आज मौसम खुशगवार था। तड़के फिर अच्छी बारिश हुई एवं अभी भी रिमझिम चल रही थी। गत दस दिनों से इन्द्र शहर पर लगातार कृपा बनाये थे वरना सावन सूखा चला जाए एवं भादों न बरसे तो जनजीवन विशेषतः रेगिस्तान के बाशिंदों के चेहरे ऐसे उतर जाते हैं जैसे संध्या के समय सूरजमुखी के फूल। अन्य शहरों में पानी सुविधा है पर यहाँ पानी प्राण है। अब तो फिर भी सरकारी प्रयासों से पानी की किल्लत कम हो गई है वरना मैंने तो वे दिन भी देखे हैं जब माँ एक बाल्टी देकर कहती थी इसी में नहाना है एवं इसी में चड्डी धोनी है। उन दिनों तो मैं यहाँ तक सुनता था कि किसी की बारात में एक बाराती ने जब कहा कि ‘नल आ गया है’ तो आधे से ऊपर बाराती चुपके से सरक लिए थे।
घर के बाहर बरामदे में आरामकुर्सी पर झूलते हुए मैं ऐसे ही अगड़म-बगड़म सोच रहा था एवं घर के मुख्य दरवाजे के आगे होकर जाती सड़क पर पड़ने वाली फुहारों का आनन्द भी ले रहा था। बरामदे के पास वाले बगीचे की घास एवं दीवार पर रखे पौधे ठण्डी हवा का स्पर्श पाकर झूमने लगे थे। मेरे सामने से अभी-अभी सड़क पर एक कुत्ता एवं गाय होकर निकली थी एवं मुझे जाने क्यों लगा कि वे भी मुस्कुरा रहे हैं हालांकि मैंने जानवरों को मुस्कुराते हुए अब तक नहीं देखा था। मेरे घर के सामने बने म्यूनिसिपलिटी के गोल गार्डन जहाँ काॅलोनी के लोग अक्सर सुबह घूमने आते थे, आज अकेला पड़ा मस्ता रहा था। मैदान के बीच इन दिनों उग आई जंगली घास ऐसे झूम रही थी जैसे वर्ष में एक बार बोनस मिलने पर मजदूर झूमने लगते हैं। बारिश के चलते सुबह-सुबह गार्डन में कौन आए, शायद इसी डर से यह भी खाली पड़ा था। इसी में दांये किनारे खड़े नीम के दो पेड़ों पर तोते, कबूतर इधर से उधर फुदक रहे थे। पेड़ों की ऊँची टहनियों पर कतार में बैठी चिड़ियाँ जिन्हें हम स्थानीय भाषा में ‘सुगनी’ कहते हैं, ऐसे चहचहा रही थी मानो वे सभी एक साथ राग मल्हार गा रही हा़े। मेरे दिमाग में प्रश्न कौंधा- इनमें कौन चिड़़ा है एवं कौन चिड़ियाँ तभी ठण्डी हवा का एक तेज झोंका आया एवं उसकी सौंधी गंध के साथ मेरा यह विचार भी उड़ गया। मुझे लगा काश ! मैं भी इन्हीं में एक चिड़ा होता, कभी इस चिड़ी के पास जाकर बैठता, कभी दूसरी के पास। कभी दांयी टांग पर फुदकता, कभी बांयी पर। जब चाहे डैने फैलाकर नाचने लगता। पक्षियों का जीवन भी क्या मस्त जीवन है। घर-गृहस्थी की तो चिंता ही नहीं, बस एक टहनी पर गुज़ारा कर लो। मेहमान भी आए तो वहीं ठहर जाए। न मकान एवं न ही मरम्मत का रगड़ा । न बिजली-पानी के बिल भरने की दरकार। एक पल के लिए मुझे लगा मैं टहनी पर पहुंचकर फुदकने लगा हूँ।
“कल बिजली का बिल जमा करवा दिया क्या ? आज आखिरी तारीख है’’। टीना की आवाज सुनकर मेरा स्वप्न यूँ बिखर गया जैसे बचपन में माँ की रसोई में राई के दाने बिखर जाते थे।
मैंने बिल जमा नहीं कराया था। कल बैंक में बहुत काम था, चपरासी भी छुट्टी पर था पर टीना को ना कहने का अर्थ था सुबह-सुबह महाभारत अतः चेहरे के समस्त भाव ज़ब्त करते हुए बोला, “वह तो कल ही करवा दिया था। यहाँ पोल है क्या ?’’
