दृष्टिकोण

रूठे बच्चों के कपोलों की तरह बारिश के बाद खिड़की दरवाजे अक्सर फूल जाते हैं। छोटे-छोटे कामों के लिए सुथार को ढूँढ़ना भी टेढ़ी खीर है। 

इस बार बारिश इतनी पड़ी कि घर के सारे दरवाजे न सिर्फ फूल गये, सील भी गये। कई दिन तो हम ठोक-पीटकर काम चलाते रहे पर दिन कुछ ज्यादा गुजर गये तो श्रीमतीजी ने टोका, ‘अब  ठीक भी करवा दो! कमरों के दरवाजे तो जैसे-तैसे चला लें, बाथरुम में जब भी घुसो, अंदेशा रहता है। आपको दस बार कह दिया है पर बीवी की बात मानने से नाक नीची न हो जाये। बाॅस के आँखें दिखाने पर तो सारे शहर में रबड़ते फिरते हो।‘ गीता तीखी होकर बोली। 

‘अरे बाॅस का ध्यान तो रखना ही पड़ता है। वो नाराज हो गये तो समझ ले दरवाजे नदारद हो जायेंगे।’ मैंने ब्रश करते हुए तीर डाला। 

जबान हिलाने से ही बला टले तो कोशिश करनी चाहिये, हाँ यह बात अलग है कि कई बार कोशिशे नाकामयाब हो जाती हैं। 

‘जितनी शक्ति काम टालने में लगाते हो उससे आधी काम में लगाओ तो सबका कल्याण हो जाये। कभी बीवी को भी खुश कर दिया करो। माना घर की मुर्गी दाल बराबर होती है पर होती तो घर की है।’ वह कौन-सी रुकने वाली थी। 

यह मेरे सब्र की इन्तहा थी, उसकी बात में दम था। आज रविवार भी था। 

पूर्वी छोर से आँखें फाड़े सूर्य यूँ ऊपर उठ रहा था मानो उसे अकर्मण्य एवं कामचोर लोगों पर निगाह रख आगे रिपोर्ट देनी हो।

मैंने बाज़ार छान मारा पर बढ़ई नहीं दिखा। जिसे देखो व्यस्त। यूँ काम नहीं हो तो ढेर कारपेन्टर्स दिखते हैं पर काम हो तो ऐसे गायब होते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।

थक कर घर लौट रहा था कि सामने गणेश सुथार दिख गया। दार्शनिक की तरह बदहवास इधर-उधर  देखे जा रहा था। मुझे मालूम था, वह ऐसा ही है। 

पाँच साल पहले दरवाजे खराब हुए तब उसी ने ठीक किये थे, तब भी वह बाजार में ऐसे ही मिला था। काम कम और बातें अधिक करना उसका स्वभाव था। काम के साथ तेज गाने गाता रहता…..नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर……. एवं जाने क्या-क्या।’ 

कुछ नहीं मिलने से कुछ मिलना अच्छा होता है।

‘अरे गणेश तुम!’ मैं ऐसे चीखा जैसे कोई रिश्तेदार वर्षो से मिला हो।

‘आजकल तुम कहाँ रहते हो, दिखते भी नहीं।’ मेरी आँखों में चमक लौट आई थी। 

उसे भी मानो मुँह माँगी मुराद मिल गयी थी।

‘मैं तो यहीं इसी शहर में हूँ! कोई काम हो तो बतायें।’ वह लपककर बोला। 

अंधा क्या चाहे दो आंखें।

‘घर के खिड़की, दरवाजे बारिश में फूल गये हैं, जरा रंदा मार दे।’

‘चलो बाबूजी।’ 

मैंने सोचा भी नहीं था वह इतना जल्दी हाँ कह देगा। मैंने तुरन्त घर की राह ली। 

रास्ते भर वह बीड़ी पीता रहा। जब भी राख झाड़ता, वही बातें करने की पुरानी आदत। उसके ज़ुबान की खुजली रूकती नहीं थी।

‘बाबूजी! पिछली बार आपके यहाँ काम किया, मुझे अब तक याद है। आपने मजदूरी के साथ पचास रुपये बख़्शीश दिये थे और बीवीजी तो देवी है, दिन में तीन बार चाय पिलायी। चाय में अदरक तो कोई बीवी जी से डालना सीखे, मैं तो अब तक स्वाद नहीं भूला।’ बीड़ी की राख झाड़ते हुए उसने गले में लटकते गमछे को बायें कंधे से उतारकर दायें पर डाला। 

