किलकारी

ब्रह्ममुहूर्त में उठना अच्छी बात है पर कुछ लोग इस समय इसलिए नहीं उठते कि वे इस घड़ी की महत्ता समझते हैं, वे इस कारण उठते हैं कि उन्हें मजबूरी उठा देती है। मजबूरी के अनुभव स्वाध्याय के अनुभवों से अधिक गहरे होते हैं। कहने वाले ठीक कह गए हैं, अक्ल बादाम खाने से नहीं , कठोर संघर्ष एवं कड़े अनुभवों से गुजर कर आती है।

पुष्पा सदैव मुंह अंधेरे उठ जाती। उसके उठने के दो संकेत होते। पहला एवं अधिकतर तो वह मुर्गे के बांग देते ही उठती एवं यदि कभी-कभार आलस्य घेर लेता तो वह दूसरे संकेत यानि मस्जिद में अजान होने पर उठती। यह मस्जिद उसकी कच्ची बस्ती के बाहर थी पर लाउडस्पीकर से आती हुई मौलवी की आवाज स्पष्ट सुनाई देती। वर्षों पूर्व यह आवाज़ इतनी तेज नहीं थी, उसमें एक अजीब-सी आस्था एवं मिठास थी, लेकिन जब से मंदिर के पण्डित का लड़का रामदीन लाउडस्पीकर लाया एवं बस्ती मंगला आरती की घण्टियों एवं स्वरध्वनियों से गूंजने लगी, मस्जिद में भी लाउडस्पीकर आ गया। अनेेक बार यह दोनों आवाज़ें एक साथ मिल जातीं, इस स्पर्धा से एक अजीब शोर बनता जो उसके कानों को काटने लगता, तब उसके उठने का यह भी एक कारण होता। आज भी वह इसी शोर को सुनकर उठी थी। ओह, मेमसाब के यहां देरी न हो जाये। आज तो साहब की मां भी आने वाली है।

हाथ मुंह धोकर पुष्पा पुनः कमरे में आई।  चारपाई पर प्रकाश अब भी निढाल पड़ा था। पहले एक चारपाई थी, दोनों साथ सोते पर जब से गबरू ने इसे पीना सिखाया एवं यह देर रात तेज दुर्गंध के साथ घर आने लगा तो दूसरी भी मंगवानी पड़ गई।

कल रात भी वह देर से आया था। उसने भांप लिया था पर वह ऐसे पड़ी रही मानो गहरी नींद मेें हो, तब ‘कुत्ती खसम को खाना भी नहीं खिला सकती’ एवं साथ में मां-बहन की गालियां बकते हुए वह रसोई तक गया, टुक्कड़ खाये एवं वापस आकर सो गया। सोते हुए भी कितना बदहवास था, एक पांव का जूता उतार दिया, दूसरा पहने हुए ही सो गया। पुष्पा को एक बार फिर गबरू याद आया। उसकी याद आते ही उसके चेहरे पर क्रोध की लकीरें खिंच गईं पर तत्क्षण एक नये विचार ने उसके क्रोध को ज़ब्त कर लिया। वह दांत पीसकर रह गई। प्रकाश क्या दुधमुहां बच्चा है कि उसे कोई बहकाए? पिछले महीने ही पैंतीस पूरे किए हैं। इस उम्र में तो अच्छे-अच्छों को अक्ल आ जाती है। लोग कुंए में कूदने का कहेंगे तो कूद जाएगा क्या?