आशंका भरी आँखों से उसने मेरी ओर देखा। मुझे लगा मेरी बेवफ़ा आँखें ज़ुबान का भेद न खोल दे अतः बिगड़ते हुए-से बोला, “तुम चिन्ता बहुत करती हो।’’
“तुम्हारे जैसे आसमान एवं दीवारों को घूरने वाले खसम हो तो चिंता करनी पड़ती है। बिजली कट गई तो सबसे अधिक उधम तुम ही मचाओगे।’’
तभी भीतर से बेटा ‘ईशान’ जिसे हम प्यार से इशू कहते हैं एक पुस्तक हाथ में लिये आया एवं मम्मी की साड़ी खींचकर बोला, “ मम्मी! ‘य’ से यति लिख दिया अब ‘र’ से क्या होता है ? लिखाओ ना मम्मी!’’ चार वर्ष के ईशान को गत तीन माह पहले ही मैंने मोंटेसरी स्कूल की प्रेप कक्षा में भर्ती करवाया है पर उसका दिमाग इतना तेज है कि हर बात को द्रुतगति से सीख लेता है। इतने कम समय में क से य तक आ गया। ए से जेड तो प्रथम दो माह में ही सीख लिए।
“र से रेल लिखो बेटा।’’ वह झुंझलाकर बोली।
“मम्मी यह भी लिख लिया। अब आगे ….’’। वह माँ की ओर देखने लगा।
तभी टीना के चेहरे के भाव बदलने लगे। भीतर रसोई में उसे कुछ काम याद हो आया, उसने पुस्तक मुझे पकड़ाई एवं कहा, “यूँ झूलते ही रहोगे कि बच्चे को कुछ पढ़ाओगे भी।’’ इतना कहकर वह भीतर चली गई।
“आप बताओ पापा! ल से … क्या होता है।.’’ उसकी आँंखें शरारत से लबालब थी। उसे पता था पढ़ाना मेरे बस की बात नहीं है।
“ल से …’’क्षणभर के लिए मुझे लगा मानो मेरी स्मृति की ट्यूब बंद हो गई है लेकिन इज्ज़त की गोटियाँ न पिटे अतः चाॅक उठाते हुए बोला, “ ल से …… लड्डू….. ल से ……लट्टू।’’ लड्डू तो उसने पहले अनेक बार खाये थे पर लट्टू शब्द उसके लिए नया था।
“यह लट्टू क्या होता है पापा ?’’ उसकी आंँखों में अनेक प्रश्न एक साथ उभर आए। अब मैं उसे कैसे समझाता लट्टू यानि वो जो तेरी माँ के इर्दगिर्द घूमता है पर पंगा न हो अतः मैंने पुस्तक उसे थमाई एवं उठते हुए बोला, “ऑफिस का टाईम हो गया है। मम्मी से पूछ लेना।’’
वह रुंआंसा हो गया। मैंने मन ही मन कहा, होता रह ! मेरी बला से!
