मनुष्य ने इतनी वैज्ञानिक प्रगति कर ली पर वह क्या कभी अपने तनावों पर भी विजय प्राप्त कर सकेगा ?
राजेन्द्रबाबू डाइनिंग टेबल से लगी कुर्सी पर बैठे आज इसी उधेड़बुन में खोये थे। वे जब भी तनाव में होते अपनी कुहनियाँ टेबल पर रख दोनों हाथ के अंगूठे नाक के ऊपरी सिरे पर ले जाते एवं वहाँ ललाट के मध्य उन्हें मिलाकर किसी ध्यानमग्न योगी की तरह अपनी समस्याओं का हल ढूंढते रहते। अनेक बार उन्हें हल मिल भी जाता लेकिन जब समाधान नहीं मिलता तो कुण्ठा उनके मुँह चढ़कर बोलती। कुछ समस्याएँ दैनिक स्तर पर सुलझ जाती हैं, कुछ थोड़े समय बाद तो कुछ समस्याएँ विचित्र तरह की होती हैं। मनुष्य तमाम प्रयासों के बावजूद उनसे पार नहीं उतर पाता। अनेक बार इन समस्याओं के समाधान समीप होने पर भी उसकी पकड़ से परे होते हैं।
राजेन्द्रबाबू के बेटी के विवाह की चिन्ता आज उनके सर चढ़कर बोल रही थी। लड़की अगर तीस के पार हो जाये तो कौन माँ-बाप चैन से बैठ सकते हैं? तरुणा के संबंध के लिए वे कहाँ-कहाँ नहीं गए, कितनों के नखरे उठाये, कितने पापड़ बेले, उनकी जूतियाँ घिस गई पर बात नहीं बनी सो नहीं बनी। लड़की में कोई दोष हो एवं बात न बने तो गले उतारी जा सकती है पर एक सर्वगुणसंपन्न लड़की का संबंध न बन पाये तो दुःखी होना लाजमी है। तरुणा रूप-गुण में ही नहीं शिक्षा में भी इक्कीस थी। समाज की कितनी लड़कियाँ सीए जैसी प्रोफेशनल योग्यता हासिल कर पाती हैं पर जैसे किसी बाधाग्रस्त व्यक्ति का कोई काम नहीं बन पाता उसका संबंध भी पिता के तमाम प्रयासों के बावजूद तय नहीं हो पाया। अभी बीस रोज पहले एक लड़का नरेन्द्र जो खुद भी, चिरकुँवारा, बत्तीस वर्ष का सीए था, उसे देखकर गया था। लड़का सबको जंच भी गया पर फिर वही समस्या। उधर से कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया। राजेन्द्रबाबू ने लड़के वाले को फोन किया तो उन्होंने ‘ देखेंगे ’ जैसे कूटनीतिक शब्द का प्रयोग कर चुपके से किनारा किया। इसके पहले भी दस लड़के किसी न किसी कारण से किनारा कर चुके थे।
राजेन्द्रबाबू का हौसला टूट गया। पचपन में ही वे पैंसठ के लगने लगे। आज भी वे यही चिंतन कर रहे थे कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है पर उन्हें कोई समाधान नहीं मिला। कोई वाजिब कारण हो तो आदमी मन को भी समझाये। समाज की आँखों में वे अतिसंपन्न व्यक्ति थे और यह बात ठीक भी थी। अगर एक व्यक्ति के पास इस उम्र में दसों मकान, बीघों जमीन एवं बेशुमार आवक हो तो वह संपन्न ही कहलायेगा। उनकी फैक्ट्री में सौ से ऊपर कर्मचारी काम करते थे। प्राॅडक्ट लोकप्रिय था, फैक्ट्री सोना उगलती। लेकिन यह संपन्नता आज उन्हें प्रसन्न करने की बजाय चिढ़ा रही थी। आदमी बेटे-बेटियों के ही काम न समेट सके तो फिर यह संपति-शिखर किस काम के ? पहाड़ के नीचे खडे़ ऊँट की पीड़ा वही जानता है। सोचते-सोचते राजेन्द्रबाबू की खोपड़ी गरमा गई। कुण्ठा में वे कुर्सी से उठे एवं अकारण बीवी पर बरस पड़े, ‘ इंदु! अपने पीहर वालों को भी तो कहो कि वे कुछ प्रयास करें। अपने फँसे काम तो वे मुझसे निकलवाते रहते हैं, मेरे फँसे काम की ओर भी तो ध्यान दें।’ कुकर की सीटी से निकलने वाली स्टीम की तरह उन्होंने ‘ ठाकुर का दण्ड ठठेरे पर ’ पर लगाकर अपना तनाव कम किया।
इंदु जानती थी कि उसके पीहर वाले उनकी तरह ही वरन् उनसे भी ज्यादा जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं पर कोई किसी का प्रारब्ध तो नहीं बदल सकता। वह स्वयं भी इस चिंता में दिन-रात घुलती रहती थी। आदमी तो फिर चीख-चिल्लाकर अपनी कुण्ठा औरत पर पटक देता है, औरत कहाँ जाए ? स्थिति देखकर वह जब्त कर गई। उसे मालूम था उसके पति प्रयास कर-कर के भर चुके हैं। भरा व्यक्ति जवाब देने पर और भड़कता है। आग में इंधन डाला ही क्यों जाय। उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा।
तैयार होकर राजेन्द्रबाबू ने फुरती से नाश्ता किया। बैग उठाकर वे ड्राईंगरूम से बाहर निकले तब ड्राइवर मोहन सड़क पर खड़ा उनकी गाड़ी चमका रहा था। गत बीस वर्षों से यही उनका ड्राइवर था एवं उन्हें उस पर पूरा भरोसा था। वे मुख्य दरवाजे से बाहर आये तो वही दो बच्चे जो अक्सर ऑफिस जाते समय उन्हें घर के बाहर दिख जाते थे, खड़े दिखे। मैले-कुचैले कपड़े, बेतरतीब रूखे बाल जैसे महीनों नहाये नहीं हो, धँसी आशाहीन आँखें एवं नंगे पाँव उनके दारिद्रय की करुण-कथा कह रहे थे। उन्हें देखते ही वे बिफर पड़े, ‘ दिन प्रारंभ नहीं हुआ और मंगते हाजिर। ’ उन्होंने धक्का देकर दोनों को दूर किया एवं पास ही खड़े मोहन पर चिल्लाये, ‘ तुम्हें कितनी बार कहा इन्हें यहाँ न खड़ा होने दिया कर। यह नहीं समझते पर तू अंधा है क्या ? ’ मोहन क्या कहता। उसने बच्चों को डांटकर रवाना किया। गाड़ी में बैठने के पहले राजेन्द्रबाबू के चेहरे की नसें तन गई। मन ही मन सोचा अजीब बच्चे हैं, रोज भगाता हूँ एवं रोज आकर खड़े हो जाते हैं। कैसे ढीठ हैं यह दोनों। जाने इस देश को भिखारियों से कब निजात मिलेगी? जहाँ देखो वहीं भिखारी। कुछ बिना कपड़ों में तो कुछ कपड़ो में।
अपनी कुण्ठा को व्यवस्था के मत्थे मढ़ वे गाड़ी में बैठे तो ठण्डी हवा के झौंको से उन्हें सुकून मिला। थोड़ी ही देर बाद एक अपेक्षाकृत ऊँचे स्पीडब्रेकर पर गाड़ी उछली तो वे चौंके। मोहन को कुछ कहने का मन भी हुआ लेकिन जाने क्या सोचकर चुप रह गए। मोहन आज ठीक से गाड़ी नहीं चला रहा था। उनकी तरह वह भी आज उधेड़बुन में था। दस रोज पहले उसका बच्चा स्कूल जाते समय सीढ़ियों से गिर गया था। सर पर गहरी चोट लगी थी