मीना और महेश की दुश्मनी सारे मौहल्ले में मशहूर थी। यह भी कैसी दुश्मनी हुई ? दो दादाओं , दो पहलवानों , दो राजाओं , दो उस्तादों यहाँ तक कि दो स्त्रियों की दुश्मनी के बारे में तो बहुत सुना है पर एक लड़के एवं लड़की के बीच ऐसी गहरी दुश्मनी हो कि मौहल्ले में चर्चा का विषय बन जाय, ऐसा तो सुनने में नहीं आया।
क्या कुछ लोगों में जन्मजात बैर होता है?
पशुओं में तो ऐसा अक्सर देखा गया है जैसे कुत्ते और बिल्ली में, बिल्ली और चूहे में, साँप और नेवले में एवं अन्य अनेक जानवरों तथा पक्षियों में जन्मजात बैर होता है पर वहाँ तो बात शक्ति परीक्षण की है। जिन जानवरों में शक्ति परीक्षण हो चुका है वहाँ बैर नहीं है, लेकिन जहाँ शक्ति परीक्षण चल रहा है, दोनों स्वयं को एक-दूजे से अधिक शक्तिशाली एवं चालाक सिद्ध करने पर आमादा हैं। मनुष्य भी तो मूलतः जंगल से आया है। सभ्य, सुसंस्कृत एवं शहरी हो जाने पर भी उसके अवचेतन मन का जंगल अभी मरा नहीं है। यहाँ भी शक्ति परीक्षण जारी है। छोटे स्तर पर दो मनुष्यों, दो समूहों के बीच तो वृहत स्तर पर दो समुदायों, दो राज्यों एवं अंततः दो राष्ट्रों के बीच। जब तक मनुष्य के अवचेतन मन का जंगल जिंदा है, फसाद, दंगे एवं युद्ध होते रहेंगे, हाँ उनका रूप भिन्न हो सकता है।
महेश ने अभी कुछ दिन पूर्व बीस वर्ष पूरे किये हैं। ऐसा छैला-बाँका जवान चिराग लेकर ढूंढने पर भी न मिले। पूरा छः फुटा है। तीखी नाक, रतनारी आँखें, चेहरे पर रुआब एवं भीगी मूँछें देखकर अच्छे-अच्छे को पसीना आ जाये। जवानी का समुद्र मानो हिलौरे मार रहा हो। नित्य सुबह एक घण्टे कसरत करता है। इसीलिए उसकी छाती चौड़ी, कन्धे पुष्ट एवं दोनों बाजुओं पर मछलियाँ फड़कती है। पूरे मौहल्ले में दादागिरी चलती है , नस-नस से बहादुरी फड़कती है।
एक बार उसके मौहल्ले के बुजुर्ग गोपीनाथ के साथ दूसरे मौहल्ले के दादाओं ने दुर्व्यवहार किया। उस शाम गोपीनाथ किसी से मिलकर आ रहे थे। दूसरे मौहल्ले के गुण्डों ने उस रोज दारू छक रखी थी। एक गुण्डे ने दूसरे से कहा, “यह किस मुहल्ले का बुढेऊ है रे?” दूसरे ने बहकते हुए उत्तर दिया, ‘‘महेश के मौहल्ले का।’’ सभी महेश से जले भुने थे। एक ने गोपीनाथ की छड़ी छीनी, दूसरे ने घड़ी तो तीसरे ने पर्स छीनकर चलता किया। बुड्ढा बेचारा राम-राम करते हुए भागा।
महेश को इस घटना का पता चला तो उसकी मछलियाँ फड़कने लगी। उसी दिन अकेला हाथ में लाठी लेकर वह उस मौहल्ले में गया। वहाँ उन सभी की ऐसी धुनाई की कि साँप सूंघ गया। देखने वाले बताते हैं कि महेश सूरमा की तरह अकेेले भिड़ गया। उसका रणकौशल देखते बनता था। इसके बाद तो उस मौहल्ले में ही नहीं, स्वयं के मौहल्ले में भी उसकी धाक जम गयी।