भीतर आकर मैंने कपड़े बदले, नाश्ता किया, बरामदे से गाड़ी उठाई एवं सीधे ऑफिस पहुंच गया।
ऑफिस के बाहर एवं भीतर भी मौसम खुशगवार था। मैं इस बैंक का मैनेजर था एवं मेरा केबिन निहायत खूबसूरत था। खिड़कियों पर हल्के क्रीम रंग के सुन्दर पर्दे लगे थे। टेबल पर खूबसूरत गुलदस्ता रखा था । चपरासी ने नित्य की तरह आज भी इसमें सुंदर फूल लगाए थे। केबिन रोशनी से चमक रहा था। टेबल के सामने चार-पाँच कुर्सियाँ रखी थी, जहाँ मैं आने-जाने वाले ग्राहकों की समस्याओं से रूबरू होता था।
आज मौसम अच्छा था तो मैंने कुर्सी पर बैठने के पहले खिड़कियाँ खोल दी। एसी मुझे यूँ भी नहीं सुहाता। खिड़कियाँ खुलते ही फुहार में भीगा धूप का एक टुकड़ा केबिन के आँगन पर आकर नाचने लगा। खिड़की से आती ठण्डी हवा ने मुझे सुकून से भर दिया। मुझे लगा मैं गुनगुनाऊँ , पर ऑफिस में यह कहाँ संभव था।
मैने सबसे पहले ड्रावर से बिजली का बिल निकाला एवं पर्स से पैसे निकालकर चपरासी के हवाले किए। उसके बाहर जाते ही मैंने पेंडिंग पेपर्स का क्लिप निकाला एवं पहला पत्र पढ़ने ही लगा था कि एक तेज आवाज सुनकर चौंक गया।
“परस्या कैसा है ? ।’’ मुझ परसराम को परस्या कहने वाला यह कौन आ गया ? मेरी आंँखें फैल गई।
हवा के तेज झौंके की मानिंद जाने कब एक महाशय ने केबिन का दरवाजा खोला, मुझे पुकारा एवं तपाक से मेरी सीट के सामने आकर बैठ गए। गनीमत थी केबिन में और कोई नहीं था अन्यथा स्टाफ तो ऐसे मौकों की तलाश में रहता है। प्रबंधकों की फजीती उन्हें अनिर्वचनीय सुख देती है।
मैंने सामने देखा। आधी बांहों का गहरे नीले रंग का शर्ट जिसमें दो-तीन तरह के बटन लगे थे, नीचे काली पेन्ट जो शर्ट से मैच न होने एवं उस पर बेल्ट न होने के कारण अजीब सेन्स पैदा कर रही थी। पांव में स्लीपर्स, खिंचा चेहरा, छोटी पैनी आँंखें, चौड़ा नाक एवं आँखों पर काले फ्रेम का चश्मा पहने तकरीबन मेरी ही उम्र के एक सज्जन सामने खड़े थे। उसकी गहरी भौंएं, बिखरे बाल एवं बोलने के अन्दाज से मुझे लगा मैंने उसे करीब से देखा है। मेरे दिमाग में कुछ तेजी से घूमने लगा था। तभी सामने बैठे सज्जन बोले,“ बनता है क्या परस्या! भूल गया वो दिन जब तापी बावड़ी पर चड्डी बदलते हुए तेरी चड्डी उड़ गई थी, तब मैं ही दौड़कर लाया था। भूल गया वो दिन जब राम मौहल्ले में इमलियांँ तोड़ने गए थे, तू पेड़ पर चढ़ा था एवं मैं नीचे खड़ा था तभी माली ने आकर हम दोनों की अच्छी धुनाई की थी, भूल गया वो दिन जब तेरे बाबा हाथखर्ची का धेला नहीं देते थे तब तुझे चाट-पकौड़ी कौन खिलाता था, भूल गया वो … ।’’ वह बेतरतीब बोले ही जा रहा था।
मैं उसे पहचान गया।
“अरे घनश्याम ! घन्नु! तू किधर से आ गया।’’ कहते हुए मुझे लगा मानो मेरी उम्र तीस साल घट गई है एवं मैं सात-आठ वर्ष का बच्चा बन गया हूँ।
“कमीने! मैनेजर बनते ही औकात पर आ गया । वो दिन भूल गया जब नत्थु पहलवान के बेटे ने तेरी चटनी बनाई थी और मैंने तुझे उस जालिम से बचाया था। उस दिन मैं न होता तो टेंटुआ दबा देता वो तेरा …और आज जिंदा न होता तो मैनेजर क्या तेरा भूत बनता ?’’ घन्नु कब रुकने वाला था।
