अब उसके पास आत्महत्या के अतिरिक्त विकल्प ही क्या था?
ऐसे नीरस, निरानंद एवं निरर्थक जीवन से तो मौत भली !
चुपचाप दाँत भींचे वह नदी की ओर तेज गति से जा रहा था। भादो की आखिरी रात थी। मेघ जम के बरस रहे थे। अंधड़ एवं तेज हवाओं के साथ बरसते पानी से रात और अंधेरी हो चली थी। बादलों की गड़गड़ाहट रुकने का नाम नहीं लेती थी। ऐसा लग रहा था जैसे आकाश दहाड़ें मार कर रो रहा हो।
तेज हिलते हुए वृक्ष मानो उसे समझा रहे थे, “नहीं, ऐसा मत करो।” लेकिन इस बार वह अडिग था। आज क्रोध ने उसके विवेक को यूँ आवृत्त कर लिया था जैसे स्याह बादलों ने चाँद को। अगर जीवन मृत्यु तुल्य हो जाये तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है। जीवन से निज़ात पाने का दृढ़ इरादा उसकी रफ्तार को तेज कर रहा था। आखिर क्यों सहे वह इतना उपहास, इतनी वितृष्णा, इतना तिरस्कार?
सम्पूर्ण जीवन उसने कठोर संघर्ष किया पर जीवन ने उसे दुःख एवं तकलीफों की सौगात ही दी। वह भाग्यवादी नहीं था, जीवन भर उसने कर्म की ही बाँसुरी बजाई पर उसे मिला क्या? वह शास्त्रों की इस बात में यकीन नहीं रखता था कि फल की चिंता मत करो। फल की चिंता हम क्यूँ न करें? सृष्टि के समग्र जड़-चेतन विस्तार में अणुमात्र भी ऐसा नहीं है जो बिना फल के कर्मरत हो। फिर उसकी अपेक्षाएँ कहाँ गलत थी? वह कोई साधु, फकीर अथवा बैरागी नहीं था जो सब कुछ दाँव पर लगाकर चिमटा बजाता फिरता। वह एक गृहस्थ था। अगर गृहस्थ फलाकांक्षी नहीं होगा तो निभेगी कैसे? घोड़ा घास से यारी करे तो खायेगा क्या?
फिर भी पैंतीस वर्ष की उम्र में आत्महत्या करने का उसका कठोर निर्णय क्या सही था? जिसने अब तक जीवन से हार नहीं मानी उसे अब क्या हो गया? वर्षों उसी ने तो हारे- थके लोगों को यह संदेश दिया कि चलते रहो, चलते रहो। खुदा की मदद उसी के लिए आयेगी जो साबित कदम है, जिसमें साहस है, जिंदादिली है, जीवट है।
फिर अब क्या हो गया?
बाहर के अंधड़ से भी गहरा अंधड़ उसके दिमाग में शोर मचा रहा था। पहाड़ों को आहत करती मूसलाधार बूंदों की तरह प्रश्न-प्रतिप्रश्नों की बौछारें उसके विचार तल पर आघात-दर-आघात कर रही थी। उसके हृदय का तूफान बाहर के तूफान से भी अधिक तेज था।
उसे सब कुछ याद है। तब वह मात्र दस वर्ष का था। जनवरी का महीना था। दूर पहाड़ों पर गिरी बर्फ के कारण उसके शहर में भी कड़ाके की ठण्ड थी। उस दिन वह गहरे भूरे रंग का कोट पहनकर स्कूल गया था। दो वर्ष से वह इसी कोट को पहनता आ रहा था। अब तो यह न जाने कितनी जगह से फट गया था। उसके सहपाठी ताना मारते तो वह यही कहता, सर्दी तो इसी से रुकती है, फैंसी स्वेटरों में तो तुम हमेशा ठिठुरते रहते हो। उस दिन विद्यालय से घर आया तो घर के बाहर लोगों का जमघट लगा था। उसे देखते ही एक आदमी ने उसका बस्ता लिया एवं उसे साथ लेकर भीतर आया। उसका पिता जमीन पर बिना हिले-डुले लेटा था, मुँह तक सफेद चादर ढकी थी। उसकी माँ छाती कूट-कूट कर रो रही थी एवं दादा उसकी दो छोटी बहनों को गोदी में लिए बुत की तरह बैठे थे। पास ही बैठा एक व्यक्ति दूसरे को कह रहा था, “मास्टर रामस्वरूप जैसा नेक आदमी अब कहाँ मिलेगा। सारी उम्र अध्यापकों के हक के लिए लड़ता रहा। आज सुबह शिक्षा अधिकारी से एक अध्यापक की मुअत्तिली निरस्त करने पर झड़प हुई, क्रोध में अधिकारी ने इसे भी सस्पेंड कर दिया। कहते हैं घर आते हुए छाती में तेज दर्द हुआ एवं देखते-देखते रामस्वरूप ने बीच सड़क ही प्राण त्याग दिये। होम करते हुए खुद होम हो गया।”