‘बातें बनाना कोई तुमसे सीखे। तुम्हारे गपियाने की आदत अब तक नहीं गयी।’ मैंने बात को गति दी। 

‘क्या करें बाबूजी! कलेजे का दुःख बातों की आँच से ही पिघलता है। दो-चार गीत गुनगुना लिये, दो-चार बातें कर ली, मन हल्का हो जाता है।’ वह दार्शनिक अंदाज में बोला। 

‘तू इतनी बड़ी-बड़ी बातें कहाँं से सीख गया है?’ 

‘हालात सब सिखा देते हैं, बाबूजी!’ 

हम दोनों घर के सामने खड़े थे। मुझ से भी तेज चलकर वह ड्राईंगरूम में ऐसे घुसा जैसे मकान उसके बाप ने बनाया हो। 

ड्राईंगरूम से बाहर बगीचा साफ नजर आता था। एक दीवार से दूसरे दीवार तक लगे पारदर्शी शीशे से बगीचा देखने का अलग आनंद था। पता नहीं लोग ड्राईंगरूम की इस दीवार को बंद क्यूँ करवा देते हैं ?

‘देखा मेरा काम बाबूजी! यह काँच पाँच साल पहले लगाया था, आज भी कितना चमक रहा है।’ वह काँच पर हाथ फेरते हुए बोला। 

‘पूरे दस हजार लगे थे।’ कहते हुए मैंने उसकी ओर यूँ देखा मानों उसे समझा रहा हूँ कि दम रूपयों में अधिक, तेरे काम में कम है।

‘लेकिन रुपये वसूल हो गये बाबूजी! आप जैसा ड्राईंगरूम रईसों के यहाँ नहीं दिखता। पता ही नहीं चलता ड्राईंगरूम में बैठे हैं अथवा बगीचें में।’ 

उसकी बात में वाकई दम था। शीशा महंगा जरूर था पर बगीचे का मनभावन दृश्य ड्राईंगरूम की शोभा कई गुना बढ़ा देता। सुबह जब मैं पर्दा हटाता तो मन आनन्द से भर उठता। बगीचे पर उड़ते, चहचहाते पक्षी मन को अजीब-सा फैलाव देते। हवा की लहरों से खेलती हुई रंग-बिरंगें फूलों की टहनियाँ मन को प्रफुल्लित कर देती। 

मुझे यह शीशा बहुत पसन्द था। एक बार क्रिकेट खेलते हुए बच्चों की गेंद इस पर आकर लगी। शीशा मजबूत था बच गया, पर मैंने काॅलोनी सर पर उठा ली। बाहर खड़े एक बच्चे को थप्पड़ जड़ दिया। उसके बाद बच्चों में ऐसी दहशत फैली कि उन्होंने मेरे घर के आगे क्रिकेट खेलना छोड़ दिया। 

सुबह मैं स्वयं इस पर स्प्रे लगाकर साफ करता। मुझे गंदे काँच जरा नहीं सुहाते। 

अब तक श्रीमतीजी रसोई से आ चुकी थी। गणेश को वहीं बिठाकर उसने मुझे बेडरूम में आने का संकेत दिया। मेरे कमरे में प्रवेश करते ही वह बिफर पड़ी, ‘आप फिर इस बातूनी को पकड़ लाये। दिन भर जोर-जोर से गाना गाता है, गंवारों की तरह। कतरनी की तरह जबान चलती है।’ 

‘एक दिन की तो बात है। आज सारे दरवाजे ठीक कर जायेगा। दो घण्टे से ढूंढ रहा हूँ, सुथार नहीं मिला, बड़ी मुश्किल से यह दिखा है।’ 

गीता इस मौके को टालना नहीं चाहती थी।

गणेश ने कार्य प्रारम्भ किया। सबसे पहले रसोई के दरवाजे छीलने लगा। काम करते-करते बोला, बीवीजी! एक बात तो कहनी पड़ेगी, पाँच साल बाद आपसे मिलना हुआ है पर भगवान नज़र न लगाये आप आज भी वैसी ही तीखी- बाँकी लगती हैं। हाँ, साहब जरूर बुढ़िया गए हैं।’

