दिन अस्त हुआ तो दिवाकर ने दीर्घायु वृद्ध की तरह अनुभवों की गठरी अपने कंधे पर लादी एवं चुपचाप अस्ताचल में उतर गए। जाते-जाते पहाड़ी के उस पार हवाओं से आंख चुराकर निशिनाथ के कान में उन्होंने जाने क्या कहा कि निशिनाथ के चेहरे पर चिंतन, दर्शन एवं गांभीर्य के भाव उभर आए। विदा होते-होते क्षण भर के लिए दोनों ने एक दूसरे को ऐसे देखा जैसे दो पके बुजुर्ग एक दूसरे को देखते हैं, फिर चुपचाप अपनी-अपनी राह पर चल दिए। हवाओं को यह बात कैसे हजम होती? कुंठित हवाओं ने यह बात चप्पे-चप्पे, घर-घर पहुंचा दी कि सांझ ढले सूरज-चांद जाने क्या गुफ़्तगू करते हैं ? समस्त जगत मानो इस रहस्य की थाह पाने को उत्कंठित हो उठा।
पके बुजुर्गो के रहस्य भी क्या कभी उजागर हुए हैं?
सूरज-चांद की वे जाने, सांझ ढले मुझे न जाने क्यों कई बार मां की याद हो आती है। हमारे घर में बने छोटे से देव-मंदिर में दीपक प्रज्वलित कर जाने किस इशारे से वह देखती कि हम सभी तुरत-फुरत बैठक से उठकर उसके पीछे प्रार्थना के लिए खड़े हो जाते। मैं, मेरा छोटा भाई गणेश एवं उससे छोटी गौरी। सभी एक दूसरे का यूँ अनुसरण करते मानो हमें मां को बताने की जल्दी हो कि अधिक आज्ञाकारी कौन है। जाने किसके प्रेरे हुए सभी मां के कृपाकांक्षी होते। पापा, हम सबके उठने के बाद भी कुछ देर तक बैठे रहते मानो हमें बताने का प्रयास कर रहे हों कि घर में मेरा भी वजूद है, मैं कोई तुम्हारी मां के इशारों से बंधा बैल नहीं हूँ। लेकिन पापा भी मां के दूसरे इशारे पर उठ जाते। पापा के असफल प्रयास को हम सभी समझ लेते, पर विवश पिता को भला उसकी संतानें क्या कहे! ऐसा नहीं था कि मां हमें प्यार नहीं करती या पापा को आदर नहीं देती, पर उसकी चुप्पी वाचालता पर चढ़कर बोलती। ओह, वह प्रार्थना भी कितनी सुंदर थी …….वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जाएं……..।
प्रार्थना के पश्चात् माँ रसोई में चली जाती एवं हम सभी पुनः बैठक में। सबको बतियाने की बीमारी थी, बस एक-दूसरे की खोपड़ी चाटते रहते। कई बार तो लम्बी-लम्बी बहसें हो जाती। सभी चटकारे लेते। तब हमारी उम्र ही क्या थी! मैं पन्द्रह वर्ष का, गणेश तेरह एवं गौरी ग्यारह वर्ष की। पापा हमें कभी नहीं टोकते, उनकी स्वायतता हमारे मनोभावों को हवा देती। धणी रो कुण धणी? जैसे अफसर मेहरबान होते ही गधे कर्मचारी पहलवान हो जाते हैं, यही मनोदशा हमारी होती। वह दिन मुझे भुलाये नहीं भूलता जब पापा हमसे पूछ रहे थे कि तुम्हें कौन-कौन से भजन, गीत एवं चौपाइयां आती हैं? मानस की अनेक चौपाइयां मुझे कण्ठस्थ थी, मैंने धड़ाधड़ बताई। फिर गणेश ने कुछ गीत सुनाये एवं गौरी ने एक-दो भजन। तभी मां रसोई से आई एवं बिफर पड़ी, ‘सिर्फ गीत-भजन याद करने से कोई ऊँचा नहीं हो जाता। यह तो सिर्फ रटंत विद्या है। यह काम तो तोता भी कर सकता है। क्या इन भजन-चैपाइयों के अर्थ भी जानते हो, और अगर अर्थ नहीं जानते तो इनके प्रति भावगम्यता कैसे बनेगी एवं बिना भावगम्यता इन्हें आचरण में कैसे उतारोगे?’ तब हमें सांप सूंघ गया था। मां बहुत कम बोलती लेकिन जब बोलती हमारे कान खड़े हो जाते। हम बड़-बड़ करते तो अक्सर कहती, ‘चिड़ी का बाप बनना सीखो,’ यह कहकर वह इशारे से मुख पर अंगुली रखती तो हमारी घिग्घी बंध जाती। हम सभी मां के शब्दों का रहस्य जानने को आतुर हो उठते। हमारी बाल बुद्धि इस रहस्य की थाह पाने का प्रयास करती पर किसी ने चिड़ी का बाप देखा हो तो वह बताए कि वह रहता कहां है, करता क्या है ? इन चिड़े-चिड़ियों में स्त्री-पुरुष का पता लगाना भी तो कठिन है ? एक बार गौरी ने सुबह-सुबह ‘बाहर आओ…..बाहर आओ’ कहकर हमारी समस्या का समाधान करने का प्रयास किया, ‘वह देखो! वह जो पेड़ पर अलग से चूजों के साथ बैठा है वह चिड़ी का बाप है एवं वह जो बच्चों के मुँह में दाना डाल रही है वह चिड़िया है। लेकिन थोड़ी देर बाद ही तथाकथित बाप ने भी चूजों के मुँह में दाने डाले तो गौरी की बात असिद्ध हो गई। उस बिचारी ने तो जैसा घर में माहौल देखा वैसा बोल दिया, यानि मां खाना खिलाती है एवं पापा साथ बैठकर बतियाते हैं तो चिड़े-चिड़ी भी ऐसा ही करते होंगे। तब हम सभी गौरी पर खूब हंसे। भुनभुनायी गौरी यह कहते हुए अंदर आ गई कि ‘अब मैं भी क्या करूं, चिड़ी का बाप कौन-सा लंगोट बांधता है जो उसे पहचानूं।’
समय पंख लगाकर उड़ गया। दिन, वर्ष एवं दशक तक हवा हुए। मम्मी अब पैंसठ की होने आई एवं पापा सत्तर के। गणेश दस वर्ष पूर्व विवाह कर विदेश बस गया, गौरी आठ वर्ष पूर्व शादी कर जीजा के साथ चली गई। वंदना के साथ मेरे विवाह को भी बारह वर्ष हुए, अब तो सबके दो-दो बच्चे भी हैं। हां, अब बैठक का आलम जरूर बदल गया है, वहां अब पापा, मैं और मेरे बच्चे बैठते हैं, माँ आज भी अक्सर रसोई में नजर आती है जहां वंदना भी उसके साथ होती है। हां, काम का बंटवारा अवश्य बदल गया है। पहले मां रसोई गैस के पास खड़ी नजर आती थी और अब वंदना। मां वंदना को सब्जी काटने एवं ऐसे ही छोटे-मोटे कामों में सहयोग करती है। गठिया के मारे परेशान रहती है, पर रसोई नहीं छोड़ती।
मुझे नौकरी करते हुए भी पन्द्रह वर्ष होने को आए। बनिये की नौकरी है, खींचकर तनख्वाह देता है। हां, काम लेने में प्राण निकाल लेता है। पापा की पेंशन एवं मेरे वेतन से जैसे-तैसे काम चल जाता है।
मनुष्य का भाग्य भी जाने कैसी आंख-मिचौली करता रहता है। पूर्ण सुखी शायद विधाता को भी नहीं सुहाते। हंसते-खेलते इंसानो के पीछे वह भी कोई न कोई दुःख बांध देता है।
