मेरे जैसा एक्सट्रोवर्ट यानि बहिर्मुखी व्यक्ति आपको शायद ही कहीं मिले। मुझे लोगों से मिलने, बात करने, उनसे मन बांटने, उनकी कथा-व्यथा सुनने आदि-आदि बातों में अतुलित आनन्द आता है। मुझे वे लोग जरा नहीं सुहाते जो कछुए की तरह अपने अंगों को समेटकर भीतर ही भीतर गुड़-गुड़ करते हैं। ऐसे इन्ट्रोवर्ट , अंतर्मुखी जन्मदुखियारों से मैं दूर ही रहता हूं। ऐसा होने पर भी कभी-कभी ऐसे लोग गले पड़ जाते हैं। मैं कदाचित् पहलकर उनसे कह भी दूं “हल्लो ! हाऊ आर यू” पर वे ऐसे देखते हैं मानो उन पर आसमान गिर गया हो। ‘ठीक हूं’ जैसे दो शब्दों का उत्तर देने तक में उनकी नानी मर जाती है।
सुबह वॉक करते हुए बगीचे में मुझे ऐसे लोग अक्सर मिलते हैं और सच कहूं मेरी इच्छा इनसे बतियाने की भी होती है पर इनके बनियान पर मुझे खोपड़ी के निशान को चीरते हुए दो आडी पसलियों का वह चित्र दिखता है जो मेरी कॉलोनी के बिजली के खंभे पर लगा है एवं जिसके नीचे लाल रंग से हजार वॉल्ट के साथ सावधान लिखा है। मैं वॉक में मेरे जैसे बतियारों को ही ढूंढता हूं एवं वॉक पूरी होते हम सभी ‘बतियारा संघ’ की तरह एक जगह मिल जाते हैं फिर जिसको जितना अवसर मिले अपना ज्ञान झाड़ते हैं। हमारे इस बतियारा संघ में हर राजनैतिक दल के प्रतिनिधि हैं, ज्ञानी-ध्यानी भी हैं जो कभी-कभार आपस में झगड़ भी पड़़ते हैं लेकिन दूसरे दिन सभी मतभेद भुलाकर ऐसे मिलते हैं मानो पिछले दिन कुछ हुआ ही न हो। जब सबको एक-दूसरे को खुजाने की लत हो तो झगड़ा अधिक दिन चलता भी नहीं है। कुल मिलाकर सुबह इस तरह मिलने वाले वे लोग हैं जिनसे खुद की निपटती नहीं पर जो पराई पंचायती एवं एक-दूसरे की निंदा-पुराण में उतना ही रस लेते हैं जो रस भौरों को फूल चूसने में आता है।
आज मार्निंग वॉक से घर आया तो श्रीमतीजी दरवाजे पर खड़ी थी, देखते ही बोली, दूध ले आये ? ओह! अब मुझे याद आया जाते हुए उसने कहा था दूध लेकर आना पर जिसे बातों में इतना रस मिले उसे ऐसे सूक्ष्म, लौकिक कार्य याद रहते हैं क्या? मैं उल्टे पांव मुड़ा, दूधवाला कौनसा दूर है, कॉलोनी के बाहर ही तो उसकी दुकान है। मुझे मुड़ते हुए देख ऊपर मुंह कर कोकिला ने इस तरह देखा जैसे भगवान को कह रही हो, “हे प्रभु ! किस करमठोक से फंसवाया है।”
मैं बीस कदम चला ही था कि पांचवे घर पर त्रिवेदीजी दिख गए। मेरी उनसे खूब छनती है। मैं और त्रिवेदीजी दोनों हमउम्र हैं। दोनों ने कुछ माह पूर्व चालीस पार किए हैं लेकिन दोनों के व्यक्तित्व, शरीर, सौन्दर्य में बहुत अंतर है। त्रिवेदीजी जहां पतले, काईयां, पैनी आंखें, कटारनुमा मूंछों एवं तोते जैसी नाक वाले हैं, मैं उनके ठीक उलट किंचित् स्थूल एवं उनसे अधिक दर्शनीय हूं। त्रिवेदीजी मुझसे ठिगने भी हैं एवं बहुधा जब हम खड़े-खड़े बात करते हैं, मुझे उनसे गर्दन झुकाकर बात करनी होती है। मैं आगे बढ़ ही रहा था कि त्रिवेदीजी