जोड़े तो दुनियाँ में बहुत देखे पर जगताप्रसाद बाली एवं वीणा जैसा जोड़ा कहीं नहीं देखा। शायद उनको देखकर ही किसी ने ‘एक और एक ग्यारह होते हैं’, वाला मुहावरा बनाया होगा।
बाली साहब गलत हो या सही, वीणा हर बात में उनकी तरफदारी करती। यही बात बाली साहब पर भी हूबहू लागू होती। वीणा की रक्षार्थ वो ऐसे आते जैसे कृष्ण, द्रौपदी की रक्षार्थ आए थे। दोनों को लोगो से कलह करने में एक विशेष मस्ती आती। मिल-जुल कर शिकस्त देने के बाद दोनों के चेहरे एक अद्भुत आनंद से भर जाते। झगड़ा नहीं होता, तो झगड़े का कारण बना लेते। ऐसे ऐसे हथकण्डे अपनाते, दाँव-पेच लगाते कि सामने वाला तौबा कर उठता। दोनों की खोपड़ी में राहू एवं हृदय में शनि विराजमान था। दोनों ईश्वर की कारीगरी का नायाब नमूना थे।
आज मुँह अंधेरे ही दोनों अखबार वाले से उलझ पड़े। अखबार वाले ने जब हिसाब मांगा तो बाली साहब को सुबह-सुबह ही कलेवा मिल गया। अचानक उनके मस्तिष्क में बिजली कौंधी, आँखें तरेर कर एक पत्ता फेंका, ‘‘भुगतान का कौन मना करता है पर इस माह तीन बार अखबार आया ही नहीं।’’ बस इसी बात पर कलह प्रारम्भ हो गई।
‘‘बाबूजी, यह संभव ही नहीं हैं। मैंने बराबर अखबार डाले हैं, काॅलोनी में किसी से पूछ लीजिए।’’ अखबार वाले की मासूम आँखें उसकी सच्चाई का बयान कर रही थी।
‘‘तो मैं क्या झूठ बोल रहा हूँ। अब तुम कल के लौण्डे हमें सिखाओगे। मुझे काॅलोनी से क्या मतलब? मैं तो मेरी जानता हूँ!’’ अखबार वाला और तमकता उसके पहले ही उन्होंने वीणा को ऐसे आवाज दी जैसे युद्ध प्रारम्भ करने के पहले कैप्टन सिपाही को बुलाता हो।
रसोई का काम छोड़कर वीणा तुरन्त बाहर आई। बाली साहब का साहस आसमान छूने लगा। आँखों ही आँखों में इशारा हुआ, वीणा पलभर में समझ गई।
‘‘अब तुम ही बताओ, इस बार तीन अखबार कम आए कि नहीं!’’
‘‘बिल्कुल तीन बार नहीं आए। यहाँ सैकड़ों रुपये का दान कर देते हैं, पाँच रुपये के लिए झूठ बोलेंगे।’’ वीणा ने अखबार वाले को तमक कर कहा।
अखबार वाले को अब अपनी हार सुनिश्चित दिखाई दी। सोचा, सुबह-सुबह और जगह भी अखबार डालने हैं एवं पेमेन्ट लेना है अतः हारते हुए से बोला, ‘‘अच्छा बाबूजी, तीन अखबार का काटकर पेमेन्ट कर दो। आपका धर्म आपके साथ है। ऊपर वाला सबको देखता है।’’
बाली साहब की आँखों में जीत का नशा छा गया। अखबार वाले को पेमेन्ट किया एवं अन्दर कमरे में आकर विजय गर्व में यूँ लेटे मानो कोई गढ़ फतह करके आए हों। इसी तरह दूध वाले से, महरी से, मौहल्ले वालों से बाली दम्पत्ति के युद्ध होते ही रहते थे। जब तक दोनों मिलकर पटखनी नहीं दे देते, विश्राम नहीं करते। ‘हमसे लड़िए’ उनका जीवन-नारा था। सरसों के बिखरे दाने शायद गिनना संभव हो, मिट्टी के कण भी कदाचित् हम गिन लें पर दुष्टों की दुष्टताएँ नहीं गिनी जा सकती।