घन्नु मझे कतई नहीं बख़्शता तभी सौभाग्य से उप-प्रबन्धक त्रिवेदीजी कुछ पेपर्स लिये अन्दर आए। केबिन में घुसते हुए शायद उन्होंने अंतिम वाक्य सुन लिया था। उनकी आंखों की चमक एवं मुस्कुराती मूंछें मानो मुझसे प्रश्न करने लगी थी – “सारी हैकड़ी हम पर ही लगाओगे या कुुछ घन्नुजी को भी बताओगे।’’
मैं ताड़ गया। मैंने तुरन्त त्रिवेदीजी के हाथ से पेपर्स लिए, और फ़ज़ीती न हो अतः बात बदलते हुए बोला, “ अभी मैं जरूरी कार्य से घर जा रहा हूँ, शायद लौटकर नहीं आ पाऊंगा। कोई दिक्कत आए तो आप फोन पर बता दीजिएगा।’’
त्रिवेदीजी माहौल देखकर सब कुछ भांप गए। मुझे चिढ़ाते हुए से घन्नु की ओर देखकर बोले, “सर! आपसे पहले मिलना नहीं हुआ।’’
त्रिवेदीजी की हरकतों को मैं सिरे से जानता था। मेरी मिट्टी पलीद हो ऐसे अवसर वे उड़ती चिड़िया की तरह पकड़ लेते थे। उन्हें उत्तर देने-न देने के असमंजस में मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया।
“आप घनश्याम जी मेरे बाल-सखा हैं ।’’ मैने सकपकाते हुए उत्तर दिया।
“ओह! ग्लेड टू मीट यू! आपके लिए चाय मंगवाऊंँ सर!’’ त्रिवेदीजी नीचे के होठ को भीतर से काटते हुए घन्नु की ओर देखकर बोले।
मुझे मालूम था चाय पीने का अर्थ है घन्नु मेरी ऐसी-तैसी करेगा एवं त्रिवेदीजी को पुरानी बातों का पता पड़ने का अर्थ है वे एक विशिष्ट अंदाज में इसे बाबुओं को संप्रेषित करेंगे एवं वहांँ तक इन बातों के पहुंँचने का अर्थ है उनके द्वारा नित्य चटकारे लिये जाएंगे।
“नहीं-नहीं। अभी तो यह आए हैं। पहले मैं इन्हें घर ले जाऊंगा। पूरे तीस वर्ष बाद मिले हैं। इन्हें इनकी भाभी एवं बेटे ईशान से भी तो मिलाना है। ’’ मैंने बात समेटते हुए कहा।
मुझे मालूम था घन्नु अवश्य पेट पर हल्का घूंसा मारते हुए पूछेगा, अबे गधे! तूने न तो शादी की सूचना दी, न बच्चा होने की लेकिन मेरा भाग्य अच्छा था उसे कुछ उपजा नहीं , अन्यथा वह छोड़ता क्या।
घन्नु का हाथ पकड़े मैं तुरन्त केबिन के बाहर आया। मैंने देखा तब की तरह वह आज भी दांये पांव से कुछ लंगड़ाकर चल रहा था। उसका दांया गाल भीतर जरदा दबा होने से थोड़ा बाहर आ गया था एवं वह आज भी उन दिनों की तरह फक्कड़ अन्दाज से चल रहा था, हालांकि उसके चेहरे पर अब वो नूर नहीं था जो बचपन में हुआ करता था।
मैंने आनन-फानन गाड़ी निकाली एवं बैंक के दरवाजे के आगे खड़े घन्नु को भीतर बैठने को कहा। गाड़ी स्टार्ट की तब मैंने देखा त्रिवेदीजी एवं तीन-चार बाबू उचक-उचक कर घन्नु को यूं देख रहे थे मानो वह कोई अजायबघर का चिंपाजी हो।
गाड़ी सौ कदम चली होगी कि घन्नु बोल पड़ा, “अबे साले! शादी एवं बच्चे होने की तो सूचना देता। माना तुझे सूरतगढ़ छोड़े तीस वर्ष हो गये लेकिन कोशिश करता तो पता चल ही जाता। ’’ घन्नु ने मेरी अपेक्षा के अनुरूप प्रश्न कर ही दिया।
“अबे! तूने तेरे ब्याह की सूचना दी क्या ?’’ मैंने पलटवार किया।
“घोंचू ! मेरा तो ब्याह ही नहीं हुआ अब तक।’’ वह मेरे पेट की ओर घूंसा फेंकते हुए बोला। पेट की ओर खाली घूंसा फैंकना उसकी तब भी आदत थी।