जैसे हर दादा के कुछ पट्ठे होते हैं जो भाटों की तरह अपने दादा के गुण बखानते रहते हैं, महेश के भी कई पट्ठे हैं। यह सभी महेश के नाम से रोटियाँ सेकते हैं एवं अपने उस्ताद के गुणों का ढोल पीटते रहते हैं। जहाँ भात होता है वहाँ कौए स्वतः आ जाते हैं। वैसे तो महेश सब पट्ठों से बतियाता रहता है पर अपने मन की बात सिर्फ मन्नु को कहता है। सारा मौहल्ला जानता है कि महेश का असली राजदार, हमनिवाला, हमप्याला मन्नु ही है। जब भी महेश अकेला होता है वह मन्नु के साथ तालाब के उस पार बीयर पीता हुआ मिलता है। दादाओं में कुछ गुण होते हैं तो कुछ अवगुण भी होते हैं। मन्नु महेश के नाम से बीयर, अण्डे एवं किराणा का सामान मुफ्त में लाता रहता है। महेश के माँ-बाप दोनों चार साल पहले गुजर गये थे। पहले बाप गुजरा, एक माह बाद माँ। मन्नु को महेश पास के गाँव से लेकर आया है। कहते हैं उसका भी कोई धणी-धोरी नहीं है। दोनों की स्थिति आगे नाथ न पीछे पगहा वाली है। दादागिरी ही रोजी है। दोनों मैदान के किनारे बने दो कच्चे मकानों में रहते हैं।
यह मौहल्ला भी अजीब है। संकरी गलियों से होकर कोने तक जाते हुए छोटे किंतु पक्के मकान जिन्हें सभी लोग दिवाली के समय हल्के पीले रंग में पुतवा लेते हैं। सभी गलियाँ बड़े मैदान में आकर मिलती हैं। मैदान के उत्तर में किराणा, कपड़ा एवं अन्य दुकानें हैं। सुबह जब सूरज मौहल्ले पर सुनहरी किरणें बिखेरता है तब मकानों का हल्का पीला रंग यूं चमक उठता है मानो मकान पत्थरों से न बनकर स्वर्ण शिलाओं से बने हों। शाम सूरज डूबता है तो यही पीला रंग संध्या की लाली में घुलकर लज्जाआरक्त किशोरी के कपोलों की तरह रक्तवर्णी हो जाता है। रात चन्द्रमा की शीतल किरणों में यही मकान एवं इनमें चिपके कांच के छोटे-छोटे टुकड़े गूदड़ी के लाल की तरह चमक उठते हैं।
जैसे जंगल में सभी जानवर शेर से भयभीत होते हैं पर शेरनी उससे जरा भी भयभीत नहीं होती, उसी प्रकार इसी मौहल्ले की मीना महेश से जरा भी नहीं डरती। पूछते हैं तो कहती है, ‘‘ऐसे लौण्डे छप्पन सौ साठ घूमते हैं।’’ जहाँ मौहल्ले की दूसरी लड़कियाँ महेश के समीप होकर निकलने तक से कतराती हैं, मीना आँख मिलाकर कहती है, ‘‘यह दादागिरी कीड़े-मकौड़ों को बताया कर। जिस दिन मुझसे पाला पड़ेगा, सियार की तरह दुम दबाकर भागेगा।’’ इतना ही नहीं महेश के सामने लंबी काली चोटी घुमाकर इस तरह गले में डालती है मानो कह रही हो, ज्यादा होशियारी दिखायी तो इसी चोटी में बाँधकर मौहल्ले के चक्कर लगवाऊंगी।
महेश एवं उसके पट्ठे अक्सर श्याम बनिये की दुकान के बाहर बैठे रहते हैं। मीना भी रोज वहीं किराणा एवं रोजमर्रा का सामान खरीदने आती है। मीना इसी मौहल्ले में वर्षों से रहने वाले श्यामलाल मास्टर की पुत्री है जो यहाँ से कुछ दूर स्थित सरकारी स्कूल में अध्यापक है। मीना माँ-बाप की इकलौती संतान है शायद इसीलिये नकचढ़ी है।