बाली साहब अब पचपन के पार थे। जिस उम्र में सारे बाल सफेद हो जाने चाहिए एवं गंजापन हमारी निधि होनी चाहिए, उसी उम्र में उनके सर पर अधिकांश बाल घने काले थे। सफेदी यहाँ-वहाँ कानों के पास झाँकती ऐसी लगती जैसे काले बादलों से भरे आसमान में दो चार सफेद बदलियाँ तैर रही हों। जिसने सारी उम्र कलह किया हो, लोगों के बाल उखाड़े हो भला उनके बाल क्यों न सलामत रहें। आँखें कौए की तरह इधर-उधर देखती थी। रंग साँवला, कद ठिगना, गोल मुँह, नुकीली मूछें एवं शरीर पर बेडोल मोटापा उनके बेडोल विचारों से साम्य बनाते नजर आता। शादी हुए तीस वर्ष होने को आए। गत वर्ष ही लड़की की शादी की थी। अब एक पुत्र को सेटल करने की चिंता उन्हें खाये जा रही थी। यहीं शिक्षा विभाग में जिला शिक्षा अधिकारी थे, सोचते कहीं पद का फायदा उठाकर इसे भी सेटल कर दूँ। रिटायर होते-होते घर में बहू आ जाएगी तो सारे मनोरथ सिद्ध हो जाएंगे।
इसीलिए इन दिनों अक्सर अफसरों के घर चक्कर काटते नजर आते। वहाँ बाली साहब ऐसे पेश आते जैसे उन-सा सौम्य एवं शिष्ट कोई और न हो। वीणा अपनी बातों से उनकी शिष्टता को और निखारती लेकिन यह सौम्यता एवं विनम्रता अफसरों को मूर्ख बनाने का मुखौटा मात्र थी, मन का संस्कार नहीं।
कार्यालय में भी बाली साहब के कलहप्रिय स्वभाव से उनके अधीनस्थ कर्मचारी त्रस्त रहते। अपनी बात मनवाने के सारे गुर बाली साहब इस्तेमाल करते। स्वभाव से इतने संवेदन शून्य थे कि यह कभी नहीं सोचते, मेरे किंचित लाभ से दूसरे की कितनी हानि होगी। हर हाल में अपना फायदा देखना एवं सदैव विजयी होना उनका उसूल था।
उनकी इसी आदत के मद्देनजर लोग उनसे कटकर चलते। बाली साहब सोचते लोग मुझे आदर देते हैं एवं मुझसे डरते हैं। कई बार हम लोगों को इसलिए भी आदर देते है ताकि हमारा कोई निरादर न करें। कीचड़ में पत्थर मारने से छींटे तो हमारे ऊपर ही गिरेंगे।
अपने रिश्तेदारों के साथ भी बाली दम्पति का यही व्यवहार था। दो भाई, दो बहनें थी, सभी ग्रह दिखाकर ही उनसे मिलने आते। पिता को मरे बीस वर्ष हो गए, माँ अक्सर अन्य भाइयों के यहीं रहती। कभी एक-दो रोज शगुन लेकर पोते को देखने आ भी जाती तो दोनों ऐसी जुगत बिठाते कि बुढ़िया गठरी बाँधकर भागती नजर आती।
सभी उन्हें ‘ढोल-थाली’ कहते। राजस्थान में शादी ब्याह पर अक्सर ढोल-थाली बजते हैं। ढोल के साथ थाली की संगत आवश्यक है एवं थाली के साथ ढोल की। ढोल पुरुष बजाता है एवं थाली स्त्री तथा दोनों के साथ बजने से ढम-टन ढम-टन ……का मधुर राग पैदा होता है। दोनों का साथ बजना अपरिहार्य है। बाली दंपति पर यह उपमा सटीक बैठती।
बाली साहब की मेहनत रंग लाई। उनका लड़का मनन यहीं सरकारी स्कूल में अध्यापक लग गया। इस वर्ष ही उसकी शादी सुवामा से हुई। इसी वर्ष बाली साहब भी रिटायर हुए।
सुवामा एक सुसंस्कृत घर से थी, पर चतुराई उसकी रग-रग से टपकती थी। कुछ महीनों में ही उसने सास-ससुर की प्रकृति समझ ली। बाली दम्पति ने बिल्ली मारने की कोशिश की। जब भी मनन घर से बाहर होता बहू पर पुराने पैंतरे आजमाते, एक के मोर्चा खोलते ही दूसरा मदद को आता। शुरू में तो सुवामा ने लोक-लाज से चुप्पी साधे रखी पर अंत में जब समझ लिया कि दोनों कुत्ते की पूँछ है तो मोर्चा खोल दिया। व्यंग्य और जलन भरे ताने कोई कब तक सहन करे।
होली करीब थी। वीणा ने कमर दुखने का बहाना कर घर के सारे काम सुवामा के हवाले किए। अपनी चाल पर मन ही मन प्रसन्न थी। बहुत दिन रोटियाँ बेल ली, वर्षों चूल्हा फूंक लिया, अब काहे को मरे। होली पर बहुत सारे पकवान भी बनाने थे, सुवामा दिन-रात काम में लगी रहती। बाली साहब एवं वीणा निरीक्षक की तरह उसके काम में मीन-मेख निकालते रहते। मनन को उकसाने का भरसक प्रयत्न करते पर मनन तो पत्नी के हुस्न का दीवाना था। जैसे परी अपने आशिक को शीशे में उतार लेती है, यही हाल मनन का था। अपने पिता की तरह वह भी पक्का पत्नी-परायण था, हमेशा सुवामा का ही पक्ष लेता। कुएँ में हम जैसा बोलते हैं वैसी ही प्रतिध्वनि आती है। आदमी का वर्तमान उसके अतीत की सीख ही है।
