पति-पत्नी दोनों में बराबर की बहस चल रही थी।
पति तीस पार छरहरे बदन का युवक था। गेहुंआ रंग, ऊंचा कद, राजसी नाक, सुंदर आंखें एवं पौरूषेय चेहरा उसके व्यक्तित्व को एक अलग आयाम देते। रसीले होंठ, बैल जैसे स्वच्छ दांत एवं किंचित् ऊपर उठी हुई मूंछे उसकी मर्दानगी को सवाया करती।
स्त्री भी कम खूबसूरत नहीं थी। रंग-रूप में वह पति से इक्कीस थी। उसका कद भी सामान्य स्त्रियों से अधिक, रंग गोरा, तीखे नक्श एवं आंखें ऐसी थी मानो सरोवर के दो ताजा कमल खिले हों। तराशी हुई धनुष जैसी भौहें एवं कजरारी आंखें उसके लावण्य में चार चांद लगाती।
पति पुस्तकें, विशेषतः आध्यात्मिक, माइथोलॉजिकल पुस्तकें पढ़ने का शौकीन था। स्वाध्याय उसकी सांसों में बसता था। इस उम्र तक आते उसने अनेक कहानियां , उपन्यास एवं ग्रन्थों का स्वाध्याय-सुख ले लिया था। कल ही उसने वेदव्यास रचित ‘महाभारत’ महाकाव्य का पारायण पूरा किया था। वह इस ग्रन्थ को कई महीनों से धीरे-धीरे पढ रहा था। इसके अनेक किरदार विशेषतः द्रौपदी एवं कुन्ती ने उसे खूब प्रभावित किया। वह पुस्तक इतना ध्यानमग्न होकर पढ़ता कि अनेक बार पात्रों की आत्मा में प्रवेश कर जाता, उन पर घण्टों सोचता रहता।
पत्नी यदा-कदा इन पुस्तकों को सरसरी निगाह से देख लेती थी। इन सब में उसकी कोई खास रुचि नहीं थी। उसकी अभिरुचि में पर्यटन, स्पोर्ट्स शीर्ष पर थे एवं वह बहुधा टीवी पर क्रिकेट, टीटी, बेडमिंटन आदि स्पर्धाओं में रुचि लेती, पति इन अभिरुचियों को समय की बर्बादी मानता।
लड़के का एक और खास गुण उसका ज्योतिष ज्ञान था, जो उसे उसके पण्डित पिता से विरासत में मिला था। वह इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करता कि किस प्रकार हमारे ऋषियों ने बिना किसी यंत्रों के ग्रहों की दूरियां, उनके गुरूत्वाकर्षण बल, अक्षांश, देशांश आदि को इतना एक्यूरेटली जान लिया था। कैसे उन्होंने आकाश-पथ को बारह राशियों एवं सत्ताईस नक्षत्रों में विभाजित कर अद्भुत अनुसंधान किए ? ज्योतिष इसीलिए तो वेदों की आंख बन गया। यही नहीं उन्होंने इसके मानव जीवन यहां तक कि मनुष्य के भाग्य, पुरुषार्थ आदि तक पर पड़ने वाले प्रभावों को जान लिया था। यह सभी बातें उसके लिए परम रहस्य का विषय थीं। इस शास्त्र को पढ़ने के दरम्यान ही उसे पता चला कि ग्रह वस्तुतः सात ही होते हैं, राहु-केतु तो मात्र छायाग्रह हैं ।
पति-पत्नी दोनों स्थानीय सचिवालय के दो अलग-अलग विभागों में उच्च पदस्थ अधिकारी थे। उनकी अफसरी उनके रूआब को और बढ़ाती।
पति-पत्नी दोनों समान रूप से शिक्षित भी थे। दोनों ने इंजीनियरिंग करने के बाद एमबीए किया, सरकारी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुए एवं दोनों गत वर्ष विवाह होने के पश्चात् जयपुर में सैटल हो गए थे ।
पति-पत्नी दोनों में अनन्य अनुराग था। दोनों एक-दूसरे को हृदय से चाहते, लेकिन कभी-कभार नोक-झोंक भी हो जाती। यही नोक-झोंक यदा-कदा बहस में तब्दील हो जाती, जैसे कि आज दोनों बहस पर उतर आए थे। यह बहस अनेक बार युद्ध का मैदान बन जाती। तब महाभारत के किरदार अलमारी में रखे ग्रन्थ से उतर कर उनके बेड पर आ जाते।