गणेश के अमृत वचन उसके कानों में मिश्री की तरह घुल गये। 

‘इनको रोज कहती हूँ कुछ कसरत किया करो, बदन छरहरा बनेगा, पर बीवी की बात मानने से मर्द की मूँछ नीचे न हो जाये। मेरी बला से और मोटे होवो।’ 

‘बीवीजी आपका घर सबसे पहले बना, पर रसोई अभी भी वैसी है। मैंने तब भी कहा था रसोई में लकड़ी का काम करवा लो। केबिनेट्स एवं अलमारियों से रसोई का रूप खिल जायेगा। आपके पड़ौसियों के घर बाद में बने पर उनकी रसोई में लकड़ी का कितना सुन्दर काम है। सब चीजें केबिनेट्स में रखी हो तो रसोई कितनी साफ दिखती है। औरत जात तो रसोई के रूप से ही पहचानी जाती है।’ वह रंदा मारते हुए बोला। 

गणेश ने पत्ता फेंका था। गीता के तन-मन में हलचल मच गई। बाहर आकर बोली, ‘अब गणेश इतने वर्षों से आया है तो रसोई में लकड़ी का काम क्यूँ नहीं करवा लेते ? मैं तो कहती हूँ लगे हाथों पेल्मेट्स एवं बैडरूम में भी वार्डराॅब बनवा लो। बार-बार सुथार कहाँ ढूंढ़ते फिरेंगे ? ऑफिस से एडवांस ले लेना, धीरे-धीरे चुका देंगे।’

मैंने सिर हिलाकर गीता की बात को मूक सहमति दी। जीवन में अनेक जगह गूंगा होना वाचाल होने से अच्छा है। 

‘गणेश जरा नाप लेकर बताना, कुल कितना खर्च आयेगा।‘ मैंने उसे रसोई से बुलाकर पूछा।

‘अभी बताता हूँ, बाबूजी!’

गणेश ने तुरत-फुरत नाप ले लिया।

‘करीब तीस हजार लग जायेंगे। आधी मजदूरी होगी।’ फीता गले में डालते हुए वह बोला।

मेरा कलेजा बैठ गया। गीता ने तुरन्त बात भाँप ली। 

‘अरे घबराते क्यूँ हो! पन्द्रह हजार तो घर में रखे हैं । कुछ एडवान्स ले लेना। जरूरत पड़ी तो कुछ रकम भैया से ले लूंगी।’

उसकी आत्म-विश्वास से भरी बातों ने मुझे हौसला दिया।

अंततः काम करवाना तय हुआ। बातों ही बातों में गणेश ने बताया कि लकड़ी खरीद कर दो दिन सुखानी होगी। अच्छा यह होगा कि मैं आज लकड़ी, प्लाई एवं हार्डवेयर का सामान ले आऊँ ताकि समय जाया न हो। आगे ब्याह शादियों के दिन हैं, भाव बढ़ जायेंगे। 

मैंने अलमारी से निकाल कर उसे पन्द्रह हजार रुपये दिये। कार्य करने से पूरा होता है, बैठे-बैठे मंसूबे बनाने से नहीं। 

गणेश ने लपक कर रुपये लिये, कमीज ऊपर कर बंडी में ठूंसे एवं जाते-जाते बोला, ‘सामान आज दुपहर एक बजे तक ले आऊँंगा, दरवाजे वापस आकर ठीक कर दूॅँगा।’

लम्बे-लम्बे डग भरते हुए वह घर से निकल गया। 

गणेश के जाते ही मैं रसोई एवं बैडरूम के होने वाले रूप निखार की कल्पनाओं में खो गया। गीता अक्सर ताने मारती, ‘रसोई कितनी बिखरी-बिखरी रहती है, मेरी माँं की रसोई जाकर देखो, मजाल कोई चीज यहाँ-वहाँ दिख जाये। रसोई बंद करने के बाद भी सामान नज़र नहीं आता। पापा ने रसोई बनने के साथ ही लकड़ी का काम करवा लिया था।’

