रजनी जब तक जिंदा थी, घर की मुर्गी दाल बराबर थी पर मृत्यु के बाद मेरी आंखों में उसका दर्जा भगवान के बराबर हो गया है। उसकी स्मृतियाँ हर पल हृदय को मसोसती रहती है। दिन-रात हर घड़ी उसके वियोग में तड़पता रहता हूँ। बिना पंखों के पक्षी अथवा बिना जल के मछली का जो हाल होता है, वही हाल अब उसके बिना मेरा हो रहा है। काश! मैं उसे जीते जी पहचानता। मृत्यु के बाद किसी को जाना तो क्या जाना।
वह थी जब तक जीवन में उमंग थी, स्फूर्ति थी। उसका खिला चेहरा, अनुरक्त नेत्र, मधुर वाणी मुझ पर मोहिनी मंत्र का असर करते। जीवन की सारी वेदना उसके आलिंगन में पिघल जाती। अब तो घर भूतों का डेरा लगता है। वह सचमुच प्रेम एवं अनुराग की सजीव मूर्ति थी। उसके जाने के बाद मैंने जाना कि सूर्य अपनी प्रभा एवं चन्द्रमा चांदनी के बिना क्या है ? जीवन के सारे शौक-मौज उसके साथ ही समाप्त हो गये। वह मेरी भूख और नींद भी साथ ले गयी। अब तो यहाँ-वहाँ उदास पड़ा उच्छ्वासें भरता हूँ। उसकी तस्वीर देखता हूँ तो एक गहरी टीस हृदय में उभरती है। अब कर भी क्या सकता हूँ बस हाथ मल कर एवं सिर धुन-धुन कर ऐसे पछताता हूँ जैसे कृपण का धन खो गया हो।
सचमुच ईश्वर ने मुझे मेरी बेकद्री की सजा दी। आदमी के कर्म परछाई की तरह उसके पीछे लगे रहते हैं। उसकी याद आते ही छाती शोक से भर जाती है। अंतरात्मा सहस्रों जिह्वा बनकर पुनः पुनः कहती है , तुम्हारी ही लापरवाही से उसका निधन हुआ। तुमने स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। वह दस कदम आगे की सोचती थी, पर तुम उसकी सुनते कब थे ? क्या उस दिन भी उसने तुम्हे आगाह नहीं किया था?
उसके मृत्यु का दृश्य आज भी हृदय को झकझोर देता है। मैंने उसके साथ जो कुछ किया हो, पर उसकी आँखों में मरते वक्त तक कोई विरोध नहीं था। संसार की असारता कठोर सत्य बनकर उसकी आँखों में खड़ी थी परन्तु चेहरे पर किसी प्रकार की घृणा, विद्वेष का अंश मात्र नहीं था। खून से लथपथ, मरते समय भी गृहस्थी की जिम्मेदारी पकड़े थी, ‘‘राकेश! अपना एवं बच्चों का ख्याल रखना।’’ उसका हाथ मेरे हाथों में लेकर मैं फूट पड़ा था।
उसे स्वर्गवासी हुए अब छह माह होने को आये। बगीचे से फूल चुनकर रोज उसकी तस्वीर पर माल्यार्पण करता हूँ, हालांकि वह हमेशा कहती थी मरने के बाद घर में तस्वीर टांगकर स्वांग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जीते जी एक फूल का उपहार भी मेरे हृदय को सुगन्ध से भर देगा पर मरने के बाद सारी बगिया के फूूल भी ले आओ तो उसका क्या महत्व है ? पहले वही बातें जिनका मैं उसके जीते जी विरोध करता था, खरी खोटी सुनाता था, आज रह-रह कर याद आती है। उसका दृष्टिकोण हर बात पर कितना व्यापक एवं दूरदर्शितापूर्ण था। मैं उसकी हर बात हवा में उड़ा देता था। वहीं बातें अब यादें बनकर हृदय में बसी है। क्या जीवन और मृत्यु का फासला इंसान के सोचने के तरीके में इतना अंतर कर देता है? रजनी, मुझे क्षमा करना! मैंने दंभवश, पुरुषोचित अहंकारवश तुम्हें वो आदर नहीं दिया जिसकी तुम हकदार थी पर एक बात आज भी ईश्वर को साक्षी रखकर कहता हूँ कि मैं मन ही मन तुम्हें बहुत प्यार करता था, बहुत आदर देता था। सिर्फ तुम्हें छेड़ने के लिये, तुम्हारे विचार-वर्तुलों की चंचलता एवं फैलाव का आनन्द लेने के लिये अकारण शेखी बघारता रहता था। दरअसल तुम मुझसे कहीं अधिक बुद्धिमान एवं गुणी थी, उसी हीनता से ग्रस्त होकर तुम्हें भली बुरी सुना दिया करता था।
शादी के दस वर्ष पश्चात् पत्नी का निधन एक ऐसी स्थिति होती है जैसे खड़ी फसल को पाला मार गया हो। अधेड़ उम्र में आते-आते मनुष्य पत्नी का दास बन जाता है। वह होता घर का मालिक है पर छोटे-बड़े अनेक कार्यों को लेकर पत्नी का गुलाम बन जाता है। जीवन की आपाधापी में वह सोच भी कहां पाता है कि इस जीवन यात्रा को सुगम बनाने में किसका कितना योगदान है ?
