दीक्षा

डूबते सूर्य का आखिरी बिम्ब अब ओझल हो चुका था। सांझ घर लौटते पक्षियों का शोर भी यकायक थमने लगा था। नववधू के लज्जाआरक्त मुख की तरह पश्चिमी छोर पर लालिमा अब भी शेष थी। 

रामसुख आज फिर गढ़ी के तल में खण्डरों के पास आकर खड़ा हो गया। न जाने इन खण्डहरों का सामीप्य उसे क्यों अच्छा लगता है? क्या इन्हें देखकर उसे सुकून मिलता है कि दुनिया में वह अकेला भग्न हृदय नहीं है अथवा इसलिए कि दोनों बेजुबान हैं? पाषाणों के जिव्हा नहीं होती और वह जिव्हा होते हुए भी अपने मन की विकलता का बयां नहीं कर सकता। 

इस गाँव में प्रवास के दरमियां वह अक्सर यहाँ आया है। गढी भी अब नाम मात्र की गढी रह गई है। भीतर कुछ भी नहीं है पर दीवार एवं बुर्ज आज भी अटल है। दीवार पर यहाँ-वहाँ जंगली घास एवं छोटे-छोटे पौधे उग आये हैं। तल के खण्डहर उन शासकों के स्मारक हैं जो रामसुख के स्वप्नों की तरह कब के काल कवलित हुए। 

उसे लगा यूँ खड़े उसे बहुत समय हो गया है। वह गढी के भीतर आया। कंधे से भगवा वस्त्र उतारकर गढी का आँगन पल्लू से झाड़ा एवं चुप बैठ गया। नीचे घने पेड़ पसरे थे। आगे तेज आवाज के साथ बहती हुई बाणा नदी एक तरुणी के स्वप्नों की तरह उफान पर थी। आसमान में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी का युवक चाँद मद भरे स्वप्नों में खोया निर्भय विचर रहा था। इधर-उधर विचरती बदलियाँ उसे जब-तब अपने आगोश में ले लेती। बदलियों के आगोश से निकलते हुए उसकी चमक यूँ दुुगुनी हो जाती मानो कोई अल्हड़ युवक अपनी प्रेयसी के साथ मदनारुढ़ होने का नशा पीकर बाहर आया हो। बुर्ज़ के कंगूरे एवं प्राचीर पर उगी जंगली घास शुभ्र चाँदनी की छटा पाकर चमकने लगी थी। चाँदनी सर्वत्र ऐसे बिखरी थी मानो उन्मत प्रकृति ने चाँदी का फर्श बिछा दिया हो। शीतल, मंद पवन वातावरण को एक विचित्र उत्तेजना से भर रहा था। 

रामसुख ने पद्मासन लगाकर समाधिस्थ होने का प्रयास किया। वह मन संयत करने का जितना प्रयास करता, मन उतना ही विप्लवकारी हो उठता। नीचे बाणा नदी का शोर एवं प्रवाह तथा आगे दर्शन तत्त्व की तरह फैली विस्तीर्ण पर्वतमाला नित्य जहाँ उसे सुकून देती, आज मन को विचलित कर रही थी। 

