चार अंगुल नीचे

सभी ग्रह-नक्षत्रों की प्रभा छीनकर सूर्य ने आकाश के पूर्वी छोर पर आधिपत्य किया तो समूचा कुरूक्षेत्र प्रकाश से नहा गया। ऐड देकर उनके सारथी अरुण ने रथ आगे किया तो रथ के पार्श्व भाग में खड़े दिनकर यूँ दहकने लगे जैसे समरांगण में खड़ा सूर जलती आँखों से शत्रुओं की ओर देखता है।
आज युद्ध का पन्द्रहवा दिन था। रथ पर सवार आचार्य द्रोण ने स्वयं द्वारा निर्मित सैन्य-व्यूह को निहारा तो वे आश्वस्त हो गए कि आज युद्ध निर्णायक स्थिति में पहुँच जाएगा। समरांगण में मंद-मंद वायु चलने से छाती तक आती उनकी लंबी सफेद दाढ़ी झूलने लगी थी। सर पर जूडा, उन्नत ललाट, रोष भरी आँखें, तीखी नाक, चौड़ी छाती, श्वेत वस्त्र एवं कमर पर कसे तूणीर से द्रोण ऐसे लग रहे थे मानो क्षत्रिय वेश धरे कोई ब्राह्मण रणभूमि में खड़ा हो। तपाये हुए कुंदन के समान उनके चेहरे एवं अंगकांति को देख ऐसा लगता था मानो एक और सूर्य रणभूमि में उग आया हो।

भीष्म-वध के पश्चात वे ही कौरवों के सेनापति थे एवं गत दिनों रणभूमि में उन्होंने ऐसा कहर ढाया कि समूची पाण्डव सेना त्राहिमाम कर उठी। कितने ही रथी, अतिरथी एवं महारथियों का वध कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उनके जीते-जी कौरवों का पराभव असंभव है। कुरूवंश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता एवं समर्पण देख पाण्डव हतप्रभ थे।

इतना होते हुए भी द्रोण की प्रतिबद्धता को लेकर दुर्योधन आशंकित था। जैसे कोई प्रेतग्रस्त व्यक्ति कभी सुस्थिर नहीं होता संशयग्रस्त दुर्योधन भी द्रोण के पाण्डव प्रेम विशेषतः उनके शिष्य अर्जुन के प्रति उनके स्नेह के चलते आशंकित था।उसे ऐसा लग रहा था मानो द्रोण शरीर से तो युद्ध कर रहे हैं मन से नहीं। वह जानता था कि आचार्य ठान ले तो पाण्डव पलभर भी समरभूमि में नहीं टिक सकते।

दाँये कंधे से धनुष उतार द्रोण ने बाँया हाथ तरकश पर रखा ही था कि दुर्योधन को रथ के समीप देख चौंके। रथ उनके निकट आया तो दुर्योधन ने सारथी को रथ रोकने का आदेश दिया। शीघ्र ही रथ से उतरकर दुर्योधन द्रोण के रथ पर चढ़ा एवं उनके चरणों के समीप जाकर यूँ बैठ गया जैसे कोई भयातुर बालक अपने संरक्षक के समीप आकर बैठ जाता है। उसे यूँ बैठा देख द्रोण ने धनुष पुनः कंधे पर रखा एवं तत्पश्चात दोनों हाथों से दुर्याेधन को उठाकर बोले, ‘पुत्र! क्या बात है? आज तुम आशंकित एवं उदास लग रहे हो?’

‘आशंकित होना स्वाभाविक है आचार्य! आप देख नहीं रहे जयद्रथ-वध के पश्चात अर्जुन का हौसला अनंतगुना बढ़ चला है। आप जैसे सूरमा के समरभूमि में होते हुए भी जयद्रथ को मारकर उसने अभिमन्यु-वध का बदला ले लिया। जयद्रथ के पतन ने पाण्डवों में उत्साह का ऐसा शंख फूंका है कि वे बाढ़ की तरह बढ़े जा रहे हैं। उनके मर्मांतक प्रहारों ने हमारे सैनिकों को हतोत्साहित एवं क्षुब्ध कर दिया है।’

‘तुम व्यर्थ चिंता कर रहे हो पुत्र! युद्ध में बहुधा ऐसा होता है। कभी एक पक्ष तो कभी दूसरा पक्ष घात-प्रतिघात करता ही है। अगर उन्होंने जयद्रथ को मारा है तो हमने भी उनके अनेक सूरमाओं को धूल चटाई है। तुम निःशंक रहो, आज जो व्यूह मैंने बनाया है उससे युद्ध अपरान्ह तक तुम्हारे पक्ष में आ जाएगा।’

‘द्विजश्रेष्ठ! आप अब तक ऐसा ही कहते आये हैं पर ऐसी कोई स्थिति नहीं बनी कि मैं कह सकूँ कि युद्ध का ऊँट हमारी करवट बैठ गया है।

‘तो तुम मुझसे क्या चाहते हो?’

