मैंने जब काज़ीजी के पड़ौस में मकान खरीदा तब तक काज़ीजी के बरामदे में लगा आम का पेड़ काफी ऊंचा उठ चुका था। मैं जब उनसे पहली बार मिलने गया तो उन्होंने मेरी बड़ी आवभगत की, मुझे मेवों में पकी सिंवइयां खिलाई , केसर-पिस्ता का दूध पिलाया एवं अपनी खूबसूरत बीवी, जो बहुत अदब से बात करती थी एवं पास ही किसी स्कूल में प्रधानाध्यापिका थी, से भी मिलवाया। उन्होंनें मुझे यह भी बताया कि वे बिजली महकमे में काम करते हैं एवं उनका सरनेम काज़ी इसलिए है कि दस पीढ़ी पहले उनका कोई पुरखा शहरकाज़ी था। तब से यही सरनेम चलता आ रहा है। अच्छा हुआ उन्होंनें यह बात बता दी वरना उनके दरवाजे के आगे लगी नेमप्लेट देखकर मैंनें भी यही सोचा था कि यह कोई कचहरी का मुलाज़िम है। मैंने जब कहा आपके बच्चे किधर हैं तो उन्होंने अपने दोनों बेटों को जिसमें बड़़ा इरफ़ान जो तकरीबन बारह वर्ष एवं दूसरा सुहैल जो उससे दो-तीन वर्ष छोटा होगा, से भी ड्राईंगरूम में बुलवाकर मिलवाया। दोनों यहीं घर से दो-ढाई किलोमीटर दूर सुभाष पब्लिक स्कूल में पढते थे।
मैं पहले ही परिचय में ताड़ गया कि काज़ीजी सीधे, सरल इंसान हैं हालांकि वे मेरी कद-काठी के ठीक विपरीत सींकचे, ढाई पसली इंसान थे जबकि मेरा शारीरिक सौष्ठव उनसे कहीं बेहतर था। मैं यहीं स्थानीय यूनियन बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक था। मेरे स्टाॅफ के अनेक बाबू , जिन्हें मैं कभी अधिक काम देता तो कार्यालय से बाहर आकर मुझे मोटा, जल्लाद तक कहते थे। मेरे भी कम घुसपैठिये न थे, मुझे सब खबर लग जाती एवं मैं बाद में उनकी अच्छी चटनी बनाता। हम और काज़ीजी लगभग हमवय अर्थात् चालीस के आस-पास थे।
ब्रेकफास्ट कर मैं काज़ीजी के साथ बाहर बरामदे में आया तो उनका खूबसूरत बगीचा देखकर दंग रह गया। उनका बगीचा जिसमें ऑस्ट्रलियन दूब लगी थी एवं जिसे शायद कुछ दिन पहले ही माली काटकर गया था हरे रेशमी कालीन की तरह बिछा था। उनके गमले जिनमें अधिकांश गुलाब के पौधे लगे थे, करीने से दीवारों पर लगे थे। सभी गमले टेराकोटा रंग में रंगे थे। दीवाली अभी होकर गई थी एवं ठण्ड बढने के साथ इन पौधों में कमसिन कलियां चटकने लगी थी। कुछ पौधों में फूल भी उग आए थे। बगीचे के दायें कोने में मेरे घर से गजभर ऊंची दीवार के दो फुट आगे आम का पेड़ लगा था जो उतना ही सुन्दर लग रहा था जैसे कोई किशोर वय का युवक लगता है। पेड़ को देखकर कोई भी कह सकता था कि इस पर अभी फल नहीं लगे हैं। उनके सड़क से लगे मुख्य दरवाजे की ओर तीन सीढ़ियां उतरकर आने से पहले मैं इस पेड़ की ओर मुड़ा। पेड़ पर एक कोयल का जोड़ा एवं कुछ पक्षी कूक रहे थे। सवेरे की ठण्ड एवं पेड़ से छन-छन कर आती किरणों के आग़ोश में मानो पेड़ भी ठिठुर रहा था। मैंने आगे बढ़कर पूछा –
“ओह, यह कितना सुंदर पेड़ है। इस पर फल आए अथवा नहीं ?’’
