कुत्ता आदमी

मुझे याद नहीं माला बिटिया को मैंने कभी निराश किया हो अथवा उसकी बात टाली हो। वह हमारी शादी की प्रथम सौगात थी। संयोग से शादी के एक वर्ष बाद हमारी प्रथम वेडिंग एनिवरसरी के दिन ही उसका जन्म हुआ था।प्रसूतिगृह में ही सुबह मैंने शीला को हमारी वेडिंग एनिवरसरी की बधाई दी, एक ताजा गुलाब की कली उसके हाथ में देते हुए मैंने कहा, ‘‘शीला! यहाँ इस बार बस यही स्वीकार करो।’’ तब मुझे क्या पता था मेरी ताजा कली की तरह उसी दोपहर वह मुझे एक मासूम-सी बिटिया उपहार में दे देगी।

‘‘कहो धीरेन! किसका उपहार बढ़िया है?’’ उसने नवजात को मेरे हाथों में थमाते हुए पूछा।
‘‘निस्संदेह तुम्हारा!’’ मेरे चेहरे पर प्रसन्नता की किरणें फूट पड़ी।

एक अबोध मासूम बच्ची, हमारे प्रेम की प्रतिकृति, हमारे स्नेह का सृजन। वह मेरे जीवन का सबसे रोमांचक क्षण था, मेरी जीवन बगिया में जैसे कोई नई कली चटकी हो। पिता बनने के गौरव में चेहरा इतना प्रदीप्त था कि पास खड़ी नर्स ने बधाई मांगी तो उन मुफलिसी के दिनों में भी मैंने उसे पूरे सौ का नोट दिया। सचमुच एक अमूल्य निधि ईश्वर ने मेरी गोद में रख दी थी। पहले ही दिन हमने उसका नाम ‘माला’ रख दिया। न जाने रिश्ते-परिवार में कौन कैसा नाम रख दे। नाम का स्पंदन सारी उम्र रहता है, माला जो एक-एक मनके को गूंथ कर रखती है। ठीक ही सोचा था हमने। उसके होने के बाद मेरे एवं शीला की स्नेह डोर और प्रगाढ़ हो गई। माला के होने के तीन वर्ष बाद हमें पुत्र रत्न मुकेश की प्राप्ति हुई।

आज हमारी यही बिटिया अठारह पार थी। शैशव एवं कैशोर्य को पार कर अब वो यौवन की दहलीज पर थी। मुकेश आज पन्द्रह वर्ष का गबरू जवान है। मेरे जितना ही लंबा। सुबह शाम जिम जाता है अतः शरीर सौष्ठव भी अच्छा है। हाल ही में उसने सैकेण्डरी पास की है एवं आगे सीनियर सैकेण्डरी करने हेतु कुछ रोज पहले ही मैंने उसे छोटे भाई श्यामलाल के पास जयपुर भेजा है। सोचा, वहां साथ में प्री मेडिकल टेस्ट की भी तैयारी हो जाएगी। जयपुर में अच्छे कोचिंग इंस्टीट्यूट भी हैं। यहां कस्बों मे यह सुविधाएँ नहीं है। हर मां-बाप का प्रयास तो यही होता है कि उनके बच्चे को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले, वह देश-समाज का एक अच्छा नागरिक बने अन्यथा अपने कलेजे के टुकड़े को दूर करना आसान थोड़े होता है।

