आज कोई नई बात नहीं थी, सूरज नित्य की तरह अभी-अभी लाल-पीला होकर डूबा था।
हर शाम की तरह आज भी जगदीश मेनारिया ने कमरे की खिड़की खोली। खिड़की से सटी टेबल पर रखी रम की बोतल हाथ में ली, पेग बनाया, पानी डाला एवं गिलास हाथ में लेकर कुर्सी पर बैठ गये। ‘ओल्ड कास्क’ उनकी पसंदीदा रम थी। निर्मला ने उन्हें रसोई से देखा, मन ही मन कुढ़ी एवं टेबल पर नमकीन रखकर चली गयी।
एक श्वास में मेनारिया ने पहला पेग उतारा एवं दूसरा बनाकर टेबल पर रख दिया। एक हल्का सुरूर उनकी आँखों में तैरने लगा। खिड़की से आती ठण्डी हवा ने इसमें बढ़ोत्तरी की। पहला पेग वो एक बार में गटक लेते, दूसरा धीरे-धीरे लेते।
मेनारिया का मकान प्रथम तल पर था। काॅलोनी में ऊपर-नीचे कोई बीस फ्लैट्स होंगे। फ्लैट्स के आगे बड़ा मैदान था। मैदान के पार पक्की ईंटों की बाउण्ड्री एवं उसके आगे बाँये घूमती हुई मुख्य सड़क थी।
खिड़की से सब कुछ साफ नजर आता। बाहर क्रिकेट खेलने के बाद बच्चे सामान समेट रहे थे। सभी थक गये थे पर मन नहीं भरा था। अंधेरा होते जब गेंद दिखना बंद हो गयी तो मजबूरन खेल बंद करना पड़ा। मुख्य सड़क पर गाड़ियाँ, स्कूटर आ जा रहे थे। बड़ा वाहन जब भी सड़क से गुजरता, हेडलाईट की रोशनी मेनारिया साहब की खिड़की तक पहुंच जाती। काॅलोनी के खंभे पर लगी ट्यूबलाईट्स भी अब जल चुकी थी।
मेनारिया की खिड़की काॅलोनी के मुख्य द्वार से सीधी दिखती। आते-जाते काॅलोनी के बाशिंदे खिड़की की ओर देखते एवं अपने फ्लैट की तरफ चले जाते। सबको मालूम था यह शख्स बदलने वाला नहीं है। वर्षों पहले कुछ लोगों ने उन्हें समझाने का प्रयास भी किया पर कोई फायदा नहीं हुआ। एक बार तो मेनारिया बुरी तरह बिगड़ गये, ‘‘किसी के बाप की नहीं पीता, अपने पैसों की पीता हूँ। जब देखो मुँह उठाये उपदेश देने चले आते हैं। ऐब सब में होते हैं। अपने गिरेबाँ में झाँककर भी देखा है ?’’
लोगों ने इसके बाद कहना छोड़ दिया। सभी आते-जाते उन्हें पीते हुए देखते पर मेनारिया अप्रभावित हर शाम बोतल खोलकर खिड़की के पास बैठ जाते। बिजली गिरे अथवा भूकम्प आ जाये, मेनारिया की नियमितता कभी भंग नहीं होती। पहला पेग लेते ही उनकी देह हिलने लगती। जिस देहभान को छोड़ने में बड़े-बड़े योगी वर्षों लगा देते हैं, शराबी यह काम चुटकी बजाते कर लेता है।
निर्मला अब रसोई में खाना बना रही थी। बड़ा बच्चा रमेश अभी-अभी क्रिकेट का बल्ला लिये अन्दर आया। उम्र आठ वर्ष, दूसरी जमात में है। कंधे पर बेट रखे वह ऐसे अन्दर आया जैसे भावी टेस्ट क्रिकेटर हो। छः माह पहले रमेश के छोटा भाई हुआ है। अभी पालने में लेटा हाथ पाँव मार रहा था। पति के स्वभाव के चलते निर्मला नहीं चाहती थी कि दूसरा बच्चा हो पर जन्म-मरण पर किस का बस है। यह भी टपक गया।
शादी के दो वर्ष बाद न जाने किस कलमुँहे ने मेनारिया को शराब चखायी, बस तभी से शराब का होकर रह गया। निर्मला ने शराब छुडाने की पूरी कोशिश की। क्या-क्या नहीं किया ? प्यार से समझाया, रमेश की दुहाई दी, बड़े बुर्जुर्गों से कहलाया पर शराबी से भी कभी शराब छूटी है ? धीरे-धीरे वह भी अभ्यस्त हो गयी। हर दिन दिल दुखाने से अच्छा है, दुःख को स्वीकार कर लिया जाय। जाये तो जाये कहां? कमाऊ होती तो कुछ सोचती भी पर अब तो नियति स्वीकारने के अतिरिक्त विकल्प ही क्या था ?
