तुम कहाँ हो माँ ?

जाने वे कैसे लोग होते हैं जो कुछ नहीं करते एवं सब कुछ पा जाते हैं एवं फिर ताउम्र सबको सीख देते हैं कि सफल होने के यह गुण है, वह गुण हैं। वे लोग भी तो दुनियां में कम नहीं होते जो जितना करते हैं उतना पा लेते हैं, पर कुछ अभागे मेरी तरह होते हैं जो सारी उम्र बैल की पूंछ मरोड़ते रहते हैं, लेकिन जिनके हाथ अंततः गोबर के अतिरिक्त कुछ नहीं लगता।

जीवन में आगे बढ़ने के लिए मैंने कितने पापड़ बेले हैं, मैं ही जानता हूँ। योग्यता में भी कमी नहीं वरन् अनेक बार स्वयं को उन गधों से कहीं आगे पाता हूँ जिन्हें ईश्वर ने सब सुखों से नवाजा है। उनके लिए तो जीवन ‘आठ वार नौ त्यौहार’ है, पर यहाँ तो जो करूँ दाल और पतली हो जाती है। अभी मेरी उम्र पैंतीस वर्ष है एवं गत दस वर्षों में मैंने पांच धंधे बदल दिए हैं। अब तो हौसला भी टूट गया है। अनेक बार तो बीवी मेरी ओर आँखें तरेर कर ऐसे देखती है मानो कह  रही हो, ‘‘और कितना परेशान करोगे ? तुम्हारे मित्रों की बीवियाँ पाँव पसारकर राज कर रही हैं और एक तुम हो जो हर बार पिटे सिपाही की तरह घर लौट आते हो। मेरे भाग्य में ऐसा ही मर्द लिखा था क्या?’’ एक बार तो जी में आया उसे आडे़ हाथों लूँ फिर जाने क्या सोच कर चुप रह गया।

मेरी पत्नी गलत कहाँ है ? मेरा कैरियर एवं असफलता ग्राफ इन सभी तथ्यों कीे पुष्टि करते हैं। सबसे पहले मैंने पुस्तकों की दुकान खोली, येन-केन-प्रकारेण पूंजी का जुगाड़ किया पर धंधा प्रारंभ करने के एक वर्ष बाद आग लग गई। मेरे आँखों के आगे जमा पूंजी स्वाहा हो गई। उसके पश्चात् मैं ज्योतिषियों के इर्द-गिर्द मंडराता रहा, किसी ने धंधा बदलने की राय दी तो मैंने एक रेस्टोरेंट लगाया, वह भी मंदी की गर्त में गया। तत्पश्चात् शेयर्स का कार्य, लोहे का कार्य एवं अब ठेकेदारी कर रहा हूँ। शुक्र है ठेकेदारी में दाल-रोटी बन जाती है, अन्यथा फाके पड़ जाते। वैसे ठेकेदारी कम मशक्कत नहीं है विशेषतः सरकारी निर्माण विभागों की ठेकेदारी में तो अच्छे-अच्छों के पसीने निकल जाते हैं। दिन-रात इंजीनियरों के चक्कर लगाओ तब काम बनता है। यहाँ भी बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों पर हावी है। अभी कुछ रोज पहले पचास लाख का टेंडर भरा तो बड़े ठेकेदार यूँ देखने लगे कि यह नमूना किधर से आया है। औकात टके भर की नहीं और मंसूबे इतने ऊँचे ! हाँ, ठेकेदारी में यह आराम अवश्य है कि साहब मेहरबान हो तो काम पूरा होने के साथ पैसे मिल जाते हैं एवं इसीलिए कम पूंजी में जुगाड़ बन जाता है।

लेकिन दुर्भाग्य! यहाँ भी कुछ रोज पूर्व साइट से चोर सरिये चुराकर ले गए। वह तो भला हो पड़ोसी ठेकेदार का जिसका चपरासी जग गया एवं जिसके चिल्लाने से चोर भाग गए वरना लुटिया डूब जाती।  इस ठेके से अच्छी उम्मीद थी, पर यहाँ भी भाग्य ने निराश किया। गनीमत है साख एवं पूँजी बच गई, वरना कम पूंजी वालों को सड़क पर आने में देर लगती है क्या !