एवं उसके इलाज के चलते इन दिनों वह पैसों को लेकर परेशान था। राजेन्द्रबाबू से उसने पाँच रोज पहले एडवांस भी मांगा था पर राजेन्द्रबाबू नियम-कायदों के पक्के थे। वेतन देते तो पहली तारीख को, हाँ, इसमें कोई चूक नहीं करते थे। वे जानते थे एडवांस का चलन फैक्ट्री का माहौल खराब कर देगा। एक को देते ही कतार लग जाएगी। राजेन्द्रबाबू एक कुशल प्रबंधक थे एवं इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि कर्मचारी कितनी करुणा का पात्र होता है। हर एक को वे एक विशिष्ट दूरी पर रखते एवं जहाँ तक संभव होता तीखे पेश आते। उन्हें पता था आदमी से कहीं अधिक प्रशासन उसकी इमेज करती है। उन्होंने मोहन को एडवांस देने से मना कर दिया। बच्चे की पीड़ा एवं आर्थिक कशमकश में मोहन का जाने कब ध्यान भंग हुआ एवं गाड़ी सामने आती एक अन्य गाड़ी से टकरा गई। सामने वाली गाड़ी का मालिक अकड़ू था, राजेन्द्रबाबू से उसने पूरे पच्चीस हजार वसूल किए। उनकी गाड़ी जिस तरह से टकराई उससे लगता था इतनी ही रकम इस गाड़ी के मरम्मत पर भी खर्च होना तय है। इसी गणित में उनकी नसें तन गई। वे गाड़ी से बाहर आये, एक अन्य ड्राइवर को बुलाया एवं वहीं खड़े मोहन को यह कहकर घर का रास्ता दिखाया कि ‘ अब तेरी नौकरी के दिन पूरे हुए।’ मोहन बेचारा पहले से परेशान था, अब कोढ़ में खाज हो गई।
राजेन्द्रबाबू ऑफिस में जाकर बैठे, टाई ढीली की एवं एक गहरी सांस लेकर एसी की ठण्डक को महसूस किया। अब उन्होंने एक-एक कर कागजों को निपटाना प्रारंभ किया। एक-दो पेपर निपटाये ही थे कि तीसरा पेपर देख फिर झुंझला उठे। यह मजदूरों का प्रतिवेदन था जिसमें यूनियन नेता की स्पष्ट धमकी थी कि फैक्ट्री में बेशुमार आमदनी है अतः कर्मचारी इस बार बीस प्रतिशत से कम बोनस नहीं लेंगे। राजेन्द्रबाबू उन्हें हर बार कानूनसम्मत बोनस देते थे जो दस प्रतिशत से भी कम था। इस अप्रत्याशित चुनौती को देख वे बिफर गये। शायद आज उनका दिन ही खराब था।
उन्होंने बेल बजाकर सीनियर एकांउटेंट त्रिवेदीजी को बुलाया। त्रिवेदीजी उनकी फैक्ट्री में गत तीस वर्षों से कार्य कर रहे थे एवं उन्हें उन पर पूरा भरोसा था। एक और कारण जिसके चलते वे उन्हें अधिक पसंद करते वह यह कि बेटी के विवाह के मुद्दे पर वे एवं त्रिवेदीजी हमदुखियारे थे। त्रिवेदीजी की भी बेटी तीस के पार थी एवं उसका रिश्ता भी तमाम प्रयासों के बावजूद तय नहीं हो पाया था। राजेन्द्रबाबू कभी-कभी उनके आगे मन का काँटा निकाल लेते। अभी कुछ दिन पहले ही वे त्रिवेदीजी को कह रहे थे, ‘ त्रिवेदीजी! दुनिया कुछ भी कहे पर लड़के-लड़की में भेद आज भी मिटा नहीं है। कागजी आँकड़े कुछ भी दावा करें, बेटी वाले की चिंता आज भी बेटे वाले से कहीं अधिक होती है।’ त्रिवेदीजी क्या कहते। वे हाँ में हाँ मिलाते तो राजेन्द्रबाबू को लगता त्रिवेदीजी समझदार एवं कर्मठ कर्मचारी हैं। त्रिवेदीजी की व्यथा भी वे ही जानते थे। अभी कुछ रोज पहले उनका काम बन भी जाता। एक लड़का देखा, अच्छा भी था पर उसका बाप लोभी था। उसने विवाह में एक फ्लैट की मांग की तो त्रिवेदीजी के होश उड़ गए। वह इतनी रकम कहाँ से लाते। उनका तो एक ही आसरा था- राजेन्द्रबाबू एवं वे जानते थे उनसे सहायता मांगने का अर्थ है सीधे-सीधे उनसे रिश्ता बिगाड़ना। इसी के चलते उन्होंने उनसे बात न कहना ही मुनासिब समझा। हाँ, त्रिवेदीजी की बीवी पण्डिताईन बिगड़ गई। रात त्रिवेदीजी को समझाया, मरने से ही स्वर्ग मिलता है। लड़की बाँस की तरह बड़ी हो चली है। इतने वर्षों से सेठ की जीहजूरी कर रहे हो, एक बार मदद मांगने में क्या हरजा है। दूसरे दिन उन्होंने साहस कर राजेन्द्रबाबू से कहा कि अगर वे मदद करें तो कुछ रकम उनके बचत से मिलाकर वे फ्लैट जुटा सकते हैं। राजेन्द्रबाबू मंजे हुए खिलाड़ी थे। वे तरकीब से यह कह कर टाल गये कि मजदूरों को इसी माह बोनस देना है, अभी ऐसा संभव नहीं है। वैसे त्रिवेदीजी से खुश थे, एकबारगी मन में उन्हें मदद देने का आया भी पर तभी एक कुटिल विचार उनके मस्तिष्क में तैर गया-इसकी बेटी का विवाह हो गया तो फिर अपना दुःख किससे बाँटूगा ? उनसे फिर वे दुःख बाँटेगे और वह कुछ कहेगा तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कोई उनसे सहानुभूति प्रकट कर रहा है। अधीनस्थ कर्मचारियों की सहानुभूति अहंकार भरे सेठ के लिए मृत्यु से कम नहीं होती। उन्होंने बड़ी होशियारी से पीछा छुड़ा लिया।
त्रिवेदीजी आज अपेक्षाकृत थोड़ी देरी से केबिन में आये तो राजेन्द्रबाबू उन पर बरस पड़े, ‘मजदूर नेता को कह दो काम करें तो करें, बोनस उतना ही मिलेगा जितना देता आया हूँ। उसे समझा देना कि मैं तो बन्द फैक्ट्री में भी पेट भर लूंगा। उनके फाके पड़ जायेंगे।’ त्रिवेदीजी ने मालिक की बात हुबहू नेता तक पहुँचा दी। नेता ने दूसरे दिन से काम बन्द करने का एलान कर दिया।
राजेन्द्रबाबू पर गाज गिरी। उन्हें लगा जैसे एक साथ अनेक कैंकड़ो ने उन्हें जकड़ लिया है पर अब वे कर भी क्या सकते थे। सभी से बैर भी तो उन्होंने ही मोल लिया था। बिना विचारे गलत बोलने वाले को उसका भुगतान तो करना ही पड़ता है।
दूसरे दिन वे घर के बाहर अन्यमनस्क आरामकुर्सी पर बैठे थे। इंदु एवं तरुणा आज तड़के एक दूरस्थ मंदिर यह कहकर चले गए थे कि वे शाम तक लौटेंगे। इंदु इन दिनों अक्सर मंदिरों के चक्कर लगाती रहती। राजेन्द्रबाबू उसे यह सोचकर मना नहीं करते थे कि चलो कोई देव पुकार सुने तो तरुणा का काम बन जाय।
पत्थर के इन देवताओं ने क्या कभी किसी की सुनी है ? देव अगर कोमल होते तो क्या मनुष्य इन्हें पत्थरों में तराशता ?