आज बाली साहब भोजन करने बैठे तो सुवामा से बोले -‘‘बहू, भाजी में नमक बहुत ज्यादा है।’’ वीणा ने बाली साहब की चाल को गति दी-‘‘अब इसे कितना ही समझाओ यह सुधरने वाली नहीं। माँ-बाप ने जो सिखाया है वहीं तो करेगी।’’
बस यहीं से युद्ध का नगाड़ा बज गया। सुवामा पहले से भरी बैठी थी, अब मानो किसी ने पका बालतोड़ छू दिया। पीहर की बुराई उसके हृदय में काँटे की तरह लगी। खुदी जाग उठी। यह उसके उत्पीड़न की चरम सीमा थी, गुस्से में सारा पतीला वाशबेसिन में उड़ेल दिया।
‘‘अगर मेरे हाथ की सब्जी पसन्द नहीं आती तो आप क्यों नहीं बना लेती? जरा सा कमर में दर्द क्या हो गया, महारानी हो गयी।’’ सुवामा जैसे धधक रही थी। मनन घर में नहीं था, अतः बाली दम्पति का हौसला और बुलन्द था।
‘‘बस, मुँह चलाना जानती है, काम करना जरा भी नहीं आता।’’ वीणा आँखें तरेर कर बोली।
‘‘बहू, तमीज से बात करो? क्या छोटे-बड़ों का ख्याल भी नहीं है!’’ बाली साहब ने सुर में सुर मिलाया।
‘‘आप सासूजी को ढंग से बोलने के लिए क्यों नहीं कहते? मैं क्या उनकी दासी हूँ? अपनी फूटी न दीखे दूसरों की फूली निहारे!’’ सुवामा तेज आवाज में बोली।
‘‘ऐसा है तो अलग घर क्यों नहीं देख लेते। रोज-रोज की चिक-चिक से तो अलग रहना अच्छा है।’’ बाली साहब जैसे भस्म हुए जा रहे थे, गुस्से में आँखें कौड़ियों की तरह बाहर निकल आई।
‘‘यह मकान पुरखों का है एवं हमें क्या हमारे मुर्दों को भी कोई यहाँ से नहीं निकाल सकता।’’ सुवामा की आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उसने रसोई का काम वहीं छोड़ा एवं अपने कमरे में जाकर चिटकनी लगा ली। अब करो खेती और बजाओ बंसी।
बाली दंपति को जैसे किसी ने भरे अखाड़े में पटखनी दी। दोनों सुन्न हो गए। जीवन भर के पाप जैसे बहू के रूप में प्रायश्चित करवाने आ खड़े हुए हो।
मोर्चा दिन ब दिन और दृढ़ होता गया। सुवामा ने मनन को साथ लेकर कमर कस ली। अब बहू हर बात का जवाब देती। अब जरा-जरा सी बातों पर झगड़ा होने लगा। जब व्यक्ति कुण्ठित होता है तो छोटी-छोटी बातें ही दिल दुखाने को काफी होती हैं, तब हम सिर्फ मौके की तलाश में होते हैं। घाव पर जरा-सी चोट भी असह्य होती है।
बाली साहब ने सुवामा को दबाने के लिए अब भाई बहनों का सहारा लेना चाहा पर सभी ने सुवामा का ही पक्ष लिया। जिसने जीवन भर कलह की हो, दूसरों को जलाया हो, लोग उसके जलते हुए घर को देखकर अब हाथ नहीं सेकेंगे तो कब सेकेंगे? दोनों रक्त के प्यासे शिकारी कुत्तों की तरह सुवामा को शिकंजे में कसने का प्रयास करते पर उनका हर प्रयास असफल रहता। वीणा खीज कर कहती, ‘‘यह तितली तो मधुमक्खी निकली। आई है जान के साथ जाएगी जनाजे के साथ।’’
शब्द बह्म हैं। शब्दों की शक्ति असीम होती हैं। कभी-कभी हमारे दुर्वचनों, दुर्व्यवहारों के बाण हमें ही बींध डालते हैं। दुनिया में सेर को सवा सेर मिल ही जाते हैं।