कहने वाले ठीक कह गए हैं, ‘करमफोड़ खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े।’ मै भी अब तक हताश हो चुका हूँ। रणक्षेत्र में दुश्मन से लड़ना सरल है, पर भाग्य की लड़ाई अच्छे-अच्छे सूरमाओं को ध्वस्त कर देती है।

अभी आधा घण्टा पूर्व सोने के लिए पलंग पर आया तब निहारिका पास पड़े पलंग पर बच्चों को सुला रही थी। बच्चों को सुलाकर मेरे पलंग पर आई तो मैं लगभग चीख पड़ा, ‘‘मेरा भी कैसा भाग्य है ? कोई काम करो, हाथ में कंकर लगते हैं।’’

‘‘आप किसी भी काम को स्थिर मन से कब करते हैं ? यह करूँ, वह करूँ में ही मन भटकता रहता है। ऊँच-नीच तो हर धंधे में होती है। आदमी को जुगत बिठानी पड़ती है।’’ आज उसका दबा दर्द भी लावा बनकर फूट पड़ा। आखिर वह भी कितना सहन करती।

निहारिका का क्रोध भरा उपदेश आग में घी सिद्ध हुआ। मेरी स्थिति ऐसी थी मानो किसी ने पका बालतोड़ छू दिया हो। 

‘‘अब तू भी कोसने लगी। असफल आदमी को जनता तो ठोकती ही है बीवी भी नहीं बख़्शती। साइट पर चोरी हो गई इसमें मेरा दोष है क्या?’’ मैं बिफर पड़ा।

‘‘बाकी जिन धंधों में चोरी नहीं हुई, वहाँ कौन-सा तीर मार लिया था! दो पैसे कमाते ही तो उछलने लगते हो। पैसा जेब को काटता है। यहाँ चलो, वहाँ चलो और मजे मारकर पूंजी स्वाहा कर देते हो। फिर यह बहाना और वह बहाना। पैसा कमाने के लिए टिककर काम करना पड़ता है। लक्ष्मी पाने के लिए संयम एवं धैर्य रखना होता है। पेट काटकर धन जुड़ता है, शेखचिल्ली बनकर नहीं।’’ आज उसने भी मोर्चा खोल दिया।

मन का सारा क्रोध उडे़लकर उसने करवट बदली एवं ऐसे सो गई मानो अब से मुँह भी नहीं देखना चाहती हो। इससे पहले भी उसने अनेक बार गुस्से का इज़हार किया है, पर कमबख्त मेरे भाग्य ने करवट नहीं ली।

आखिर लक्ष्मी किनके यहाँ निवास करती है ? उसका कोई नियम-कायदा है या नहीं ? रात यही सोचते जाने कब आँखें लग गई।

रात मैंने एक अलौकिक स्वप्न देखा। स्वप्न में लक्ष्मी साक्षात् मेरे सामने खड़ी थी। उसका रूप-रंग अद्भुत ही नहीं अलौकिक था। मैया की अंगकांति एवं स्मितहास देखते बनता था। वह मानो अपनी प्रभा से प्रकाशित हो रही थी। मनोहर नेत्र, खिला रूप, क्षीण कटि एवं लाल चरण उसकी शोभा को दूना कर रहे थे। माथे पर सिंदूर की बिंदी लगी थी। आँखों का काजल उसके मोहिनी रूप को बढ़ा रहा था।  वह  लाल  साड़ी,  लाल चूड़ियाँ एवं नख-शिख लाल परिधान पहने थी। उसके पाँवों के नीचे लाल कमल था एवं वह धरती से कुछ ऊपर दिखाई दे रही थी।

मैया को सम्मुख देख मुझे मनमांगी मुराद मिल गई। मैंने उसके चरण स्पर्श किए एवं तत्पश्चात् दोनों हाथ जोड़कर उसके चरणों में बैठ गया। मुझे देखकर वह मुसकाई तो मैं आश्वस्त हुआ। कुछ क्षण तो वह चुप रही फिर पूछा, ‘‘पुुत्र! सब कुशल से तो है?’’

‘‘कहाँ कुशल है माँ ? तुम्हारी राह तकते आँखे पथरा गई। आखिर आप कहाँ निवास करती हैं? मैं तो आपको ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थक गया।’’ मनुष्य का तात्कालिक दुःख मुँह चढ़कर बोलता है।

‘‘मैं निर्भीक, कार्यकुशल, स्थिरमना एवं कर्मपरायण लोगों के समीप रहती हूँ। मीठी वाणी के धनी, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय, क्रोधरहित एवं लोककल्याण को सर्वोपरि मानने वाले लोग भी मुझे अत्यंत प्रिय है।’’ कहते-कहते मैया का स्मितहास और गहरा गया एवं उनकी दंतपंक्ति मोतियों-सी चमकने लगी।

मैया को यूँ बोलते देख मुझे काठ मार गया। लगा जैसे किसी ने मेरा स्तंभन कर दिया हो। जैसे-तैसे स्वयं को संयत किया एवं बोला, ‘‘इसके अतिरिक्त आप और कहाँ निवास करती हैं माँ?’’