उसके जयपुर जाने के बाद माला अकेली हो गई एवं लगातार एक कुत्ता लाने की जिद करने लगी। यौवन की दस्तक एक ऐसी उम्र है जब इन्सान भीड़ में भी तन्हा महसूस करता है। मुझे शुरू से ही न जाने क्यों कुत्तों से चिढ़ थी।काटे चाटे श्वान ते, दोउ भाँति विपरीत, रहीम का यह पद मेरे दिमाग में गहरा पैठा था। देश में जब इंसानों को ही दो जून रोटी नसीब नहीं हो रही हो तब कुत्ता पालने की बात निपट बेमानी लगती थी। मैंने पूरे निष्ठुर मन से माला की मांग को अस्वीकार कर दिया। उसने भी सारे नाटक किए, दलीलें दी, मैं उसको घुमाने, सम्भालने, साफ रखने, टीका लगाने आदि की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेती हूँ , लेकिन मैंने उसकी बात नहीं मानी हालांकि उसका मन दुखाना मुझे स्वयं बुरा लग रहा था।वह कौन-सी कम थी। वह भी जिद पकड़कर बैठ गई। मुझसे पूरे दो रोज बात नहीं की। मेरे सब्र की सीमा वह अच्छी तरह जानती थी। पिछले सारे हठ-युद्धों में उसी की जीत हुई थी। उसने इस बार भी मोर्चा खोल दिया।

नौकरी में भी इन दिनों अनेक परेशानियाँ चल रही थी। मैं मसूदा कस्बे में बैंक मैनेजर पद पर तैनात था। स्टाफ यूनियन से रात -दिन चिकचिक चलती रहती थी। घर आता तो बिटिया सारा दुःख हर लेती लेकिन अब तो उस पर भी रूद्र सवार था।

आखिर शीला ने मध्यस्थता कर मामला निपटाया। बाप-बेटी के स्नेह युद्धों की निर्णायक पताका सदैव उसी के हाथ होती। दो विवश मूर्खों को इस न्यायाधीश का निर्णय सदैव मान्य होता। इस बार उसने निर्णय माला के पक्ष में दिया, ‘‘एक पामरेनियन ले ही आओ, बिल्कुल फेमिली डाॅग है, मैं सब सम्भाल लूंगी। वैसे भी कल एक ज्योतिषी को आपकी जन्म-पत्री बताई थी। उसने कहा था कि शनि की साढे़ साती चल रही है, ऐसे समय में कुत्ते पालने से अनिष्ट टलते हैं क्योंकि कुत्ता शनि की सवारी है।’’ मैं उसके निर्णय एवं विद्वत्ता से दंग रह गया। उसने सांप मरे न लाठी टूटे वाली कहावत को चरितार्थ किया। ज्योतिष में मुझे शुरू से विश्वास था अतः अब बात कुछ जम गई। शीला के निर्णय को न मानने का अर्थ दो मोर्चों पर युद्ध खोलना था, अतः बात मान लेने में ही मुझे भलाई सूझी। मैंने लेकिन यह साफ कह दिया, ‘‘लाएंगे ‘फिमेल’ ही, ‘मेल’ बहुत कटखने होते हैं।’’ इस बात पर मां-बेटी दोनों ने हाँ में हाँ मिलाई। मैं गफलत में, जाने क्या बोल गया। दोनों की अर्थपूर्ण मुस्कराहट के तीर मेरी ओर ही आ रहे थे। खैर ! हमने एक ‘फिमेल पामरेनियन’ डाॅग खरीद ही लिया। तनख्वाह के अन्तिम दिनों में एक दानव ने मुझसे पूरे हजार रुपये लिए। मेरे माथे की सलवटें एवं निगाहों की शिकन भी उसके रहम का पात्र न बन सकीं। मां-बेटी चुपचाप नये मेहमान को हाथ में लेकर बाहर आए एवं कार में बैठ गए। बाद में संयुक्त निर्णय कर हम सबने उसका नाम ‘कजरी’ रखा। उसके नामकरण संस्कार के इक्यावन रुपये मेरे पर्स में से लेकर माला ने अपनी हाथ खर्ची में इजाफा कर लिया।