पति का नाम संजय एवं पत्नि का नाम रानी था। पति पत्नी को प्यार से रानू कहता था। पति संवेदनशील या यूं कहें कभी-कभी नदी की तरह बहता था। इसके उलट पत्नी संयत, परिपक्व एवं समझदार थी। वह भीतर उठे संवेगों को बहुधा पचा लेती एवं प्रेम के विरल क्षणों में भी उसे संजय नाम से ही सम्बोधित करती।
रात दस बजे थे। दोनों ने अभी एक घण्टा पूर्व भोजन किया था एवं अब बिस्तर पर बेतरतीब पड़े बतिया रहे थे। बातों का प्रारम्भ पहले तो मीठी-मीठी बातों से हुआ फिर जाने क्या हुआ कि दोनों में बहस छिड़ गई। संजय शायद आज इश्क के मूड में थे एवं रानी इसके लिए तैयार नहीं थी। आज ऑफिस में उसके खड़ूस बॉस से लम्बी बहस हुई, इसीलिए उखड़ी थी हालांकि रानी ऑफिस की बातें न तो कभी घर लाती एवं न ही वहां के क्रियाकलाप संजय को बताती। यह विभाजन-रेखा घर की शांति में वृद्धि करती अतः रानी इस निर्णय पर सदैव अडिग भी रही। संजय मन की सभी बातें यहां तक कि कार्यालय में निकले अच्छे-बुरे दिन का ब्यौरा तक बीवी को देते।
संजय ने एक बार फिर प्रयास किया। उसने रानू को यहां-वहां से स्पर्श कर रिझाने की कोशिश की। गले फेरते हाथ पट्ठों पर आता है। इस बार रानू ने उसे तीखी आंखों से देखा तो वह चुप दीवारों में झांकने लगा। कुण्ठित, उसने पुनः वार्ता का आग़ाज किया – “डार्लिंग ! एक बात समझ नहीं आती द्रौपदी कैसे पांच पतियों को निभा लेती थी ?” रानू को पता था वह कुछ तो उगलेगा ही।
“मैं क्या जानूं ?” रानी जानती थी उसने कल ही महाभारत पूरी की है एवं वह पुस्तक पढ़ने के बाद बहुधा उसके पात्रों का विवेचन करता है। रानी यह भी जानती थी कि वह अपने मंतव्यों का बाजीगर है एवं अन्त में ध्यान भटकाकर मूल मुद्दे पर आ जाता है अतः संक्षिप्त उत्तर देना ही उचित समझा।
“मेरा मतलब वह एक अकेली पांचों को कैसे शारीरिक, मानसिक स्तर पर तृप्त करती थी ? किसी एक पति के साथ शयनकक्ष में होती तो क्या दूसरे उससे जलते नहीं थे ? कैसे इन स्थितियों में भी पांचों पाण्डव एक होकर रह गए ? कहते हैं वह भीम से सर्वाधिक प्रेम करती थी, ऐसे में क्या अन्यों के हृदय में प्रतिस्पर्धा दस्तक नहीं देती थी ?” रानी जानती थी कि वह कहना मात्र पहली पंक्ति ही चाहता था बाकी तो लपेट रहा है। कामी पुरुष में चतुराई बाढ़ की तरह बढ़ती है।
‘‘उन जमानों में स्त्री को स्त्री ही कहां माना जाता था, वह तो वस्तु थी। एक आम को एक ने चूस लिया तो क्या एवं दूसरों ने चूस लिया तो क्या! धर्म की मुहर और लगा दी गई ताकि स्त्री विरोध भी न कर सके। आगे जब उसे स्वयं उसके पतियों द्वारा दांव पर लगाया गया अथवा जब उसका भरी सभा में चीर-हरण हुआ, वह वस्तु नहीं तो और क्या थी ? आप पुरुषों ने हर युग में स्त्री को वस्तु ही माना है, तब से अब तक में मात्र उसका रूप बदला है। स्त्री के मंतव्य, भावना की पुरुष ने कब परवाह की है ?’’ रीना का उत्तर दमदार था, संजय सकते में रह गए। उन्होंने अब विषयान्तर किया एवं कुन्ती पर बात करने लगे –