“यार , पता नहीं मिला होगा। विवाह भी चट मंगनी पट ब्याह की तरह चार दिन में सब कुछ हो गया तो कई मित्रों को भूल गया। खैर छोड़! तू बता तेरे क्या हाल हैं ?…….. और अपने उस दोस्त……….. क्या नाम है………… नंदु………….. के क्या हाल है ? साले के हर समय नाक बहती थी। ’’ मेरी बाल-स्मृतियांँ यकायक उघड़ आई।
“ओह नंदु! वह तो अपने बाप की हलवाई की दुकान पर बैठता है। उसका बाप तीन साल पहले मर गया था। तुझे याद है एक बार मैं कुछ रसगुल्ले उसके स्टोर से चुराकर लाया था तो उसके बाप ने लताड़ पिलाई थी। तू तो तब भीगी बिल्ली बन गया था।’’
घन्नु की बात सुनकर मैं जोर से हँस पड़ा। पूरे रास्ते बचपन मेरे विचार-व्योम पर पक्षी की तरह मंडराता रहा। मेरी स्मृतियों की टेप रिर्वाइंड हो गई। पिताजी तब शिक्षा विभाग में प्राइमरी टीचर थे एवं उनकी तैनाती उन दिनों सूरतगढ़ थी। पिताजी सरकारी गर्ल्स स्कूल में थे एवं उन्होंने मुझे सरकारी बाॅयेज स्कूल में भर्ती करवाया था। कच्ची-पक्की से लेकर आगे तीन जमात तक घन्नु मेरे साथ था। उसके बाद पिताजी का स्थानान्तरण अजमेर हो गया एवं कालान्तर में हम वहीं बस गए। मेरी नौकरी भी जल्दी लगी, तरक्कियांँ भी जल्दी हुई एवं अब जबकि मैं वरिष्ठ प्रबंधक था, मुझे राजधानी जयपुर भी सहज ही मिल गई।
वैसे तो एक अंतराल विशेषतः व्यस्त दिनों में व्यक्ति अपने अतीत को कहांँ याद रख पाता है पर घन्नु से मिलते ही किताब के फड़फड़ाते पन्नों की तरह मेरी स्मृतियांँ आँखों के आगे होकर गुजरने लगी। घन्नु पढ़ने में कमजोर एवं मैं अग्रपंक्ति के विद्यार्थियों में था फिर भी उसमें जाने क्या आकर्षण था कि मैं उसकी ओर खिंचा रहता। उसमें वह नहीं था जो मुझमें था एवं मुझमें वह नहीं था जो उसमें एवं संभवतः यह विरोधाभासी गुण ही हमारे आकर्षण के मुख्य बिन्दु थे। हम एक-दूसरे के पूरक थे।
वैसे घन्नु भी कोई संपन्न घर से नहीं था, या यूंँ कहूँ, साधारण घर से था पर उसके पिता जैसा कि वह कहता था, अच्छी हाथखर्ची देते थे, हालांकि मुझे हमेशा अंदेशा रहता की यह उड़ा कर लाया होगा। इस रकम से हमेशा चोर-चोर मौसरे भाई की तरह कभी आईसक्रीम, कभी गोलगप्पे, कभी क्या तो कभी क्या स्वादिष्ट चीजें खरीदकर हम अपनी जीभ के चटोरेपन को शांत करते थे। अधिकतर पैसे वही देता क्योंकि पैसे होते भी उसी के पास थे। मेरे पिताजी तो गृहस्थी की गणित से ही ऊँचे नहीं आते, ऐसे में हाथखर्ची क्या देते। घन्नु का इसीलिए मुझ पर रौब था। जिसकी खाते हैं, उसकी ताबेदारी करनी ही पड़ती है। आशंका होते हुए भी मैंने घन्नु से कभी नहीं पूछा कि तू यह पैसे लाता कहाँ से है ? उसे सत्य एवं ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का अर्थ था अपनी ही जुबान पर कोड़े बरसाना जो मुझ जैसे चटोरे को कतई गवारा न था। मेरी कोमल, स्वादलोलुप जुबान इस सजा के लिए फिलहाल तैयार नहीं थी।
यकायक मैं चौंका। घन्नु कुछ कह रहा था।
“क्या कहा ?’’ मैंने अनसुने भाव से घन्नु की ओर देखा।
“मैंने पूछा तू जयपुर कितने साल से है ? क्या तेरी अब तक अपने में खोने की आदत नहीं गई।’’ घन्नु हंसते हुए बोला।