इन्हीं दिनों एक विशेष फाइल को लेकर मेरी सेठ से तनातनी हो गई। फाइल में इन्कमटैक्स एवं कुछ ऐसे हिसाब लिखे थे जिनका गोपनीय होना जरूरी था। उनके जगजाहिर होने से व्यापार में भारी हानि हो सकती थी। यह फाइल जाने कहां रखने में आ गई। सेठ लगातार कहे जा रहा था, ‘नरेशजी, यह फाइल मैंने चार रोज पहले आपको दी थी।’ मुझे एैसा कुछ भी याद नहीं आ रहा था। जब उसने बार-बार दबाव डाला तो मैं बिफर पड़ा, ‘आप खामख्वाह लांछन लगा रहे है, स्वयं फाइलों को इधर-उधर कर देते हैं एवं मेंढक कर्मचारियों के सर रख देते हैं ।’ शायद मैं कुछ जरूरत से ज्यादा बोल गया। एक कर्मचारी को सत्य बोलते हुए भी अपनी सीमाओं से खबरदार रहना चाहिए। उस दिन बाबूजी के गिरते स्वास्थ्य को लेकर मैं तनाव में था, जाने क्या अंट-शंट बोल गया।
अपने कर्मचारी के आंख दिखाते ही सेठ आग बबूला हो गया। फाइल न मिलने से पहले ही परेशान था, मेरे विरोध ने उनकी क्रोधाग्नि में घी का काम किया। भरे आदमी को छेड़ते ही भभकता है। प्राईवेट नौकरी में सेठ-कर्मचारी का नाता छुरी-खरबूजे का होता है जिसमें कटना हर हाल में खरबूजे का तय है। नाराज सेठ ने मुझे घर का रास्ता दिखाया। मेरा मुंह लटक गया, काटो तो खून नहीं। मेरे पन्द्रह वर्ष की सेवा का उसने कोई लिहाज नहीं किया।
घर आकर मैंने सारी भड़ास निकाली, ये बनिये भी किसी के हुए हैं ? गरज हो तो मोतियों के मोल तोलते हैं एवं गरज मिटते ही कंकरों के। लेकिन भड़ास निकालने से समस्या का समाधान थोड़े हो जाता है। बाबूजी एवं वंदना को मैंने जान बूझकर असली बात नहीं बताई पर मां ताड़ गई। दो-चार रोज में उखड़ने लगा तो एक रोज बैठक में आकर मेरे समीप बैठ गई। सर पर हाथ फैरते हुए बोली, ‘क्यों दिन भर चिड़-चिड़ करता है, कुछ रोज चुप क्यों नहीं बैठ जाता। बचपन से अब तक समझाती आई हूँ चिड़ी का बाप बनना सीखो। अब तो इतना बड़ा हो गया है, बाप बन गया है, अब नहीं समझेगा तो कब समझेगा ? बस दस दिन चुप्पी पकड़ ले, किसी की बुराई मत कर, सब ठीक हो जाएगा।’ इतना कहकर वह पुनः रसोई में चली गई।
चिड़ी के बाप का अर्थ मैं फिर भी नहीं समझ पाया, लेकिन इस बार मैं गंभीर हुआ। मां की राय में मुझे दम नजर आया। मैंने दस रोज चुप्पी साधने का निर्णय लिया। एक-दो रोज तो परेशानी हुई लेकिन तीसरे रोज मुझे लगा जैसे मैं स्वयं से कहीं गहरे मूक वार्ता कर रहा हूँ। मैंने मेरे भीतर एक नया सूर्योदय होते हुए महसूस किया, एक ऐसा सूर्योदय जो सुबह के सूर्योदय की तरह पवित्र एवं निर्मल तो था ही, आशा एवं उमंग से भी सराबोर था। मैंने अचानक स्वयं के भीतर शांति एवं समाधान का अजस्र स्रोत ढूंढ़ लिया।