‘आचार्य! आप संपूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता है। सभी दिव्यास्त्र आप में प्रतिष्ठित है। आप चाहें तो इन अस्त्रों द्वारा पाण्डवों का समूल नाश कर सकते हैं। आपके इन अस्त्रों के आगे पाण्डव तो क्या देव, दानव एवं असुर तक नहीं ठहर सकते। मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि शक्तिमान होते हुए भी आप तटस्थ क्यों हैं? पाण्डवों विशेषतः आपके शिष्यों के प्रति आपकी सहानुभूति मुझे विचलित कर रही है। आप समर्थ होते हुए भी पाण्डवों को लगातार क्षमादान क्यों देते चले जा रहे हैं? आपके तटस्थ भाव एवं स्नेह से वे दिन-दिन पुष्ट हो रहे हैं। आखिर आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?’

‘तुम्हें क्या मेरी प्रतिबद्धता पर शंका हो आई है दुर्योधन ? क्या तुम नहीं जानते कि नमक का मूल्य अदा करने के लिए द्रोण प्राण तक दे सकता है? आज यह संशय तुम में क्योंकर प्रविष्ट हो गया?’

‘विप्रवर! क्षमा करें। मेरा संशय गलत नहीं है। सभी जानते हैं आप जैसे सूरमा के होते युद्ध में हमारी स्थिति यथावत नहीं रह सकती। आप जब चाहे युद्ध का पासा पलट सकते हैं परन्तु लगता है आप युद्ध तो मेरी ओर से कर रहे हैं, सेनापति कौरव सेना के हैं लेकिन विजय उन्हें दिलाने पर आमदा है। हम आपके दम-खम पर लड़ रहे हैं तो हमारे सैनिक हिम्मतपस्त क्यों हैं? आप उन दिव्यास्त्रों का प्रयोग क्यों नही करते जिनके आगे कोई नहीं टिक सकता। क्या यह अस्त्र किसी अन्य प्रयोजनार्थ रखे हैं ?

‘पुत्र! लगता है तुम होश खो बैठे हो?’

‘युद्ध परिणाम मांगता है आचार्यवर! मुझे परिणाम की प्रतीक्षा है प्रवचन की नहीं। यह आपका गुरूकुल नहीं समरभूमि है।’
दुर्योधन के ऐसा कहते ही द्रोण की आँखों से चिंगारियाँ बरसने लगी। जैसे अंतिम चुनौती मिलने पर तेजस्वी योद्धा अपना सबकुछ दाँव पर लगाने को उद्यत हो उठता है, वही दशा अब द्रोण की थी।

‘पुत्र! अगर तुमने इतना ही कह दिया है तो अभय होकर जाओ, आज अपरान्ह्न तक मैं युद्ध तुम्हारे पक्ष में कर दूँगा। द्रोण प्राण हारेगा वचन नहीं। ’कहते-कहते द्रोण के सभी अंग क्रोध से जल उठे। दुर्योधन ने अब वहाँ से प्रयाण करना उचित समझा। नीचे उतरकर वह रथ पर चढ़ा एवं देखते ही देखते उस दिशा में चला गया जहाँ कर्ण पाण्डवों को ललकार रहा था।

द्रोण अब प्रज्वलित अग्नि के समान युद्धभूमि में खडे़ थे। उनकी आँखें अंगारे उगलने लगी थी। दुर्योधन के वाक्बाणों ने उन्हें भीतर तक दग्ध कर दिया था। धनुष हाथ में लेकर उन्होंने एक बार पुनः स्वनिर्मित व्यूह को निहारा एवं सारथी को रथ युद्धभूमि के बीच खड़ा करने का आदेश दिया।