उसके पिता ने विरासत में इतनी भर रकम छोड़ी थी कि एक माह का राशन आता। अब तो उसकी पेंशन ही जीवन आसरा थी। वह भी जाने कब प्रारंभ होगी? कौन जाने कब सस्पेंशन पर एन्कवायरी पूरी होगी, हो भी जाय तो इतनी कम पेंशन गरम तवे की बूंदों की तरह यूँ गायब हो जाएगी !
घर में कुछ दिन मातम छाया रहा। एक रात सभी परिवार वाले घर में बैठे थे तो उसने दादा को माँ से कहते हुए सुना, “चरैवेति चरैवेति।” उसके दादा संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे, विद्वत्ता चेहरे से टपकती थी। लम्बी सफेद दाढ़ी, चमकती आँखें जिनकी चमक पुत्र शोक से इन दिनों फीकी पड़ गई थी। तीखा नाक, थाल जैसा ललाट एवं वेशभूषा से वे साक्षात् संत लगते थे। धीरे-धीरे बोलते हुए उस दिन माँ को समझा रहे थे, “बहू! विधाता का रचा कौन टाल सकता है, लेकिन जीवन की गति नहीं रुक सकती। बस चलते रहो, चलते रहो, जीवन में चलना ही पड़ता है। रोने से जगत हमारे साथ नहीं रोयेगा। लोग कुछ दिन सहानुभूति बताकर चले जायेंगे। जगत की यही रीत है। कंधा देने वाले शव के साथ नहीं जलते। अपना कोढ़ खुद भोगना पड़ता है। हमें ही हमारी परिस्थितियों से मुकाबला करना होगा। रामस्वरूप का दुःख वज्र बनकर हम सब पर पड़ा है। हमें ही इस कठोर समय से निकलने का मार्ग खोजना होगा।”
उस दिन दादा की आँखों में मानो गीता का दर्शन सिमट गया था। वे नित्य गीता पढ़ते थे पर आज गीता जी रहे थे। दादा की बातें सुनकर माँ विह्वल हो गई थी। उसके बाल मन पर ‘चरैवेति-चरैवेति’ शब्दों का ऐसा असर पड़ा कि यह शब्द उसके जीवन के मूलमंत्र बन गये। कई बार ईश्वर हमारे भीतर ऐसे संदेश रोपित कर देता है जो आगत जीवन में हमारे लिए आवश्यक होते हैं। इन्हीं संदेशों से बल पाकर व्यक्ति अपनी कठिनतम परिस्थितियों से पार उतर जाते हैं।
दादा और माँ के न चाहने पर भी उसने पढ़ाई छोड़ दी। भीख से भण्डारा नहीं भरता, बिना तेल दिया कैसे जलेगा? आदमी का पेट बात से नहीं भात से भरता है।
मेंढक के बच्चों को क्या उसका बाप तैरना सिखाता है? एक नये संकल्प से उसकी आँखें चमक उठी।
अब सुबह उठकर वह नित्य अखबार बाँटने जाता। वहाँ से लौटकर शू पालिश एवं ब्रश पकड़ता, फिर सारे दिन स्टेशन के बाहर पोलिश करते नजर आता। घर आता तो मौहल्ले वाले, माँ, दादा सभी उसे सहानुभूति से देखते पर इससे क्या? वह जानता था परिवार चलाने के लिए उसे बचपन के सुख की बलि देनी होगी। दादा ठीक कहते हैं, परिस्थितियों के आगे हाथ धर कर नहीं बैठ सकते। मेरे थोड़ा-सा काम करने से सबका पेट पलता है तो मैं निठल्ला क्यूँ बैठूं? भिखारियों की तरह किसी के आगे हाथ तो नहीं पसारने पड़ते। होते होंगे वे बच्चे जो पितृसंपदा के कल्पवृक्ष की छाँव में पाँव पसार कर सोते हैं, उसके भाग्य में तो कठोर कर्म ही लिखा है एवं यही उसे करना होगा। उसे अपने भाग्य से शिकायत भी नहीं थी। कर्म कर रहे हैं एवं फल मिल रहा है तब तक कैसी निराशा?
