गूंगे देव

अनुभा एवं राहुल के प्रणय प्रसंगों की कानाफूसियां अब परवान चढ़ने लगी थी।

अनुभा के परिवार वाले इस तथ्य से परिचित थे लेकिन यह सोचकर आश्वस्त थे कि दोनों ने जब परिणय-सूत्र में बंधने का निर्णय ले लिया है तो साथ आने-जाने में हरजा क्या है। आज नहीं तो कल यह बात जगजाहिर होनी ही है। प्रेम-विवाह अब कौन-सी विशिष्ट घटना रह गए हैं ? हर चौथे दिन इसके-उसके प्रेम संबंधों की चर्चा चलती रहती है। लड़के-लड़की अगर एक-दूसरे का चयन करने में सक्षम हैं एवं करते भी हैं तो इसमें गलत क्या है ? अब तो माता-पिता भी ऐसे संबंधों को प्रोत्साहन देने लगे हैं। समाज की आंख की अब किसे परवाह है ? जमाने की लय-ताल पर जीने को सभी मजबूर हैं।

अनुभा जानती है कि यह सब अचानक घटित हुआ था। दो माह पूर्व हुई काॅलेज पिकनिक में दोनों बातें करते कितनी दूर निकल गए थे। उस दिन जब राहुल ने अनुभा का हाथ पकड़कर कहा अनुभा! मैं तुम्हें अपने मन-विचारों के बहुत करीब पाता हूँ एवं अनायास तुम्हारी ओर खिंचता हुआ महसूस कर रहा हूं’ तो अनुभा आश्चर्यचकित रह गई। कहां राहुल एवं कहां वह ? यह सचमुच राजा भोज एवं गंगू तेली वाली बात थी। क्या राहुल जैसे बड़े घर की मखमली महत्वाकांक्षाओं में टाट का पैबंद चल सकेगा ? यह सोचकर वह कांप उठी। उसे अपने भाग्य पर यकीन नहीं हो रहा था।

जहां तक रूप-गुण-सौन्दर्य की बात है निश्चय ही अनुभा बेमिसाल थी। तपे हुए स्वर्ण की तरह उसका रूप किसी भी युवक को बांधने के लिए पर्याप्त था। उसका जीरो फिगर, ऊँचा कद, तराशी भौंहे, मीठी वाणी एवं विशिष्ट अदाएं उस वर्ग में रखी जा सकती थी जिसे युवक ‘कातिल’ कहकर गरम सांसें भरते हैं। अगर कोई विसंगति थी तो यही कि वह अत्यंत निर्धन घर से थी। उसके पिता चाय का ठेला लगाकर, बामुश्किल पांच लोगों के परिवार का लालन-पालन करते थे। इन पांच में उसकी मां, एक छोटी बहन एवं उससे चार वर्ष छोटा एक भाई भी था।

राहुल भी  कम स्मार्ट नहीं था। गोरा रंग, बैल जैसी बड़ी-बड़ी आंखें, शानदार कद-काठी एवं बोलने का जादुई अंदाज उसके व्यक्तित्व को अनूठा सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थे। वह अक्सर शानदार गाड़ी में आता एवं उसके कपड़े भी महंगे, रईसी अंदाज के होते। आर्थिक-सामाजिक मुकाम पर राहुल एवं अनुभा नदी के दो किनारे थे लेकिन इस संसार का एक विशिष्ट आश्चर्य यह भी है कि संसार दो विरोधाभासी ध्रुवों के आकर्षण पर टिका है। अमीरी दरिद्रों को लुभाती है तो गरीबी के कुछ विशिष्ट गुण एवं दुर्लभ सुख अमीरों में कसक पैदा करते हैं। चांदी के खिलौने से खेलने वाले मिट्टी के खिलौनों को तकते हैं एवं मिट्टी के खिलौने वाले चांदी के खिलौनों को देखकर ललचाते हैं। जिसके पास जो है वह मिट्टी है एवं जो नहीं है वह सोना है। अनुभा एवं राहुल के आकर्षण का मुख्य बिंदु शायद यही रहा होगा ? अनुभा के विनम्र एवं मृदु व्यवहार ने राहुल को उसका दीवाना बना दिया। प्रेम परवान चढ़ने के साथ दोनों अक्सर मिलने लगे। अनुभा की सौम्यता एवं राहुल की बिंदास प्रकृति के चलते उनके रिश्ते उन हदों को पार गए जहां दो प्रेमी विदेह हो जाते हैं।आकाश की महासत्ता के नीचे खड़े इंसान के पास अनेक बार समर्पण के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं होता। प्रेम एवं ऊंचाई की इस महासत्ता में अनुभा भी बह गई। 