“अभी तो नहीं आए हैं पर कल ही माली कह रहा था अगले साल से फल लगने प्रारंभ हो जाएंगे। अब तक तो बस इसकी सेवा की है। आधा पानी तो यही पी जाता है। गोबर, खाद और डालो।” कहते-कहते काज़ीजी ने मेरी ओर ऐसे देखा मानो कहना चाह रहे हो कि आप तो फल खाने के समय आए हैं , यहां पसीना बहाते इतने वर्ष हो गए।
“आम का पेड़ मेहनत बहुत मांगता है।” मैंने सुर मिलाया।
‘आप ठीक कहते हैं। आम के पेड़ को पालना सरल नहीं है। कई पेड़ तो फलते भी नहीं। उन्हें कीड़े अथवा मौसमी बीमारियां लग जाती हैं।’ उत्तर देते-देते काज़ीजी आगे आये एवं पेड़ पर इस तरह हाथ फेरने लगे जैसे पिता अपने प्रिय पुत्र के सर पर हाथ फेरता है।
“ आपने ठीक कहा ऐसे पेड़ों को पालना टेढी खीर है।” मैं ऊपर शाखाओं की ओर देखते हुए बोला।
“ गोयल साहब! मैंने इसे बच्चे की तरह पाला है। जैसे मेरा बच्चा बीमार पड़ता है तो मैं तुरत डाक्टर के पास जाता हूं वैसे ही इसे भी मेरे एक मित्र अनवर साहब जो यहीं यूनिवर्सिटी में वनस्पति विभाग में प्रोफेसर हैं, देखते रहते हैं। वे अक्सर मुझसे मिलने आते हैं। इस पेड़ पर मैंने स्वयं अनेक बार दवाई छिड़की है। माली भी देखता रहता है। इसकी टहनियां इधर-उधर झुकती रहती हैं। पहले दो-तीन बार ट्रिमिंग भी करवाई है।” यह कहते हुए काज़ीजी के चेहरे पर एक ऐसी खुशी छलक आई जैसी मुझे पिछली बार मेरे बच्चे के परीक्षा में अव्वल आने पर हुई थी।
“ ओह ग्रेट! मैं भी ठीक समय आया हूं। अब तो शीघ्र ही इसके फल खाने को मिलेंगे ।” मैंने हंसकर बात बढाई।
“देखते हैं।” इस अजीब उत्तर के साथ काज़ीजी मूंछों में मुस्कुराने लगे । उनका यह अस्पष्ट उत्तर कुछ इस तरह था मानो वे कह रहे हों कि बरखुरदार! अभी तो आये हो और आते ही धौंस जमाने लग गए।
इंसान भी कितना विचित्र है। जिसे प्यार करता है उस पर कितना अधिकार बना लेता है। खैर! कुल मिलाकर आज की मुलाकात बढ़िया रही। काज़ीजी एवं उनके परिवार विशेषतः आम के पेड़ ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
धीरे-धीरे काज़ीजी से मेरी मुलाकातें बढने लगी , हालांकि उनके-मेरे परिवेश में अंतर था। मैं ठहरा महाजन, हमारे यहां मांसाहार तो क्या अण्डा खाना तक वर्जित था हालांकि मुझे आशंका थी बच्चे कभी-कभार बाहर मित्रों के साथ मांसाहार लेते हैं। काज़ीजी की रसोई से अनेक बार मांस पकने की ऐसी बढ़िया खुशबू आती कि मैं अक्सर चारू से कहता यार इनके मसालों से क्या खूशबू आती है। अपन वेजिटेरियन तो मानो घास-फूस खाते हैं। तब वो मुझे इस तरह तीखी आंखों से देखती जिसके अनेक अर्थो में एक अर्थ यह भी होता कि यहां मांस खाना तो दूर सोचना तक अपराध है। मैं चुप होकर रह जाता।