सुवामा ने अब सास-ससुर को सबक सिखाने की ठान ली। दिल को जितनी ठेस लगती है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। जब भी बाली साहब घर से बाहर जाते वह सास को जान-बूझकर छेड़ती अथवा जब भी सास मन्दिर आदि जाती वह ससुर को परेशान कर देती। ढोल-थाली की संगत ही नहीं होने देती। जब दोनों साथ होते वह अपने कमरे में चली जाती एवं कमरा अंदर से बंद कर देती। दोनों कलह को तरसते, पर वह उन्हें मौका ही नहीं देती।
खुराक के बिना देह कैसे चलेगी। झगड़ालू बिना झगड़ा किये कैसे रहते! अब दोनों एक दूसरे को काटने लगे, यहाँ तक कि कभी-कभी हाथापाई कर बैठते। सुवामा एवं मनन ने चुप्पी साध ली। दोनों कलह का मौका ही नहीं देते।
अब दो शातिर गिद्ध आमने-सामने थे। वे ही पैंतरे जो पहले लोगों को नीचा दिखाने के लिए मिलकर इस्तेमाल करते, अब एक दूसरे पर करने लगे। दोनों एक दूसरे को खाने लगे। बाली साहब घर के विनाश के लिए वीणा को जिम्मेदार ठहराते एवं वीणा बाली साहब को। अपने ही बनाये चक्रव्यूह में वे खुद फंस गए। बाली साहब के पूर्व के सारे भेद, सारी दुर्योजनाएँ, वीणा उनके शिकार-परिचितों को बताने लगी। अब उनके नित नये दुश्मन बनने लगे। दुश्मनों ने उनका जीना हराम कर दिया। पाप सर चढ़कर बोलने लगा। ईश्वर महान न्यायाधिपति है, कालांतर में मनुष्य के कर्मों को वह दूध का दूध एवं पानी को पानी की तरह बाँट देता है। चतुर से चतुर एवं शातिर से शातिर भी उसके न्याय से नहीं बच पाते। ईश्वर के इस अदृश्य न्याय को हर आत्मा अनुभूत करती है। इसीलिए धूर्त एवं शातिर उससे अधिक भयभीत रहते हैं, ज्ञानी तो सिर्फ उसका गुणगान करते हैं।
सुवामा एवं मनन घर के कलह भरे वातावरण में घुटने लगे। इंसान जब निरुपाय एवं हताश हो जाता है तो प्रकृति का सहारा लेता है। दोनों वातावरण परिवर्तन के लिए कुछ रोज मसूरी चले गए। इंसान घर में ही सुकून ढूंढता है, वहाँ नहीं मिले तो अन्यत्र तलाशता है।
मसूरी में आज उनका पांचवां दिन था। दोनों ‘सन-सेट पाइन्ट’ पर बैठे डूबते सूरज को निहार रहे थे। डूबता सूर्य न जाने क्यों एक विचित्र विषाद से भर देता है जैसे कर्मों की गठरी लादे कोई जीव अनन्त के आगोश में खो रहा हो। सूर्य की लाली जो कभी तपिश बनकर जलाती हैं, अंततः अंधेरे में समाहित हो जाती हैं। सभी को दाह से झुलसाने वाले अंगारे जब बुझने लगते हैं तो राख अपने आगोश में उनको छुपाकर ढँक-सी लेती है। जलना और जलाना समाप्त हो जाता है। बादल की गर्जना-तर्जना टुकड़ों से छिन्न-भिन्न होकर बादल के अस्तित्व को समाप्त कर देती है। तपन-जलन-कलह एक ही स्वर एवं अनुभूति का दूसरा नाम है, परन्तु अन्त उनका भी होता है। अन्तहीन आकाश में सभी अनुभूतियाँ खो जाती हैं। कलह का अन्तिम पड़ाव चिर शांति की पूर्वानुभूति देता है और जीवन के समापन के चिन्ह अपने आप ही पेड़ से टूटे पत्ते की तरह गिरकर पेड़ से अलग हो जाते हैं। जीवन अनन्त में समा जाता है। देखते ही देखते सूर्य अंधेरे में विलीन हो गया।
रात दोनों होटल पहुंचे तो मनन को घर के पड़ौसी से मोबाईल फोन पर दुखद सूचना मिली-‘‘तुम्हारे माता-पिता का निधन हो गया है। दोनों ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली।’’
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17.01.2003