यु़द्धभूमि के मध्य रथ खड़ा होते ही पाण्डव सेना पर काल छा गया। उन्होंने ऐसी बाणवृष्टि की कि पाण्डव त्राहिमाम कर उठे। अपने बाणों से उन्होंने असंख्य पाण्डव सैनिकों को बींध डाला। उनकी बाणवृष्टि के आगे न आकाश दिखता था न पृथ्वी एवं न ही दिशाओं का बोध होता था। उनके तीखे बाणों से पाण्डवों के अनेक रथी रथहीन हो गए। ऐसा लग रहा था मानो कोई तेज पुंज आज रणभूमि में आविष्ट हो गया हो। आज द्रोण नहीं साक्षात यम रणभूमि में आग के पुतले की तरह खडे़ थे। द्रोण के इस रूप को देख पाण्डव थर्रा उठे। मृत्यु को समीप देख असंख्य पाण्डववीर वहाँ से भाग चले। स्तंभित अनेक योद्धाओं के पांव रणभूमि से चिपक गए। कुपित द्रोण अब कहर ढा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे आज रणभूमि में कोई जीवित नहीं बचेगा। वे न भीम के वश में थे न अर्जुन के। देखते ही देखते रणभूमि में खून की नदियाँ बह चली। केश, कवच एवं मुण्डो के कट-कटकर गिरने से वहाँ ऐसी कीच मची कि आकाश मांसभोजी गिद्धों से भर गया।

अब धूमरहित अग्नि के समान द्रोण अकेले रणभूमि में प्रज्वलित हो रहे थे। संपूर्ण समरभूमि आज उनकी शौर्य-गाथा लिख रही थी। उनसे युद्ध करना तो दूर कोई उनसे आँख मिलाने तक का साहस नहीं कर पा रहा था। दूर अर्जुन के रथ पर बैठे द्रोण के इस रूप को देख कृष्ण ने क्षणभर में अनुमान लगा लिया कि द्रोण यूँ ही कहर बरपाते रहे तो युद्ध आज अंतिम स्थिति में पहुँच जाएगा। वे गंभीर होकर अर्जुन से बोले, ‘पार्थ! तुम कैसे योद्धा हो? क्या तुम देख नहीं रहे कि द्रोण यूँ ही युद्ध करते रहे तो अपरान्ह्न तक तुम्हारा पराभव निश्चित है? क्या तुम भूल गये कि युद्धपूर्व तुम्हीं ने युधिष्ठिर को वचन दिया था कि तुम्हारे होते युद्ध में उनकी पराजय नहीं हो सकती? उस वचन का क्या होगा? द्रोपदी के अपमान का बदला तुम फिर कैसे लोगे?’

‘माधव! मैं प्रयास में कोई कमी नहीं रख रहा पर आज जाने आचार्य को क्या हो गया है। वे रोके नहीं रुक रहे। किस दुर्भाग्य के प्रेरे आज मेरे बाण भौंथरें हो गए हैं?’

‘तो क्या इन्हीं भौंथरे तीरों से तुम विजय का वरण करोगे अथवा विकल्प पर भी चिंतन करोगे? युद्ध जितना बाणों से लड़ा जाता है उससे कहीं अधिक बुद्धि एवं कौशल से लड़ा जाता है।’

‘आप ठीक कर रहे है माधव। आप ही कोई उपाय सुझाये कि अब हमें क्या करना चाहिए।’

‘पार्थ! द्रोणाचार्य संपूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ है। जब तक इनके हाथ में धनुष है तब तक तुम्हें विजय की आंकाक्षा त्याग देनी चाहिए। धनुष हाथ में रहते वे दुर्जेय हैं। संग्राम में हथियार डलवाकर ही इन्हें मारा जा सकता है।’

‘लेकिन क्या आचार्य को धनुष-विहीन करना सरल है?’

‘युद्ध में युक्ति महत्वपूर्ण है अर्जुन! इस संसार में हर व्यक्ति , चाहे वह महापुरुष ही क्यों न हो , मोह की किसी कमजोर कड़ी से बंधा होता है। यह कमजोरी ही अंततः उसके सर्वनाश का कारण बनती है।’

‘आचार्य द्रोण तो महायोगी है प्रभु! भला उनकी क्या कमजोरी हो सकती है?’