काज़ीजी औसत कद के , सीधे-साधे इंसान थे। सर पर घने बाल एवं ऊंची ललाट थी। उनकी निर्मल आंखें उनके सज्जन होने की गवाही देती। कभी-कभी उनके बालों से एक लट उनकी ललाट पर गिरती जिसे वे तुरत झटके से गरदन घुमाकर ऊपर कर लेते। ऐसा करना उनकी आदत में शुमार था। मुझे उनकी यह अदा मनभावन लगती। मैंने नाॅनवेज खाने वाला ऐसा पतला इंसान पहले कभी नहीं देखा। मैंने मेरे मित्रों से यह भी सुना था कि नाॅनवेज खाने वाले अधिकांश लोगों का खून गरम होता है एवं वे जल्दी क्रोध में आते हैं पर काज़ीजी इन सभी अनुसंधानों को झुठलाते हुए एकदम शांत, सौम्य व्यक्ति थे वरन मैं स्वभाव में उनसे उलट गरम , क्रोधी था एवं जल्दी तैश में आता। काॅलोनी के छोटे – मोटे झगड़े जिसमें हमारे घर के बाहर क्रिकेट खेलने वाले बच्चों की ऐसी-तैसी करना भी था जैसी बातों में मैं सदैव आगे होता लेकिन काज़ीजी इन सबसे दूर रहते वरन कई बार बाॅल उनके घर आकर गिरती तो वे खुद बाहर तक देने आते जबकि मैं बच्चों से मन्नतें करवाता। काज़ीजी का एक और खास गुण यह भी था कि वे चुस्त, दुरुस्त थे एवं यह गुण चूंकि मैं नित्य कसरत करता मुझमें भी कम न था।
दोनों सुबह जल्दी उठते, साथ-साथ बगीचा सींचते एवं इसी दरम्यान काज़ीजी से गुफ़्तगू होती। समय जाते क्या देर लगती है। इस घर में आये अब मुझे छः मास से ऊपर होने को आए। इसी बीच एक हसीन हादसा हुआ। आम के पेड़ की दांयी बड़ी शाखा अप्रत्याशित रूप से मेरे घर की ओर झुक गई। इसके साथ ही पेड़ का मुख्य हिस्सा मेरी दीवार की ओर मुड़ गया। मैंने एक बार काज़ीजी का ध्यान दिलाया तो उन्होंने ऊपर देखा फिर हंसकर बोले, “यह काफ़िर खाता मेरा माल है, फल आपको देगा।”
मैं ठठाकर हंस पड़ा।
“नहीं, ऐसा नहीं है, वस्तुतः आपका पेड़ संगीतप्रेमी है। उसको शायद सुबह-सुबह मेरा गुनगुनाना बहुत पसंद है।” मैं सुबह अक्सर बगीचे में पानी देते हुए फिल्मी गीत गुनगुनाता था।
“यह बात बिल्कुल सही है। आपका कण्ठ बहुत सुरीला है।” तभी आम के पेड़ पर बैठी एक कोयल इस तरह कूजी मानो वो काज़ीजी की बात पर मुहर लगा रही हो।
काज़ीजी कुछ हद तक सही थे, मैं नामचीं गवैया तो नहीं था पर इतना चलताऊ अवश्य था कि छोटी- बड़ी गोष्ठियों में बाजी मार लेता । मेरा रियाज बहुधा बाथरूम में नहाते समय होता, तब मैं ढोलक के स्थान पर बाल्टी प्रयुक्त करता।
इस बार सीजन में पेड़ कैरियों से लद गया। काज़ीजी की आंखें चमक उठी। उनकी दशा ऐसी थी जैसे वर्षों तपस्या के बाद किसी का पुत्र नौकरी लगा हो एवं उसकी तनख्वाह बाप के पास आने वाली हो।