“कुन्ती का किरदार भी आश्चर्यजनक है। क्या किसी मंत्र द्वारा किसी देव का आह्वान कर उससे समागम करना संभव है ? वहां भी अनेक पुरुष एवं यहां भी अनेक पुरुष।” संजय ने बात आगे बढ़ाई ।
“आप पहले प्रश्न पर ही रहो न! वहां नहीं चली तो इधर आ गए। आपको पता है द्रौपदी को पांच पति क्यों मिले ? वह इसलिए कि उसने वरदान मांगा था उसे सर्वगुणसम्पन्न पति मिले। अब इतने गुण किसी एक में तो मिलते नहीं अतः उसे पांच पाण्डव मिले। आप भी तो जब-तब कहते रहते हो इस स्त्री में यह खास है, उसमें वह खास है और वे सब गुण मुझमें ढूंढ़ते रहते हो। अब सब कुछ तो मुझमें हो नहीं सकता। आप भी ऐसा करो कोई मंत्र सिद्ध कर एकाधिक स्त्रियों को प्राप्त कर लो तत्पश्चात् स्वयं अक्ल आ जाएगी कि रानू से अच्छी स्त्री कांच लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी। वैसे भी तड़के मुझे डेपुटेशन पर बाहर जाना है, मैंने दोपहर आपको फोन कर बता ही दिया था कि सोमवार सुबह मैं निकल जाऊंगी। इसी बहाने आपका दिल भी लग जाएगा।” उत्तर देते हुए उसकी हंसी छूट गई।
रानू ने सटीक उत्तर तो दिया ही , एक तीर से दो निशाने भी साध लिए।
संजय तड़़प कर रह गए। थकी रानू को अब नींद आने लगी थी। उन्होंने उसकी ओर देखा और मन ही मन कुड़-कुड़ करने लगे। आज के वाचिक युद्ध में रानू ने न सिर्फ उन्हें स्पष्ट पराजय दी, इससे भी आगे धूल चटवा दी। स्त्री से पराजय क्या कभी पुरुष से सहन हुई है ? वे पड़े-पड़े सोचने लगे क्या ही अच्छा हो पुरूषों के पास भी कोई मंत्र हो एवं बीवी के भाव खाने पर वे किसी कन्या का आह्वान करे एवं वह उसके सम्मुख उपस्थित हो जाए। ओह! वह कैसी सुखद, स्वर्गिक स्थिति होगी! ऊलजलूल इन्हीं बातों को सोचते वे जाने किस लोक में चले गए। उनकी आंखें सामने की दीवार पर गड़ गई।
भाग – 2
एक अलौकिक संत अब उनके सम्मुख थे। उनके चारों ओर एक दिव्य प्रकाश फैला था, संजय ने उन्हें प्रणाम किया तो वे उसके दांये कान के समीप आए एवं उसमें कुछ फूंककर बोले, ‘ यह लो वह मंत्र जिसकी तुम्हें तलाश थी। इस मंत्र से तुम सातों ग्रहों का आह्वान कर सकते हो। जो भी ग्रह तुम्हारे सम्मुख आएगा, वह तुम्हें अपनी एक कन्या देगा। तुम इच्छानुसार जैसा चाहो, उसे भोग सकते हो एवं जब चाहो रुखसत भी कर सकते हो।’ इतना कहकर संत अंतर्ध्यान हो गए।
संजय का कौतुक आंखों में उतर आया।
उन्होंने मंत्र द्वारा सर्वप्रथम चन्द्र ग्रह का आह्वान किया। आश्चर्य ! मंत्र सिद्ध था, उनके सामने एक दिव्यदेव खड़े थे। वे स्वयं अपनी प्रभा से प्रकाशित थे। उनका रूप, स्मितहास देखते बनता था। संजय कुछ बोलते उसके पहले ही वे बोले, “मैं इस मंत्र के अधीन हूं एवं तुम्हें वह प्रदान करने को उद्यत हूं जिसके लिए तुमने मेरा आह्वान किया है।” इतना कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए।