‘मोह की दुष्कर दीवारों को लांघना महायोगियों के लिए भी सरल नहीं है अर्जुन! क्या तुम नहीं जानते वे पुत्र अश्वत्थामा पर अगाध स्नेह रखते हैं। अवश्वत्थामा उनकी द्वितीय आत्मा है। द्रोण के प्राण अश्वत्थामा में बसे हैं। वे सब कुछ सहन कर सकते हैं पर अश्वत्थामा का वध सहन नहीं कर सकते। पुत्र उन्हें प्राणों से अधिक प्रिय है।’

‘लेकिन अश्वत्थामा आज युद्ध के उस पार है। उसका वध असंभव है।’

‘अगर उसका वध न हुआ तो कल समय तुम्हारी पराजय-गाथा लिख देगा। मैं ऐसे कल को नहीं देखना चाहता जहाँ अधर्म धर्म को हरा कर अट्टहास करे। हमें कोई युक्ति सोचनी होगी।’कृष्ण की बातें सुनकर अर्जुन का हौसला पस्त हो गया। अपने सखा की ऐसी दशा देख कृष्ण बोले, ‘ अगर कोई द्रोण के समीप जाकर यह कहे कि ‘अश्वत्थामा मारा गया’ तो द्रोण यह सुनकर अवश्य ही धनुष रख देंगे। उनके जीवन में तब कुछ भी सार्थक न बचेगा। अश्वत्थामा के अभाव में वे प्राण-त्यागना उचित समझेंगे।’

‘कृष्ण यह योजना बना ही रहे थे कि उसी क्षण भीम एवं युधिष्ठिर उनके समीप आए। कृष्ण ने उनसे भी मंत्रणा कर योजना बताई तो अर्जुन एवं युधिष्ठिर दोनों ने इस योजना पर असहमति प्रकट की। युधिष्ठिर ने तो यहाँ तक कह दिया कि कम से कम वे तो इन शब्दों का उच्चारण नहीं करेंगे। युधिष्ठिर की बात सुनते ही कृष्ण कुपित हो गए एवं रोष में भरकर बोले, युधिष्ठिर! तुम्हारे ऐसा न कहने पर तुम्हारी हार निश्चित है।’

‘माधव! सत्य बोलकर प्राप्त की गई पराजय भी मेरे लिए श्रेयस्कर है। मेरे मत में झूठ से बड़ा कोई पाप नहीं है। झूठ बोलकर प्राप्त की गई विजय मुझे राज्य तो प्रदान कर देगी पर इससे मेरी आत्मा का पतन निश्चित है।’

‘सत्य का अर्थ अत्यंत गूढ़ है युधिष्ठिर। वह सत्य जो अधर्म को प्रश्रय दे झूठ से भी बढ़कर है। इससे तो वह झूठ श्रेयस्कर है जो धर्म की रक्षा करता है।’

‘माधव! इस तरह हर व्यक्ति सत्य एवं झूठ का अपना-अपना अर्थ लगाकर आचरण करने लगे तो लोक व्यवहार भ्रष्ट नहीं हो जाएगा?’

‘जगत में पाप-पुण्य की कोई सीमा रेखा नहीं होती युधिष्ठिर! क्या पाप है क्या पुण्य, क्या सत्य है क्या असत्य इसका निर्धारण श्रुतियों से कहीं अधिक समय, काल एवं परिस्थितियाँ तय करती है। जगत का कोई भी सिद्धांत पत्थर की लकीर नहीं होता। हर सिद्धांत में इतनी लोच होनी चाहिए कि वह परिस्थितिजन्य समायोजन कर सके। जिसे धारण न किया जा सके वह कैसा धर्म ? धर्म का अभ्युदय प्राणियों के कल्याण के लिए हुआ है। किसी सज्जन की प्राणरक्षा अथवा धर्म की रक्षा के लिए बोला गया झूठ निसंदेह सत्य बोलने से कहीं अधिक कल्याणकारी है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम सत्य बोल रहे हैं या झूठ, महत्वपूर्ण यह है कि हमारे सत्य अथवा असत्य बोलने से हम किस प्रयोजन को सिद्ध कर रहे हैं।’

‘माधव! अश्वत्थामा की मृत्यु का असत्य समाचार देना मेरी राय में अधर्म ही है। ऐसा कहना मेरा स्वार्थ नहीं तो और क्या है ? असत्य का सहारा लेकर मैं अपने ही आचार्य का वध करूँ , इससे पातकी एवं अधम कार्य और क्या हो सकता है?’