सारी दुनिया उसे अखण्ड बाल ब्रह्मचारी रामसुखदेव महाराज कहती। नित्य उसकी जय-जयकार होती। सेठ नोटों की थैलियाँ लिये उसके आँख के इशारे पर लाखों न्यौछावर करने को तत्पर होते परन्तु अपने मन की स्थिति वही जानता था। उसे दीक्षा लिये आठ वर्ष हुए। वह स्वयं चौबीस पार होने को आया। इस दरमियान उसने वेद, पुराण, प्रतिष्ठित शास्त्र, श्रुतियाँ एवं टीकाएँ पढ़ी। धर्म के सारे सिद्धान्त छान डाले। तप-व्रत किये, अनेक बार समाधिस्थ हुआ, शम-दम, नियम-आसन, प्रत्याहार की पालना की फिर भी यौवन का दुरन्त तूफान नहीं थमा। इन्द्रियों की उत्तेजना रह-रहकर उसे विकल कर देती। बाढ़ आयी नदी के समान कामनाओं का ज्वार रोके नहीं रुकता। अतृप्त लालसाएं फिर-फिर सर उठाती। कथनी और करनी का अन्तर हृदय में एक विचित्र विषाद भर देता। उसके स्वयं के उपदेश उसे क्लांत कर देते। वह स्वयं अपने विचारों के वर्तुलों में घिर जाता। लगता मानो वह विचारों के चक्रव्यूह के मध्य खड़ा है एवं लोग चारों ओर वर्तुल बनाये घृणा एवं क्षोभ से उसे घूर रहे हैं। उसका मुख सूख गया। सिर उठाकर उसने एक बार फिर गढी के बुर्ज़ एवं प्राचीर की ओर देखा। समाज में उसकी स्थिति गढी के बुर्ज़ की तरह ऊँची थी पर गढी के बुर्ज़ एवं प्राचीर की तरह वह भी कहीं गहरे ढह गया था। मिट्टी में दबी प्राचीरों की तरह उसकी अभिलाषाएं भी दफन हो चुकी थी। यौवन में मानो चिरस्थायी जीर्णावस्था ने बसेरा कर लिया था। वह पुनः-पुनः स्वयं से प्रश्न करता, रामसुख! दूसरों को उपदेश देना कितना सरल हैं स्वयं आचरण में लाना कितना कठिन। जो तुम नहीं कर सकते उसे दूसरों को करने के लिये कहना क्या उचित है? 

रामसुख के मन-मस्तिष्क में आज भूचाल मचा था। क्या नदी के प्रवाह एवं यौवन के वेग को रोका जा सकता है? क्या इन्द्रियों का निर्दय दमन ही सन्यास है? क्या वासनाएं मिटायी जा सकती हैं ? क्या उनका मिटाया जाना उचित भी है ? क्या नाव को धारा के विरुद्ध खेना ही साधुत्व है ? जीवन जीने के लिये जब सीधा, सरल मार्ग उपलब्ध है तो कंटकाकीर्ण मार्ग पर जाने में क्या महानता है? क्या कष्टों में जीना ही साधुत्व है ? 

वह एक ओजस्वी वक्ता था। अपने सहयात्री साधुओं के झुण्ड में उसकी अलग पहचान थी। मुख पर सूर्य का तेज बसा था। उसकी वाणी का सम्मोहन भीड़ को मंत्रमुग्ध कर देता। आचार्य गिरिराजदेव का वह सबसे प्रिय एवं यशस्वी शिष्य था। इसी कारण उसके साथी साधु भी उससे अक्सर जलते। मानवीय दुष्प्रवृत्तियाँ तो साधुओं में भी हैं, वे भी पहले मनुष्य हैं फिर साधु।