आज सुबह शर्ट का बटन टूट गया। बिटिया स्कूल जा चुकी थी। सुई-धागा कुछ नहीं मिला।मैं खीज कर रह गया। आज तुम होती तो सरपट दौड़ी आती। मैं चाहे डाँट कर कहता, ‘देखो! शर्ट पर बटन नहीं है,’ पर तुम अपनी सहज मुस्कराहट के साथ कार्य पूरा कर देती। किस तरह से घर के सारे कार्य तुम्हारे होते एक सुर, एक व्यवस्था में बंधे थे। अब तो अंधेर नगरी चैपट राजा वाली हालत है।
प्रिये! कल रात मैं हमारे प्रथम मिलन से तुम्हारे निधन तक के वैवाहिक इतिहास का आकलन कर रहा था। इन दस वर्षों में हमारा रिश्ता कई मुकामों से गुजरा। विवाह के प्रारंभिक पाँच वर्ष तो ऐसे गुजरे कि समय बीतने तक का पता नहीं चला। तुमने मुझे प्रेम रस से सरोबार कर दिया। रसोई का सामान, गद्दे, सोफा, मिक्सर, डाईनिंग टेबल एवं न जाने कितने सामान हमने मेहनत एवं सूझबूझ से बचत करके बसाये। घर की एक-एक वस्तु पर मैं आज तुम्हारे त्याग एवं दूरदर्शिता की छाप देखता हूँ। बच्चे हमें प्रेम के प्रतिफल रूप में मिले ।अब दोनों बच्चों को सुबह स्वयं तैयार करता हूँ। रवि एवं रेखा अक्सर तुम्हें याद करते हैं। कई बार मेरी हालत देखकर चुप रह जाते हैं। लेकिन वे भी अब समझ गये हैं कि उन्हें आगे किस तरह जीना है। बच्चे मां में ही अपना संपूर्ण संसार देखते हैं।
एक छोटी-सी गलती, एक गलत निर्णय ने मैंने तुम्हें मौत के किनारे पहुंचा दिया। उस दिन पिकनिक जाते हुए तुमने बार-बार कहा था आप कार ड्राईव न करे, मुझे चलाने दें! आपको ठण्डे झौंकों में नींद आ जाती है, पर मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी। बहस करना तुम्हारी फितरत में नहीं था। तुम चुपचाप आगे मेरे समीप आकर बैठ गयी। फिर वही हुआ जो तुमने सोचा था। मुझे स्वयं नहीं मालूम मैंने कब सामने आती ट्रक को देखकर स्टीयरिंग उसकी तरफ ही घुमा दिया। ट्रक का एक हिस्सा सीधा तुम्हारी साईड से टकराया। तुम जोर से चिल्लायी भी, ‘‘राकेश सम्भलो!’’ पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। यही गनीमत थी कि अन्य किसी को चोट नहीं लगी। वह दृश्य याद आते ही आत्मा आज भी दहल जाती है। काश! मैं तुम्हारी बात मान लेता तो आज तुम्हें खोने के गम में यूं न जलता।
तुम जिन्दा थी तब तक तो माँ तुम्हें घर की लक्ष्मी कहती थी, पर अब मेरी हालत देखकर अलग तरह से सोचने लगी है। कल कह रही थी, ‘‘बेटा! आगे पहाड़-सी उम्र कैसे काटोगे? बच्चों को कौन सम्भालेगा? अप्रत्यक्ष तरीके से मुझे फिर शादी करने को कहती है। रजनी! तुम्हीं बताओ क्या यह सम्भव है? शादी के बाद हमने एक दूसरे सेे यही तो वादा किया था कि हम जीवनपर्यन्त एक दूसरे के होकर रहेंगे। कोई दुर्घटना भी घट जाये, दूसरी शादी नहीं करेंगे। प्रेम आत्म उत्थान का मार्ग है।मात्र शारीरिक संबंध एवं सुविधा प्रेम कैसे हो सकता है ? मैंने माँ को स्पष्ट कह दिया है ऐसा सोचना भी नहीं पर माँ है कि नित्य इस टेप को खोल देती है।