इन्हीं दिनों एक शाम हमारे घर एक लड़का आया। जर्जर शरीर, पीला मुख एवं बुझी हुई आंखें। उम्र कोई सत्रह वर्ष। लगता जैसे कई दिनों से उसने खाना भी नहीं खाया हो। मैंने उसे छू कर देखा, उसका बदन बुखार से तप रहा था। उसने बताया कि वह अनाथ है, एक वर्ष पूर्व उसके माता-पिता हैजे से चल बसे हैं एवं वह यहाँ-वहाँ भीख मांग कर अपना गुजर कर रहा है। काम की तलाश में वह हमारे द्वार पर आया था। न जाने मुझे उस पर क्यों दया आ गई। परमार्थ मेरी मां ने मुझे घूंटी में पिलाया था। उसके शब्द आज फिर मेरे कानों में गूंजे, ‘‘जो परहित को अपने हृदय में स्थान देता है, उसके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। परमार्थ फकीरों को भी बादशाही का दर्जा देता है।’’ मैंने उसे अपने घर में आश्रय दिया, उसका इलाज कराया एवं बाद में अपने ही घर उसे काम पर रख लिया। उसका नाम रामू था। कजरी आने के बाद घर में काम भी बढ़ गए थे। माला उसकी व्यवस्थित ढंग से देखभाल नहीं कर पा रही थी अतः शीला की परेशानियाँ भी इन दिनों बढ़ गई थी। रामू ने कजरी का पूरा भार अपने ऊपर ले लिया। हमारे परिवार ने रामू को आश्रय दिया एवं रामू ने कजरी को।

कजरी सफेद रंग की थी। अच्छा डील-डौल, सुंदर भूरी आंखें एवं पतले रेशमी बाल। पहले एक-दो साल तो हमें उसकी देखभाल में दिक्कत हुई परन्तु बाद में पूरी कीमत वसूल हो गई। बहुत चुलबुली थी, थोड़े ही समय में कुलांचें भरने लगी। इतना तेज दौड़ती मानो हिरन कुदालें भर रहा हो। दो वर्ष की होते-होते हमारे परिवार का सदस्य बन गई। उसको उछलते-कूदते देख सभी मुग्ध हो जातेे। अपने वादे के अनुरूप बिटिया ने भी उसे पालने में पूरा सहयोग दिया। रोज सुबह-शाम उसको घुमाना, हर दूसरे तीसरे दिन उसको नहलाना उसी के जिम्मे था। उसे नहलाने में विशेष शैम्पू लाया जाता, नहा धोकर आती तो उसे घण्टों मस्ती लगती थी। प्रकृति ने जानवरों के बाल सुखाने की एक विशिष्ट व्यवस्था की है। वे जब नहाकर निकलते हैं तो उनमें दौड़ने की एक विशेष हूक उठती है। वह हममें से किसी को अपने साथ खेलने को विवश कर देती। उसकी मस्तानी चाल देखकर ऐसा लगता मानो आसमान झूम रहा हो, धरती गीत गा रही हो। जो जितना स्वाभाविक है, वह उतना ही उन्मत्त है। पशुओं में स्वाभाविकता शिखर छू जाती है। स्वाभाविकता का अमृत-घट कजरी की सांसों में बसा था।

शाम को ऑफिस से हारा-थका घर आता तो वो बल्लियों उछलती, एक-एक, दो-दो फुट ऊपर तक। उसके होते यह असंभव था कि कोई और सदस्य आकर पहले मिल ले। जब तक उसे पकड़ कर उसका बदन नहीं सहलाता, वह उछलती ही रहती। उसके इस स्वाभाविक स्नेह को देखकर मैं गद्गगद् हो जाता। वह मुझे एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होने का अहसास देती थी।

बाद में माला ने उसके लिए एक घुंघरूदार पट्टा बनवाया। घर के शांत माहौल में जब उसकी मंद नूपुर ध्वनि बजती तो लगता किसी ने कानों में शहद घोल दिया हो। शाम जब सभी टीवी देखने में मशगूल होते, वह चुपचाप आकर मेरे पाँव चूमने लगती। मैं कृतज्ञ नेत्रों से उसे निहारता, उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरता। तब उसकी स्वामी-भक्ति शीर्ष को छू जाती। सर्दी में उसके लिए एक गोल जैकेट भी बनवाया गया ताकि उसे ठंड न लगे। उस जैकेट में वह ‘कुत्ता साहिबा’ लगती थी।