‘तुम ऐसा नहीं कह सकते तो आज संध्यापूर्व तुम्हारा पराभव निश्चित है। अगर युद्ध दुर्याेधन के पक्ष में गया तो समय तुम्हारे धर्म की नहीं तुम्हारी मूढ़ता एवं कायरता की गाथाएं लिखेगा। तुम्हारा सैद्धांतिक हठ अधर्म को पल्लवित करने में सहायक होगा। स्मरण रहे कि इतिहास मात्र विजेताओं का लिखा जाता है।’

कृष्ण-युधिष्ठिर के संवाद को बढ़ते देख भीम आगे आकर युधिष्ठिर से बोले, ‘आर्य! हमारे पास एक हाथी है जिसका नाम अश्वत्थामा है। अगर हम इस हाथी को मारकर आचार्य को संदेश दें कि अश्वत्थामा मारा गया है तो इसमें झूठ क्या होगा?’

‘असत्य को सत्य में लपेटकर बोलना सीधे झूठ कहने से कहीं अधिक बुरा है। यह छल नहीं तो और क्या है? अच्छा होगा यह कार्य तुम ही करो। मुझसे अगर पूछा गया तो मैं वहीं कहूँगा जो वस्तुतः हुआ है।’ युधिष्ठिर बोले।

कृष्ण का इशारा पाकर तब भीम ने गदा के भयंकर वार से उस हाथी का वध कर दिया एवं मध्यान्ह के सूर्य की तरह चमकते द्रोण के समीप जाकर संदेश दिया, ‘आचार्य! अश्वत्थामा मारा गया है।’

भीम का संदेश सुनकर आचार्य सन्न रह गए। वे शोक से व्याकुल हो उठे। उनकी दशा ऐसी हो गई मानो खेती पर पाला पड़ गया हो लेकिन संदेश चूंकि भीम ने दिया था वे तुरंत पूर्ण अवस्था में आ गए। उन्हें लगा भीम स्वार्थवश झूठ बोल सकता है। वह बचपन से ऐसा करता आया है। झूठ बोलने के लिए मैंने उसे अनेक बार प्रताड़ित भी किया है। मैं ऐसे व्यक्ति की सूचना पर विश्वास क्यों करूँ? मेरा पुत्र अजेय है। पाण्डववीरों में कोई ऐसा नहीं है जो इतना शीघ्र उसका वध कर सके। मेरी ही तरह उसमें सारे अस्त्र प्रतिष्ठित है। अगर ऐसा होता तो कौरव सेना में कोलाहल मच जाता।

भीम के संदेश को दरकिनार कर द्रोण पुनः युद्ध करने लगे। उस समय वे धृष्टद्युम्न के साथ युद्ध कर रहे थे जिसने अपने पिता द्रुपद के वध के पश्चात द्रोण-वध की प्रतिज्ञा की थी। ऐसे आततायी एवं अमर्ष भरे शत्रु के आगे जरा-सी असावधानी प्राणघातक बन सकती थी।

द्रोण पुनः काल बनकर धृष्टद्युम्न तथा उसकी सेना पर छा गए। एक बार फिर त्राहिमाम हो गया। जैसे प्रज्वलित अग्नि घास के ढेर को जला देती है द्रोण के बाणों ने पाण्डव सेना को देखते-देखते दग्ध कर दिया। सैनिकों की कटी हुई भुजाएं एवं मुण्ड देखकर पाण्डव स्वयं उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके।

सूर्य भी अब आकाश को आधे से ऊपर पार कर चुके थे। द्रोण के प्रखर बाणों की तरह रणक्षेत्र में उनकी तेज किरणे चमकने लगी थी। द्रोण युद्ध तो कर ही रहे थे द्वंद में भी थे। उनके अवचेतन मन में अब भी भीम का संदेश विचर रहा था। संदेह-असंदेह के मध्यांतर पर खडे़ द्रोण असमंजस में थे कि उन्हें क्या करना चाहिए?