मैं सुबह बगीचे में जाता, अक्सर कुछ कैरियां पड़ी मिलती। मैं काज़ीजी से आंख चुराकर इन्हें चुपचाप उठाता एवं भीतर रख आता। श्रीमतीजी इन्हें पाकर खिल उठती। घर में इन दिनों अक्सर कैरीपाक, अचार, कैरी का रस आदि बनता जो पूरे परिवार की पसन्द होता। कभी-कभी काज़ीजी चोर आंखों से मुझे कैरियां उठाते देख भी लेते पर मैं कौनसा उस पतलू की परवाह करता। इतना तो उसे भी समझना चाहिए कैरियां जिस घर में गिरती हैं उसी की होती हैं। काज़ीजी मुझे देखते एवं मुस्कुरा कर रह जाते। इस मुस्कुराहट के अनेक अर्थ होते , मैं समझते हुए भी ऐसे बनता जैसे मैं इससे निष्प्रभावित हूं।
आज सुबह मौसम सुहाना था। रोज की तरह हम दोनों बगीचे में पानी दे रहे थे। काज़ीजी हमारी संयुक्त दीवार पर रखे पौधों पर पानी देने आए तो मैंने ऊपर देखकर कहा, “ अब तो खूब कैरियां लग गई हैं। ’’ मुझे नहीं पता ऐसा कहकर मैं उनका ध्यान बंटाना चाहता था अथवा मेरा अपराध बोध छुपाना चाहता था कि ये कैरियां अब हमारे घर भी पहुंचने लगी हैं।
“ठीक कह रहे हैं आप! कैरियां खूब लगी हैं। आठ-दस दिन और देखता हूं , फिर माली को बुलवाकर उतरवाता हूं। काॅलानी के बच्चे भी इन पर पत्थर मारते रहते हैं।” कहते-कहते काज़ीजी ने मेरी ओर इस तरह देखा मानो कह रहे हों आप कौनसे कम हैं।
“ काज़ीजी ! कैरियों में हमारा हिस्सा तो होगा ही।” मैंने मुस्कुराते हुए अधिकार जताया।
“क्यों भाई! खाद-बीज हम दें और कैरियां तुम लो।” मुस्कुरा वे भी रहे थे पर उनकी मुस्कुराहट अप्रकट थी। मुझमे यह कला न थी।
“आप देखिए , आधा पेड़ तो हमारी ओर झुका है। पेड़ पर बैठे पक्षी दिन भर हमारा घर गन्दा करते हैं। सफाई कर-कर के थक जाते हैं।” मैंने उन्हें जान-बूझकर छेड़ा। उन्हें यूं छेड़ना मेरी आदत का हिस्सा था एवं काज़ीजी इसे अच्छी तरह जानते थे।
‘छाया भी तो आप ही को देता है।’ कहते हुए काज़ीजी दबे होठों में मुस्कुराए फिर किंचित् गंभीर होकर मेरी तरफ देखा जिसका सीधा अर्थ था बरखुरदार ! फलों पर ज्यादा नजर नहीं रखना। अब जल्दी ही कैरियां उतरवाता हूं। आप जैसा पड़ौसी हो तो सावधानी लाज़मी है।
हमारे उनके मध्य ऐसे मनोविनोद होते रहते। छः माह में हमारा रिश्ता अत्यन्त प्रगाढ हो चुका था। काज़ीजी के बच्चे मेरे बच्चों के हमवय थे, अक्सर मिलते रहते। औरतें आपस मेें खास वेजिटेरियन डिशेज का आदान-प्रदान करती रहती। मेरे बच्चे तमाम विरोध के बावजूद नाॅनवेज पसंद करते एवं उन्हें यह गुप्त तृप्ति काज़ीजी की रसोई से मिलती। छः माह में हम दोनों का परिवार इस तरह घुलमिल गया जैसे हम पूर्वजन्म के दो भाई हों।