बाहर नीम के पेड़ पर चिड़िया चहकने लगी थी। कमरे में सुबह का उजाला भरने लगा था। पुष्पा ने प्रकाश केे पांव से जूता उतारा एवं उठाने  के पूूर्व उसे घड़ीभर निहारा। ओह! प्रकाश पहले तुम कितने अच्छे थे। मेरी कितनी तारीफ करते, नित्य शाम साथ भोजन करते लेकिन संगत ने तुम्हें क्या बना दिया। पहले एक भी खोटा अक्षर नहीं बोलते पर अब तो गाली-गलौच नित्य की आदत हो गई है। अभी कुछ दिन पहले गबरू ने भड़का दिया, “तेरे औलाद नहीं है, जरूर तेरी लुगाई पिछले जनम में डायन होगी।” उस दिन घर आकर कैसा उखड़ा था, “डायन ! टुक्कड़ ही तोड़ेगी या कभी औलाद भी देगी।” इतना कहकर उसने पास पड़ी छड़ी उठाई एवं तड़ातड़ पीटने लग गया। कमर पर आज भी निशान हैं। अब भी दर्द टीसता है। मेमसाब ने कहा भी था कि पुलिस रपट दर्ज करवा दे, उसका दिल भी हुआ, फिर जाने क्या सोच कर खून के घूंट पीकर रह गई। यह सच भी तो है। शादी किए बारह साल हुए एवं वह अब तक बांझ है। पुष्पा जानती है प्रकाश में कोई दोष नहीं है, वो तो उसी के करम फूटे हैं वरना विवाह के इतने वर्षों में उसकी सहेलियों ने तीन-चार बच्चे जन दिए।

ओह! औलाद पाने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया ? मंदिर, पीर, फकीरों कहां-कहां मत्था नहीं टेका, पण्डितजी के कहने से कितनी बार व्रत-उपवास किये, मन्नतें ओढ़ीं लेकिन जैसे बंजर भूमि में कुछ नहीं उगता वह भी बेऔलाद रही। मेमसाब के कहने से दो बार डाक्टर के यहां भी गई, उसकी लिखी दवाइयां भी लीं पर स्थिति जस की तस रही। डाक्टर ने साफ कह दिया, बीमारी हो तो इलाज करूं, भाग्य का इलाज उसके पास नहीं है। नहा-धोकर वह बाथरूम के बाहर दीवार पर लगे आईने के सम्मुख आई। कंघा करते हुए उसने स्वयं को देखा। ओह ? वह आज भी कितनी सुंदर थी, कित्ते सुंदर नक्श, स्वच्छ मोती जैसे दांत लेकिन गरीबी एवं बेऔलादी ने चेहरे का पानी उतार दिया। आईने से ही उसने प्रकाश की ओर देखा जो अब कुर्सी पर बैठा अखबार देख रहा था। वह आज भी कितना बांका है, काश! दारू न पीता तो बांकपन मुंह चढकर बोलता। ऐसा सोचते ही उसकी आंखों का नूर चढ गया लेकिन तभी रात वाली गालियों का ख़्याल आया एवं इस ख्याल के साथ उसका चेहरा बुझ गया। 

वह सड़क पर तेजी से बढ रही थी। सूरज ऊपर उठ आया था। मेमसाब का घर उसके घर से एक मील पर था। उसे नित्य साढे सात बजे पहुंचना होता था। झाडू़,  पोचा, बर्तन, कपड़े, रसोई आदि कार्य समेटने में दो घण्टे लग जाते फिर दिन भर उनकी एक वर्ष की बच्ची को भी तो संभालना होता। मेमसाब शाम साढे़ पांच बजे वापस लौटती, तब वह घर छोड़ती।

कभी-कभी वह सोचती काश! वह भी मेमसाब की तरह बैंक में अफसर होती तो रोज नयी साड़ियां पहनकर, बन-ठनकर जाती, मेमसाब के साहब की तरह प्रकाश भी उसकी हाजरी बजाता। उसने अब तक जान लिया था प्रोवीजन स्टोर से साहब उतने पैसे नहीं कमाते जितना मेमसाब कमाती है, तभी तो धौंस चलाती है। हर औरत को पढ-लिखकर ऐसा ही बनना चाहिए। यहां तो सुबह जल्दी उठो, घर-बाहर दोनों सम्भालो, पति की जी-हुजूरी करो एवं उसके जूते भी खाओ।