इधर युधिष्ठिर कृष्ण से वार्ता के पश्चात दुविधा में थे कि वे क्या करें, क्या न करें? क्या माधव सही कह रहे हैं? अगर युद्ध दुर्योधन के पक्ष में गया तो निश्चय ही समय दुर्योधन की विजय-गाथा लिखेगा। द्रोपदी एवं हम पर हुए अन्याय एवं हमारे पक्ष में लड़कर वीरगति प्राप्त होने वाले वीरों के वंशज फिर यही कहेंगे कि मात्र युधिष्ठिर के दृष्टिकोण ने हमारा महाविनाश रच दिया? पृथ्वी पर तब असत्य ही मुँह चढ़कर बोलेगा। कृष्ण ठीक कहते हैं कि इतिहास विजयी वीरों का लिखा जाता है। तो क्या फिर मैं असत्य का वरण करूँ? यही सोचते-सोचते वे भयग्रस्त एवं उद्विग्न हो गए। पराभव का दंश उनकी आत्मा को कचोटने लगा एवं विजय की आकांक्षा उनके सर चढ़ बैठी।

भावी प्रबल है। युधिष्ठिर ऐसा सोच ही रहे थे तभी आसमान में विचरते एक काले मेघ ने सूर्य को आवृत कर लिया। ठीक उसी समय द्रोण युधिष्ठिर से कुछ दूरी से होकर गुजरे। वे आगे बढ़ रहे थे कि भीम का संदेश पुनः उनके मन-व्योम पर छा गया। आसमान के काले मेघ की तरह एक बार पुनः संदेह ने उनकी आत्मा को झकड़ लिया। जिस पुत्र के किंचित दुःख से वे व्यथित हो उठते थे आज उसके मृत्यु के समाचार की भी क्या वे पुष्टि नहीं करेंगे? क्या द्रोण इतना गिर गया है?

संदेह से भरे, व्यथित द्रोण ने दूर रथ पर खडे़ युधिष्ठिर से पूछा, ‘पुत्र! अश्वत्थामा कहाँ है?’ उन्हें पूरा विश्वास था कुंतीपुत्र युधिष्ठिर इस राज्य के लिए तो क्या तीन लोकों के लिए भी असत्य नहीं बोलेंगे। बचपन से ही उनकी सत्यवादिता पर उन्हें निष्ठा थी।

युधिष्ठिर ने आचार्य को सुना एवं क्षणभर के लिए रणभूमि की ओर देखा। युद्ध की दशा देखकर उन्होेंने सहज ही आंक लिया कि द्रोण ने कुछ समय और युद्ध किया तो सर्वनाश निश्चित है। असत्य के भय एवं विजय की आकांक्षा के मध्य उनका द्वंद असंख्यगुना बढ़ गया। देखते-ही-देखते विजय की आसक्ति ने सत्य को वैसे ही दबोच लिया जैसे बाज कबूतर को दबोच लेता है। आचार्य ने जब पुनः पूछा तो युधिष्ठिर सकपकाकर तेज आवाज में बोले, ‘आचार्य! अश्वत्थामा मारा गया है’ तत्पश्चात अत्यंत धीमी आवाज में ओंठो ही ओंठो में बुदबुदाये, ‘लेकिन वह हाथी था।’ युद्ध के तुमुलनाद में उनके प्रथम शब्द प्रखर होकर गूंजे परन्तु अंतिम शब्द कोलाहल में बिखर गए।

युधिष्ठिर के मुँह से ऐसा सुनकर द्रोण वहीं खड़े रह गए। उनका शरीर शिथिल हो गया, गला सूख गया एवं वाणी मूक हो गई। क्षणभर के लिए वे स्तंभित हो गये। पुत्र शोक से संतप्त द्रोण की आँखे डबडबा आई। वे जीवन से निराश एवं उद्विग्न हो उठे। उनकी चेतनाशक्ति लुप्त हो गई एवं असहज उन्होंने धनुष कांधे से उतारकर नीचे रख दिया।

द्रोण से निरन्तर आहत धृष्टद्युम्न के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। अपलक बिना समय गंवाए धृष्टद्युम्न चमचमाती तलवार लेकर द्रोण के रथ की ओर यूँ बढ़ा जैसे बाज सर्प की ओर बढ़ता है। सभी के देखते वहाँ एक तलवार चमकी एवं महारथी द्रोण का सर कटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। दूर रथ पर खडे़ युधिष्ठिर ने इस वीभत्स दृश्य को देखा एवं चुपचाप सर नीचेकर खडे़ हो गए।

कहते हैं इसके पूर्व युधिष्ठिर का रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊँचा रहा करता था लेकिन इस घटना के पश्चात उनके रथ के घोड़े धरती का स्पर्श कर चलने लगे।

संसार में उन लोगों का फिर कितना पतन होगा जो किंचित स्वार्थवश घड़ी-घड़ी झूठ बोलते हैं?

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04-05-2012

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