ने मुझे देख लिया, वे बरामदे में खड़े थे, देखते ही बोले, “शर्माजी ! आज इतवार है, ऐसी भी क्या जल्दी है, आइये! एक कप चाय पीते हैं।” त्रिवेदीजी मेरे ऑफिस में कार्य करते हैं, लोगों को उकसाने की कला में माहिर हैं। हम सभी अधीनस्थ कर्मचारियों से अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं एवं अंग्रेजों की ही तरह ‘फूट डालो राज करो’ सिद्धांत के प्रबल पक्षधर हैं। मेरी तरह बतरस एवं निंदापुराण में माहिर हैं एवं ऑफिस का कोई व्यक्ति उनके पैने तीरों से शायद ही बचा हो। वे बहुधा ऐसा करने में मुझे साथ ले लेते हैं, मैं बह जाता हूं, बॉस को शिकायत होती है, तब ये कांईयां तो जस-तस निकल जाते हैं, शिकार मैं ही होता हूं। यह सब जानते हुए भी मै जाने क्यों रुक गया। अभी पेट में कुछ बतरस शेष था जिसे उगलना आवश्यक था। चाय दमदार थी।
“धन्यवाद त्रिवेदीजी! आपने सुबह-सुबह अच्छी चाय पिला दी, दिन बन गया।” चाय का सिप लेते हुए मैंने बात का आग़ाज किया।
“ओह शर्माजी, आपकी तो प्रशंसा करने की आदत है।” मैं बिल्कुल ऐसा नहीं हूं वरन अनेक बार अकारण आलोचना करता रहता हूं पर बातों का रुख मोड़ना कोई त्रिवेदीजी से सीखे।
“कल ऑफिस में बॉस आप पर बरस क्यों रहे थे ?” कहते हुए त्रिवेदीजी मुझे ऐसे देखने लगे जैसे वे इस बात से बेहद नाराज हुए हों। प्रश्न करते ही वे सधे हुए तीरदांज की तरह मेरी ओर देखने लगे।
“कल कुछ नए प्रपोजल बनाने थे, बन भी गए, बस एक रह गया। उसकी फाइल जाने कहां रख दी। बस इतना सुनते ही बॉस तीखे हो गए। नित्य से अधिक उखड़े हुए लग रहे थे, बोले, ‘तुरंत ढूंढ़ के दो, मुझे लापरवाही कतई पसंद नहीं। मैंने कहा सर कल तक दे दूंगा तो शांत हुए। इतना काम किया उसका कोई क्रेडिट नहीं , जो नहीं किया उसको लेकर चढ़ गया।“ कहते हुए मेरा गला रुंध गया। त्रिवेदीजी ने उड़ते तीर की तरह मेरे मनोभावों को पकड़ा –
“अरे! आप दिन भर पिलते रहे और उन्होंने ये सिला दिया। कोई अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से ऐसे व्यवहार करता है क्या ? आप तो फिर इतना अच्छा कार्य करते हैं। वेरी बेड।” त्रिवेदीजी ने मरहम लगाया।
“कुत्ता है साला! हिड़किया कुत्ता।” मैं गुस्से में चीख पड़ा। घाव कुरेदने से पीड़ा तो होती ही है। त्रिवेदीजी को मानो इन्हीं शब्दों की तलाश थी। वे मूंछों में मुस्कुराए। उनकी कुटिल मुस्कुराहट मानो कह रही थी, बरखुरदार! यही अंतिम बात बॉस को बताकर तेरी चटनी बनाऊंगा। मैं उखड़ गया। यकायक मुझे ध्यान आया, मैं दूध लेने निकला था। मैं उठा, तुरंत दूध लेकर घर पहुंच गया। मुझे पता था कोकिला देखते ही बिफरेगी एवं वैसा ही हुआ –
“अरे ! इतनी देर कहां लग गई ? गाय दुहने गए थे क्या ?” उसने मेरी आशा के अनुरूप प्रश्न दागा।
“त्रिवेदीजी के यहां रुक गया था। एक नंबर का हरामी है, बॉस की झूठी-सच्ची बातें करके मुझसे उनकी बुराई करवा ली। अब इन्हीं बातों को बॉस को पेलेगा।” मैंने मुंह लटकाए उत्तर दिया।