पहली बार मीना ने पैंतरे बताये तो महेश को साँप सूंघ गया। बेचारा करे क्या? औरत को आँख दिखाने अथवा उस पर हाथ उठाने से तो कोई सूरमा नहीं बन जाता। हाँ, मीना के जाने के बाद महेश के पट्ठों ने दादा को आड़े हाथों लिया। उस्ताद धूल चाट ले तो प्यादों की क्या बिसात।
रूप में मीना भी कम न थी। वह भी सुंदरता एवं शौर्य का संगम थी। चेहरे पर सूर्य का तेज बसा था। उम्र फकत अठारह वर्ष, बिंदास, डरना डिक्शनरी में ही नहीं। लम्बा कद, शतरंज की गोटियों जैसी बड़ी-बड़ी आँखें, भरे गाल, तीखा नाक, पतले होठ, उजली बत्तीसी, उन्नत वक्ष एवं अनुपम अंग मानो हुस्नपरी हो। रूप में दर्प का मेल हो जाये तो क्या कहने। सोने में सुगन्ध। उस पर खास बात यह कि वह जूडो-कराटे जानती थी। हाल ही उसे ब्लैक बेल्ट का प्रमाण-पत्र भी मिला था।
मीना और महेश की किराणे की दुकान पर अक्सर तकरार होती।
अभी कुछ रोज पहले वह श्याम चाचा की दुकान से चावल खरीदकर जा रही थी कि महेश का एक पट्ठा चिनू बोला, ‘‘क्या नमक है छोरी में।’’ उस दिन हल्के हरे रंग का कुर्ता एवं सलवार पहने वह अन्य दिनों से अधिक सुंदर लग रही थी। वह अक्सर चोटी बाँधती पर आज उसके बाल खुले थे जो सुबह की ठण्डी हवा के साथ लहरा रहे थे। आज सुबह ही उसने बाल धोये थे। बालों में पानी की बूँदें अब भी शेष थीं। उसकी लटें कई बार उसके मुँह पर चिपक कर ऐसे लगती मानो सर्प मलय वृक्ष के गोरे तने से लिपटे हों।
चिनू की बात सुनकर मीना की भृकुटियाँ तन गयी। बिना कुछ बोले उसने पाँव से चप्पल उतारी एवं चिनू को दिखाते हुए बोली, ‘‘सिर पर एक पड़ गयी तो बाप की तरह गंजा हो जायेगा।’’ चिनू भय के मारे अपने ही में सिमट गया। उसने कातर आँखों से महेश की ओर देखा। अपने पट्ठे को हौसला देता हुआ महेश बोला, ‘‘इसे क्या डराती है, मुझ पर उठाकर देख।’’
‘‘तू कौनसा तीसमारखांँ है। जिस दिन तू बद्तमीजी करेगा तेरा भी यही हाल होगा।’’ कहते-कहते उसने महेश की ओर ऐसे देखा जैसे भूखी बाघिन अपने शिकार को देखती है। महेश कुछ कहता उसके पहले ही वह नागिन की तरह फुफकारते हुए सर्र से निकल गयी।
रात बीयर पिलाकर पट्ठों ने महेश को उकसाया, ‘‘दादा! इस तरह तो मौहल्ले में नाक कट जायेगी। तुम मोर्चा संभालो नहीं तो मुश्किल हो जायेगी।’’
दूसरे दिन मीना श्याम चाचा के यहाँ से साबुन, तेल इत्यादि लेकर जा रही थी कि मन्नु ने उसे छेड़ा, ‘‘क्या बाँकी चाल है, छोरी बहुत कटीली है।’’
मन्नु ने मानो युद्ध के नगाड़े पर पहली चोट दी।
मीना ने सुना एवं मुड़कर श्याम चाचा से बोली, ‘‘यह भूतनीके हर समय यहाँ क्यों बैठे रहते हैं? बिना वजह मौहल्ले की बहू-बेटियों की फज़ीहत करते रहते हैं! इन्हें दफा क्यों नहीं करते? इनके बाप की दुकान है क्या?’’