अनुभा ने अनेक बार राहुल को समझाने का प्रयास किया कि तुम इन संबंधों के बारे में अपने मां-बाप को बता दो लेकिन हर बार वह यही कहता कि मैं उनका इकलौता बेटा हूं, उन्हें यह रिश्ता झक मारकर मानना होगा। ठीक समय आने पर मैं सबकुछ बता दूंगा, अभी पंगा लेना ठीक नहीं है। अपने मनचले स्वभाव के चलते वह किसी बात को गंभीरता से नहीं लेता था। गांभीर्य एवं परिपक्वता जैसे गुण निर्धन पृष्ठभूमि में अधिक मुखर होते हैं।

समय अब ‘उचित’ की परिधि भी लांघ चुका था। आज जब अनुभा ने राहुल को बताया कि वह गर्भ से है तो राहुल भौंचक्का रह गया। मस्ती में मुंदी आंखें चौड़ी हो गई। अब राहुल के मां-बाप का अवगत होना अपरिहार्य था।

राहुल के माता-पिता ने यह सुना तो उन पर ग़ाज गिरी। वे पहले ही राहुल के लिए किसी को कौल कर चुके थे बस राहुल को बताने के लिए सही समय का इंतजार कर रहे थे। वह व्यक्ति भी उन्हीं की तरह धन-वैभव से संपन्न था। यह घटना तो दूध में मक्खी की तरह आ गई। इस बात को लेकर बाप-बेटे में अच्छी तकरार हुई एवं अंत में जब राहुल की मां ने स्त्री सहज अमोघ अस्त्र का प्रयोग किया कि यह शादी हुई तो वह जहर खा लेगी, राहुल बिदक गया। राहुल के पिता ने स्पष्टतः कह दिया कि शादी-विवाह बराबरी वालों में शोभा देते हैं। फकीरों की मदद की जा सकती है, उन्हें घर में स्थान नहीं दिया जा सकता। राहुल के पिता पहुंचे हुए व्यक्ति थे। साम-दाम हर नीति का प्रयोग कर उन्होंने अनुभा के पिता को दूर अन्य शहर भिजवाने का बंदोबस्त कर लिया। राहुल के रंग बदलते ही अनुभा गहरे अवसाद में चली गई, उसने खून के घूंट हलक से उतार लिए। हां, शहर छोड़ने के पूर्व अनुभा ने अपने पिता को स्पष्ट कह दिया कि वह न तो अब शादी करेगी न ही गर्भ गिराएगी। दूसरे शहर में विधवा बताकर ही उसका परिचय करवाया जाये।

इसी दरम्यान राहुल का विवाह धूमधाम से पिता के रईस मित्र की पुत्री दीपा से हो गया।

भाग (2)

पुरुवंश का विस्तार करने वाले अनेक यशस्वी राजाओं में दुष्यंत का नाम लोकविदित है। उनका राज्य दूर दरांत तक फैला हुआ था। राजा एवं प्रजा दोनों के धर्मभीरू एवं सत्यपथ पर रहने के कारण उस राज्य में प्रजा सहज ही सुखी थी। छल, कपट, झूठ एवं चोरी आदि दुर्गुणों का वहां सर्वथा अभाव था। उस राज्य में मेघ समय पर पानी बरसाते थे, अनाज रसयुक्त होते थे एवं पृथ्वी सभी प्रकार के पशुधन एवं रत्नों से सुसंपन्न थी। दुष्यंत का समस्त राज्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक त्रिदोषों से रहित था। दुष्यंत का पराक्रम, शौर्य एवं रूप-दर्प लोकविख्यात था। कहते हैं वे रूप-बल में भगवान विष्णु एवं तेज में सूर्य के समान थे।

एक बार युवक भूपति दुष्यंत किसी हिंसक पशु का शिकार करते हुए घने जंगल में भटक गए। भूख एवं प्यास से व्याकुल वे बहुत देर तक इधर-उधर घूमते रहे। उनका अश्व भी प्यास के मारे बेहाल हो गया। किसी तरह धीरे-धीरे चलकर दुष्यंत घने जंगल की उपत्यका में स्थित एक आश्रम में आए जिसके दूसरे छोर पर एक नदी बह रही थी।

अपने अश्व को नदी की ओर छोड़ दुष्यंत उस आश्रम में आए तो वहां की शोभा देखकर चकित रह गए। उस सुरम्य आश्रम में भांति-भांति के पेड़ लगे थे। यह सभी वृक्ष फल-फूलों से लदे थे। अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी आश्रम एवं उससे सटी नदी के किनारे किलोल कर रहे थे। आश्रम को सूना देख वे जोर से बोले, ‘यहां कोई है ?’