इस बुरी आदत को छोड़ दें तो मेनारिया में कई गुण भी थे। एमबीए तक शिक्षित थे। वे कुशल बैंक अधिकारी एवं ईमानदार तो थे ही, अच्छे वक्ता भी थे। किसी भी जरूरतमंद को सहयोग करने को तत्पर रहते। व्यक्तित्व राजपुरुष जैसा था। सुपुष्ट देह, ऊँचा कद, तीखी नाक, गोरा रंग एवं बड़ी-बड़ी रोबदार आँखें उनके व्यक्तित्व को नया आयाम देती। नित्य व्यायाम करते। ऑफिस में काम की तूती बोलती बस बोतल देखकर गच्चा खा जाते। शराब की लत चांद को दाग लगा देती। कभी-कभी एक दोष सारे गुणों को ग्रहण लगा देता है। दूल्हे में छत्तीस गुण होते हुए भी मिर्गी आती हो तो क्या गत होगी ? बाराती जूते सूंघा देते हैं।
आदत दो तरह से छूटती है। एक जब स्वयं समझें, स्वयं को बोध हो एवं दूसरे यदि मर्मस्थल पर ऐसा आघात हो कि व्यक्ति बदलने को विवश हो जाये। उसका आत्मक्रंदन तब उसे आदत छोड़ने को मजबूर कर देता है। पहली विधि सरल है। आदत स्वभाव नहीं है जिसे छोड़ा नहीं जा सकता। जो चीज हमने पकड़ी है उसे हम क्यों नहीं छोड़ सकते ? मात्र हम समझने का प्रयास करें। प्रकृति दूसरी का प्रयोग तभी करती है जब इंसान पहली मानने से इंकार कर देता है।
रमेश खेलकर आया तब से व्यस्त था। आज उसे ‘फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता’ में जाना था। प्रोग्राम में अभी एक घण्टा शेष था। निर्मला बार-बार किचन से आती एवं उसे कुछ न कुछ देती रहती। छोटा बच्चा हाथ पाँव मारते थक गया था, अब रोने लगा। इस बीच कभी रमेश कभी मेनारिया कुछ न कुछ मांगते रहे। निर्मला सबकी फरमाइश पूरी कर रही थी। बच्चा अब और तेज रोने लगा।
निर्मला ने बच्चे को गोद में लिया एवं दूध पिलाने लगी। दिमाग में अनेक काम घूम रहे थे। पलभर के ममत्व एवं स्तनपान ने उसकी सारी पीड़ा हर ली। वह बच्चे का सर सहलाने लगी। बच्चा भूखा था, डट गया। स्तनों पर नन्हें हाथों से आघात कर सर पटकने लगा। बिना मेहनत के बच्चा भी माँ से दूध नहीं ले सकता।
‘‘थोड़ी मूंगफली और लाना!’’ अंदर से मेनारिया की आवाज आयी।
‘‘बच्चे को दूध पिला रही हूँ, खुद ले लो।’’ मेनारिया उठा, रसोई तक गया, प्याले में मूंगफली लेकर वापस आ ही रहा था कि रमेश दिख गया।
‘‘आज कहाँ जा रहा है?’’ उनके पांव हलके लड़खड़ा रहे थे।
‘‘फैन्सी ड्रेस प्रतियोगिता में पापा !’’ रमेश कोई चीज ढूंढते हुए बोला।
‘‘अरे! फैन्सी ड्रेस में तो वही बनना चाहिए जो बड़ा होकर तुम बनना चाहते हो। ऐसा कर तू डाॅक्टर बन जा। बड़ा होकर बाप का इलाज करना।’’ कहते-कहते उनका चेहरा गर्व से प्रदीप्त हो उठा।
रमेश ने पिता की बात सुनी एवं चुपचाप कमरे में चला गया। टेबल की ओर बढ़ते हुए मेनारिया ने दूध पिलाती निर्मला को देखा एवं उसके समीप आकर बैठ गये। प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘मेरा प्यारा-प्यारा गुड्डा! तू बड़ा हो कर क्या बनेगा रे ? रमेश डाॅक्टर बनेगा, तू इंजिनियर बनना।’’ शराब के दूसरे पेग के साथ उन्हें कुछ अधिक प्यार आ रहा था। उनकी सांसों से बदबू फैलने लगी थी।