“अरे! भगवान ने आपको भी कुछ बुद्धि है या नहीं ? मुझे तो इस बार भी आपका प्रमोशन होता नहीं दिखता। बॉस की निंदा करने वालों को तो प्रमोशन के ख़्वाब भी नहीं देखने चाहिए।” न चाहते हुए भी उसने कटु सत्य उगल दिया।
मेरा दिल बैठ गया। इस बार प्रमोशन न होने का अर्थ था त्रिवेदीजी का प्रमोशन होना एवं इसका मतलब था आगे जीवनभर इसकी जी हुजूरी करो। अब लेकिन क्या किया जा सकता था, अब तो तीर निकल चुका था।
कोकिला ने नाश्ता टेबल पर रखा। उपमा बनाने में वह माहिर है। मैंने नाश्ता समाप्त ही किया था कि विजय आ गया। विजय मेरे बचपन का मित्र है। हमने स्कूल-कॉलेज दोनों शिक्षा साथ ली है। विजय के साथ महावीर, त्रिभुवन भी मेरे बाल-सखा हैं। सभी अक्सर मिलते हैं पर जैसा कि होता है मित्रों में शत्रुभाव, ईर्ष्याभाव भी यदा-कदा अजगर की तरह सिर उठाता रहता है। विजय ने आज मिसेज त्रिभुवन यानि सरिता को आड़े हाथों लिया, उसकी पत्नी से सरिता भाभी की कम बनती है। वह भी बीवी-बावरा है। विजय आज लम्बी देर सरिता की बुराई करता रहा। मेरे मुंह से भी निंदा के चार शब्द निकल गए। मैंने ‘उस ढेपरी में अक्ल है क्या’ कहकर सुर मिलाए। एक बार पिकनिक में सभी साथ थे। उस दिन फिर मिसेज विजय सरिता से उलझ पड़ी एवं ठीक वही जुमला सुना दिया, वह भी मेरे नाम से कि श्यामजी ठीक कहते हैं कि तू ढेपरी है, तुझमें बिल्कुल अक्ल नहीं है तो वह आगबबूला हो गई। यह बात त्रिभुवन के बर्दाश्त के बाहर थी। वह भी उखड़ गया। ओह! उस दिन कोकिला ने इनका मतलब यह था, वह था कहकर बात न संभाली होती तो तोते उड़ जाते। घर आते हुए पूरे रास्ते चुप था। स्कूटर मेरा भूत चला रहा था। मैं आते ही रजाई में घुस गया वरना कोकिला बेंड बजा देती।
दूसरे दिन बगीचे में मैं फिर बतियारा संघ के साथ बैठा था। यहां भी दो खेमे थे। एक खेमा एक राजनैतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करता था तो दूसरा दूसरी पार्टी का। अभी कुछ मुद्दे गरम थे। हमने जमकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला, बात हाथापाई तक आ पहुंची। मैं भिड़ गया, लोगों ने छुड़ाया पर दो दिन पहले लाई सेंडो बनियान एवं कमीज फट गई। घर आया तो श्रीमतीजी ने तेवर बताए। मेरी बनियान खींचने वाले से तो मैं कई दिन तक नहीं बोला। वो तो एक इतवार को पार्टी थी तब बतियारा संघ के सिंघवीजी ने कहा – अब छोड़िये भी शर्माजी! यह सब तो चलता रहता है, मतभेद हो मनभेद नहीं एवं अन्य सभी ने सुर मिलाए तब जाकर समझौता हुआ।
एक बार ससुराल गया तो जाने किस बात पर सालेजी को पेल दिया, सोचा यह कर क्या सकता है ? लेकिन वह भी थोड़ी देर में उखड़ गया। उससे बहस हुई तो कोकिला रात भर रोई। उल्टा तीर ले लिया। उसने पूरे एक माह मुझसे बात नहीं की, मैंने जस-तस मनाया, सालेजी को फोन कर सॉरी कहा, तब जाकर घर में शांति हुई। हां, सारे घटनाक्रम में मोती का पानी तो उतर ही गया।
