कुम्हार

मैं छत पर लेटा खुले आसमान में क्या तक रहा था? 

गर्मी की रातों में खाट पर लेटे हुए चाँद-तारों को निहारने में कैसा अनिर्वचनीय सुख है। विशाल आसमान का प्रसार हमारे मन को कितना फैलाव देता है। टिमटिमाते हुए तारे आशा के असंख्य दीयों की तरह लगते हैं। आकाश इतना ऊँचा होते हुए भी इतना करीब क्यूँ लगता है? क्या हम सब के भीतर भी एक आसमान है? ऊपर के आसमान से कहीं ऊँचा, कहीं विशाल। हम ब्रह्माण्ड के अंदर हैं अथवा हमारे अंदर भी ब्रह्माण्ड है? क्या इस ब्रह्माण्ड के परे भी कई ब्रह्माण्ड हैं? तो फिर क्या हमारे भीतर भी असंख्य ब्रह्माण्ड है? कहते हैं कौशल्या ने राम के मुख में असंख्य सूर्य, चंद्र एवं ब्रह्माण्ड देखे थे। क्या एक बालक के मुँह में असंख्य ब्रह्माण्ड समा सकते हैं? यदि हाँ तो ऐसा हमारे साथ क्यों नहीं हो सकता? हम भी तो उसी वृहत् सत्ता के अंश है। इस उधेड़बुन एवं रहस्य की खोज में सदियाँ बीत गयी, सैकड़ों खप गये लेकिन आसमान की विशालता की तरह यह वृहत् प्रश्न आज भी वैसे ही अनुत्तरित है जैसे सदियों पूर्व था। 

तारों को देखते हुए मेरी नजर उस पीले तारे पर टिक गयी जो ठीक मेरे सर के ऊपर  चमक रहा था।उसे देखते ही मैं कहीं अतीत में खो गया। यादों की सुरंग के उस पार मानो एक मर्करी बल्ब जल गया। इसी तारे के बारे में तो वर्षों पूर्व मेरे अध्यापक पण्डित शिवनारायण हमें समझा रहे थे। तब हम शैक्षणिक भ्रमण पर भारत दर्शन के लिए निकले थे। पचास विद्यार्थी एवं हमारे ट्रिप इंचार्ज पं. शिवनारायण। वे संस्कृत के अध्यापक थे। हम सभी आदर से उन्हें ‘गुरुजी’ कहते थे। उनकी कार्य निष्ठा, समर्पण एवं दर्शन की ऊँचाई के अनुरूप यह उपमा उन पर फबती थी। 

उनका कद छः फुट से ऊपर होगा। स्नेह से आप्लावित बड़ी-बड़ी आँखें तिस पर गाँधीनुमा गोल चश्मा उनकी गुरुता में इजाफा करता। आयु पचास के करीब। माथे पर अधिकतर बाल सफेद थे। पतला लम्बा चेहरा, दिव्य भाल, उजली बत्तीसी, हल्के भूरे रंग का घुटनों तक आता खादी का कुर्ता, नीचे सफेद धोती एवं चमड़े के काले चप्पल पहने वे दार्शनिक लगते। देवदार के ऊँचे वृक्ष की तरह उनका व्यक्तित्व एवं विचार दोनों ऊँचे थे। किसी भी विषय पर उनके विचारों की विशालता एवं व्यापकता जानकर हम हतप्रभ हो जाते। उनका विषयान्वेषण एवं वाक्चातुर्य विलक्षण था। सत्य एवं ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे वे। बातों ही बातों में संस्कारों के ऐसे अंकुर लगाते जिनकी जड़ें दिन-ब-दिन मजबूत होती। स्वाध्याय का पानी एवं मेहनत की खाद पाकर ये पौधे जड़ पकड़ लेते। 