जो बच्चे बचपन में ही व्यापार को पकड़ लेते हैं उन्हें एक ऐसी अंतःदृष्टि मिल जाती है जो विद्यालय वर्षों जाने पर भी नहीं आती। जीवन के असली पाठ व्यावहारिक जगत के विद्यालय में ही सीखने को मिलते हैं। धीरे-धीरे उसे व्यापार बढ़ाने के विकल्प मिलने लगे। अब वह पाॅलिश, ब्रश एवं अन्य सामान बेचने लगा। एक दो अखबारों की एजेन्सी भी उसके हाथ लगी। उसकी आमदनी पहले से कई गुना होने लगी। उसे यूँ काम करते देख उसकी माँ की आँखें छलक आती। मन ही मन सोचती, कैसे अकेला सबके लिए दौड़ रहा है। रात घर लौटते ही दादा उसे गले से लगाते। उनकी मूक आत्मा मन ही मन उसे आशीर्वाद देती। बड़े बुजुर्ग ठीक ही कह गये हैं- सपूत की कमाई में सबका सीर।
कुछ पैसे इकट्ठे हुए तो उसने कारोबार बढ़ाने की सोची। दिन-रात वह अपनी योजना को मूर्त रूप देने में लग गया। इसी दरम्यान उसके दादा का स्वर्गवास हुआ। वे उसके जीवन आधार थे। उन्होंने ही तो उसे कर्म की बाँसुरी बजानी सिखायी थी। मृत्यु के सारे संस्कार उसने पूरे किये। इन्हीं संस्कारों को पूरा करने में उसकी सारी बचत कपूर की तरह उड़ गयी। एकबारगी वह हताश भी हुआ पर उसके अंतर्मन ने उसे गहरे से पुकारा, “चलते रहो-चलते रहो।”संस्कार अमिट होते हैं। जिन संस्कारों के पौधों को कर्मयोगियों ने सींचा हो वो भला वृक्ष क्यों न बनेंगे।
उसने फिर कठोर श्रम किया। व्यापार बढ़ाने में रात-दिन एक कर डाले, दिन देखा न रात। उसकी मेहनत रंग लायी एवं उसका व्यापार पुनः कई गुना बढ़ा। अब उसने एक छोटी-सी दुकान भी खरीद ली। अपनी जमा बचत के निवेश की उसने योजना बनाई ही थी कि माँ को कैंसर हो गया। विधाता ही उल्टे हो जायें तो कैसे कुशल हो?
वह अहर्निश माँ की सेवा में लग गया। दुनिया में धन-मान-यश-कीर्ति सब वापस मिल सकते हैं पर गए हुए माँ-बाप की सेवा फिर नहीं मिलती। उसके पिता का निधन हुआ तब तो वह बहुत छोटा था, उसके पास कुछ था भी नहीं। माँ के इलाज में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी पर मौत का गला किसने पकड़ा है। माँ भी पीछे दो बहनों को छोड़कर स्वर्ग सिधार गयी। उसकी जमा पूँजी फिर बह गयी। वह फिर धरातल पर आ गया। उसकी दशा उस चिड़िया की तरह थी जिसके घौंसले से दुर्भाग्य का बाज बार-बार बच्चे उठा ले जाता था। उसके दादा की सीख ने उसे फिर साहस दिया- चरैवेति चरैवेति। वेदों के इस उद्घोष ने एक बार फिर उसे हौंसला दिया। वह मुट्ठियाँ भींचकर मन ही मन कहने लगा, चलो ! चलना ही होगा तुम्हें। तुम्हारे पास अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। निभानी होगी तुम्हें दोनों बहनों की जिम्मेदारी। देना होगा तुम्हें उनको सहारा। उनके जीवन आधार तुम्हीं तो हो। क्या उन्हें मंझधार में छोड़कर चले जाओगे?