आज सुबह वह मंच से अमृत बरसा रहा था। सहस्रों लोगों की भीड़ श्रद्धावनत खड़ी थी। उसका वाक्विलास देखते बनता था। निर्बाध वह कहे जा रहा था, ‘काम, क्रोध और मोह सभी व्याधियों की जड़ है। हम हमारी लालसाओं एवं वासनाओं को नियंत्रण में नहीं रख सकते तो हममें और पशुओं में क्या अन्तर है? क्या हम पशुओं से भी निम्नतर हैं? हमारी इच्छाशक्ति क्या पशुओं से भी गयी गुजरी है? कदाचित् नहीं! आवश्यकता है स्वयं को अनुशासित करने की। हमें जगत पर शासन करना है तो पहले हम स्वयं को अनुशासित करें। वह कुछ पल के लिये रूका। माथे पर आयी पसीने की बून्दों को पोंछा एवं पुनः कहने लगा,’ तुम्हें कामनाओं के नागपाश ने बाँध रखा है। तुम मोह के अंधे कुएं में खड़े हो। याद रखो! संसार मृगतृष्णा जल के समान मिथ्या है। शरीर क्षणभंगुर एवं नश्वर है। मांस एवं रुधिर के पिण्ड मात्र से तुम्हें इतना मोह? स्मरण रखो! सुख न तो इन्द्र को है न ही चक्रवर्ती राजा को, सुख है तो केवल विरक्त, वैराग्य परायण, एकांतजीवी मुनि को। चाहते तो हम भी आपकी तरह जीवन को भोग सकते थे पर हम लोककल्याण के राहगीर हैं। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी इन सबकी क्रिया दूसरों के लिये हैं। इनका कर्त्तव्य, धर्म सर्वोपरि है। ईश्वर की अनन्य कृपा से ही व्यक्ति संत बनता है। कामनाओं एवं लालसाओं में बंधा व्यक्ति जो मात्र अपने लिए जीता है वह तो अपनी माता को प्रसव पीड़ा पहुँचाने के लिए पैदा हुआ है।‘ वह धाराप्रवाह बोलता ही गया। सम्मोहित सारी भीड़ हाथ बांधे खड़ी थी। प्रवचन समाप्त होने के पश्चात् वह चुपचाप मंच से उठकर आश्रम में आया एवं कमरे के भीतर आकर किवाड़ बंद कर लिये। वह ऊपर से नीचे तक पसीने से तर था। इतना झूठ? क्या तुम स्वयं अपने उपदेशों का अनुसरण कर सकते हो? 

दोपहर अच्छे पति की कामना से एक नवयुवती ने उसके चरण पखारे तो वह उद्वेलित हो उठा। उसका सुड़ौल वक्ष, श्वासों का उभार देखते बनता था।रूप-लौ से देदीप्यमान उसका चेहरा, गुलाबी आँखें, कोमल हथेलियाँ मानो ज्ञान-मर्यादा के सारे सेतु ढहाने पर आमदा थी। दीपशिखा की तरह दमक रही थी वह। वह फिर सोचने लगा यह कैसा ब्रह्मचर्य है? क्या मन का निरोध सन्यास है? क्या मन के साथ जाना पाप है? क्या मन को बलात् गुलाम बनाना साधुत्व है? यह कैसा समाज है जो निरोध की पूजा करता है, व्यक्ति की असामान्यता को आदर देता है?

अब वह बहुत दूर चला आया था। अब उसके पास कोई विकल्प नहीं था। नरक में रहकर नारकीय धर्म का पालन अनिवार्य था। 

उसने आचार्य गिरिराजदेव से एक बार कहा भी था , ‘आर्य! मैं इस धर्म का निर्वहन नहीं कर सकता।’ तब उसे दस रोज उपवास करना पड़ा। क्या वृत्तियों के निरोध का एकमात्र उपाय उपवास है? शक्तिहीन शरीर भोग करने में समर्थ नहीं रहेगा पर क्या मन की वासनाएं मिट सकती हैं? वह जाये तो जाये कहाँ? आदमी एवं पशु विशेषतः साधुओं के लिये अपने समूहों से विलग होना अत्यंत दुष्कर कार्य है। समाज क्या फिर उसे जीने देगा? कुछ वर्ष पूर्व उसके एक साथी सन्यासी ने ऐसा दुःसाहस किया था तब समाज में बवाल उठ गया। कुछ दिन बाद वह सन्यासी कमरे में मृत पाया गया। खबर तो यही फैलायी गयी कि उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली है पर हकीकत यह थी कि उसे जहर देकर मार डाला गया। इस समूह से विद्रोह करने का अर्थ अकाल मृत्यु था। दुविधा में ऐसे फँसे माया मिली न राम। यह कैसी आत्मप्रवंचना है? अतीत फिर उसके हृदयाकाश पर मंडराने लगा। अगर वह धनी परिवार से होता तो क्या उसकी ऐसी दुर्गत होती? निर्धनता का इतना बड़ा दण्ड? क्या उसका सम्पूर्ण यौवन निर्धनता की बलिवेदी पर चढ़ जायेगा? 