विद्यार्थी के जीवन निर्माण में अध्यापक से अहम कोई शख्सियत नहीं होती। अध्यापक उस कुम्हार की तरह होता है, जो कच्चे घड़े को इस तरह थापता है कि न तो घड़ा फूटता है न ही पक जाने पर  कोई छेद रहता है। घड़े में यदि एक भी छेद रह जाये तो उसका कोई महत्त्व नहीं, विद्यार्थी में एक भी दोष का अंकुर रह जाये तो कभी-कभी वह न सिर्फ विद्यार्थी के लिये, समाज एवं राष्ट्र के लिए भी विनाश का सबब बन जाता है। अब वेे अध्यापक नहीं रहे तो वे विद्यार्थी भी लुप्त हो गये। दिन-रात अपनी जेबों को भरने वाले अध्यापक भला विद्यार्थियों में सत्य, न्याय एवं कर्तव्यपरायणता के अंकुर कैसे स्थापित करेंगे ? पूर्णतः व्यावसायिक दृष्टिकोण के साथ पलने-पढ़ने वाले  विद्यार्थियों के लिए सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता जैसे गुण शाब्दिक विलास एवं विनोद की बातें रह जाये तो इसमें आश्चर्य क्या है ?

एक बार हम सभी भरतपुर के जंगल में कैम्प कर रहे थे। रात्रिभोज एवं गीतों का कार्यक्रम पूरा होते ग्यारह बज गए। खुले आसमान में तारे चमक रहे थे। उस दिन गुरुजी अपनी अंगुली आसमान की ओर कर हमें बता रहे थे, ‘देखो! वह जो पीला चमकता हुआ तारा है, उसका नाम बृहस्पति है। यह सौरमण्डल का सबसे बड़ा तारा है, पृथ्वी से ग्यारह गुना। यह पृथ्वी से करोड़ों मील दूर है। जैसे पृथ्वी सूर्य का भ्रमण एक वर्ष में पूरा करती है, वृहस्पति इसे बारह वर्ष में पूरा करते हैं। यह हर राशि में करीब एक वर्ष रहते हैं। ज्योतिषियों के लिए यह तारा विवेचन का विषय है। ज्योतिर्विद कहते हैं कि जिसकी जन्मकुण्डली में वृहस्पति सुअवस्थित है, उसके सारे अरिष्ट वैसे ही नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य के उदय होने पर अंधकार एवं ज्ञान के अभ्युदय होने पर अज्ञान। ऐसा कहते हुए उन्होंने आकाश मण्डल पर दृश्य कुछ राशियों के बारे में भी हमें बताया। मुझे पहली बार पता चला कि राशियाँ कुछ तारों का समूह मात्र हैं। आकाश के तारामण्डल को बारह भागों में विभाजित कर हमारे ऋषियों ने बारह राशियों की कल्पना की। अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वे बता रहे थे कि आज बृहस्पति कर्क राशि में है एवं कर्क राशि में इसकी चमक बढ़ जाती है। जैसे मैं तुम्हारा गुरु हूँ, वैसे ही यह भी देवताओं के गुरु हैं।’

‘फिर दैत्यों के गुरु कौन हैं ?’ मैंने जिज्ञासावश पूछा। 

‘शुक्र! तुम भोर एवं साँझ के समय हीरे की तरह चमकते हुए जिस सफेद तारे को देखते हो, वही तो शुक्र है।’

‘दैत्यों एवं देवों में क्या फर्क होता है गुरुजी? क्या दैत्यों के सिर पर सींग एवं मुँह में बड़े-बड़े दाँत होते हैं? क्या उनके नाखून तीखे होते हैं?’ मेरी जिज्ञासा थम नहीं रही थी। 