उसने फिर मोर्चा सम्भाला।
इस बार उसने पहले से भी अधिक कठोर श्रम किया। अब वह जूते चप्पल एवं कुछ अन्य वस्तुएं भी बेचने लगा था। अखबारों की कुछ और एजेंसियाँ मिलने से उसके पौ-बारह हो गये। उसे अपने सारे स्वप्न फलित होते नजर आने लगे। फुटकर व्यापार थोड़े ही दिनों में थोक का व्यापार हो गया।
अब तक उसकी बहनें भी जवान हो चुकी थी। वह खुद भी चौबीस वर्ष का था। उसने फिर कारोबार बढ़ाने की योजना बनायी पर हालात ने उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल दी। पहले बहनों का विवाह जरूरी था। इस बार उसने सारी जमा पूँजी बहनों के नाम की। भाई को अकेला छोड़ दोनों ससुराल चली गई।
उसने आराम की सांस ली ही थी कि विधाता ने उसे पुनः देख लिया। विधाता की टेढ़ी चालों को कौन समझ पाया है? कुछ दिन बाद वह यह जानकर स्तब्ध रह गया कि उसका एक जीजा शराबी है एवं दूसरा बचपन से दिल का रोगी है। उसकी बहनें अक्सर उसी के पास आकर रोती, अपनी बहनों का दुःख देखकर उसकी छाती में शूल चुभते लेकिन वह जब्त कर जाता। उन्हें भी यही सीख देता, चलते रहो, चलते रहो।
सही सोचना, सकारात्मक सोचना एवं कर्म करने के अतिरिक्त हमारे बस में है ही क्या?
उसके स्वयं के स्वप्न भी अब अंगड़ाई लेने लगे थे। यौवन की मदभरी कल्पनाएं किस युवक को नहीं लुभाती। वह मन ही मन एक लड़की की तस्वीर बनाता, तस्वीर में अपनी कल्पनाओं के रंग भरता। उसकी स्वप्नसुंदरी उसकी कल्पनाओं में ही मूर्त रूप लेने लगती। तब उसके हृदयाकाश पर मानो पूर्ण चन्द्र चमकने लगता। कई बार उसे ऐसे स्वप्न आते कि बिजली-सी कांतियुक्त शरीर वाली एक सुन्दर स्त्री उसकी तरफ दूर से भागी चली आ रही है, उसकी आँखें मानो झील में तैरते दो कमल हों। गोरा रंग, पतले होंठ, उज्ज्वल दाँत एवं मनोहर त्रिवली उसके रूप को और निखारते। वह साक्षात लावण्य निधि होती। उसके समीप आते ही वह उसे बाहों में भर लेता। कई बार उसे ऐसे भी स्वप्न आते जैसे वह बिस्तर पर चादर ताने पड़ा है एवं उसी चादर में वही स्वप्नसुंदरी उसके साथ निर्वस्त्र लेटी है। कभी वह उसके बालों को सहला रहा है तो कभी उसके होठों को चूम रहा है। उसकी छाती से चिपटते हुए सुंदरी के स्तनों का स्पर्श उसे रोमांचित कर देता। तब वह चादर नीचे कर इन्हें ललचायी आँखों से देखता। ऊँचे गदराये कोमल स्तन, पुरुषों की नजर न लगे इसीलिए शायद विधाता ने इन्हें आगे से काला कर दिया होगा। वह लजाकर चादर ऊपर खींचती तो वह उसे रोककर कहता, ‘‘प्रिये! जब यह शरीर आत्मा का वस्त्र है तो फिर वस्त्र पर वस्त्र क्यों !’’ कभी उसकी हरकतें इससे भी आगे बढ़ जाती। वह बदहवास नींद से जागता। तब उसे कोफ्त होती। वह अपनी गिनती उन अभागों में करता जो सोकर प्राप्त करते हैं एवं जागकर खो देते हैं।