वह मेमसाब को अनेक बार साहब को डांटते हुए देखती तो मन में एक विचित्र टीस उठती। उन दिनों उसे अजीब स्वप्न आते, वह इन सपनों में या तो प्रकाश को आंख दिखा रही होती अथवा उसकी कमर पर सड़ासड़ बेंतें जमा रही होती, तब प्रकाश निरीह, पिटे पिल्ले की तरह घर के कोने में दुबका खड़ा होता। एक सपने में तो वह प्रकाश पर पिल गई, कमीने! औलाद नहीं है तो क्या इसके लिए मैं दोषी हूं ? तेरे भी तो भाग फूटे हैं। डरा-सहमा प्रकाश तब हाथ जोड़कर माफी मांग रहा था। इन्हीं विचारों में खोई उसकी तेज चाल और तेज हो गई।

रास्ते की चहल-पहल बढ गई थी। धूप अब सड़कों पर बिखरने लगी थी, हालांकि मार्च का महीना होने से धूप में वह तल्ख़ी नहीं थी। स्कूल के बच्चे यहां- वहां निकर, शर्ट एवं टाई पहने बसों में चढ़ रहे थेे। उनके छोटे, तस्मेदार जूते उन्हीं की तरह कमसिन लगते। इन बच्चों को देखकर उसके हृदय से टीस उठती, ओह! क्या कभी उसके भी बच्चा होगा ? इतना बड़ा होकर वह भी तो स्कूल जायेगा। वह उसके लिए अच्छा-सा टिफिन बनाएगी, सबसे साफ कपड़े पहनाएगी, खुद जूतों को चमकाएगी, अपने हाथों से तस्मे बांधेगी। अनेक बार ऐसे ही एक बच्चे के साथ वह सड़क पर खड़ी होती। आस-पास खड़े मां-बाप को देखकर कहती, यह मेरा बच्चा है। उसका स्वप्नलोक टूटते ही वह बिखर कर रह जाती।

मेमसाब का घर अब सामने था, घर क्या बंगला था। आगे बगीचा, खुला बरामदा, भीतर बड़ा हॉल एवं तीन कमरे। यह बंगला उन्होंने पांच साल पहले खरीदा था। साहब का पिता खूब माल छोड़कर मरा था तो इनका हौसला बन गया। यहां तो गरीबी ढोते एड़ियां घिस गईं। किराये के डेढ़ कमरे वाले मकान में रहते वर्षों बीत गए। बारिश में खपरैलों से पानी झरता है। सास-ससुर गुजरे, कर्जा दे गए। मरणभोज कोढ़ में खाज बन गया। लोक-लाज निभाने में आंख का पानी तो रह गया, वे ठन-ठन गोपाल हो गए।

              वह भीतर आई तो मांजी सामने बैठी थी। ओह, जोधपुर से उदयपुर आने वाली बस तो तड़के ही पहुंच जाती है। उसने पहले भी उन्हें दो-तीन बार देखा था। वह हर दो-तीन महीने के अंतराल पर आती रहती। पति था तब यह अंतराल छःमासी था पर पति के मरने के बाद औलाद ही सहारा थी, अतः ये अंतराल कम हो गए। मांजी के आने से उसका काम सवाया बढ़ जाता। उसे कोफ्त भी होती, पर बुढ़िया का व्यवहार इतना मृदुल, स्नेहभरा था कि उसे यह भार जरा भी भार नहीं लगता। अनेक बार तो वह उसके मन का दर्द भी उनसे बांट लेती। मांजी जितनी बार चाय पीती उसे भी साथ बिठाकर पिलाती, दोपहर वही खाना खिलाती जो वे खुद खाती वरना अधिकांश घरों में नौकरों को तो बचा-खुचा परोस देते हैं। मांजी उसे नई-नई डिशेज सिखाती , रसोई अच्छी बनाने के तरीके भी बताती। ओह, उस दिन खाना कितना लज़ीज बनता। धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा मानोे वह उसकी पूर्वजन्म की मां हो। आस्था आदर को दूना कर देती है, इसी के चलते पुष्पा का मांजी से स्नेह दृढ से दृढ़तर बन गया।