श्याम चाचा भला क्या कहते।
तभी महेश ऐसे उठा मानो प्रलय जगा हो। मीना के पास आकर आँखें तरेर कर बोला, ‘‘छोकरी! जरा होश में बात कर। बातें तो ऐसे करती है जैसे हम कुम्हड़बतियाँ हों।’’
“पहले अपने गुरगे को समझा। कभी मेरे हत्थे चढ़ गया तो कचूमर निकाल दूंगी।’’ मीना की आँखें लाल होने लगी थी।
“जिस दिन मन्नु का कचूमर निकालेगी, तू बच जाएगी क्या? यहाँ आकर किराणा खरीदना भुला दूंगा। मैंने क्या घास खोदी है?’’ महेश बाजू पर बाँह चढ़ाते हुए बोला।
“किसको आँखें दिखाता है? तू क्या समझता है लड़की हूँ तो डर जाऊंगी? मुझे खाण्ड नहीं समझ लेना की मुँह में डालते ही गल जाऊँ। तुझे पहलवानी आती है तो मैं भी कराटे जानती हूँ। ब्लैक बेल्ट है मेरे पास। और इतना ही सूरमा बनता है तो कल रविवार की सुबह दस बजे इसी चौक में आ जाना। कल तय हो जायेगा कि तेरी पहलवानी में दम है कि मेरे कराटे में।’’
मीना एक सांस में सब उगल गयी। पलभर को मानो समय ठहर गया। सभी पट्ठे चित्रलिखे से देखते रह गये।
धूप तेज होने लगी थी। मौहल्ले के अन्य लोगों के साथ सूर्य भी आँखें फाड़े इस तमाशे को देख रहा था।
मीना की चुनौती स्वीकार करते हुए महेश बोला, ‘‘अब तक औरत जात समझकर चुप था। इतना ही घमण्ड है एवं अपने बाप की असली औलाद है तो कल यहाँ जरूर आना। हाँ, हाथ-टांग टूट जाये तो उसकी जिम्मेदारी तेरी होगी, मेरी नहीं।’
‘‘इसका फैसला कल दस बजे होगा।’’ कहते-कहते मीना फर्राटे से निकल गयी। मौहल्ले में अब तक अच्छी भीड़ जमा हो गयी थी। कुछ देर बाद भीड़ बिखरी तो महेश अपने कमरे में चला आया।
कल का युद्ध महेश के लिए जीवन-मरण का प्रश्न था। वह अच्छी तरह जानता था कि अगर वह जीत गया तो यह कोई खास उपलब्धि नहीं होगी। सब यही कहेंगे, औरत जात को हराकर महेश ने कौन-सा तीर मार लिया पर कदाचित उसका कराटे कौशल चल गया तो महेश फिर हारेगा नहीं मर जायेगा। सोचते-सोचते महेश ने पहलवानी के उन सारे पैंतरों को याद किया एवं अंततः एक-दो जानलेवा पैंतरों को याद कर आश्वस्त हो गया कि छोकरी की हार निश्चित है। बस, एक बार हाथ में आ गयी तो उसकी हड्डी टूटना तय है।
पूरे मौहल्ले में यह बात चर्चा का विषय बन गयी। जितने मुँह उतनी बातें। लोग उस सुबह का इंतजार करने लगे जब ऐसा हसीन युद्ध देखने को मिलेगा। पूरा मौहल्ला जानता था कि यह लड़ाई मात्र एक औपचारिकता है, महेश किसी हालत में यह लड़ाई नहीं हारेगा। फूलों की टहनी भी क्या कभी हीरे को छेद सकती है?
उस रात चाँद भी उस मौहल्ले के ऊपर से गुजरा तो कुछ पल ठहर गया। क्या वह भी किसी घटना का चश्मदीद गवाह बनना चाहता था?