इन्हीं दिनों एक बार वह दुकान पर बैठा था कि, बदहवास एक व्यक्ति ने आकर उसे सूचना दी, “तुम्हारा जीजा नहीं रहा। रात अधिक शराब पी ली थी, आज सुबह उसने दम तोड़ दिया।” उसके पाँव तले जमीन सरक गयी। अभी तो उसने अपने स्वप्न महल की इबारत भी नहीं रखी थी और यह नया दुःख आ गया। क्या कुछ लोगों की नियति में मात्र दुःख ही लिखे होते हैं? क्या विधाता नीचे भेजते समय उनके साथ दुःखों की पोटली बाँध देता है? ऐसी पोटली जिन्हें वे कभी नहीं उतार सकते।
उसने बहन के कंधे पर सांत्वना का हाथ रखा। अपनी फूल-सी प्यारी बहन की ऐसी दशा देखकर वह विह्वल हो उठा। एक बारगी वह अंदर तक हिल गया। उसके पाँव काँपने लगे पर न जाने कहाँ से उसके संस्कार एवं साहस ने पुनः उसके विचार तल पर दस्तक दी- चलते रहो, चलते रहो। जीओगे तो इस बहन का वैधव्य भी संभाल लोगे, मर गए तो इसका जीवन भी नरक कर दोगे। ऊपर जाकर माँ-बाप को क्या जवाब दोगे? तुम्हारे भरोसे ही तो वे इसे यहाँ छोड़ गये थे। क्या उन दिव्य दिवंगत आत्माओं को कष्ट दोगे? यह सोचते ही उसकी दोनों मुट्ठियाँ इस तरह भिंच गयी मानो सारा साहस इन मुट्ठियों में सिमट गया हो। उसकी हालत उस किसान की तरह थी जो हर बार बादलों को देखकर बीज बोता है, हल चलाता है पर हर बार दुर्भाग्य का अकाल उसकी फसल मिटा देता है, लेकिन किसान हल छोड़े तो वह साहस छोड़े।
उसने फिर कमान सम्भाली। उसका हौसला, संस्कार एवं ज्ञान उसे यही कहते- चलते रहो, चलते रहो।
इस घटना के दो वर्ष बाद उसका विवाह हुआ। वैसे तो उसे लड़की कौन देता पर शहर की एक विधवा के पास देने-लेने को कुछ नहीं था, उसने अपनी बेटी उसे ब्याह दी। चलो कोई मन बाँटने वाला तो आया। सुहागरात के दिन अपनी स्वप्नसुंदरी का घूंघट उठाकर उसने यही तो कहा था, ‘‘देने को मेरे पास यह दिल है एवं माँगने को फकत एक बात-मेरी बहनों का एक मात्र आसरा मैं ही हूँ, उनसे सदैव इस तरह निभाकर चलना कि उन्हें माँ-बाप की कमी महसूस न हो।’’
लेकिन यहाँ भी उसे निराशा हुई। पत्नी सुंदर लेकिन नकचढ़ी थी। रंग गोरा पर मन काला था। शादी के एक माह बाद ही पैंतरे डालने लगी, “बहनों का बार-बार पीहर आना उचित नहीं है। सारी उम्र पिलने के लिए पैदा नहीं हुए हैं।” थोड़े दिनों में बहनों ने भी रुख जान लिया। वे भी अब कम आने लगीं। वह करता भी क्या? बहनों को खुश रखने का प्रयास करता तो बीवी उखड़ जाती, बीवी को खुश रखता तो बहनें नाराज हो उठती। हृदय में चुभे काँटे की तरह उसने यह भी सहन किया। उसे तो जीवन भोगना था, चलते रहना था। खाई और खंदक के बीच भी उसने रास्ता खोज लिया, वह बीवी से छुपकर बहनों से मिल आता। बादल जल बरसाकर सबको शांत करता हैं पर बिजली क्या उसके वश में हैं?