गुरुजी तब जोर से हँसे। स्वच्छ, सफेद दाँतों के बीच उनकी हँसी ऐसे लग रही थी मानो सहस्रों चन्द्र किरणें उनके चेहरे से निकल कर हमारी ओर आ रही हो। उनके प्रदीप्त चेहरे पर तब कैसे निर्विकार भाव उभर आये थे। मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘अश्विनी! दैत्यों एवं देवताओं के रूप में कोई अन्तर नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे अच्छे एवं बुरे व्यक्तियों के रूप एवं शारीरिक गठन में कोई फर्क नहीं होता। दैत्य वे हैं जो सत्य पथ से विमुख हैं, जो अपने गुरुजनों, माता-पिता के प्रति श्रद्धा का भाव नहीं रखते। बड़ों का आदर नहीं करते। जो प्रमादग्रस्त हैं एवं अहंकार ही जिनका गहना है। सत्य, न्याय, ईमानदारी एवं कर्तव्यपरायणता जिनसे कोसों दूर हैं। जो हर समय असत्य एवं कर्कश भाषण करते हैं। माया के मद ने जिन्हें मतवाला बना दिया है।’ 

यह समझाते हुए गुरुजी के चेहरे पर ऐसा नूर उभर आया जिसकी दमक तारों के नूर से भी अधिक थी। अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने एक महान बात हमें बताई, ‘बच्चों! सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार व्यक्ति के लिए जीवन में कुछ भी दुर्लभ नहीं।उसे ऐसी कुछ आवश्यकता भी नहीं रह जाती। वह स्वयंसिद्ध है।’ 

उस दिन मुझे समझ में आया कि गुरु किसे कहते हैं ?गुरु क्या करता है ? गुरु हमें हमारी संभावनाओं से परिचय करवाता है। हमारी हृदय वीणा के तारों से उन स्वरों को उठाता है जिनसे हम अब तक अनजान थे। वह हमारे भीतर एक तरन्नुम, एक गीत, एक लय जगाता है। 

विद्यालय छोड़े अब बीस वर्ष होने आये। दिन, महीनों एवं वर्षों की माला बनाते काल का माली कितनी दूर निकल आया। समय सूखे पत्तों की तरह उड़ गया। 

आज भी आसमान की ओर देखते हुए नजर न जाने क्यूँ उस पीले तारे पर ठहर जाती है। उसे देखते ही मुझे गुरुजी का स्मरण हो आता है। इसीलिये जब भी जयपुर से भवानीमण्डी आता हूँं, गुरुजी के दर्शन करने उनके घर अवश्य जाता हूँ। 

इस बार पूरे चार वर्ष से भवानीमण्डी जा रहा हूँ। कारोबार इतना फेल गया है कि जयपुर छोड़े नहीं छूटता। अपने केरियर के प्रारम्भ में जिस व्यवसाय की कम्बल हम ओढ़ लेते हैं, बाद में चाहकर भी वह नहीं छूटती। 

मैं गुरुजी के घर की ओर बढ़ रहा था। उनका आशीर्वाद प्राप्त करना हर बार मेरा अभिष्ट होता। उन्हीं के बताये मार्ग पर चलकर तो मैं आज इतना बड़ा व्यापारी बना हूँ। 

गुरुजी के घर का पूरा रास्ता मुझे आज भी याद है। किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। पहले व्यास मौहल्ले में पहुँचो फिर दाँयें मुड़कर गली के अंतिम छोर पर पहला मकान। 

मेरी उत्कंठा मेरे उत्साह को दूना कर रही थी। 

आश्चर्य के आघात देने की जितनी शक्ति समय में होती है, उतनी अन्य किसी में नहीं होती। व्यास मौहल्ले से दाँये मुड़कर गुरुजी की गली में कदम रखा ही था कि एक दृश्य देखकर चौंक गया। गुरुजी का घर गली के अंतिम छोर पर था। घर दूर से ही दिख जाता था। उनके घर तीन-चार पुलिस वाले खड़े थे। वहाँ खासी भीड़ जमा थी। 

मेरे माथे में चींटियाँं रेंगने लगी। मन में शंकाओं के असंख्य बादल उमड़ आये। मन में अनेक प्रश्न कौंधने लगे। गुरुजी के घर पुलिस ? क्या हो गया? 