मेमसाब की बच्ची को वह खूब प्यार से रखती। ओह! वह बच्ची भी कितनी सुंदर, मासूम, चंचल थी। अब तक खड़ा होना, चलना भी सीख गई थी। आगे के चार दांत भी आ गये थे। वह उसका ध्यान रखने में कोई कोताही नहीं बरतती, फिर भी कभी-कभी ध्यान चूक जाती। घर के दुःख मत्थे चढ जाते। इन्हीं दुःखों के शोर में अनेक बार बच्ची के रोने की आवाज तक दब जाती। तब मांजी खुद जाकर बच्ची को उठा लेती, उसे पुचकारती एवं बहुत देर छाती से लगाये रखती। बच्ची दो बार पलंग से गिर गई तो मांजी दौड़कर उससे पहले पहुंच गई । एक बार दूध की बोटल खुल गई तो बच्ची पर दूध बिखर गया, तब भी मांजी ने ही संभाला। कई अन्य बार बच्ची टट्टी-पेशाब कर देती तो उसे भान भी नहीं रहता, वह रोती तभी उसे होश आता। एक बार तो वह उसे दूध पिलाना भूल गई। ओह, न चाहते हुए भी वह ऐसी गलतियां क्यों कर बैठती है ? इसीलिए तो नहीं कि मां आखिर मां होती हैं, उसके जैसा अन्य कोई नहीं हो सकता एवं वह मां नहीं है। इस ख़्याल के आते ही उसकी आंख नीची हो जाती। मांजी एक धीर-गंभीर-अनुभवी स्त्री थी, शायद उन्होंने इस बात को ताड़ लिया, तभी तो पिछली बार जब बच्ची पलंग से गिरी वह गंभीर हो गई थी हालांकि आदत के मुताबिक उन्होंने कहा कुछ भी नहीं।

आज पुष्पा बहुत उदास थी। बीती रात प्रकाश ने फिर जमकर शराब पी एवं घर आकर फिर बेऔलाद होने का ताना दिया। इस बार वह टूट गई। हथौडे़ के दसों वार से तो पत्थर भी टूट जाते हैं। यकायक वह चौंकी, मांजी का हाथ उसके कंधों पर था, “पुष्पा! आज इतनी उदास क्यों हो ?” उनके कहने भर की देर थी और सैलाब फूट पड़ा, हिचकियां बंध गईं, वर्षों के दबे आसूं बह गए। मांजी ने उसके सर पर हाथ फेरा तो वह बिफर पड़ी, ‘मांजी! आप ही बताओ, मेरे औलाद नहीं है तो क्या इसमें मेरा दोष है ?’ उसके इतना कहते ही मांजी ने उसे सीने से लगा लिया। आज पुष्पा को पहली बार लगा मां, मां का स्पर्श, मां की गोद क्या होती है। उसकी मां तो बचपन में ही मर गई थी, वह कहां जाकर अपना मन हल्का करती। मन का गुबार तो अपनों के आगे ही निकलता है।

वह अब भी सुबक रही थी, उसमें उठने की शक्ति भी शेष नहीं बची थी। मांजी तब खुद चलकर रसोई में गई एवं चाय बनाकर लाई। चाय पीकर वह संयत हुई तो मांजी उसके समीप आकर बैठ गई। कमरे में कुछ देर चुप्पी पसर गई।, पुष्पा ने ही इस चुप्पी को तोड़ा-

“मांजी, मैं आपको कितना कष्ट देती हूं और आप भी मानो मेरी मां की तरह मेरा हर दुःख बांट लेती हो।” उसकी आवाज अब भी उखड़ी, भर्राई हुई थी।

“अरे! ऐसा क्यों सोचती हो। तुम मेरी बच्ची जैसी ही तो हो।” कहते हुए मांजी की छाती भर आई, मुंह से मानो अमृत झर रहा था।