“पिछले तीन वर्ष से ।’’ मैंने आधे प्रश्न का उत्तर दिया बाकी आधे प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए कठिन था। बात बदलते हुए मैंने नया पैंतरा डाला।
“घन्नु! तू क्या करता है यार ? कुछ अपने बारे में भी तो बता ?’’ मुझे लगा बातों का रुख उसकी ओर मोड़ने में ही मेरी भलाई है।
“क्या बताऊँ परस्या! मुझसे तो विधाता ही रूठ गए। तकलीफ़ न होती तो पता कर यहांँ तक आता क्या ! मुसीबत में यारों का ही भरोसा होता है फिर तू तो जिगर का टुकड़ा है।’’ कहते-कहते घन्नु के चेहरे पर रुंआसी उतर आई।
“अरे ऐसा क्या हो गया दोस्त!’’ उससे पूछते हुए मेरी छाती एक अजीब आशंका से भर गई। मैंने गहरी सांस लेकर उसकी ओर देखा।
“ क्या बताऊँ परस्या ! दस वर्ष पहले मैंने होजरी का धंधा प्रारम्भ किया था। सारी पूंजी उसी में फूंक दी। पिताजी ने भी बहुत मदद की। धंधा चल भी निकला। धीरे-धीरे मुझे लगा होजरी निर्माण का उद्योग भी लगाया जाए। मैंने उद्योग प्रारम्भ किया, बैंक से दस लाख का ऋण भी लिया लेकिन यह पूंजी उस उद्योग में कम पड़ गई। बड़े उद्योगों के आगे मैं प्रतिस्पर्धी नहीं रह पाया एवं धीरे-धीरे हानि इतनी बढ़ी कि बैंक ने इण्डस्ट्री कुर्क कर दी। मेरी गिरवी रखी होजरी की दुकान भी बिक गई। गत दो वर्ष से ऐसे फाके पड़े हैं कि दाने-दाने को तरस रहा हूँ। अब बैंक पीछे पड़ी है, मुझे फकत एक माह के लिए दो लाख रुपयों की सख्त जरूरत है, बस तेरा ही आसरा है।’’ घन्नु एक सांस में सब कुछ कह गया।
मुझे सांप सूंघ गया लेकिन घन्नु को ‘ना’ कहना मेरे लिए संभव न था। आखिर वह मेरा बाल-सखा था एवं मेरा हृदय उसके अहसानों से लबालब था।
“ तू चिंता मत कर! मैं एक महीने के लिए इस रकम की व्यवस्था कर देता हूँ। किसी पार्टी से कहकर दिलवा दूंगा। बचपन में तेरा माल खाया उस ऋण को तो उतारना ही पड़ेगा।’’ मेरे पास अन्य विकल्प भी क्या था।
मैं घन्नु के साथ घर पहुंचा तो टीना बरामदे में खड़ी थी। मुझे देखकर बोली, “अरे! इतना जल्दी कैसे आ गए ?’’
मैंने उसे घन्नु से मिलवाया एवं बताया कि यह मेरे बचपन के मित्र हैं।
“नमस्ते भाभीजी ! कैसी हैं आप ? आपके यह जो मैनेेजर साहब हैं इनकी बचपन की हरकतें बताऊँ तो आप दंग रह जाएंगी। इनको निकर तक पहनना मैंने सिखाया है।’’ उसके बाद उसने टीना को बचपन के अनेक किस्से सुनाए, कहीं-कहीं तो वह अभद्रता की सीमा लांघ गया। उसके दांत थोड़ा आगे को आते थे एवं बोलते हुए मुँंह से छींटें भी गिरने लगे थे। बीच-बीच में वह ओठों के किनारे आऐ पानी को भी व्यवस्थित करता जाता था।
मैं घन्नु को लेकर मजबूर था लेकिन टीना उसे देखते ही समझ गई कि आज यह फंस गए हैं। हम ड्राईंगरूम में बैठे स्कूल, चौबारे, पुराने अध्यापक, स्कूल परिसर के पेड़-बागान-बगीचे जहाँं हम बहुधा मंडराते रहते थे आदि-आदि के बारे में बतियाकर बचपन की गुदगुदाती स्मृतियों को उकेल रहे थे।
“जरा इधर आना।’’ तभी टीना ने अंदर से पुकारा।