उसके पैदा होने के दो वर्ष बाद उसके पिता दो लाख का ऋण छोड़कर गुजर गये। बड़ा भाई बेवड़ा था एवं दो बहने, जिनके जीवन का आधार वही था। दरअसल पूरे परिवार का वही आधार था। माँ तो पिता के निधन के बाद गूंगी -सी रहती थी। तभी तो सेठ रूपलाल के यहाँ उसे बंधक मजदूर की तरह काम करना पड़ा। 

मात्र बारह वर्ष का था तब से वह सेठ रूपलाल की सेवा में लग गया। उफ! कितना काम करना  पड़ता था। सुबह से शाम घाणी के बैल की तरह जुता रहता था। सुबह उठकर बगिया सींचना, पानी भरना, कपड़े धोना, घर आंगन की सफाई एवं फिर रसोई में आ जाओ। रूपलाल तो फिर भी मीठा मोर था, बोलता मीठा पर काम कस के लेता पर उसकी पत्नी रक्षा तो रसोई में घुसते ही गालियों की बौछार कर देती, ‘कलमुँहा! काम पूरा होने पर आएगा क्या? चार कपड़े धोने में एक घण्टा लगा देता है, चल शाक तरकारी काट।’ रामसुख को यह ताने कहीं से नहीं भेदते। यह तो उसके रोज की दिनचर्या थी। स्नेह का एक मात्र आधार रूपलाल की इकलौती पुत्री प्रीति थी। वही उसे छुप-छुपकर खाना आदि देती थी। उसकी मधुर वाणी उसकी सारी थकावट हर लेती। जब भी रूपलाल एवं रक्षा बाहर होते वह उसी के पास बैठा होता। 

अब इस घर में आये भी उसे चार वर्ष होने को आये। प्रीति उससे एक वर्ष छोटी थी। बड़े माँ-बाप की बेटी थी, घर में सब कुछ सुलभ था पर न जाने कैसे उसके हृदय में रामसुख के प्रति स्नेह अंकुरित हो गया। रामसुख के सेवाभाव एवं त्याग ने उसका मन जीत लिया। वह मन ही मन उसे चाहने लगी पर उम्र अभी इतनी कच्ची थी कि दोनों के सम्बन्ध बाल-प्रेम की कौतुकता से आगे नहीं बढ़ पाये। 

सावन के महीने में हर शाम रूपलाल एवं रक्षा शिव अर्चना के लिए जाते थे। आज भी वे इसी हेतु घर से जल्दी ही चले गये। प्रीति रामसुख को अकेला देखते ही उसके पास आ जाती। रामसुख भी जल्दी-जल्दी खाना बनाने लगा। प्रीति ने उसे भरपूर सहयोग दिया। रसोई का काम समाप्त होते ही रामसुख आंगन में आकर लेटा तो प्रीति उसके पास ही उसकी तरफ मुख करके लेट गयी। रामसुख उसे देखता रह गया।कैशोर्य बाल सिंह की तरह जाग उठा। ओह वह कैसी लावण्यनिधि थी, नख शिख तक कमसिन। अंग-अंग से सुंदर मानो ब्रह्मा ने  गढ़ा हो। रूप जैसे साँचे में ढला था। कितने अनुपम, कोमल एवं पवित्र अंग थे उसके। रामसुख ब्रह्मानंद में गोते लगाने लगा। उसकी नुपूर ध्वनि उसके बाल मन पर मृदुल आघात करने लगी थी। पल भर के लिए उसने आँखें मूंद ली। वह प्रेम-रस में निमग्न हो गया। सबसे ऊँची प्रेम सगाई। दो दिलों का मिलन ही सच्चा मिलन है। विवाह, भांवर तो मात्र ढकोसले हैं। ओह! इस सामीप्य में कैसा अथाह सुख था। उसके होठ काँपने लगे, नाड़ियों में एक नया रक्त संचार होने लगा। 