‘‘मै उन लोगों के भी सान्निध्य में रहती हूँ जो गुरुजनों, माता-पिता एवं बुजुर्गों को आदर देते हैं। ईश्वर में अनन्य श्रद्धा एवं विश्वास रखकर संघर्ष करने वाले कर्मयोगियों की लगन-लौ के लिए तो मैं फानूस बन जाती हूँ। क्रूर, कामचोर, कृतघ्न एवं दुराचारी मुझे जरा भी नहीं सुहाते। अमानत में खयानत करने वालों को मैं जड़मूल से मिटा देती हूँ। निरर्थक वाद-विवाद करने वाले, दंभी एवं अधीनस्थ व्यक्तियों का शोषण करने वाले अहंकारियों के लिए मैं काल बन जाती हूँ। स्वाभिमानी, क्षमाशील मुझे अत्यंत प्रिय हैं। सुंदर भावों से भरे भक्तों के यहाँ मैं भाव-लक्ष्मी होकर निवास करती हूँ। खिन्न, आलसी यहाँ तक कि संतोषी लोगों से भी मैं कोसों दूर रहती हूँ। सरल, सत्यवदना, नित्यप्रसन्न एवं सहृदय लोगों के साथ तो मैं ऐसे रहती हूँ जैसे चन्द्रमा के साथ उसकी प्रभा।’’

मैया को यूँ निर्बाध बोलते देख मुझमें आत्मविश्वास का संचार हुआ। इस बार मैं साहस बटोरकर बोला, ‘‘आपके अन्य वासस्थान से भी मुझे अवगत करवाएं माँ ?’’ भला ऐसे दुर्लभ अवसर को मैं कैसे छोड़ता!

‘‘मैं कहाँ नहीं हूँ पुत्र! समस्त प्रकृति ही तो मेरा वासस्थान है। सुंदर वाहनों में, आभूषणों में, वर्षा करने वाले मेघों में, भव्य-भवनों में, नदी-तालाब-सरोवरों में क्या तुम्हें मेरी छवि नहीं दिखाई देती ?’’

अब मैंने मोर्चा संभाला।

‘‘आप जिन गुणों में निवास करने की बात करती हैं, उन्हीं गुणों से परिपूर्ण अनेक लोगों से मैंने आपको दूर पाया है। ज्ञानियों तक को आपको लेकर कोई समीकरण समझ में नहीं आता। आपकी कृपा के चलते संसार में ऐसे लोग भी हाथी पर सवार दिख जाते हैं, जिनमें गधे पर बैठने तक की काबिलियत भी नहीं होती। इसीलिए तो पृथ्वी पर लोग आपको चंचला एवं चपला कहते हैं।’’

‘‘तुम ठीक कहते हो पुत्र! मुझे पाने के लिए मात्र मेरे बताये गुणों से कार्य नहीं चलता।  मैं  बलात्  मनुष्य  के  प्रारब्ध का भी अनुसरण करती हूँ । यह प्रारब्ध मनुष्यों के जन्म जन्मांतरों के सत्कर्मों से बनता है। अनेक बार इसीलिए विवश होकर मुझे ऐसे लोगों के यहाँ भी जाना होता है जो सर्वथा कुपात्र हैं, पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि मैं स्थिर वहीं होती हूँ जहाँ मेरे द्वारा बताये दुर्लभ गुणों का वास होता है। वर्षों पुरुषार्थ करने के पश्चात् अब तुम्हारे भी प्रारब्ध जगे हैं, अतः अब तुम्हारे यहाँ निवास करने आई हूँ। अगर तुम इन गुणों से आपूरित रहोगे तो मैं तुम्हारे यहाँ नित्य-निवास करूँगी। तुम्हें छोड़कर कभी नहीं जाऊँगी।’’

‘‘मै आपके निदेर्शों का अक्षरशः पालन करूँगा, माँ! अब आप आ गई हैं तो मैं आपको जाने थोडे़ न दूंगा। मैं समझ गया हूँ कि मनुष्य के गुण ही उसके प्रारब्ध का निर्माण करते हैं एवं इसीलिए आप सिंधुजा मनुष्य के गुणों की कारा में ही निवास करती हैं।’’

‘‘तुमने ठीक समझा पुत्र! मैं तो मनुष्य के गुणों की कैदी हूँ। मनुष्य के गुण ही मुझे उसके बंधन में रखते हैं।’’

यकायक मुझे लगा कोई मेरे मुँह पर छींटे डाल रहा है। मैं हड़बड़ाकर उठा तो निहारिका चहक कर बोली, ‘‘आज का अखबार देखो! हमारी तो किस्मत खुल गई। पिछले माह पचास लाख का जो टेंडर भरा था, आपके नाम लग गया है। आश्चर्य! इतने बड़े लोगों के बीच यह टेंडर हमें मिल कैसे गया?’’

मै पंलग से उठा एवं अखबार हाथ में लेकर विज्ञप्ति देखी। सचमुच टेंडर मेरे नाम स्वीकृत हुआ था।

मैया ठीक ही तो कह रही थी , ‘‘मैं मनुष्य के प्रारब्ध का अनुसरण करती हॅूँ एवं प्रारब्ध गुणों का!’’

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31-05-2012

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