दूसरे दिन पूरब दिशा से सूरज तेज उठकर यूं आगे बढ़ा मानो उसे भी यह लड़ाई देखनी थी। दस बजे तक सारा मौहल्ला, क्या लड़के, क्या औरतें, यहाँ तक कि बड़े-बूढे़ तक मैदान में इकट्ठा थे। भीड़ के चेहरे पर विस्मय के चिन्ह स्पष्ट थे। एक-एक क्षण युग के समान बीत रहा था।
ठीक दस बजे महेश ताल ठोकते हुए बनियान एवं लुंगी पहने मैदान में ऐसे आया जैसे सूर्य बादलों के पर्देे को फाड़कर निकला हो। उसकी लाल आँखों से शौर्य एवं साहस टपक रहा था। सारा मौहल्ला यहाँ तक कि पेड़-पौधे एवं कुत्ते तक स्तब्ध खड़े आज की लड़ाई देखने को आतुर थे।
पन्द्रह मिनट बीत गये, मीना नहीं आयी। मौहल्ले वालों में कानाफूसी होने लगी। औरत जात महेश को यूँ ही ललकार गयी। भला कभी औरत की हिम्मत हुई है ऐसे पहलवान से लड़ने की? महेश के पट्ठे फब्तियाँ कसने लगे, बड़ी सूरमा बन रही थी, निकल गई ना टें …….। वे जोर-जोर से हँसने लगे। ऊपर आसमान का सूरज भी निराश होकर बादलों में छुप गया।
सूरज जब बादलों को चीरकर निकला तब साढे दस बजे थे। तभी मानो बिजली कौंधी। मीना सफेद कुर्ता एवं पायजामा पहने सिंहनी की चाल से मैदान के बीच आयी। उसके कमर पर काला बेल्ट एवं सिर पर लाल फीता बँधा था। उसे देखते ही महेश ने मोर्चा संभाला। ताल ठोककर उसने दोनों पंजे आगे किये। भीड़ सांस रोके यह सब देख रही थी। कुछ पल के लिए मैदान में सन्नाटा छा गया। लेकिन यह क्या! मीना बिजली की गति से उछली एवं अपनी दोनों टांगों द्वारा तेजी से महेश की छाती पर वार किया। एक अद्भुत चमत्कार हुआ। महेश के मुँह से एक चीख निकली एवं वह वहीं बेहोश हो गया।
आज मोरनी साँप को खा गयी।
मीना ने दोनों तरफ एक-एक बार गर्दन घुमाकर अपने बाल हवा में लहराये एवं जैसे आयी थी वैसे ही गर्वीली चाल से अपने घर चली गयी। जाते हुए उसकी आँखें विजयदर्प से चमक रही थी।
सारे मौहल्ले ने दाँतों तले अंगुली दबा ली। ऐसी फज़ीहत तो भगवान किसी पहलवान की न कराये। महेश के पट्ठों के मुँह लटक गये। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे, ‘‘बड़ा सूरमा बनता था, महेश तो मिट्टी का शेर निकला।’’ भीड़ में से एक बूढ़ा बोला।
‘‘बहुत होशियार कौआ एक दिन विष्ठा में चोंच मारता है।’’ दूसरे ने सुर में सुर मिलाया।
‘‘लाख जाय पर साख न जाय। बेचारा अब क्या खाकर यहाँ आयेगा।’’ इस बार भीड़ में से एक औरत बोली।
‘‘आज तो औरत जात की इज्जत दूनी हो गयी। लाख मोल वाला मर्द तो खाक का निकला।’’ पहली औरत की सहेली ने उसका साथ दिया।
महेश के पट्ठे एक-एक कर सरकने लगे। मन्नु ने महेश पर पानी छिड़का तो महेश आँखें मलते हुए उठा। लेकिन अब वहाँ क्या बचा था? महेश की जमकर थू-थू हुई। वह चुपचाप उठा एवं आँख नीची कर अपने कमरे में चला गया।
रात महेश के साथ बीयर पीते हुए मन्नु ने पूछा, ‘‘दादा! आज क्या हो गया आपको? अब तो मौहल्ले में मुँह दिखाने लायक नहीं रहे, उसने तो आपको पलटवार तक का मौका नहीं दिया?’’