दुष्यंत के शब्दों को सुनकर तापसी वेष धारण किए एक मूर्तिमान सुंदरी कन्या आश्रम के भीतर से निकली एवं हाथ जोड़कर मधुरवाणी में बोली, ‘अतिथि! आपका स्वागत है।’ श्याम नेत्र, क्षीण कटि, मनोहर मुस्कान एवं अपूर्व शोभा से सम्पन्न उस सर्वांगसुन्दरी को देख दुष्यंत ठगे-से रह गए। अनुपम रूप एवं यौवन से सम्पन्न वह कन्या किसी देवांगना से कम नहीं थी।

आसन, पाद्य एवं अर्घ्य से उचित समादर करने के पश्चात् उस कन्या ने राजा से पूछा, ‘आप कौन है, कहां से आए हैं एवं आपका अभीष्ट क्या है ? महर्षि कण्व के आश्रम में आप किस प्रयोजन की सिद्धि हेतु पधारे हैं ? मैं उन तपोधन ऋषि की पुत्री शकुंतला हूं एवं मेरे पिता फल-पुष्प लेने आश्रम से बाहर गए हैं। आगंतुक! आप भी अपना परिचय देकर मुझे कृतार्थ करें।’

‘सुलोचने! मेरा नाम दुष्यंत है एवं मैं एक हिंसक पशु का शिकार करते हुए इस आश्रम में  चला  आया  हूं। मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि यह तपोधनी कण्व का आश्रम है। निश्चय ही ऐसे आश्रम में तुम जैसी अबला अकेली रह सकती है…….’

दुष्यंत ने अभी बात पूरी भी नहीं की थी कि शीतल हवा के एक तेज झौंके से शकुंतला का आंचल नीचे गिरा एवं उसे शीघ्रता से व्यवस्थित करने में उसकी समस्त रूप-राशि उद्घाटित हो गई। इस अनुपम सौंदर्य को देख राजा अपनी सुध- बुध खो बैठे। उनका कामभाव प्रदीप्त हो उठा लेकिन शीघ्र ही स्वयं पर नियंत्रण कर बोले, ‘शुभे! मैं अनायास ही तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा हूं। सुंदरी! मैं तुम्हें पाने को उद्यत हूं। तुम अभी, इसी समय मुझसे गंधर्व विवाह कर इस प्रदेश के राजा को धन्य करो। हमारी पवित्र आत्माएं इस परिणय की साक्षी होंगी।’

राजा के रूप-दर्प से अभिभूत एवं आकृष्ट शकुंतला ने उनके प्रस्ताव का अनुमोदन कर उस निर्जन आश्रम में उनकी प्रदक्षिणा की एवं तत्पश्चात् उनके सीने से इस तरह लिपट गई जैसे लता पेड़ की मजबूत शाखा से लिपट जाती है। आश्रम में बहती त्रिविध बयार ने दोनों की कामेच्छा को शिखर पर चढ़ा दिया एवं देखते ही देखते एक दूसरे के दृढ़ आलिंगन में बद्ध दोनों विदेह हो गए। कब वस्त्र गिरे एवं कब सम्मान, दोनों को इसका बोध ही न रहा। प्रणयकोपा एवं कामकोपा जगत में किसके अधीन रहे हैं ?

कुछ समय पूर्व राजा से निःशंक वार्ता करने वाली मानिनी अब राजा के आगे लज्जा से नत खड़ी थी। ऋषि अब तक आश्रम नहीं पहुंचे थे। सांझ का झुरमुटा फैलने लगा तो राजा ने जाने की इच्छा जाहिर की। जाते हुए उन्होंने शकुंतला के कंधे पर हाथ रखा एवं उसे आश्वस्त करते हुए बोले, ‘तुम चिंता न करो! पवित्र आत्माओं एवं ईश्वर की साक्षी में हमने गंधर्व विवाह किया है। अभी मुझे चलना होगा अन्यथा मेरे परिवारजन, नगरजन एवं सैनिक संतप्त होकर मुझे ढूंढ़ने निकल जाएंगे। मैं चतुरंगिणी सेना सहित सम्मानूपर्वक तुम्हें लेने आऊंगा। शीघ्र ही मेरे इस विस्तृत राज्य की तुम महारानी बनोगी।’ इतना कहकर राजा अश्वारूढ़ हो अपनी राजधानी को चले गए।