आज रविवार सुबह बाहर आरामकुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। सवेरे की गुनगुनी धूप आंगन में पसरने लगी थी। अखबार पढ़कर समेट ही रहा था कि सामने एक दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गया। घर के ठीक सामने एक गाड़ी आकर रुकी एवं उसमें से सेठजी उतर कर सीधे दरवाजे तक आए। उनके पास एक बैग था जिसे वे कंधे पर लटकाये थे। मैंने आनन-फानन दरवाजा खोला, उन्हें यूं आते देख मैं असहज हो उठा। मेरी दशा देख वे खुद ही बोले, ‘नरेशजी, भीतर आने के लिए नहीं कहोगे!’ अंधा क्या चाहे दो आँखें । मैं सकपका गया, साहस कर बोला, ‘सर, प्लीज कम इन!’ अंदर आकर उन्होंने मेरे पिता की तबीयत के बारे में जाना फिर मां एवं वंदना को भी बैठक में बुलाने को कहा। दोनों वहां आकर चुपचाप खड़े हो गए। उन्हें देखकर वे भी उठ खड़े हुए। मां की ओर देखकर बोले, ‘मैं तो आपके लिए पुत्र समान हूं, आपके खड़े रहते कैसे बैठ सकता हूं। जब सभी बैठ गए तो उन्होंने बैग से एक फाइल निकाली। फाइल देखकर मेरी आंखें चमक उठी, मैं बोले बिना नहीं रह सका, ‘सर! यह फाइल कहां मिली, यह तो वही फाइल है।’ मेरे कंधे पर हाथ रखकर वे बोले, ‘नरेशजी! यह फाइल मेरी ही गलती से कुछ रोज पूर्व मेरे एक मित्र के कार्यालय में छूट गई थी। उसके दस रोज तक वह किसी कार्य से बाहर चला गया, कल देर रात उसने मुझे यह सूचना दी। आज उसी के कार्यालय से लेकर सीधे आपके पास आ रहा हूं। चाहता तो मैं आपको फोन कर वापस बुला सकता था, पर ऐसा करके मैं स्वयं को माफ नहीं कर पाता। भूलवश अगर हम दूसरों पर लांछन लगाते हैं तो उनसे क्षमा मांगने का साहस भी होना चाहिए। मैं आपसे क्षमा मांगने आया हूँ एवं यह अनुरोध करने भी कि कल से पुनः ऑफिस आना है। इस दरम्यान आप और आपके परिवार को हुई असुविधा के लिए मुझे खेद है।’ कहते-कहते उनकी आंखें गीली हो गई। मैं जमीन में धंस गया। उनकी भावविह्वलता के दर्शन कर मेरी आंखें छलछला आई। आज मैं उनमें एक ऐसे देवता के दर्शन कर रहा था जिसका अंतस क्षमा मांगने से पवित्र एवं निश्छल हो गया हो। मैं स्वयं को भी कोस रहा था कि मैंने अकारण उन्हें इतना बुरा-भला कहा। काश! मैं उस दिन चुप रह जाता।
उनके जाने के बाद मैंने मां की ओर देखा। साड़ी की कोर से गीली आंखें पोंछते हुए वह फिर कह रही थी, ‘तुम्हें कहा नहीं था, चिड़ी का बाप बनना सीखो, समय के अन्तराल पर समस्याएं स्वयं समाधान ढूंढ़ लेती हैं।’ वर्षों बाद मुझे मां के मुहावरे का अर्थ समझ में आया।
मां की सीख मानो अनुभव के लम्बे इतिहास को बयां कर रही थी।
इसी अनुभव को तो ढलता हुआ सूरज नित्य चांद से बांटते हुए कहता है, ‘निशिनाथ! संसार में मौन की शक्ति असीम है। मौन आत्म साक्षात्कार का अवसर तो देता ही है, अनायास सत्य के उस प्रकाशपुंज को भी उद्घाटित कर देता है जिसकी रोशनी में नहाने के पश्चात् किंचित् अंधकार नहीं रहता।’
मनुष्य बाहर का कोलाहल बंद करे तब तो न भीतर की सुने!
क्या चिड़ी के बाप ने यह रहस्य सदियों पूर्व जान लिया था ? तभी तो वह नित्य प्रसन्न एवं प्रफुल्लित नजर आता है।
बावरा मनुष्य जाने कब समझेगा?
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04.02.2009