एकाएक प्रीति ने उसके वक्ष पर सिर रखा। रामसुख कुछ कहता उसके पहले वह उसके वक्ष से लिपट गयी। दोनों कई देर तक मूक प्यार में बद्ध चुपचाप पड़े रहे। मूक प्यार जिसमे कहने की आवश्यकता नहीं होती कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। दीवार पर लगी कृष्ण-राधा की तस्वीर आज जीवंत हो उठी थी। वह एकटक उस तस्वीर को देखता रहा। लगा वह स्वयं बांसुरी बजा रहा है एवं सुधबुध भूली राधा नेह रस से निमग्न उसके वक्ष पर सो रही है। उसे लगा उसके अंग-अंग में कस्तूरी महक रही है, हृदय सरोवर में एक साथ कई फूल खिल उठे हैं। उसे आज पहली बार लगा कि स्त्री में कितनी ऊष्माहट है, स्नेह में कितना आकर्षण है। क्षणभर के लिए वह ऐसे स्वप्नलोक में खो गया जिसका सुख वर्णनातीत है। दोनों को पता हीं नहीं चला कि कब प्रीति के माँ-बाप घर में प्रविष्ट हुए। 

सेठ रूपलाल दोनों को यूं देखकर भौचक्का रह गया। उसने रामसुख के कन्धे पर जोर से लात मारी, ‘हरामखोर! हमारी ही खाता है एवं हमारी ही थाली में छेद करता है। खाया पिया सब निकाल दूंगा। तूने समझ क्या रखा है?’ उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे थे। रामसुख से कुछ कहते नहीं बन रहा था। चेहरे का रंग उड़ गया, ग्लानि और क्षोभ से आँखें झुक गयी। लज्जित वह ऐसे खड़ा हो गया मानो उसने कोई हत्या कर दी हो। उसकी आँखों से बहती अविरल अश्रुधार उसके प्रेम-दग्ध हृदय को सींचने लगी थी। प्रीति तो ऐसे भागी जैसे शेर को देखकर हिरनी भागती है। 

सेठ रूपलाल पुराना चावल था। उसकी तीव्र बुद्धि ने तुरन्त आकलन कर लिया कि आगे क्या समस्या आने वाली है। अब रामसुख को शिकंजे में कसना अनिवार्य था। विषैले घाव को चीरना ही पड़ता है। अगर रामसुख को घर से निकालता तो बेटी की बदनामी सम्भव थी। यकायक एक योजना उसके दिमाग में कौंधी एवं उसके होंठ एक कुटिल मुस्कराहट से फैल गये। साँप मरे न लाठी टूटे।

दूसरे दिन उसने रामसुख की माँ को बुलाया और कहा कि महाराज गिरिराजदेव रामसुख की दीक्षा के लिए कह रहे हैं। तुम हाँ कह दो तो दोनों बच्चियों की शादी मैं करवा दूँगा। तुम्हारे बेवड़े बेटे को अपनी फैक्ट्री में काम पर भी रख लूंगा। तीन के सुख के लिये एक की बलि देनी होगी। धरम का मामला है। महाराज की बात टालने का अर्थ सारी उम्र नरक में जलना है। रामसुख की माँ क्या कहती? खाई और खंदक के बीच खड़ा इंसान क्या निर्णय ले सकता है? 

गाजे बाजे के साथ रामसुख की दीक्षा हुई। समाज के ठेकेदारों ने लाखों रूपये एक व्यक्ति को असामान्य बनाने में खर्च किये। अब उसका समाज साधुओं का समाज था जहां से लौटना नामुमकिन था। 

रात बढ़ चली थी। रामसुख अब तक उन्हीं खण्डहरों के बीच खड़ा था। उसके यौवनाशेष एवं इन भग्नावशेषो में कितनी साम्यता थी!

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04.04.2005

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