काल निरंतर प्रवाहमान है। उसकी गति का कौन उल्लंघन कर सकता है ? वह तो निर्बाध, बेरोकटोक बहता ही रहता है। इस घटना को दस वर्ष होने को आए। दुष्यंत एवं शकुंतला का पुत्र भी अब आठ वर्ष का हो चुका था। कहते हैं यह बालक इतना बलिष्ठ था कि वन के जंगली सिंहों तक के जबड़े खींच देता था।

शकुंतला ने दुष्यंत का चिर इंतजार किया लेकिन देवकोप से राजा उस प्रतिज्ञा एवं घटना दोनों को भूल गए। व्यथित शकुंतला तब अपने पुत्र को लेकर दुष्यंत के दरबार में गई एवं तीक्ष्ण स्वर में बोली, ‘राजन्! आपने ऋषि आश्रम पर मेरे साथ समागम के पहले जो प्रतिज्ञा की थी उसका स्मरण कीजिए। उसी प्रतिज्ञा का विश्वास कर मैंने वर्षों आपकी प्रतीक्षा की है। मेरे साथ खड़ा यह तेजस्वी बालक आपका पुत्र है एवं अपने पिता से मिलने को आतुर है। आश्चर्य ! आप यह सब भूल गए ?’ कहते-कहते क्रोध एवं अमर्ष से उसकी आंखें लाल हो गई, ओठ फड़कने लगे एवं वह टेढ़ी चितवन से राजा की ओर ऐसे देखने लगी मानो उन्हें जला देगी।

‘दुष्ट स्त्री! मुझे ऐसी कोई घटना याद नहीं है। तुम कौन हो? तुम्हारा मुझसे कब संबंध स्थापित हुआ ?’

‘महाराज! मैं कण्व ऋषि की पुत्री शकुंतला हूं। दस वर्ष पूर्व आप शिकार करते हुए उनके आश्रम में आए थे तथा मुझसे गंधर्व विवाह कर मुझे सहवास के लिए प्रेरित किया था। आज अपने कुल, धर्म, शील एवं सत्यवादिता का आश्रय लेकर मैं आपकी शरण में आई हूं। मैं सर्वथा निरपराध हूं। आप मेरा त्याग न कीजिए।’ कहते-कहते चिर तपस्या द्वारा संचित उस तपस्विनी का तेज उसके चेहरे पर उतर आया। 

‘दुष्ट तपस्विनी! क्या उस समय वहां कोई था ? इतने बड़े आश्रम में कोई तो होगा?’

‘उस निर्जन आश्रम में उस समय कोई नहीं था। हम दोनों ने हमारी आत्माओं की साक्षी में यह विवाह किया है। अपने हृदय पर हाथ रखकर आप सच-सच कहें कि क्या मैं झूठ बोल रही हूं ? अपने असली स्वरूप को छुपाकर आप अपनी आत्म अवहेलना क्यों कर रहे हैं ? आपके हृदय में स्थित अंतर्यामी परमात्मा से पूछिए कि क्या ऐसा नहीं हुआ था ? अपनी आत्मा का अपहरण कर आप आत्मवंचक क्यों बन रहे हैं ? धरती, आकाश, सूर्य, वायु सभी तो हमारे प्रणय के साक्षी थे। राजन्! ईश्वर की साक्षी में किए इस वरण को आप न ठुकराएं। दरिद्र एवं पतित तक अपनी पत्नी का तिरस्कार नहीं करते, आप राजा होकर ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’

‘लगता है तुम्हें मतिभ्रम हो गया है। क्या तुम्हें राजकोप का किंचित् भय नहीं?’

