से बोला, ‘‘मुसलमान होकर हिंदू के लिए मुसलमान को मारते हो।’’ यह सुनकर मिट्ठू ने दो जूत और लगाए। उसकी आँखों से चिंगारियाँ बरसने लगी। तांगेवाले की गरदन पकड़कर बोला, ‘‘इसका पसीना भी गिरे तो खून बहा दूँ। मेरा रोम-रोम इसका कर्जदार है। धरम की बात मत करो, मेरी जरूरत के वक्त तुम्हारी मुसलमानी कहाँ चली जाती है। पिटते ही धरम याद आ जाता है। क्या कुराने-पाक में नहीं लिखा है कि ईमान पर चलने वाला हर शख्स खुदा का बंदा है।’’ उस दिन बाबा की आँखें गीली हो गयी। उन्होंने मिट्ठू को गले लगाकर कहा, ‘‘मिट्ठू मेरे तो कोई भाई नहीं है, पर तुम सगे भाई के बराबर हो।’’ उन जमानों में प्रेम ही धर्म था। जात-धरम के झगड़े तो अब होने लगे हैं। हर दिवाली पर मिट्ठू हमारी हवेली पर आता था, हर ईद पर बाबा उसे मुबारकबाद देने जाते। दंगे नाम का राक्षस तो अब आया है। अंग्रेज जाते-जाते विष बीज डाल गए एवं देश आज तक जल रहा है। तब मोहल्ले का हर आदमी एक दूसरे पर जान देता था।

अब मैं और श्याम हवेली से मात्र दस कदम दूर थे। हवेली के गुंबज, कमरों की खिड़कियाँ एवं दीवारें मुझे देखने लगी थी। मेरी बूढी टांगों में बचपन की स्फूर्ति लौट आई थी। पाँव जल्दी-जल्दी बढ़ने लगे थे। काश ! मेरे पंख होते तो मैं सीधा हवेली की छत पर जा पहुंचता। जैसे कोई बच्चा मुझे वहाँ से पुकारने लगा था।

मैं और श्याम अब हवेली के बाहर खड़े थे। आज माँ और बाबा होते तो लपक कर बाहर आते, यही तो न कहते, बेटा तुम्हारे इंतजार को आँखे तरस गई। पोते को देखकर तो आसमान सर पर उठा लेते। यकायक मैं झेंपा, श्याम ताले की चाबी मांग रहा था। मुझसे चाबी लेकर उसने चाबी तो घुमाई पर ताला नहीं खुला। उसे क्या पता था इसमें चाबी लगाने के बाद नीचे का बटन दबाना होता है। बाबा अलीगढ़ गए तब इस ताले को लाये थे। पीतल का है, माँ के जमाने में यह ताला चमकता था। माँ इसे कई बार राख से रगड़ती थी। और इस दरवाजे पर तो मैंने खुद कितनी ही बार तेल लगाया है। हर दिवाली पर पकवान बनाने के बाद जला हुआ तेल यहीं चुपड़ता था। बाबा कहते थे, बस होली-दिवाली तेल लगा दो यह शीशम का दरवाजा सौ साल नहीं जाने वाला।

मैं और श्याम अब भीतर आ गए है। श्याम गरदन ऊँची कर चौक में बने कुछ चौकोर खानों को देखने लगा है। अभी-अभी दो कबूतर उसमें से बाहर आए हैं। उसे आश्चर्य हो रहा है। घर में कबूतर खाने? मैंने उसकी समस्या का समाधान किया, ‘‘बेटे, उस जमाने में हर चीज का बंटवारा था। घर बनाते समय चौक में यह खाने बनाये जाते थे ताकि कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी इनमें आराम से रह सके। बचपन में बाबा मुझे कंधे पर बिठाकर यहाँ दाना रखवाते थे। एक बार मैंने वहाँ कबूतर के अण्डे देखे तो बाबा ने कहा, ‘‘इन्हे छूना नहीं। कबूतरों को अण्डे उतने ही प्यारे है, जितना तू मुझे। उसके कुछ दिन बाद इन्हीं खानो से दो सुंदर-सुंदर कोमल पाखी झांकने लगे थे। उस दिन माँ ने हंसकर बाबा से कहा था, ‘‘अब राशन कार्ड में इनका भी नाम लिखवा लो।’’ तब बाबा हंसकर लोटपोट हो गए थे।