मैंने मन ही मन सोचा, चोर साला! कितनी रिश्वत खाता है। खरी कमाई के रुपये हो तो पता चलता है। 

यकायक गीता की आवाज सुनकर मैं चौका।

‘अरे उसका पता वगैरह तो जानते हो! इन लोगों का क्या भरोसा।’ वह रसोई से चाय बनाते हुए बोली। 

मैं एकाएक झेंपा पर गीता की नजरों में गिर न जाऊं अतः छाती फुलाकर बोला, ‘तू क्यूँ चिंता करती है। मुझसे होशियारी की तो जहन्नुम से खींच लाऊँगा। ऐसे पाजियों से मेरा रोज साबका पड़ता है। पिछली बार इसने कोैन-सी बेईमानी की जो अब करेगा और फिर ज्यादा सयाना बना तो दादाजी वाला मोटा डंडा कब काम आयेगा ?’

मैंने कभी दादाजी को नहीं देखा पर पिताजी कहते थे, ‘यह काला डंडा बाबा ने हाट से खरीदा था। अक्सर कहते थे, शीशम का है, सौ साल कहीं नहीं जाने वाला।‘ बचपन में एक बार शैतानी करने पर पिताजी ने इसी डंडे से धुनाई की थी। उसके बाद जब भी शैतानी करता या पढ़ाई नहीं करता तो पिताजी बस मुझे देखकर डंडे की तरफ देख लेते। उनकी मूक आँखें मुझे सीधा संदेश देती, ‘बरखुरदार! पुरानी पिटाई भूल गए क्या?’ उनकी आँखों के उतार-चढ़ाव से मैं भीतर तक काँप उठता। डंडे से अधिक डंडे का भय शासन करता है। 

‘अरे दादाजी तो रोब वाले थे, आप डंडा चला लोगे क्या ?’ वह हँसती हुई बोली। 

‘तू आगे-आगे देख, मैं सब संभाल लूंगा। ऐसे लौण्डे छप्पन सौ साठ घूमते हैं।’ मैंने छाती फुलाकर कहा। 

गीता ने निश्चिंतता की सांस ली। उसकी विश्वास एवं राहत भरी आँखें देखकर मैंने मन-ही-मन अपना कंधा थपथपाया, ‘शाबाश! पति हो तो ऐसा। जिन औरतों के पतियों में दम हो वही राज करती हैं।’

गर्मी के दिन थे। सूर्य सर चढ़कर तपने लगा था। राहगीरों की परछाइयाँ पाँवों में दुबकने लगी थी। 

ड्राईंगरूम की घड़ी ने एक का घण्टा बजाया। घण्टा बजने के साथ ही एक तोता घड़ी से बाहर आया एवं एक बार ‘राम-राम सा‘ कहकर चला गया। इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ भी कमाल की हैं, आवाज घण्टा बजने की आती है पर कितनी धीरे एवं मधुर। हर बार घण्टा बजने के बाद घड़ी से एक तोता आता एवं जितने बजे होते हैं उतनी बार ‘राम-राम सा‘ कहकर चला जाता। क्या क्लासिकल टच है! ओल्ड वाइन इन न्यू बाॅटल। 

घड़ी उसके मैके से पिछले साल आई थी। पहली बार प्रदर्शन करते हुए उसने मेरी ओर सगर्व नेत्रों से ऐसे देखा था मानो कह रही हो, ‘तुम्हारी सात पुश्तों ने भी देखी थी ऐसी घड़ी।’ 

अब तक गीता ने डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया था। लंच करने के बाद हर रविवार मैं दो घण्टे अवश्य सोता। उठा तो घड़ी ने तीन घण्टे बजाये। 

बाहर आकर ड्राईंगरूम में बैठा ही था कि गीता चाय लेकर आयी। चाय का पहला सिप लिया था कि उसकी आवाज सुन चौंका, ‘गणेश अब तक नहीं आया। आप भी न जाने कहाँ-कहाँ से लटूरों को पकड़ लाते हो। अरे लकड़ी लेने गया है कि पेड़ उगाने।’

‘आ जायेगा! दो चार दुकान फिरेगा तभी तो अच्छी एवं सस्ती लकड़ी मिलेगी। वार्डराॅब की लकड़ियाँ लानी है। मुर्दे जलाने की लकड़ी हो तो मुफ्त में मिल जाये।’ मैंने गीता को आश्वस्त किया। 