‘एक्सक्यूज मी’ कहकर मैं बैडरूम में आया तो उसने आंखें तरेरकर पूछा, ’’यह महाशय कब तक रहेंगे ? मैंने कहा अभी लंच के बाद वापस चला जाएगा तो वह आश्वस्त हुई।
मैं पुनः ड्राईंगरूम में आकर उससे बतियाने लगा। धीरे-धीरे मुझे लगा किस तरह से दो व्यक्तियों के वैयक्तिक विकास-पथ भी भिन्न हो जाते हैं । घन्नु का अजीब-सा व्यवहार, उसका जरदा खाना, बतियाते हुए छींटे उछालना, घडी-घड़ी गाली देकर बात करना, मुझसे तुरन्त रुपयों की मांग करना, टीना से अशिष्ट तरीके से बात करना आदि ऐसे व्यवहार थे जिसे मैं पचा नहीं पा रहा था। मुझे कोफ्त भी आने लगी थी , लेकिन बचपन एवं तब की यादें मुझ पर हावी थी।
दोपहर लंच से पहले ईशान स्कूल से घर आया तो घन्नु उससे भी उल्टी-सीधी बातें करने लगा। ईशान के सफेद शर्ट पर जरदे के छींटे लग गए। वह बिना मतलब ईशान से चिपका जा रहा था। ईशान असमंजस में था लेकिन मुझे देखकर चुप था। ऐसे अभद्र, असंतुलित एवं अमर्यादित व्यवहार से कदाचित् उसका आज ही साबका पड़ा था।
मैं यह सब देख रहा था लेकिन विवश था। घन्नु का रौब अब भी मेरी आत्मा पर पसरा था। हम एक बार जिनके आगे वामन हो जाते हैं उनके आगे शायद पुनः कभी नहीं उठ पाते। मनुष्य का अतीत, उसका अवचेतन, परछाई की तरह उसका पीछा करता है। कुल मिलाकर मैं समझ गया कि आज मैंने इल्लत पाल ली है।
लंच के बाद मैंने किसी पार्टी को कहकर घन्नु को दो लाख रुपये दिलवाए। घन्नु ने मुझे आश्वस्त किया कि वह यह रकम एक माह में लौटा देगा। रकम लेने के बाद तो उसके पर लग गए। वह ऐसे सरका मानो वह इसी उद्देश्य की सिद्धि हेतु मुझसे मिलने आया था।
इस बात को भी एक माह बीत गया। अब मुझे व्यापारी को रकम लौटाने की चिन्ता होने लगी। मैंने घन्नु को फोन किया तो उसने दस दिन की मोहलत मांगी। मैंने दस दिन बाद पुनः याद दिलाया तो उसने फिर दस दिन एवं यूंँ मियाद बढ़ाते तीन माह बीत गए। पार्टी बहुत प्रतिष्ठित थी अतः उन्होंने मुझे सीधे तो नहीं कहा पर एक रविवार नौकर को घर भेजकर उगाही कर ली। मैंने यह बात टीना को अब तक नहीं बताई थी। मैं बगले झांकने लगा। उसे ज्यों ही पता पड़ा वह बिफर पड़ी। मैंने जब कहा कि यह रकम उसके नाम की पड़ी दो लाख की एफडी तोड़कर कल ही देनी होगी तो उसके औसान जाते रहे। वह ज़ख्मी जानवर की तरह कराह उठी। घड़ीभर उसने मेरी ओर देखा, फिर आसमान की ओर फिर यह कहकर जोर से अपना माथा पीट लिया “हे राम! यही मरदूद मिला था तुम्हें मेरे लिए। कितनी मेहनत करके मैंने यह रकम जमा की थी, इन्होंने तो हवन के घी की तरह स्वाहा कर दी।’’
मैने उसे मनाने की कोशिश की तो वह और बिखर गई। ऐसी छोटी-बड़ी अनेक घटनाएँ वह विवाह के पश्चात् जब-तब पचाती आ रही थी, इस बार मानो वर्षों का जमा लावा पिघल गया, चीखकर बोली, “लोग ठीक ही कहते हैं मूर्खों के सींग नहीं होते। हजार बार समझाया पर मैं क्यूँ समझूँ । सारी उम्र ऊंट का ऊंट रहूंगा। गांठ में पैसे नहीं पर रईसी ऐसी कि चले उधार देने। आप मियां मंगते द्वार खड़े दरवेश। अरे, लोग तो आँखें देखकर नीयत पहचान लेते हैं पर इन्हें सामने खड़ा शुतुरमुर्ग भी सूझता नहीं । जाने कहांँ-कहाँ से गुर्गे पकड़ लाते हैं। खैर! आपका भी क्या दोष है, जैसी रूह वैसे ही फ़रिश्ते मिलेंगे। देव नकटे होंगे तो सूमड़े पुजारी ही तो घर आएंगे।’’