उसके कौम का एकमात्र मित्र हमारे मौहल्ले का कुत्ता ‘शेरू’ था। उसी से कभी-कभी मिलकर अपना सुख-दुख बाँटती थी। जब कभी हम घर में व्यस्त होते, वह दबे पाँव उससे मिलने मुख्य द्वार पर आती। मुख्य दरवाजा सदैव बंद होता पर दोनों के प्रणय-द्वार खुलने लगे थे। धीरे-धीरे उनकी मुलाकातें प्रणय हरकतों में तब्दील होने लगी। एक दो बार मैंने उसे ‘शेरू’ के साथ संदिग्ध अवस्था में देखकर डांटा भी था। वह चुपचाप आंख नीची कर अन्दर चली आई। बाद में कभी संदिग्ध अवस्था में नहीं देखी गई। शेरू को उसने स्पष्ट कह दिया कि वह मानव घर में पलने वाली पशु है एवं मानव संस्कृति में जीने के अपने नियम हैं। हमारे यहां जाति, धर्म, देश, रूप, रंग इत्यादि कोई बंधन नहीं होता, प्रणय में परदा नहीं होता पर मनुष्यों में प्रणय छुपकर ही किया जाता है। इनके यहां अलग-अलग फिरके भी होते हैं जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि-आदि और ये जाति धर्म के नाम पर प्राण तक दे देते हैं। हम हमारे बच्चों की कभी कोई चिन्ता नहीं करते पर मनुष्य न जाने उनके लिए क्या-क्या बचा कर रखता है। सुबह-शाम ये पूजा तो करते हैं पर इन्हें ईश्वर में जरा भी विश्वास नहीं। कल ही पापा मम्मी से कह रहे थे, ‘‘मुकेश के लिए बीस साल का बीमा करवाना है ताकि वह बड़ा होकर अच्छी रकम पा सके।’’ इनकी जाति में कुछ लोग तो सारा जीवन संघर्ष करते हैं तो कुछ लोगों को पका-पकाया मिल जाता है। मेहनत दिन-रात पापा करते हैं एवं बचा के मुकेश के लिए रख रहे हैं। हमारी तरह मनुष्य प्रकृति एवं परमात्मा पर विश्वास करके उन्हें संघर्ष के लिए नहीं छोड़ता। यही नहीं इतना करने पर भी कुछ बच्चे अपने माँ-बाप का जीवन नरक कर देते हैं। पापा के एक मित्र कोहली साहब का लड़का शादी के बाद बाप का सारा धन बटोर कर अलग रह रहा है। एक दिन मम्मी पापा को कोहली साहब की दुर्दशा के बारे में बता रही थी। सोफे के नीचे बैठे मैं सब सुन रही थी। मेरे तो आंसू ही बह गए। खैर! मुझे तो अब चूंकि इनके साथ रहना है तो इनके हिसाब से ही चलना पड़ेगा।’ शेरू ने दुम हिलाकर स्वीकृति दी, मानो वो सब कुछ समझ गया हो। कजरी से उसने स्पष्ट कह दिया कि ये लोग जैसे भी हो तुम अपने कौम की इज्जत में कोई कलंक नहीं लगाना। वफादारी हमारे नस्ल में है, इस आबरू में आंच न आने पाए। अगर इनके घर का दाना-पानी खाती हो और यह तुम्हारा इतना ध्यान रखते हैं तो याद रखना, अपने प्राण देकर भी इनकी रखवाली करना। अपने कुल एवं जाति की कीर्ति पर कलंक नहीं लगाना अन्यथा लोग कुत्तों पर भी विश्वास करना बंद कर देंगे। अपने प्रेमी के आदेश को उसने शिरोधार्य कर लिया।