गीता की आँखों से चिन्ता झलकने लगी थी। मेरे मन में भी संदेह की लहरें उठने लगी थी। मैंने इस संदेह को आँखों तक नहीं आने दिया। मेरी आँखों में अविश्वास देखते ही गीता भड़क उठती। 

दिन यूँ ही बीत गया। शाम तक चेहरा लटक गया। गीता की आँखें लाल होने लगी थी। बाहर बगीचे पर पक्षी लौटने लगे थे। मेरा बस चलता तो मैं एक-एक पक्षी से जाकर पूछता, ‘तुमने गणेश को  देखा क्या?’

तभी घड़ी ने सात घण्टे बजाये। तोता सात बार बाहर आकर ‘राम-राम सा‘ कहते हुए अंदर चला गया। उसको सातवीं बार बोलते हुए मुझे लगा वह मेरा मजाक बना रहा है, ‘कैसी रही? बड़ी शेखी बघार रहे  थे ? अब लाओ गणेश को पकड़ के ? हम भी देखें आपने कितने पाजियों को ठीक किया है ?’

तोते की ओर देखते हुए मैं सर खुजाने लगा। चेहरा सन्ध्या के फूलों की तरह कुम्हला गया। कुछ देर बाद फीके मन से गीता ने डिनर लगाया। मैंने खाने का प्रयास किया पर कौर गले में अटक गये। खाना लहू हो गया। 

गणेश गया कहाँ? कम से कम फोन तो कर सकता था ? कहीं वह रुपये लेकर चंपत तो नहीं हो गया ? पता नहीं कहाँ रहता है? 

गीता के गाल भी अब अचार पर आई फफूंद की तरह फूलने लगे थे। कुछ देर तो चुप रही फिर तीखी होकर बोली, ’वह कहाँ रहता है, इसका अंदाजा भी है या नहीं?’

‘पता नहीं यह कहाँ से मेरे पल्ले पड़ गया।‘ मैं रुआंसा होकर बोला। 

‘सूरदास को जो मिले अंधे ही मिले।’ वह बोली। 

‘किसी के चेहरे पर थोड़े न लिखा होता है कि वह कैसा है।’ मैंने स्पष्टीकरण दिया। 

‘पहले तो काम न करूँ और करूँ तो ऐसा करूँ। जो रोते हुए जाते हैं मरे की खबर लाते हैं।’ भड़ास निकालकर उसने करवट बदली एवं  जाने कब सो गयी। सोचते-सोचते मेरी भी आँख लग गयी। 

दूसरे दिन ऑफिस जाने से पूर्व मेरी आँखें बरामदे पर बिछी थी मगर गणेश नहीं आया। एक से दो दिन हुए, दो से सात पर गणेश कहीं नहीं दिखा। मैंने दो चार सुथारों से उसके बारे में पूछा भी, पर कोई यह नहीं जानता था कि वह कहाँ रहता है ? ऐसे सिरफिरों का ध्यान कौन रखे? मैं चार-पाँच लकड़ी के थोक व्यापारियों के पास भी गया, शायद वहाँ लकड़ी लेने पहुँचा हो पर किसी ने गणेश का हवाला नहीं दिया। 

अगले इतवार बाजार किसी काम से गया तो बाजार के उस पार उसकी हल्की झलक दिखी। मैंने गहराई से देखा। वह गणेश ही था। उसके हाथ में कुछ पैकेट्स थे। अफरा-तफरी में बदहवास इधर-उधर देख रहा था। चोर की आँखें कैसे ठहर सकती हैं? 