“मांजी! एक बात बताओ ! क्या मुझे भी कभी औलाद होगी या फिर मैं यूं ही बेऔलाद मरूंगी ? एक-दो वर्ष और बीत गए तो प्रकाश जीना हराम कर देगा।” पुष्पा ने यह बात मांजी को इस तरह बताई जैसे एक बेटी अपनी मां के आगे मन की सभी गांठें खोल देती है।

कमरे में अब सन्नाटे पसर गए थे। मांजी इसका उत्तर देने के लिए बहुत देर सोचती रही तत्पश्चात् उसके समीप आकर बोली, ‘पुष्पा! एक उपाय है।’ आगे बढ़ने के पहले वह पुनः ठहर गई। उनकी आंखों में मानो उम्रभर का अनुभव सिमट आया था।

“मांजी! आप तुरन्त बताएं। मैं हर वह काम करूंगी जो आप कहेंगी।” पुष्पा का अनुरोध उसकी पुतलियों में उतर आया। वह उस उत्तर को अपने आंचल में समेट लेना चाहती थी।

“आज से तुम इस बच्ची की वैसे ही परवरिश करो मानो यह तुम्हारी कोख से पैदा हुई हो एवं तुम ही इसकी सगी मां हो। यह कार्य अत्यन्त कठिन है लेकिन तुम्हें सच्चे दिल से करना होगा। इसे दिनभर मां चाहिए एवं तुम्हें बच्चा। तुम इसे वो दो जो इसे चाहिए तो तुम्हें वो मिलेगा जो तुम्हें चाहिए। हम जब हमारे दुःखों को दूसरी आत्मा के सुखों में एकीकार कर देते हैं, कुदरत चमत्कार करती है। मेरा मन कहता है यह बच्ची ही तुम्हें मुक्त करेगी।”  कहते हुए मांजी का गला भर आया।

यह एक अभिनव प्रयोग था।

पुष्पा ने मांजी की सीख गांठ बांध ली।

अब तो पुष्पा का जीवन बदल गया। वह बच्ची के साथ दूध में पानी की तरह एकमेक हो गई। उसी की नींद सोती, उसी की नींद जागती। उसके रोते ही उसके कान खड़े हो जाते। बच्ची को दूध-पानी आदि पिलाने, डाइपर बदलने, उसे नहलाने, कपड़े पहनाने आदि में उसे वही सुख मिलने लगा जो एक मां को अपने स्वयं के बच्चे को पालने से मिलता है। वह कभी उसके लिए नया रेशम का तकिया बनाकर लाती तो कभी नया बिस्तर। एक बार वह अपने पैसों से उसके लिए कीमती फ्राक खरीदकर ले आई। मेमसाब के लाख कहने पर उसने पैसे नहीं लिए, एक अन्य दिन गुड़िया खरीद लाई। इसके कुुछ दिन बाद नज़रबट्टू , हाथ-पांवों के काकण-डोरे आए। ओह! मेरी बच्ची को नज़र लग गई तो लोग यही कहेंगे, इसकी मां को बच्चा पालना तक नहीं आता। बच्ची का रोना उसका रोना एवं बच्ची का हंसना उसका हंसना बन गया। बच्ची अब उसके कलेजे का टुकड़ा बन गई।

आज लेकिन हद हो गई। वह बच्ची को गोद में लिए बैठी थी कि उसे जाने क्या सूझा। उसने साड़ी का पल्लू कंधे से उतारा, ब्लाउज ढीला किया एवं अपनी नंगी छातियां बच्ची के आगे खोल दीं। बच्ची भूखी थी, स्तनों को नन्हें हाथों से दबोचकर डट गई। स्तनों में दूध कहां था, चूंचियों से खून बहने लगा। आश्चर्य! उसे कोई दर्द नहीं हुआ वरन् ऐसा लगा मानो वह आनंद के अथाह समुद्र में डूब गई हो।

 आज उसका अंग-अंग नाचने लगा था।

आज उसका आनंद कायनात के जर्रे-जर्रे में घुल गया। इसके ठीक एक वर्ष बाद उसके घर पुत्र जन्म की किलकारी गूंजी थी।

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09.04.2020

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