‘सत्य को किसी का भय नहीं होता राजन्! सत्य परमात्मस्वरूप है। इस संसार में सत्य से उत्तम धर्म एवं झूठ से तीव्रतर कोई पाप नहीं है।’ कहते-कहते शकुंतला ने अपने पुत्र का हाथ पकड़कर उसे राजा के सम्मुख किया।

‘यह तुम क्या कर रही हो स्त्री!’ दुष्यंत बोले।

‘राजन्! आप मुझे नहीं इस बालक को तो पहचाने। यह आपका पुत्र मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है। देखो, यह आपकी बाहों में आने के लिए कैसी ललचायी आंखों से आपको निहार रहा है। आप ही की तरह तेजस्वी है यह। दीपक से जलने वाले दीपक की तरह यह आप ही के अंगों से उत्पन्न हुआ है। राजन् !  निर्मल सरोवर में पड़ने वाले प्रतिबिंब की तरह पुत्र पिता की द्वितीय आत्मा होता है। श्रुतियां संतति के लालन-पालन को सौ अश्वमेध यज्ञों से अधिक पुण्यदायी कहती हैं। महाराज! अपनी संतति का पालन तो निकृष्टजन एवं पशु-पक्षी तक कर लेते हैं। कौवी कोयल के अंडों तक को सेती है। चींटियाँ तक अपने अण्डों का पालन कर लेती हैं, उन्हें फोड़ती नहीं हैं फिर आप जैसे धर्मात्मा राजा ऐसा क्यों कर रहे हैं ? राजन्!  जगत् में पुत्र के सामीप्य से बड़ा सुख क्या है ? राजन्! उसका स्पर्श चंदन से अधिक शीतल एवं सुखदायी होता है। आप मेरे साथ जैसा चाहे व्यवहार करें, इस निरपराध का त्याग न करें।’ यह कहते हुए शकुंतला क्रोध से तमतमाती हुई अपने पुत्र को साथ लेकर राजा के अति समीप आ गई। उसके मुंह से कठोर श्राप निकलने ही वाला था कि आकाश एवं दशों दिशाओं को विदीर्ण करती हुई देववाणी हुई, ‘राजन्! यह तुम्हारा ही पुत्र है। ईश्वर की साक्षी में तुमने कण्व ऋषि के आश्रम में शकुंतला से गंधर्व विवाह किया था। राजचिह्न से अंकित एक अंगूठी शकुंतला को पहनाते समय तुमने उसे कहा था कि जब तक यह अंगूठी तुम्हारी अंगुली में रहेगी तुम उसे विस्मृत नहीं करोगे। दुर्योग से शकुंतला द्वारा यह अंगूठी एक दिन नदी में प्रवाहित हो गई , इसी कारण तुम सब कुछ भूल गयेे। तुम्हारे राजद्वार पर अब एक धीवर उस अंगूठी को लेकर आया है। यह अंगूठी उसे मछली का पेट काटते हुए मिली है। उसे प्राप्त कर तुम्हें सब कुछ स्मरण हो आएगा। राजन्! हम देवताओं के कहने से तुम इस बालक का भरण-पोषण करोगे, इसी कारण यह भरत नाम से विख्यात होगा। कालांतर में इसी पुत्र के नाम से इस महान देश का नाम भारत होगा।’

धीवर से अंगूठी प्राप्त कर राजा के स्मृति-पटल खुल गए। राजा ने शकुंतला एवं भरत को हृदय से लगा लिया। देववाणी ने निर्जन स्थान पर हुए गंधर्व विवाह पर सामाजिक स्वीकृति की मुहर भी लगा दी।

भाग (3)

विवाह के दस वर्ष बीतने के उपरांत भी राहुल एवं दीपा के कोई संतान नहीं हुई। खुदा जाने यह इत्तफाक था या देवकोप। दस वर्ष पश्चात् एक और अनहोनी हुई। ब्रेस्ट कैंसर के असाध्य रोग से दीपा का निधन हो गया।

राहुल अब अनुभा के द्वार पर याचक की तरह खड़ा था। उसका नौ वर्षीय पुत्र प्रथम बार अपने पिता को चकित आंखों से देख रहा था। इन दस वर्षों में अनुभा ने अनगिनत कष्ट भोगे, राहुल को भी अपना पाप दिन-प्रतिदिन सालता रहा। राहुल के लगातार अनुनय-विनय करने एवं अंततः बेहाल होकर अनुभा के चरणों में गिरने पर वह पिघल गई।

स्त्री करुणा एवं क्षमा का आगार होती है। उसका प्रेम आकाश से भी ऊँचा एवं समुद्र से भी गहरा होता है। आज पुनः एक परिवार एक-दूसरे से गले मिलकर रो रहा था।

देववाणी तब भी होती थी, देववाणी अब भी होती है।

देववाणी तब मुखर एवं अब मौन क्यों होती है ?

सत्यपथ से भ्रमित मनुष्य ने जब से अपनी आत्मा के कानों पर अंगुलियां रख ली हैं, देव गूंगे हो गए हैं।

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14.05.2009

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