संजय के सामने अब एक अनिंद्य सुंदरी खड़ी थी। वह परम रूपसी तो थी ही , उसके अंग-अंग से सौन्दर्य टपक रहा था। ऐसी अपूर्व सुन्दरी को प्राप्त कर संजय निहाल हो गए। वे कुछ दिन तो उसके साथ प्रसन्न रहे पर धीरे-धीरे उन्हें लगा चन्द्रमा के स्वभाव के अनुरूप उसमें कुछ गुण हैं तो अनेक दोष भी हैं। वह सहृदय, कोमल है लेकिन चंचल है। जलतत्व प्रधान होने के कारण वह दार्शनिक, कल्पनाशील है पर अत्यधिक भावुक एवं संवेदनशील भी है। जरा-सा कहते ही तूफान खड़ा कर देती है। अनेक बार ऐसी रूठती है कि मनाना मुश्किल हो जाता है। प्रेम के विरल क्षणों में भी उसका मन जाने कहां-कहां भटकता रहता है। हर चौथे दिन अपनी मां को याद करती है। उसके अनुरूप कोई अन्य पुरुष दिख जाता तो वह संजय को छोड़ उससे बतियाने लगती है। संजय कट कर रह जाते। वह जब-तब अवसादग्रस्त हो जाती एवं उसे बहुधा दमा का रोग रहता। यह क्या बला पाल ली! संजय उससे उकता गए एवं एक दिन ऐसे उखड़़े कि उन्होंने चन्द्रदेव का पुनः आह्वान कर उनकी पुत्री को रुखसत किया। उन्हें कौनसी स्त्रियों की कमी थी! जब हमारे पास मंत्र है तो तू नहीं कोई और सही। हम तो वहीं रहेंगे जिससे हमारा मेल बनता हो एवं जो हमारे मन, स्वभाव के अनुरूप हो।
अब उन्होंने मंगल ग्रह का आह्वान किया। साक्षात् मंगलदेव उनके सामने उपस्थित थे। चन्द्रमा की तरह वे भी उतने ही दिव्य थे। उनके चारों ओर अद्भुत ज्योतिर्वलय था। वे भी कुछ क्षण रुक कर अंतर्ध्यान हो गए। संजय के पास अब मंगल-कन्या खड़ी थी। वे उसके साथ भी कुछ दिन रहे। वह चन्द्रमा की पुत्री जैसी अपूर्व सुन्दरी तो नहीं थी पर थी वह भी सुन्दर। उसके गोरे रंग में किंचित् ललाई थी, उसका साहस एवं शरीर सौष्ठव दर्शनीय था। वह ऐसे-ऐसे कार्यों को अंजाम दे देती जिन्हें संजय प्रयास करके भी नहीं कर पाते थे। बिना सोचे-समझे वह बोल देती जो संजय की कल्पना से भी परे था। उसने संजय के जितने कार्य सुधारे उससे अधिक बिगाड़ दिए। संजय उसके साथ भी कुछ दिन रहे फिर यहां भी स्थिति चन्द्रकन्या जैसी बन गई। यह कन्या अत्यधिक कामुक थी। काम-कला में तो प्रवीण थी पर जब-तब कामपिपासु स्त्रियों की तरह अन्य पुरुषों की ओर लपकती। मंगल के अग्नितत्व से सम्पन्न होने के कारण कामतुष्टि के लिए नीति-अनीति , मर्यादा तक का किंचित् ध्यान नहीं रखती। जिद्दी एवं क्रोधी इतनी थी कि संजय सहम जाते। वह मेरी तेरे आगे एवं तेरी मेरे आगे कर एक-दूसरे को लड़वाने की बातें करती। अपने स्वार्थ के लिए किसी को धोखा देने तक से गुरेज नहीं करती। वह हर एक को डिक्टेट करने की भी कोशिश करती एवं उसका रवैया सर्वथा तानाशाहीपूर्ण था। संजय ने माथा पीट लिया एवं उसे भी रुखसत किया।
यूं उन्होंने एक-एक कर सभी ग्रहकन्याओं का आह्वान किया। सभी में खूबियां थीं तो कमजोरियां भी थी। किसी में एक गुण था तो अन्य इस गुण से रहित थी। किसी में कुछ विशिष्ट दोष थे तो अन्यों में यह दोष बिल्कुल नहीं थे। अन्यों में अन्य दोष बढ़-चढ़कर होते। वे जिन-जिन ग्रह की कन्या थी, उसी के अनुरूप उनका स्वभाव था। पंचतत्वों में किसी एक तत्व का प्राधान्य होने के कारण उनका स्वभाव भी तदनुरूप था।