गली के बीच तक मैं धीरे-धीरे बढ़ता गया। बीच गली में खड़े एक सज्जन से पूछा, ‘वहाँ पुलिस क्यों खड़ी है?’ कुछ देर तो वह चुप रहा फिर बोला, ‘भाई साहब! कुम्हार फूटी हाँडी में खाता है। इस गुरु ने असंख्य विद्यार्थियों को तैयार किया, उन्हें मार्ग दिखाया लेकिन उनका पुत्र ऐसा कपूत निकला कि बाप की धवल कीर्ति पर कालिख पोत दी। वह शहर के नामी बदमाशों का दायाँ हाथ है। पुलिस को इसकी भनक लग गई है। गत छः महीनों से वह गायब है। पुलिस आये दिन यहाँ आती रहती है। मास्टर जी को पता हो तो पुत्र के बारे में बतायें? पुलिस अपराधियों को तो पकड़ नहीं पाती, निर्दोष परिजनों को प्रताड़ित करती रहती है। करे कोई भरे कोई। कभी-कभी तो पुलिस देर रात यहाँ आकर दरवाजा खटखटाने लगती है। पुलिस को तो बस पैसे ऐंठने हैं। इन्होंने तो एक ही पट्टी पढ़ी है कसेंगे तब फंसेंगे। तंगहाल गुरुजी इनका पेट कैसे भरें ? सारी उम्र तो ईमानदारी की माला जपते हुए निकल गयी।’ 

मैं सांस रोके सुन रहा था। मेरी धमनियों में मानो रक्तप्रवाह थम गया था। भाग्य का ऐसा क्रूर और निर्मम रूप? 

मैं धीरे-धीरे चलकर गुरुजी के घर तक आया एवं भीड़ के पीछे खड़ा हो गया। 

गुरुजी तब थानेदार से कह रहे थे, ‘बेटा! मैं ईमानदारी से कह रहा हूँ कि मुझे मेरे बेटे की कोई सूचना नहीं है। वह जिस दिन भी घर आया अथवा मैंने उसे देख भी लिया तो सबसे पहले आपको सूचना दूँगा।’

थानेदार की भौंहे टेढ़ी हो गई, उसकी त्योरियाँ चढ़ गयी, ‘बुड्ढे! तू सब जानता है बस बताना नहीं चाहता। तुझे नहीं तो इस बुढ़िया को पता होगा।’ फिर गुरुजी की पत्नी की ओर घूरकर देखा, ‘बुढ़िया! उसे कहाँ दुबका रखा है?’ कुछ रुककर पुनः गुरुजी की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘ध्यान रखना, जरा भी होशियारी की तो बुढापे में चक्की पिसवा दूँगा।’ 

गुरुजी का चेहरा आँसुओं से नहा गया। उनकी झुर्रियों के बीच होकर आँसू ऐसे बहने लगे जैसे जीवन की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर दुर्भाग्य के नाले बह रहे हों।

यह मेरे सब्र की इंतहा थी। गुरुजी का इतना उपहास? थानेदार की इतनी हिम्मत? यह कानून के सिपाही हैं अथवा कानून की धज्जियाँ उड़ाने वाले हरामखोर अधिकारी? मेरा चेहरा तमतमा उठा। कर्तव्य के सैकड़ों ज्वालामुखी हृदय में एक साथ फूट गये। इन ज्वालामुखियों की एक-एक चिंगारी मुझ से गुरुदक्षिणा मांगने लगी।