महेश चुपचाप बैठा रहा। मन्नु ने फिर बात छेड़ी तो उसके कंधे पर हाथ रखकर महेश बोला, ‘‘क्या बताऊँ मन्नु! मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था।’’
“क्यूं, ऐसी क्या बात हो गयी? तू चाहता तो उसकी टांगें पकड़कर चारों खाने चित्त कर सकता था।”
“तू ठीक कहता है मन्नु! लेकिन बीती रात एक अजीब हादसा हो गया। कल रात मैं सो रहा था तो आधी रात के कुछ देर बाद किसी ने मेरा कुण्डा खटखटाया। मैंने उठकर दरवाजा खोला तो देखकर हैरान हो गया। मीना मेरे दरवाजे पर खड़ी थी। सफेद कुर्ता एवं सलवार पहने तथा काँधे पर लाल चूनरी डाले वह ऐसे लग रही थी मानो चाँद शरमाकर लाल हो गया हो। उसके माथे पर आयी पसीने की बूंदें कमल के पत्ते पर ठहरी ओंस की बूंदों की तरह लग रही थी। उसके रूप में चाँद बसा था एवं आँखों में सितारों की चमक थी। मैं स्तंभित रह गया। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वह कमरे के अंदर आ गयी एवं दरवाजा बंद कर कुण्डा लगा दिया। कुण्डा लगाकर वह बेख़ौफ शेरनी की तरह मेरे पास आयी एवं अपनी दोनों बाँहें मेरे गले में डाल दी। मेरी आँखों से आँखें मिलाकर बोली, “जीवन में पहली बार कोई मर्द मिला है। सच पूछो तो तुम वह पुरुष हो जिसकी जन्मों से मुझे तलाश थी। अब मेरी तलाश पूरी हुयी। इतना कहकर बेख़ौफ वह आगे बढ़ी एवं देखते-देखते मेरे होठों पर एक चुंबन जड़ दिया। ओह! उस चुंबन में कैसा अथाह सुख था। पल भर में मेरी आत्मा के आकाश पर सहस्रों बिजलियाँ कौंध गयी। उसके ओठ कितने मादक, कितने गरम थे। उसके रूप एवं जोश का मैं क्या बखान करूँ? मेरे पास कहने को क्या बचा था? मैंने बस इतना ही उतर दिया, ’’मैं भी तुम्हें मन ही मन चाहता हूँ।”
“मेरे चुंबन का फिर क्या प्रतिदान दोगे?” वह हँसते हुए बोली। उसका चेहरा एक अबूझ रहस्य से भरा था। उसकी उज्ज्वल हँसी से उसका चेहरा ऐसे खिल उठा था जैसे रंभा अपने रूप की मोहिनी डालकर मुझे वश में करने आयी हो।
मैं उसका मतलब समझ गया। इस बार मैं उसे चुंबन देने बढ़ा तो उसने मेरे ओठों के आगे अपने कोमल हाथ रख दिये। मैं नशा चढ़े हुए शराबी की तरह अधीर हो रहा था। कुछ देर पश्चात् मेरे बालों में अंगुलियाँ घुमाते हुए वह बोली, “इस चुंबन को लेने के पहले तुम्हें एक उपहार देना होगा।”
“कैसा उपहार! कहो तो जान दे दूँ।”
‘‘कल सुबह लड़ाई प्रारंभ होते ही मैं उछलकर तुम्हारी छाती पर झूठमूठ की एक लात मारूंगी। तुम चिल्लाकर नीचे गिर जाना। क्या प्रेम का इतना मूल्य भी नहीं दोगे? दूसरा चुंबन तुम्हें उसके बाद ही मिलेगा।’’
यह कहकर वह मुड़ी एवं कुण्डा खोलकर तेजी से चली गयी। दूसरे दिन जो कुछ हुआ वह तुम और सारा मौहल्ला जानता है।
मन्नु की आँखें विस्मय से फैल गयी। साहस बटोरकर बोला, ‘‘लेकिन अब तुम सारी प्रतिष्ठा हार गये।’’
“तुम प्रतिष्ठा की बात करते हो, मैं तो दूसरे चुंबन के लिए जान हारने को तैयार हूँ।”
मन्नु ने सिर पीट लिया।
ऊपर चाँद भी एक विस्मय भरी मुस्कराहट के साथ आधा आसमान पार कर चुका था। पिछली रात इसी घटना का तो वह चश्मदीद गवाह था।
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25.05.2006