मैंने वहीं खड़े पुकारा, ‘गणेश!‘ आवाज देते हुए मुझे ऐसा लगा मानो मन मांगी मुराद मिल गयी हो। उसने मुझे देखा, ठिठका एवं मैं समीप पहुँचता उसके पहले लम्बे-लम्बे डग भरकर भागने लगा। मेरे तलवों में आग लग गयी। मैंने उसका पीछा किया, बहुत देर उसके पीछे चलता रहा, मेरी सांस फूलने लगी। उस दिन मेरे पास बन्दूक होती तो मैं उस पर दाग देता। हरामखोर में इतनी तमीज भी नहीं कि मेरी बात सुने। मुझे भगा रहा है। देखते-देखते वह एक पतली गली में घुसकर छू-मन्तर हो गया। मैं उसकी चाल की बराबरी नहीं कर पाया। मैं अपना-सा मुँह लेकर रह गया। 

मैंने आस-पास लोगों से उसके बारे में पूछा भी पर किसी को कुछ पता नहीं था। 

आज गणेश को गये पूरे चौदह दिन हो चुके थे। रात खाना खाकर आराम कुर्सी पर सुस्ता रहा था कि आफिस के एक मित्र ने सूचना दी, ‘कांति भाई! तुम्हारे गणेश का पता मिल गया। मेरे घर एक कारपेन्टर काम कर रहा है, वह उसका घर जानता है।‘ 

मेरी बाँछें खिल गयीं। 

दूसरी सुबह उस कारपेन्टर को लेकर मैं गणेश के घर की तरफ चला। मन ही मन सुलग रहा था। पाजी एक बार हाथ आ जाये, गर्दन नहीं दबायी तो नाम कांति नहीं। लोग ठीक कहते हैं, छोटा आदमी लतियाए अच्छा। सहानुभूति से यह सर चढ़ जाते हैं। गरीब आदमी की गरीबी का कारण वे खुद हैं। जिसमें जितनी पात्रता है भगवान ने उसे उतना ही दिया है। जो मिट्टी जहाँ लगी है, ठीक है। पात्रता ही व्यक्ति को ऊँचा उठाती है। कच्चे घड़े में जल भरा और फूटा। मैं कुढ़ता हुआ तेज चल रहा था। मेरी आँखें लाल होने लगी थी। 

गणेश के घर पहुँचने से कुछ कदम पहले यकायक हम दोनों ठिठक गये। उसके घर के बाहर लोग कंधे पर गमछा डाले अरथी बना रहे थे। बात स्पष्ट थी, उसके घर अवश्य किसी की मृत्यु हुई थी। कहीं गणेश तो नहीं मर गया? 

मैंने पास ही खड़े एक बुजुर्ग से गणेश के घर की ओर इशारा कर पूछा, ‘उस घर में किसी का निधन हुआ है क्या?’ 

‘क्या बताएँ बेटा! पन्द्रह दिन पूर्व उसकी बीवी को किसी ट्रक ने कुचल दिया। अस्पताल भर्ती करवाकर इधर-उधर पैसों के लिए घूम रहा था कि कोई भला आदमी मिल गया। कहते हैं उसी के घर से पन्द्रह हजार लेकर आया। पूरा इलाज करवाया पर तड़के उसकी बीबी ने दम तोड़ दिया। भगवान भला करे उस आदमी का। ढूंढो तो दुनियाँ में आज भी फरिश्ते मिलते हैं।‘ कहते-कहते बूढ़े की आँखें गीली होने लगी थी।

अब तक शव-यात्रा घर से प्रारम्भ हो चुकी थी। बिलखता गणेश अपनी अर्धांगिनी की अरथी कंधे पर लिये सबसे आगे था। 

मुझे काटो तो खून नहीं। मैं एक पल भी नहीं ठहर पाया। सारी राह दाँत भीचे चलता रहा। कैसे-कैसे कलुषित विचार मैंने उसके बारे में पाले ? कैसे-कैसे दुर्संकल्प उसको लेकर मेरे मन में आये ?मैं यह क्यों नही सोच पाया कि वह भी सही हो सकता है ? उसकी भी कोई समस्या हो सकती है ? मैं इतना निष्ठुर क्यों बन गया ?भीतर प्रश्नो की झड़ी लग गयी। आक्रोश का एक तेज सैलाब मेरी आत्मा की तहों को फाड़कर बह निकला।लगा जैसे मैं अपने ही दृष्टिकोण की अरथी कंधे पर ढोकर चल रहा हूँ।

घर आकर मैंने कोने में पड़ा शीशम का मोटा डण्डा उठाया एवं पूरे जोर से ड्राईंगरूम के काँच पर दे मारा। 

शीशा तड़ से टूटकर बिखर गया। 

इतने मोटे नज़रिये का शीशा आखिर किस काम का?

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06.01.2004

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