सड़क पर एक बार किसी ने मेरा स्कूटर ठोक दिया। मैंने उसकी वो गत बनाई कि सांप सूंघ गया। मैं उसकी मां-बहन पर उतर आया। सामने वाला लंगड़ा था, उसके अपंग होने पर करूणा करने की बजाय मैंने वार्ता में बार-बार लंगड़े शब्द का प्रयोग किया। बस फिर क्या था, लंगड़ा बिगड़ गया। उसने वहीं खड़े कांस्टेबल को शिकायत की, मैंने उसे भी बुरा-भला कहा तो वह भी उखड़ गया। बात तब खत्म हुई, जब कांस्टेबल ने आंखें तरेर कर कहा, “पुलिस वाले से गाली-गलौच का अर्थ जानते हो। सीधे अमुक धारा में बुक करूंगा, जमानत तक नहीं मिलेगी।” मुझे सांप सूंघ गया। वहां खड़ी जनता ने भी उन्हीं का पक्ष लिया, लोई उतर गई, मैं आंख नीचे कर घर आया।
धीरे-धीरे मुझे लगा लोग मुझसे कतरा रहे हैं। कुछ मुझे देखकर इग्नोर करने लगे तो कुछ उतना ही बात करते जितना किसी निंदक से की जाती है। मैं मन ही मन घुटकर रह जाता। भीतर से कोई चीख-चीखकर कहता, “शर्मा! तुम्हारी यह दुर्गति अन्य किसी ने नहीं स्वयं तुमने की है।” मैं लज्जा के मारे भीतर ही भीतर सिमट जाता।
इसी दरम्यान प्रमोशन का परिणाम आया। वही होना था जो हुआ, मैं रह गया एवं त्रिवेदीजी पार हो गए। किसी अन्य का होता तो मैं सहन कर लेता पर त्रिवेदीजी का प्रमोशन मेरी आत्मा को बेध गया। हिड़किये बॉस ने हिड़किये कुत्ते से भयानक हरकत की। मेरा पानी उतर गया। रात स्वप्न आते तो ऐसे जिसमें त्रिवेदीजी कह रह होते, ‘शर्माजी सुधर जाइये फिर न कहना पड़ौसी होकर सीआर बिगाड़ दी।’ मैं सकपका कर उठ बैठता। कोकिला मेरी मनोदशा एवं इसके कारण दोनों जानती थी पर चुप रहती। ऐसी दशा में कहने अथवा समझाने का अर्थ था मुझसे सीधा पंगा लेना, घर में कोहराम होना एवं इससे घर की शांति आगे कई दिनों के लिए भंग होना तय था।
आज फिर इतवार था। इन दिनों रात तीन-चार घण्टे ही नींद आती। कहां कुंभकरण की तरह सोता था कहां सहमे खरगोश की तरह जब-तब उठ जाता। आज फिर तड़के नींद खुल गई। कोई पांच बजे होंगे कि डोर बेल बजी। मैं दरवाजे तक आया। आश्चर्य ! बड़े भाईसाहब खड़े थे। मैं उन्हें खूब आदर देता हूं, मैं उनकी अटैची लेकर भीतर आया । वे नित्य कर्म से निवृत होकर बोले, ‘मेरी मोर्निंग वॉक की आदत है, आज तेरे साथ चलूंगा। और हां, आज हम किले के नीचे वॉक करेंगे, इसी बहाने वहां स्थित मंदिर में दर्शन भी कर लेंगे। मैं आनन-फानन बाथरूम में घुसा, बाहर आया, तब तक वे कोकिला से जाने क्या घुस-फुस करते रहे। कोकिला उन्हें आदर भी देती है, घर की तमाम समस्याएं भी उनसे बेहिचक बांटती है।
मंदिर दर्शन के बाद किले के नीचे हम दोनों घूम रहे थे। सवेरे की ठण्डी, ताजा हवाएं मन को सुकून दे रही थीं। वहां से शहर का विहंगम दृश्य अत्यन्त सुंदर लग रहा था। अपनों के साथ होकर अपनी खास बातें करना कितना सुख देता है। भाईसाहब से बचपन की अनेक बातें करते हुए मुझे लगा मेरा हृदय मोम की तरह पिघल रहा है। ओह! वे घर कितने सौभाग्यशाली होते हैं जहां बड़ों का सानिध्य मिलता है।