इसी बीच एक दिलचस्प वाकिया हुआ। रात के दस बजे होंगे। मैं और काज़ीजी डिनर कर रोज की तरह बरामदे में टहल रहे थे। यकायक तेज हवाएं चली एवं कुछ ही देर में बवण्डर की तरह तूफानी हो उठी। स्थानीय भाषा में लोग ऐसी आंधी को ’बतूलिया’ कहते हैं। मारवाड़ में ऐसे ’बतूलिये’ आते रहते हैं। लेकिन यह क्या , देखते-देखते कैरियां टप-टप गिरने लगी, हमारा बरामदा कैरियों से भर गया। जैसे क्रिकेट के अंतिम आवर में अनेक बार भाग्य की अहम भूमिका बन जाती है, ’बतूलिये’ का रुख हमारे घर की ओर था। बतूलिया काज़ीजी के घर से हमारी ओर तेज गति से चल रहा था। पूरा बरामदा कैरियों से भर गया। उस रात मेरी तरफ पेड़ वाले हिस्से की कैरियां तो हमारे बरामदे में गिरी ही, काज़ीजी की तरफ वाले पेड़ की भी अधिकांश कैरियां हवा के फोर्स के साथ हमारे बरामदे में आ गिरी। यह अद्भुत , आनंदपूर्ण , घर बैठे गंगा आने जैसा दृश्य था। हमने थैले भर-भर कर कैरियां भीतर की। काज़ीजी इस वीभत्स , दर्दनाक दृश्य को अपने बरामदे में खड़े देख रहे थे। उनकी पुतलियों का रंग बदल गया। मायूस, उन्होंने अपने बरामदे में रखी कुछ कैरियां उठाई एवं भीतर चले गए।
दूसरे दिन सुबह बगीचे में पानी देते हुए मैंने काज़ीजी को नमस्ते किया तो मेरी आंखों में शरारत नाच रही थी। काज़ीजी विचित्र आंखों से कभी मुझे तो कभी अपने बेवफा पेड़ को देख रहे थे। तभी श्रीमतीजी दो कैरियों से भरी थैलियां लेकर आई एवं काज़ीजी की ओर बढ़ाते हुए बोली ,“भाई साहब ! कैरियां कल इधर गिर गई थी। मैंने चार-पांच रख ली हैं ।’’ काज़ीजी ने दोनों थैलियां पकड़ी तो उनकी आंखों की चमक बढ गई। क्षणभर में बना खेल बिगाड़ने की कूवत औरतों में ही होती है। मेरी हालत ऐसी थी मानो टायर पंक्चर हो गया हो पर अब क्या किया जा सकता था।
इस बात को भी छः माह होने को आए। काज़ीजी एवं मेरे बीच नित्य मीठी नोकझोंक चलती रहती। हमारे पारिवारिक संबंध अब और दृढ़तर हो चले थे। मुझे उनकी मित्रता सगुण-निर्गुण भक्ति का दिलफ़रेब मेल लगती।
दिन-महीने यूं ही बीतने लगे। कैरियों का मौसम फिर आया। आज सुबह अखबार देखा तो एक खबर पढ़कर तड़प उठा। बीती रात शहर के मुख्य बाजार में गाय के एक कटे सिर को लेकर दंगा हुआ था। हिंदू कह रहे थे यह मुसलमानों का कार्य है, मुसलमान उन सियासतदानों को कोस रहे थे जो आगत चुनाव में इस मुद्दे के अंगारों पर चुनावी रोटियां सेकना चाह रहे थे। इस खबर से शहरभर के लोग सावधान हो गए, फ़िजाओं में जहर घुल गया। लोग रात को जल्दी घर आने लगे, सड़कें वीरान हो गई। मौहल्ले, बाजारों में सन्नाटे पसर गए।
दूसरे दिन स्कूल जाते हुए दो हिन्दू बच्चों पर किसी ने तलवार से वार किये, बच्चे लहूलुहान हो गए। इस घटना से माहौल और बिगड़ गया। आग से आग भड़कती है। घृणा खरपतवार की तरह फैलती है। अब हिन्दू संगठनों ने प्रतिहमले की धमकी दी थी। मैंने एवं काज़ीजी दोनों ने बच्चों को संभलकर स्कूल जाने की हिदायत दी। जाने कब, कैसा हादसा हो जाए ?