बुधकन्या सुंदर, विवेकसंपन्न लेकिन बहुत लोभी थी। इसी वृति के चलते वह धनसंचय में पारंगत थी। उसकी वाणी मीठी एवं वह वाक्पटु थी। उसे संगीत, गायन में विशेष रुचि थी। वह परम बुद्धिमान भी थी। पृथ्वीतत्व संपन्न होने के काण वह अपने निर्णयों पर अडिग रहती। वह किसी अन्य के विचार को महत्व नहीं देती थी। उसे कभी क्रोध नहीं आता, न ही वह किसी क्रोधी को पसंद करती। वह सदैव स्त्री साथियों से घिरी रहती, उसे पुरुषों से जाने किस बात को लेकर एलर्जी थी। उसकी बात न मानने पर वह किसी भी हद तक गुजर जाती थी। उसे काम-क्रीड़ा में भी अल्परुचि थी। संजय इससे भी उकता गए। सोने की छुरी पेट में खाने के लिए नहीं होती। उन्होंने इससे भी तौबा किया।
वृहस्पति-कन्या आकाशतत्व से परिपूर्ण होने के कारण थी तो परमज्ञानी पर वह अतिमहत्वाकांक्षी भी थी। उसका कद ऊंचा, ललाट भव्य एवं आखें कमनीय थी पर वह अति ईर्ष्यालु थी। उसे श्रृंगार का भी बेहद शौक था एवं वह इस कार्य में घंटों बिताती। शुक्रकन्या भी चन्द्रपुत्री की तरह जलतत्व सम्पन्न थी। उसकी रचनात्मकता देखते बनती। वह हर कार्य करीने से करती। उसकी अदा, मैनर्स , वाणी का लालित्य अद्भुत, अकल्पनीय था। यह कन्या भी कामुक थी ,जब-तब अन्य पुरुषों को फ्लर्ट करती। शनिकन्या वायुतत्व से संपन्न होने के कारण उसके अपने गुण-दोष थे। वह हर कार्य धीरे करती, उसमें किंचित् उतेजना नहीं थी। वह धर्मभीरू थी पर किंचित् भी व्यावहारिक नहीं थी। सूर्यकन्या अग्नितत्व संपन्न होने के कारण उसका रूप, तेज एवं प्रशासकीय कौशल अद्भुत था। संजय उसे देखते ही उस पर रीझ गए पर यहां भी चंद दिनों में उनका हौसला पस्त हो गया । यह कन्या अत्यधिक क्रोधी थी एवं उसका रवैया बहुधा आक्रामक होता। एक म्यान में दो तलवारें फिर कैसे रहतीं, उन्होंने यहां से भी किनारा किया।
भाग – 3
यकायक संजय हड़बड़ाकर उठे।
उन्हें कोई पानी के छींटे डालकर जगा रहा था। रानू कह रही थी, सुबह के पांच बज गए हैं, मुझे जल्दी स्टेशन छोड़कर आओ।
ओह! स्वप्न में ही कितने दिन, महीने निकल गए। बड़े बुजुर्ग ठीक कहते हैं स्वप्न में तो शताब्दियां तक निकल जाती हैं।
कार ड्राइव करते हुए संजय ने रानू की ओर देखा। ओह, वह कितनी सुंदर, गुणी एवं मेहनती है। मेरा एवं घर का कितना ख्याल रखती है। माना कभी-कभी क्रोध करती है एवं जब-तब अपनी बुद्धि से मुझे पटकी देती है पर इससे क्या ! समूचा जगत ही तो गुण-दोषों से परिपूर्ण है।
मुझमें क्या गुण-दोष नहीं हैं ?
जब देव-कन्याएं भी गुण-दोषों से परिपूर्ण हैं तो साधारण मनुष्यों में तो वे गुण-दोष होंगे ही।
हम हंस की तरह अवगुणों के पानी को हटाकर गुणों के मोती चुगना सीखें। जीवन के समस्त सुख फिर स्वतः हमारा अनुसरण कर लेंगे। वे अब घर पहुंच गए थे।
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10.05.2020