इसी दरम्यान शहर में ऐसी बाढ़ आई कि सारा शहर जलमग्न हो गया। उसकी दुकान सड़क से कम ऊँची थी, बाढ़ के महाताण्डव में सारा सामान बह गया। वह फिर फकीर हो गया। लेकिन बाढ़ के पानी में उसका सामान डूबा था, हौसला नहीं। बैंक से ऋण लेकर उसने फिर दुकान लगायी, थोड़े दिनों में वह पुनः नियमित किश्त भरने लगा। इंसान तभी तक जिंदा है जब तक उसका हौसला जिंदा है, हिम्मतपस्त इंसान मृत नहीं तो और क्या है?
इस घटना के एक वर्ष बाद उसके जुड़वां बच्चे हुए, दोनों लड़के। वह अपना सारा दुःख भूल गया। यह शुभ समाचार सुनकर उसकी बहनें भी आयी। बच्चे मानो प्रेम के सेतु बनकर आये लेकिन कुछ समय बाद फिर वही खटपट शुरू हो गयी। उसकी पत्नी को बहनों का आना जरा भी नहीं सुहाता। वह लाख समझाता पर वह नहीं मानती। बहनें भाभी के ताने सुनकर भी आती। उनका भी और कौन था ! इन्हीं दिनों बहनों के आने-जाने को लेकर उसकी बीवी से खटपट हुई। उस दिन वह पत्नी पर बिफर पड़ा। उसे क्या पता था कि एक छोटी-सी घटना उसके दुर्भाग्य का आगाज़ बन जायेगी। रात पत्नी घर से नजदीक एक कुएँ में जाकर कूद गयी। आत्महत्या नोट में उसने बहनों द्वारा बार-बार तंग करना मुख्य कारण बताया। सुसाइड नोट के आधार पर दोनों बहनें जैल गयी। इसी गम में उसके दूसरे जीजा ने दम तोड़ दिया।
अब वह नितांत अकेला था। दुनिया घृणा और तिरस्कार से उसे देखने लगी थी। जितने मुँह उतनी बातें।
इस बार उसका हौंसला ताश के पत्तों की तरह ढह गया।
वह नदी के किनारे कूदने के लिए खड़ा था। जीवन मृत्यु से भी अधिक कष्टकर हो जाये तो ऐसे जीवन से क्या लाभ? जीवन का अंत करने के लिए साहस चाहिये और यह साहस उसमें था। वह कायर नहीं था। उसका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष एवं साहस का प्रतिबिंब था पर अब वह टूट चुका था।
आत्महत्या अब उसका आखिरी निर्णय था।
वह नदी में कूद ही रहा था कि हृदय के गहरे तल से फिर किसी ने उसे पुकारा। दादा उसे समझा रहे थे- चरैवेति चरैवेति…. चलते रहो, चलते रहो। क्या मेरी सीख भूल गये? आत्महत्या क्या पीछे पड़ी समस्याओं का समाधान होगा? शेष कर्मबंधन क्या अगले जन्म में काटोगे? क्या अगला जन्म भी खराब करोगे? क्या अपने एवं बहन के बच्चों के प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं? क्या सीखचों के पीछे खड़ी निरपराध बहनों का दुःख और बढ़ाओगे? चल उठ! जीवन से यूँ हार नहीं मानते। उसकी आत्मा के तल पर एक बिजली कौंध गयी।
नहीं, कभी नहीं! वह जोर से चिल्लाया। उसकी आँखें एक नये संकल्प से चमक उठी। मैं चलूँगा, अवश्य चलूंगा, गिर-गिरकर उठने के लिए चलूंगा, एक बार फिर चलूंगा, क्योंकि जीवन नाम है चलते रहने का, एक सतत प्रवाह का।
अंधड़ अब थम चुका था। हिलते हुऐ वृक्ष पुनः तनकर खड़े हो गये थे।
इन्हीं वृक्षों के साये में कोई पुनः लौट रहा था, चलने के लिये, फिर-फिर चलने के लिये……..जीने के लिये।
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23.09.2006