मैं इसी उधेड़बुन में था कि भाईसाहब यकायक रुक गए। वे किले की दीवार के कोने में उल्टी लटकी चमगादड़ों को देख रहे थे। भाईसाहब अपने शहर की यूनिवर्सिटी में जीवविज्ञान के प्रोफेसर हैं, मैंने उन्हें इस तरह रुककर अनेक बार ऐसे जीवों को देखते हुए पहले भी देखा था। ऊपर देखते हुए उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा एवं बोले, “तुम्हें पता है चमगादड़ उड़ने वाला स्तनधारी प्राणी है एवं अन्य निशाचरों की तरह रात में ही क्रियाशील होता है। यह सर्दियों में महीनों सोये रहता है। चमगादड़ बहुधा अंधेरी गुफाओं, पुराने निर्जन स्थानों में उलटे लटके रहते हैं।” यह सब कहते हुए भाईसाहब इन चमगादड़ों में जाने क्या-क्या देखने लगे थे। मेरी जीवविज्ञान में कोई खास रुचि नहीं थी। बस हां हूं किए जा रहा था। यकायक मेरे दिमाग में एक प्रश्न कौंधा, मैं उनकी ओर मुखातिब होकर बोला, “भाईसाहब ! सभी जीव सीधे खड़े होते हैं, सीधे सीधे बैठते हैं, चलते हैं, ये चमगादड़ उलटे क्यों लटकते हैं?” मेरा प्रश्न सुनकर भाईसाहब जोर से हंस दिये। उनकी हंसी गूढ़ रहस्य से भरी थी। वे गर्दन नीचे कर मेरी ओर मुड़े और बोले, ‘यह तो कर्मों की खेती है भाई ! इसे तो काटना ही पड़ता है।’ भाईसाहब अब गंभीर थे।
‘मतलब ?’ मेरी आँखें आश्चर्य से फैल गई। उलटे लटकने से भला इसका क्या संबंध हो सकता है ?
“विधाता का बंटवारा निष्पक्ष है भाई ! उसके न्याय एवं निर्णय में कोई त्रुटि नहीं होती।” मुझे उत्तर देते हुए भाईसाहब ने जेब से रूमाल निकाला एवं अपना चश्मा उतारकर साफ करने लगे।
“मैं आपकी बात नहीं समझा।” मेरा प्रश्न अब रहस्य में तब्दील हो गया।
“इसका उत्तर मेरे शास्त्र में नहीं, हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थों में है। कहते हैं जो जैसा करता है वैसा पाता है। जो झूठ बोलता है अगले जनम में कौवा बनता है, जो चालाकियां कर लोगों को लूटता है वह लोमड़ी बनता है और जो आदतन लोगों की निंदा कर उन्हें अपमानित करता है, वह अगले जन्म में चमगादड़ बनता है। उसके उलटे बोलने की सजा उसे उलटे लटककर देनी होती है। मानस, उत्तरकाण्ड में तो तुलसी ने स्पष्ट लिखा है, सब कै निंदा जे जड़ करहीं, ते चमगादुर होइ अवतरहि।” उत्तर देते हुए भाईसाहब ने अपना चश्मा पुनः आंखों पर चढ़ा लिया।
मेरे पांवों तले जमीन सरक गई।
यकायक मुझे लगा घड़ी की सुइयां तेजी से आगे की ओर घूम रही है एवं मैं इन्हीं चमगादड़ों में एक किले के कोने में उलटा लटक रहा हूं।
लौटते हुए पूरे रास्ते भाईसाहब ही बोल रहे थे।
मेरे भीतर तो सन्नाटे उतर गए थे।
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30.04.2020