इन्हीं दिनों एक बार अपने मनचले मित्रों के साथ रामू छत पर पतंग उड़ा रहा था। ज्यों-ज्यों बड़ा हो रहा था उसकी निरंकुशता उसी अनुपात में बढ़ती जा रही थी। अब वह पीली बुझी आंखों वाला रामू नहीं था। हमारे घर का अनाज उसके अंग-अंग को उतंग कर रहा था। हम सभी उस रोज पिकनिक पर गए हुए थे।

इन दिनों रामू के मित्र मुझे ठीक नहीं नजर आ रहे थे, पर बच्चा समझ कर मैं विशेष ध्यान नहीं देता था। जिसे हम बच्चा समझ कर पालते हैं, शायद वो हमारे सामने कभी बड़ा होता ही नहीं। हम सदैव उसमें उसकी बाल-सुलभता के दर्शन करते हैं। शायद यहीं हम गलती कर जाते हैं। हाँ, एक दिन माला ने उसे स्पष्ट कह दिया, ‘‘तुम इन लोगों को घर ना लाया करो, मुझे यह आवारा लोग जरा भी नहीं सुहाते।’’ तब से वह माला से जलने-भुनने लगा था। एक दिन काम करते हुए उसके हाथ से सेंट्रल टेबल का कीमती टाॅप जो बेशकीमती कांच का बना हुआ था, टूट गया। उस दिन माला को बहुत गुस्सा आया, बहुत देर बहस हुई। उसी समय आवेश में वह घर से चला गया। उसके बाद से लौट कर नहीं आया। वैमनस्य की एक सुषुप्त चिंगारी उसके हृदय में घर कर गई। मैंने उसे ढूंढने की कोशिश भी की पर माला ने स्पष्ट इनकार कर दिया, ‘‘अब ये बहुत बेपरवाह एवं आवारा हो गया है, इसका यहां रहना ठीक नहीं। आपने इसे एक नई जिन्दगी दी, पिछले वर्ष इसकी बीमारी पर इतना रुपया खर्च किया, इसे घर के सदस्य की तरह रखा, और यह हमीं को आँख दिखा रहा है।’’ मुझे बिटिया की बात ठीक लगी। निष्ठुर हृदय से मैंने उसे विस्मृत कर दिया।

जाड़ों के दिन थे। मावठ की बारिश के आस-पास सर्दी जोर पकड़ लेती है, तेज हवाएँ मौसम को और विकराल बना देती हैं। सभी कंबलों में ऐसे दुबकते हैं जैसे सिपाही को देखकर चोर। आज ठंड अप्रत्याशित रूप से ज्यादा थी। रात टीवी देखते-देखते मैं, शीला एवं माला ड्राईंगरूम में ही सो गए। घर में एक ही हीटर था एवं उस दिन सबको इसकी जरूरत महसूस हो रही थी।

शिशिर की काली अँधियारी रातों में जब सब सोते हैं तो चौसठ कलाओं में से एक कला जागती है। रात अचानक तेज सरसराहट सुनकर हम सब की आंख खुली तो घर में कजरी जोर से भौंक रही थी। उसके आस-पास चार आदमी सिर पर पगड़ी बांधे , मुंह पर डाटे लगाये खड़े थे। उसमें से एक के हाथ में देशी तमंचा था। मेरी गर्दन पकड़ कर उसने तमंचे की नोक मेरी कनपटी पर रखी एवं क्रोध में घूरते हुए बोला, ‘‘कुतिया को चुप कर नहीं तो खोपड़ी उड़ा दूंगा।’’ मैंने कजरी को चुप होने को कहा। वह चुप तो हो गई पर क्षणभर में उसने सारी स्थिति का आकलन कर लिया। कभी-कभी पशु भी उन बातों को अपने विशिष्ट ज्ञान से समझ लेते हैं, जो मानव की पहुंच के परे है। कहते हैं घर में चोर एवं दुरात्मा प्रवेश कर जाए तो कुत्ते पहचानने में जरा भी देर नहीं करते।