‘‘अब जाओ भी! ऐसे खड़े अच्छे लगते हो?’’ निर्मला तुनक कर बोली। मेनारिया झेंपकर उठे एवं कुर्सी पर जाकर बैठ गये।
खुली खिड़की से आसमान साफ नजर आता था। आकाश के तारे आशा के दियों की तरह चमक रहे थे। छोटी सफेद बदलियाँ यत्र-तत्र बिखरी थी। चन्द्रमा एक बदली से निकलता तो दूसरी आगोश में ले लेती। मेनारिया का दार्शनिक मन खुले आसमान की तरह फैलाव लेने लगा। वे विचारों के एक वर्तुल से निकलते एवं दूसरे में खो जाते। मन ही मन सोच रहे थे, रमेश को एक दिन डाक्टर बनाऊंगा। कैसा प्यारा बच्चा है! परिवार में दूर-दूर तक डाॅक्टर नहीं है। उसकी शादी भी डाक्टर लड़की से ही करवाऊंगा। उनके कल्पना लोक में रमेश बड़ा होने लगा। उन्होंने देखा दूर धुंधले छोर से एक युवक दौड़ते हुए आकर उनसे कह रहा है, ‘‘पापा मैं डाक्टर बन गया हूँ।’’ पलभर में उन्होंने सतरंगी सपनों का विशाल साम्राज्य रच डाला। कभी उसकी शादी की सोचने लगते, कभी कैरियर की। रमेश को एक बड़ा सा अस्पताल बनाकर दूंगा, दोनों मियां-बीवी अस्पताल सम्भाल लेंगे। उनके जेहन में अब एक अस्पताल उभरने लगा। कल्पना में वे मीलों विचर आये। उनके मन का पंछी आशाओं के ऊंचे आसमान पर उड़ने लगा था । कल्पनायें परवान चढ़ गयी। उनके स्वप्न एवं आशाओं का नशा मदिरा के नशे से भी ऊपर जा बैठा। हसीन कल्पनाओं के एक मजबूत वर्तुल ने उनके मन-मस्तिष्क को चहुंओर से जकड़ लिया। एक ऐसा वर्तुल, एक ऐसा नशा जिससे बाहर आना कौन चाहेगा ?
निर्मला एवं रमेश अपने-अपने काम में व्यस्त थे। फैन्सी ड्रेस के लिए रमेश नकली मूंछें, विग और जाने क्या-क्या लेकर आया था। तभी नीचे से उसके मित्र ने पुकारा, ‘‘रमेश! जल्दी करो, देर हो रही है।’’
रमेश भी तैयार था।
रमेश कमरे से बाहर आया एवं सीधा पापा के पास गया। फटी कमीज, गंदा पायजामा, एक चप्पल, बिखरे बालों का विग, चिपकायी हुयी दाढ़ी-मूंछें एवं हाथ में बोतल लिये झूमता-लड़खड़ाता छोटा शराबी मेनारिया के आगे खड़ा था।
‘‘कैसा लग रहा हूँ पापा?’’ वह झूमते हुए बोला।
‘‘यह क्या बन गया है तू?’’ मेनारिया की आँखें और फैल गयी।
‘‘शराबी पापा! मुझे शराबी बनना अच्छा लगता है। बड़ा होकर मैं भी आपकी तरह शराबी बनूंगा।’’ रमेश सहज भाव से बोला।
मेनारिया के पांवों तले जमीन सरक गयी। धमनियों में रक्त की गति थम गयी। हृदय और आत्मा एक गहरी चोट खा गये। उनका स्वप्न संसार पल भर में बिखर गया। वे गुस्से में तमतमा कर उठे एवं पूरी ताकत से बोतल सामने की दीवार पर दे मारी।
बोतल चूर-चूर होकर बिखर गयी।
रमेश घबराकर अन्दर भाग गया।
निर्मला बदहवास कांच के टुकड़े समेटने लगी।
मेनारिया अभी भी गुस्से में बड़बड़ा रहा था, ‘‘शराबी बनेगा साला……..ऽऽऽ……….बाप का नाम रोशन करेगा?
यह लुहार के हथौड़े वाली चोट थी।
उनका नशा काफूर हो गया।
उनके भीतर अब एक नया इंसान जन्म ले चुका था।
जिस आदत को छुड़ाने में सारी दुनियाँ हार गयी, बच्चे के एक खेल ने जीत ली।
उस दिन के बाद वह खिड़की कभी खुली नजर नहीं आयी।
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30.09.2002