मैं उसे क्या उत्तर देता। ज़ुबान को लकवा मार गया। आंँखों में वेदना एवं बेबसी छलक आई।
एफडी तोड़ने के कारण टीना ने दस रोज मुझसे बात नहीं की। मैंने जैसे-तैसे उसे संयत करने की कोशिश की कि कुछ माह बाद रकम मिल जाएगी, मैं पुनः एफडी बनवा दूंगा। मैं कल ही सूरतगढ़ के पुराने मित्रों से दबाव बनाने के लिए कहता हूँ।
दूसरे दिन मैंने नंदु आदि कुछ मित्रों को फोन किया तो यह जानकर मेरे नीचे की जमीन सरक गई कि ऐसी झूठी कहानियांँ सुनाकर उसने शहर में न जाने कितनों को चूना लगाया है। नंदु खुद उसका शिकार था। मेरे बात करते समय टीना पास ही खड़ी थी। वह बात का सार समझ गई।
रकम मिलना अब असंभव था।
मेरा हृदय डूब गया। आंखों की धुंध छंट गई। आंँख से काजल चुराने की तरह घन्नु दो लाख का चूना लगा गया। जिस मित्र को आँखों पर बिठाया, वही किरकिरी बन गया। खैर, अब विकल्प ही क्या था।
इस बात को भी दस दिन बीत गये
शहर में सर्दी अब रंगत दिखाने लगी थी। दिसंबर के अंतिम सप्ताह में ठण्ड बढ ही जाती है। मैं बाहर बरामदे में बैठा सुबह की गुनगुनी धूप सेक रहा था कि इशू फिर पुस्तक हाथ में लिये मेरे करीब आया। अब तक उसे ए से जेड एवं अ से ज्ञ तक पूरा अक्षरज्ञान हो चुका था। यकायक जाने उसे क्या सूझा, मेरी ओर देखकर बोला, “पापा! मुझे सब याद हो गया लेकिन उस दिन आपने ‘ल’ से जो बताया था, याद ही नहीं आ रहा।’’
तभी एक कौवा कांव-कांव करते हुए मेरे ऊपर से उड़ गया।
खाली बैठे मुझे भी जाने कहांँ से घन्नु फिर याद हो आया। जिसे हम बहुत प्यार करते हैं एवं जिससे हम बहुत पिटते हैं अथवा यूंँ कहूँ जो हमें बहुत सताते हैं, भुलाये नहीं भूलतेे। घन्नु की हरकतें याद कर मेरी कुण्ठा सर चढ़ बैठी। तभी इशू ने फिर पूछा, “पापा! बताओ ना! ….. ल से क्या होता है ?’’
मेरे उत्तर में घन्नु घुल गया।
“ अबे यार! तू कित्ता परेशान करेगा। लिख……. ल से लंगड़ा, ल से लफाड़ी, ल से लंपट, ल से लोफर, ल से लड़ोकड़ा, ल से लीचड़, ल से लंगूर एवं और सुनना चाहता है तो सुन……ल से …… मैं घड़ी भर के लिए रुका एवं आंखे तरेर कर बोला ‘ल’ से लंगोटिया।’’
क्षणभर के लिए इशू सहम गया लेकिन आजकल की अकेली औलादें मां-बाप से डरती हैं क्या ? संयत होकर उसने पूछ ही लिया, “पापा! लंगोटिया क्या होता है ?’’
“लंगोटिया……लंगोटिया लंगोट से बनता है बेटा।’’ उत्तर देते हुए मेरे दांत भिच गए।
“यह लंगोट क्या होती है पापा ?’’ वह कौन-सा रुकने वाला था।
“अरे बेटा! लंगोट वह वस्त्र है जो बचपन में अगर दुर्योग से बंध जाए एवं आगे बड़ी उम्र में आकर उसे कोई हिला जाय तो उस हिली लंगोट की जो व्यथा होती है वह वही जानता है जिसकी हिलती है। लंगोट का दर्द भुगतने वाला ही समझ पाता है कि ‘दर्दे-लंगोट’ क्या बला है।’’
इतना गूढ़ ज्ञान वह कैसे समझता। उसकी आंँखों में अब प्रश्नों का अंबार उभर आया था।
वह कुछ और पूछता उसके पहले मैं भीतर चला आया।
……………….
दिनांक 16.09.2013