उस जमाने का आदमी आदमी से ही नहीं प्रकृति केे हर जीव से स्नेह रखता था। तवे से उतरी पहली दो रोटी गाय-कुत्तों को दी जाती थी। हर इतवार को चीलों को गुड़-आटे के बने गुलगुले फेंके जाते। हर घर में तुलसी के पौधे होते। बड़े घरों में पीपल एवं नीम के पेड़ तक होते। मोहल्ले की बैठकें बड़ के तले होती। औरतें नित्य पानी सींचती। मनुष्य तब इसलिए सुखी था कि उस जमाने में इंसान तो एक दूसरे को दुआ देते ही थे, अबोले पशु-पक्षी, पेड़-पौधे तक हमें आशीष देते थे। अब ये प्रथाएं समाप्त हो गई हैं तो हमारे सुख चैन भी समाप्त हो गए। अब तो सब एक दूसरे को काट रहे हैं।

चौक को पारकर मैं भीतर आ गया हूँ। श्याम मेरे साथ ही है। अब श्याम को क्या-क्या बताऊँ। सारी स्मृतियां पिटारा खोलकर बाहर आ गई हैं। यह रसोई जहाँ माँ बैठकर हम सबका खाना बनाती थी। वह दया और वात्सल्य की देवी थी। सबको इतने प्यार से रखती जैसे चिड़िया घौंसले में बच्चों को रखती है। इतना लज़ीज़ खाना बनाती कि लोग अंगुलियाँ चाट लें। दोपहर को यहाँ औरतों का जमघट लगता। सब अपने सुख-दुख की बात माँ को कहती। कई औरतों को तो माँ छुप-छुपकर पैसे भी देती। यह बातें वह बाबा तक को नहीं बताती, हमारी यह हवेली सबकी जरूरतों का आसरा थी।

हवेली का एक-एक पत्थर, एक-एक दीवार, एक-एक वस्तु मुझे झकझोरने लगी थी। यह खंभे में लगा कांच जहाँ मैं स्टूल पर खड़ा होकर बाल संवारा करता था और सामने पड़ी उस सारंगी के बारे में तो श्याम को जरूर बताऊँगा। श्याम देखो ! वह सारंगी मेरे दादा अर्थात् तुम्हारे परदादा की है। कहते है रात मोहल्ले में चबूतरे पर बैठकर वे इसी सारंगी को बजाते हुए भजन सुनाते। मोहल्ले वाले उनकी आवाज के दीवाने थे। उनके मरने के बाद बाबा ने यह सारंगी टांड पर रख दी। उन्हें बजाना कहाँ आता था। धीरे-धीरे यह खराब होने लगी तो माँ ने एक दिन उसे कबाड़ी को बेच दिया। उस दिन बाबा घर आये तो कोहराम मच गया। माँ को हथेली के छाले की तरह रखने वाले बाबा माँ पर बरस पडे, ‘‘तुमने उसे बेच कैसे दी? मेरे पिता की वही तो निशानी थी। उसके बाद तीन दिन तक वे कबाड़ी को ढूँढ़़ते रहे। चौथे दिन कबाड़ी मिला तो दुगना दाम देकर उसे वापस लाये। तब माँ की सांस में सांस आयी।

बात करते-करते हम दोनों मुख्य कमरे में आ गए। मैं बाबा और माँ रात यहीं सोते थे। घर की समस्याओं का समाधान यहीं होता। इतमिनान के दिनों में माँ अक्सर कहती, ‘‘सासरो सुख वासरो।’’ रात सोते वक्त मैं अक्सर इस छत को निहारता। कितना सुंदर नक्काशी का काम है। उस जमाने में अंग्रेज इन कमरों की फोटो खींचने आते थे। यह जो सामने अलमारी के ऊपर तस्वीर लगी है वह एक अंग्रेज ने ही भेजी थी। माँ और बाबूजी के बीच मैं बैठा हूँ , बिलकुल श्याम जैसा , हम दोनों की शक्ल कितनी मिलती है।’’

कमरे के उत्तर वाले कोने में एक लकड़ी की पेटी रखी है। श्याम इसे खोलकर जाने क्या देखने लगा है। यकायक उसकी आँखों में आश्चर्य फैलने लगा, मुझे पुकार कर बोला, ‘‘पापा यह क्या है? कितना एंटीक शो-केस है। इसके अंदर क्या रखा है।’’