पडौसी शर्माजी की बहिन नंदिनी ने अब मुझ पर डोरे डालना शुरु कर दिया है। बत्तीस वर्ष की उम्र में उसके कुँवारेपन ने एक नयी अंगड़ाई ली है। शर्माजी ने उसके विवाह के लिये भगीरथ श्रम किया, कहाँ-कहाँ की खाक नहीं छानी पर उनके सारे प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए। मेरे एकाकीपन ने नंदिनी के हृदय में आशा का एक नया दीपक जलाया है। नयी संभाव्यताएँ उसके विचार पटल पर दस्तक देने लगी हैं। तुम ही तो कहती थी रजनी कि आशा हमारा जीवन-रथ का ईंधन है, हमारी संचालक शक्ति है, उत्साह का आधार है। मेरी तन्हाई उसके हृदय में शहनाई बजाने लगी है। उसका चिर कुंवारापन पुनः उमंग से भर गया है। किसी ने ठीक कहा है कि कुँवारी के भाग्य जगते हैं तो विवाहिता भी मर जाती है।
पहले तो वह सहानुभूतिवश कभी इडली, कभी डोसे आदि बच्चों के लिए उपहार भेजती रही। अब मुझे ऐसी हसरतभरी आँखों से देखती है कि मैं धैर्य खो बैठता हूँ। कल शाम मुझे उसने चाय पर भी बुलाया।हम दो घण्टे बतियाते रहे।कह रही थी, ‘‘ यह भी कैसा जीवन है ? पहाड़-सी उम्र अकेले कैसे काटूंगी ? सहारा तो हर एक को चाहिये। धरती भी किसी अवलम्ब पर टिकी है। लम्बी तन्हाई त्रासदी से कम नहीं होती।” रजनी! ऐसे कहते हुए उसकी निगाहें मेरे मुँह पर ऐसे टिक गयी जैसे काँटा डालकर मछली खींचना चाहती हो। उसकी आँखें लाल हो गयी एवं उसे देखकर मैं चूने की तरह सफेद। मैं झेंपकर उठ तो आया पर अब स्वयं को भी प्रेम विकल पाता हूँ। अंतःस्तल में जैसे कोई गुदगुदी कर रहा हो।
पिछले बीस रोज से नियमित उसके घर जा रहा हूँ। मैं भी क्या करूँ? क्रिया के बाद प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। कल तो उसने अद्भुत साहस का परिचय दिया। मुझसे बात करते हुए मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया, बोली, ‘‘राकेशजी! मैं आपको हृदय से चाहती हूँ। अब तो आप ही मेरा सहारा बन सकते हैं।’’ मेरी नसों में बिजली दौड़ गयी। रात सो नहीं पाया। तुम्हारी स्मृतियों एवं इस हसीन दर्द के बीच महाभारत छिड़ गया। मुझमें ऐसी चपलता एवं सजीवता पुनः कहां से आ गयी ? उसकी सुर्ख आँखें धमनियों में एक नया रक्त संचार कर गयी। क्या आदमी का इतना ही ईमान है?
मन अब नये-नये तर्क सुझाने लगा है। जन्म-मरण, सुख-दुःख, अपनों से वियोग, नयों से मिलन सब काल के, भाग्य के अधीन है। अगर ईश्वर तुम्हारे हृदय में प्रेम के नये अंकुर खिला रहा है तो तुम कर ही क्या सकते हो ? क्या तुम उसका लिखा मिटा सकते हो? क्या यूं सड़-सड़ कर जीना ही जीवन है? क्या अंधेरे में प्रकाश खोजना पाप है? सुखी होना अपराध तो नहीं ? ईश्वर ने हमें समुचित शक्ति दी है कि हम किसी भी स्थिति का मुकाबला करें, दुःख के गहन अंधकार में एक नयी किरण की तलाश करें। ईश्वर ने इसके ठीक विपरीत गिरने का स्वातंत्र्य भी दिया है। चयन तो हमें ही करना होगा। आदमी का सोच आदमी की सुविधा है।
तुम्हारे स्वर्गवास को एक वर्ष होने को आया। तुम्हारे चित्र पर आज माँ, रवि, रेखा एवं मेरी दूसरी पत्नी नंदिनी ने माल्यार्पण किया है। क्षमा करना रजनी! आदमी का क्या धर्म। सारे संबंध प्राण रहने तक के हैं। जग में देखत ही का नाता। तुम ठीक ही कहती थी, राकेश! तुम वादा न निभा पाओगे। औरत आदमी के नाम पर उम्र निकाल लेती है पर आदमी ‘घोड़े की जात’ है। एक घोड़ी गयी, दूसरी आयी। आदमी पुनः नयी दुनियाँ बसा लेता है। पुरुष का प्रेम एक बहाव है, औरत का ठहराव। आसमान को सीमाओं मे कौन बांट सका है, धरती ही सीमाओं में बँटी है।
तुम सच कहती थीं, रजनी!
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02.08.2002