इस बात को भी दस दिन होने को आये। माहौल अब पहले से शांत होने लगा था। शहर की रोजमर्रा जिंदगी भी सामान्य होने लगी थी। प्रशासन ने तीन दिन पूर्व दोनों पक्षों को बुलाकर समझौता करवाया था। यह उसी का प्रभाव था अथवा अल्लाह की मेहर आम आदमी अब सुकून में आने लगा था । कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि अंगारे बुझ गए हैं लेकिन चिंगारियां अब भी राख में दबी है। यही बातें आम आदमी के दिल में आशंका पैदा करती।
आज सुबह दूध लेने गया तो दुकान के पास ही काज़ीजी के दोनों बच्चे बैग लिये स्कूल जाने को खड़े थे। मुझे देखकर दोनों ने गुडमोर्निंग कहा, मैंने मुस्कुराते हुए दोनों के सर पर हाथ फेरा एवं दुकान की ओर बढ गया।
मैं दुकान पहुंचा ही था कि यकायक तेज शोरगुल सुनकर पीछे मुड़ा तो एक दृश्य देखकर हैरान रह गया। वर्षा ऋतु में यकायक उमड़ आये काले बादलों की तरह अचानक दो युवक , सिर एवं मुंह पर कपडे़ का डाटा बांधे हाथ में तलवार लिये इरफ़ान एवं सुहैल की तरफ बढ रहे थे। मैं तुरत स्थिति समझ गया। आगे बढ़ने वालों का मंतव्य स्पष्ट था। तलवारबाजी के पैंतरें मैंने भी जवानी में एक अखाड़े में सीखे थे लेकिन मैं निहत्था था। मैं दौड़कर बच्चों के पास आया। बच्चे भय के मारे कांपने लगे। मुझमें भी न जाने इतना साहस कहां से आ गया। यह करो या मरो वाली स्थिति थी। मैंने एक आदमी की कलाई पकड़कर उसके हाथ से तलवार छीनी एवं उसी की ओर तान दी। इसी झगड़े में उसके कपड़े का डाटा उतर गया। अरे! यह तो सुरेश था जो मेरे पिछले घर में नौकर था। वह तो एक होनहार , समझदार लड़का था। उसमें यह जु़नून किसने भर दिया ? आज मुझे समझ आया धर्म की अफीम कितनी नशीली होती है, यह अच्छे अच्छों को विचारों से अंधा कर देती है।
“ यह क्या कर रहे हो ऽऽऽऽ… सुरेश ?” मैं जोर से बोला। मेरी आंखों में भवानी उतर आई थी।
“सर! आप बीच में न आएँ। आप उन दो बच्चों के बारे में नहीं जानते जिन्हें मुसलमानों ने लहूलुहान किया है। खून का बदला खून से लेने से ही इन्हें अकल आएगी। उन्होंने हम पर रहम नहीं किया तो हम क्यों करें ?” सुरेश मरने-मारने पर उतारू था।
“तुम क्या समझते हो ऐसा करने से आगे खूनखराबा रुक जाएगा ? तुम आज दो पर वार करोगे, कल वे चार पर करेंगे, फिर तुम बदला लोगे। आखिर यह सिलसिला कहां रुकेगा ?” भयभीत इरफ़ान एवं सुहैल दोनों मुझसे चिपक गए थे।
तभी सुरेश का मित्र तलवार लेकर बच्चों की ओर बढा, मैंने बचाव किया , सामने वाला जवान था, उसके बाजुओं में दम था, मैंने बच्चों को इशारा किया तो दोनों दौड़कर दूधवाले की दुकान पर आ गए।
“काट दे साले को, गद्दारों को पहले काटो।” सुरेश जोर से चीखा। उसने कोई लिहाज नहीं किया।
दूसरा आगे बढ़ता तभी तेज गति से वहां पुलिस की एक जीप आयी। गाड़ी देखते ही दोनों को सांप सूंघ गया। दोनों पलक झपकते छूमंतर हो गये। शायद वहां खड़े लोगों में से किसी ने पुलिस को फोन कर दिया था। इंस्पेक्टर ने नीचे उतरकर मेरे कंधे पर हाथ रखा, “सर ! आप जैसे सभी हो जाएं तो दुनिया से नफरत मिट जाए। हमें आप पर गर्व है।’’
दूसरे दिन बगीचे में काज़ीजी मिले तो उनकी आंखें उपकार से लबालब थी। तभी दो कैरियां पेड़ से उनके बरामदे में गिरी। उन्होंने इन कैरियों को उठाया एवं मेरे हाथ में रखते हुए बोले, “ आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगा।”
“ मुझे क्यों दे रहे हो ? कैरियां गिरी तो आपके उधर हैं।” मैंने हमेशा की तरह छेड़ते हुए चुहल किया।
“अब यह पूरा पेड़ आपका है।” कहते-कहते काज़ीजी की आंखे डबडबा आई ।
इतना देखने का साहस मुझमें नहीं था।
मैं चुपचाप भीतर चला आया।
दिनांक: 05 अगस्त, 2018
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