मैंने रुमाल निकालकर शो-केस साफ किया। स्मृतियाँ मेरे विचार-नभ पर बिजलियों की तरह कड़क उठी। अब मेरा हाथ श्याम के कंधे पर था, ‘‘बेटा यह पाग है-हमारी थाती। तुम्हारे दादा किसी भी शुभ कार्य के लिए निकलते तो इसको प्रणाम कर निकलते। बाबा बताते थे कि यह मेरे दादा के भी दादा की पगड़ी है एवं तब से लगातार चली आ रही है। कहते हैं इस पगड़ी को पहनने वाला नितांत स्वाभिमानी एवं न्यायप्रिय व्यक्ति था। सारे मोहल्ले के झगड़ों का निपटारा वही करता। ईमानदारी एवं परदुःखकातरता उसके हृदय में बसती। यह राज का हाकिम नहीं था, पर सारा मोहल्ला उन्हें हाकिम साहब कहता। बाबा कई बार माँ को कहते थे यह पाग हमारी आन एवं पुरखों की निशानी है। हमारे पुरखों की आशीष है। जब तक हमारे सिर पर उनका हाथ है, हमें कोई क्लेश नहीं हो सकता।’’ कहते-कहते, कई बार वे अपनी हथेलियाँ रगड़कर माँ को कहते, ‘‘मेरे पुरखों ने पुण्यों का जो घी खाया है, उसकी सुगंध आज भी मेरी हथेलियों में बसी है, चाहो तो मेरा हाथ सूँघ लो।’’ तब माँ उन हथेलियों को अपनी आँखों से लगा लेती। बाबा की आँखें तब अभिमान से भर उठती। इस पाग के अनेक किस्से बाबा मुझे सुनाया करते थे। कहते है वर्षों पहले एक बार इस हवेली में आग लग गई। तब दादा बिना जान की परवाह किए हवेली में घुसकर इस पाग को उठा लाए थे। उनका शरीर झुलस गया पर उन्होंने पाग को नही जलने दिया। मेरे बाबा जब इसकी कसम खाते तो सभी समझ जाते की बात सोलह आने खरी है। उस समय पूरे मोहल्ले में हमारी हवेली पगड़ीवाली हवेली के नाम से विख्यात थी। बाबा जब भी मुसीबत में होते इस पगड़ी के आगे बैठ जाते। थोड़ी देर में उनका चेहरा आत्मविश्वास से आप्लावित हो जाता। बाबा हर तकलीफ में सबको ढ़ाढस बंधाते। कठिन से कठिन घड़ी में आँसू नहीं बहाते। अगर वो आँसू बहाते तो सिर्फ इस पगड़ी के सामने। श्याम यह पगड़ी है हमारे आन-बान एवं इतिहास की, उन दिव्य मूल्यों की जिनसे हमारे पुरखों ने कभी समझौता नहीं किया। यह प्रतीक चिह्न है हमारे विश्वास का, गरिमामय विरासत का। यह पाग हमारी संस्कृति, सीख एवं पुरखों की धरोहर है। एक वर्ष पूर्व मैंने जब बाहर मकान बनाया तो इसे भी साथ ले जाना चाहा, पर तुम्हारी माँ ने मना कर दिया। कहने लगी इस फटी पाग को नये मकान में रखेंगे क्या। जाने क्या सोचकर मैं टाल गया। आज इसके पुनः दर्शन कर समझ में आया है कि इतने वर्ष खराब क्यों बीते। शायद इस पगड़ी में हमारे पुरखों की आत्माएं बसी है।

श्याम अब तक शांत चुपचाप खड़ा था। वह शो-केस के एक-एक हिस्से को ध्यान से देख रहा था। उसके हृदय में जज्बातों का सैलाब उमड़ रहा था। क्षण भर के लिए वह किसी अन्य लोक में चला गया। जाने क्या सोचते- सोचते उसने हवेली की चाबियां अपनी मुट्ठी में कसली। उसके चेहरे पर मानो पीढ़ियों की आन उतर आई, मेरी ओर देखकर बोला, ‘‘पापा, हम इस हवेली को नहीं बेचेंगे। अब हम उस मकान को बेचकर इसकी मरम्मत कराऐंगे एवं यहीं आकर रहेंगे। देखता हूँ कौन रोकता है। यह हमारी धरोहर है। धरोहर बेची नहीं जाती।’’

मेरी दशा ऐसी थी जैसे योगी परमतत्त्व पा गया हो। आँखों में रिमझिम लग गई, स्नेह के मारे सारे अंग शिथिल हो गए, हृदय से बहती भाव गंगा में मानो मैं और श्याम दोनों नहा गए। भाव विह्वल मैंने श्याम की ओर देखा। क्षण भर के लिए मुझे लगा जैसे मेरे सारे पुण्य देह धारण कर पुत्र रूप में खडे़ हों।

हम दोनों अब पगड़ी के आगे नत खड़े थे। खिड़की से झांकती सवेरे की शीतल सूर्य रश्मियाँ हमारे शरीर को स्पर्श करने लगी थी। मैंने एक बार पुनः पाग की ओर देखा। यकायक मुझे लगा जैसे अनेक बूढ़े हाथ उसमें से निकलकर हमें आशीर्वाद दे रहे थे।

इन्हीं हाथों में दो हाथ पीछे जाकर सारंगी बजाने लगे थे।

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28.04.2008

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