भीड़ चीरकर मैं आगे आया। मेरी आँखों से चिंगारियाँ फूट रही थी। मेरा रौद्ररूप  देख थानेदार घबरा गया। आज मुझे कौन रोक सकता था ?चीरती हुई आँखों से थानेदार की ओर देखकर बोला, ‘क्या  आपमें इतनी तमीज भी नहीं है कि बाप के बराबर वृद्ध आदमी से कैसे बात की जाती है? क्या आपको यही प्रशिक्षण दिया जाता है?  इनका बेटा यहाँ नहीं है तो यह कहाँ से लायेंगे? अपराधी को पकड़ना आपका काम है, इनका नहीं। अपनी असफलता की कुण्ठा आप इन पर क्यूँ उगल रहे हैं? शहर में बड़े-बड़े अपराधी बैठे हैं, उन्हें कोई छूता तक नहीं। आप स्वयं जानते हैं शहर के नेता, रईस एवं प्रभावशाली लोग कितने अपराध करते हैं ?उनका आप कुछ नहीं बिगाड़ सकते ? उनके तो तलवे सहलाते रहते हैं, बस चंद गरीबों को पकड़कर अपनी कमीज पर तमगे लगा लेते हैं। क्या गरीब होना गुनाह है? क्या आप जानते हैं आपका यह व्यवहार किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति पर कितना बड़ा कलंक लगा सकता है? 

थानेदार को साँप सूंघ गया। स्थिति भांपकर वह चलता बना। मैंने अब भीड़ की ओर गुस्से से देखा। क्षणभर में भीड़ गायब हो गयी। मेरीआँखों से लावा बरस रहा था। 

गुरुजी की पुतलियाँ जड़ हो गयी। वे असहाय,पंख टूटे पक्षी की तरह मुझे देखने लगे। उनका हाथ पकड़कर मैं उन्हें भीतर ले आया। 

कुछ देर  कमरे में सन्नाटे तैरते रहे। गुरुजी की आँखों से अब भी अश्रुओं की अविरल धारा बह रही थी। थोड़ी देर बाद शान्त हुए तो रुक-रुक कर बोले, ‘अश्विनी! सूरज के घर शनिचर आ गया। अपना माल खोटा है तो किसे दोष दूँ। तुम सबको गढ़ते-गढ़ते मैं अपने घर को भूल गया। मैंने चाँद-तारों की ऊँची बातें तो समझायी पर संगति का महत्व बताना भूल गया। मेरा लड़का होनहार एवं विद्वान था पर बुरी संगति में फंस गया। इसी के चलते अनेक व्यसनों का शिकार हो गया।अपने साथियों की तरह वह भी शहर में गुण्डागर्दी करने लगा। वह जब-तब डर दिखाकर लोगों का धन हड़प लेता। उसके विरूद्ध अनेक मुकदमें दर्ज हो गये। मैंने तमाम प्रयास किये कि वह सन्मार्ग पर लौट आये पर कुसंगति के बीहड़ वन में भटके राहगीर को कब मार्ग मिला है ? मैं हार गया। वह स्वयं तो आज दुर्भाग्य की आग में जल ही रहा है, उसका पिता होने के नाते मैं भी उसी आग में जल रहा हूँ। मेरी ही तो जिम्मेदारी थी उसे बनाने की। कोढ़ के दाग की तरह यह कलंक मुझे दिन-रात सालता है। मैंने घड़ा तो अच्छा बनाया पर उसमें बुरी संगति का एक छिद्र रह गया। इसी छिद्र से अच्छे गुणों का सारा पानी बह गया। कच्चे तरबूज का एक बीज जैसे सौ मन दूध को फाड़ देता है, बुरी संगति का एक दुर्गुण हमारे सारे गुणों पर कालिख मल देता है।’ 

गुरुजी की आँखों में आँसुओं के तार बंध गये। 

उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने कहा, ‘इसमें आपका कुछ भी दोष नहीं। गुरु सभी बातें नहीं सिखाता। कुछ बातें स्वयं सीखनी होती हैं।’ 

दूसरे दिन हम सभी ट्रेन से जयपुर जा रहे थे। कोने वाली खिड़की पर बैठे गुरुजी न जाने किस शून्य में तकने लगे थे। 

खिड़की से आती ठण्डी हवायें उनके दग्ध मन को शांत कर रही थी। 

आज फिर मैं एक शैक्षणिक टूर पर जा रहा था।

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05.05.2005

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