आज उसकी परीक्षा की घड़ी थी। कजरी के अतीन्द्रिय ज्ञान ने पलभर में हमारी स्थिति को भाँप लिया। मैं, शीला एवं माला भय से थर-थर कांप रहे थे। चोरों ने हमें अलमारी की तरफ धकेल कर घर का सारा गहना, नगदी एवं अन्य कीमती चीजें अपने कब्जे में ले ली। माला की शादी के लिए जी तोड़ मेहनत कर मैंने यह सब गहने बनवाए थे। साढे-साती का सही अर्थ मुझे अब समझ में आया। इसी दरम्यान एक चोर ने माला की तरफ बदनीयति से हाथ बढ़ाया। गहने चोरों के हाथों में देने में मुझे बहुत पीड़ा नहीं हुई, पर माला मेरे घर का सबसे बेशकीमती जेवर था। उसका अपमान मैं सहन नहीं कर सका। मेरा पितृत्व फड़क उठा। जान की परवाह किये बगैर मैंने उसे कस के थप्पड़ रसीद किया। थप्पड़ इतने जोर का था कि उसके मुंह पर कसा कपड़े का डाटा खुल गया और हम सब भौचक्के रह गए। वह हमारे यहाँ काम करने वाला रामू ही था, जो कुछ समय पहले माला के डांटने से चला गया था। सभी ठगे-से रह गए। ‘‘रामू तुम’’? मैंने कड़क कर कहा, ‘‘तुम हमारे घर को…..तुम्हारे अपने घर को लूटने आए हो? मैंने तुम्हें अनाथ जानकर शरण दी, उसका यह बदला?’’ आवेश में मेरा कंठ भर आया। लेकिन उसके मन पर तो खून सवार था। उसने अपने साथी के हाथ से तमंचा लिया एवं माला पर गोली दाग ही रहा था कि बिजली की गति से कजरी उछली। गोली कजरी के सीने में लगी एवं पिस्तौल नीचे गिर गई। मैंने एक पल भी नहीं गँवाया एवं तमंचा हाथ में लेकर चारों की ओर तान दिया। कजरी के बहते हुए खून ने मेरे खून को और गर्म कर दिया। इसी शोरगुल में आस-पड़ौस के लोग हमारे घर के बाहर जमा हो गए। मौका देखकर शीला ने दरवाजा खोल दिया। चोरों ने भागने की कोशिश की पर लोगों ने उन्हें धर दबोचा। किसी ने पास ही थाने में सूचना दी। पुलिस तुरन्त मौके पर आकर उन सबको पकड़कर ले गई। लोगों ने पहले ही मार-मार कर उन्हें अधमरा कर दिया था। रामू हमारे साथ ऐसा करेगा, यह हमारी कल्पना से भी परे था। मैं उस क्षण को कोस रहा था जब मैंने उस अनाथ को सहारा दिया।

हमारे सामने अब वफादारी की लाश पड़ी थी। कजरी अब तक दम तोड़ चुकी थी। उसकी आत्मा निष्पाप और निर्लिप्त होकर निर्वाण पद पा गई। उसके अंग-अंग से अभिमान एवं जाति गौरव की आभा झलक रही थी। शेरू घर के मुख्य दरवाजे पर खड़ा कूक रहा था। कौम के इस बलिदान पर उसकी आंखें गौरव-ज्योति से चमक रही थी। वह भी अपनी प्रेयसी को अन्तिम विदाई दे रहा था। सारा मौहल्ला अब तक घर के बाहर जमा था। माला एवं शीला कजरी से लिपट-लिपट कर रो रही थी। कजरी के इस बलिदान ने सबको विह्वल कर दिया। आज सभी ने ‘कुत्ते के अन्दर की इन्सानियत’ एवं ‘इंसान के अंदर के कुत्ते’, के दर्शन जो किए थे।

पशु के स्नेह, चरित्र एवं बलिदान की ऊंचाई के आगे मनुष्य को क्रोधवश भी ‘कुत्ता आदमी’ कहना क्या उचित होगा ?

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20.11.2002

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