राजेन्द्रबाबू अब भी कुर्सी आगे-पीछे कर झूल रहे थे।
आज उन्होंने फैक्ट्री जाने के बजाय घर रहना मुनासिब समझा। बन्द ताला देखकर जी जलाने से क्या फायदा। एकाएक कितनी समस्याएँ मुँह बाँये आकर खड़ी हो गई। यही सोचते-सोचते वे पुनः दोनों अंगूठें ललाट पर रखकर उसी मुद्रा में बैठ गये जैसे अक्सर बैठा करते थे।
जाती हुई सर्दियों के दिन थे लेकिन सुबह की धूप अब भी सुहावनी लगती थी। आज उनका चिंतन और गहरा हो चला था। यकायक उन्हें लगा जैसे आज वे एक नये सिरे से सोचने लगे हैं। कहीं मेरा प्रारब्ध, मेरा दुर्भाग्य स्वयं मेरे चिंतन का तो दोष नहीं ? आखिर यह समस्याएँ क्यों मुझसे चिपकी हैं? कहीं मैं किसी अज्ञात प्रकृति का ऋणी तो नहीं ? शायद ऐसा हो भी। गत बीस वर्षों में मैंने बेशुमार दौलत कमाई पर स्वयं के सुख के अतिरिक्त किसके सुख में इज़ाफ़ा किया ? तिजोरी में धन को बढ़ाने के अतिरिक्त किसका भला किया ? धन पर फन की तरह बैठ गया। समाज-सरकारों को नित्य कोसता रहा पर स्वयं क्या किसी ऐसे परोपकारी कार्य को अंजाम दिया जिससे पीड़ित मनुष्यता को सुकून मिले। मेरी संपदा का दीप तो मैंने मेरे स्वार्थ के घड़े में बन्द कर दिया, अन्यों को यह प्रकाश फिर कैसे मिलता ? अन्यों की तो छोड़ो, मेरे इर्द-गिर्द रहने वाले मित्र-रिश्तेदारों-कर्मचारियों तक का दुःख मिटाने का मैंने प्रयास नहीं किया ? मेरे प्रारब्ध फिर कैसे कटते ? यकायक उन्हें लगा जैसे चिन्तन के रोशनदान से एक नई किरण उनकी आत्मा की अंधेरी कोठरी में उतर आई है एवं इस किरन से सर्वत्र उजाला हो गया है। यह विलक्षण ही नहीं अलौकिक अनुभव था। राजेन्द्रबाबू को लगा क्यों न आज एक नयी तरह से जीवन की शुभारंभ की जाय।
उन्होंने आँखें खोली तो वही दो बच्चे उनके सामने खड़े थे। उनकी आँखों में भय था एवं आशा भी कि शायद यहाँ से कुछ मिल जाये। भरे तालाब के किनारे ही लोग खाली घड़े लेकर आते हैं। राजेन्द्रबाबू जाने क्या सोचकर उनके समीप आये एवं कुछ देर वहीं खड़े रह कर उनके रूखे बाल, मलीन चेहरे एवं फटे-गंदे वस्त्रों को निहारते रहे। यकायक उन्होंने दोनों बच्चों के कंधो पर धीरे से हाथ रखे एवं बोले ‘ भीतर आओगे!’ बच्चे विस्मयमुग्ध थे। शायद उन्होंने गलत सुन लिया हो यह सोचकर वे दो कदम पीछे हट गए। राजेन्द्रबाबू ने पुनः वही बात दोहराई तो बच्चे झर-झर रोने लगे। बच्चों ने अब तक उनकी कठोरता के ही दर्शन किए थे, उनकी करुणा उन्हें असहज ही नहीं असह्य हो चली थी। उन्हें इस असमंजस में देख राजेन्द्रबाबू बोले, ‘डरो मत। मैं तुम्हारे साथ हूँ। भीतर आ जाओ।’ वे बच्चों के साथ भीतर आये तो राजेन्द्रबाबू सबसे पहले उन्हें बाथरूम में ले गये। उन्होंने उनके मैले-कुचैले वस्त्र उतारकर खुद अपने हाथों से उन्हें नहलाया। शरीर को साबुन से रगड़ा, उनकी गंदगी ब्रश से दूर की, माथे पर शेंपू लगाया एवं एक नये तौलिये से उनके बदन को पौंछा। बाहर आकर उनके चेहरे पर क्रीम एवं बालों में तेल लगाया तो बच्चे खिल उठे। सचमुच वे कितने सुंदर बच्चे थे। पहले इन्हीं बच्चों को देखकर उन्हें घिन आती थी। उनकी घिन एवं उनके प्यार के बीच मात्र एक नये अहसास का ही तो अंतर था। आज उनके सर पर एक विचित्र भूत सवार था। वे बच्चों को लेकर बाहर आये, उन्हें अपनी गाड़ी में बिठाया एवं सीधे डिपार्टमेंटल स्टोर गए। वहाँ उन्होंने बच्चों के लिए नये कपड़े, नये जूते खरीदे एवं उन्हें कपड़े बदलने एवं जूते बांधने को कहा। प्रफुल्लित बच्चों ने यह कार्य आनन-फानन कर लिया। अब वे रईसों के बच्चे लगने लगे। इसके पश्चात् वे बच्चों को लेकर रेस्ट्रांँ गये, वहाँ उनके साथ भोजन किया एवं उन्हें खाते हुए देखने लगे। बच्चे तन्मय होकर ऐसे भोजन कर रहे थे जैसे ऐसा दिन फिर नहीं आने वाला।
बच्चों के साथ गाड़ी में वापस लौटते समय उन्होंने मन ही मन निर्णय लिया कि वे अब इन बच्चों को पढ़ायेंगे भी। इतना ही नहीं एक संस्था भी खोलेंगे जहाँ ऐसे बच्चे पढ़ सकें। घर आकर उन्होंने बच्चों को विदा किया।
भीतर आते ही उन्होंने मोहन को फोन किया, ‘तुम आज आये क्यों नहीं ?’ वह क्या जवाब देता। अंधा क्या चाहे दो आँखें। वह राजेन्द्रबाबू के कहने मात्र से दौड़ा चला आया। मोहन के आते ही उन्होंने कहा, ‘गाड़ी निकालो, मुझे ऑफिस जाना है।’
वे अब मोहन के साथ गाड़ी में थे। वे नित्य गाड़ी में पीछे बैठते थे पर आज आगे मोहन के साथ वाली सीट पर ही बैठ गये। मोहन गाड़ी स्टार्ट करता उसके पहले उन्होंने उसके कमीज की जेब में बीस हजार रुपये रखे एवं बोले, ‘मोहन! कल मैं गलत था। तुम हमेशा अच्छी गाड़ी चलाते हो। कभी गलती भी हो सकती है। मुझे तुम्हें यूँ बेआबरू कर नहीं निकालना चाहिए था। तुम इस रकम से अपने बच्चे का इलाज करवा लेना। यह मेरी और से तुम्हें एक छोटी-सी भेंट है।’ वे कुछ और कहते इसके पहले मोहन ने उनके चरण पकड़ लिये। उसकी आँखों में दरिया बह चला था। थमा तो बोला, ‘मालिक! मैंने आपको पहचानने में भूल की। आप देवता हैं।’
ऑफिस पहुँचकर उन्होंने नित्य की तरह त्रिवेदीजी को बुलाया। त्रिवेदीजी ने उन्हें ‘नमस्ते’ कहा तो आज पहली बार उन्होंने ‘नमस्ते’ कहकर उत्तर दिया। त्रिवेदीजी हैरान रह गये। राजेन्द्रबाबू की आवाज सुनकर वे चौंके, ‘त्रिवेदीजी! आप मजदूर नेता को सूचना दें कि उनकी बीस प्रतिशत बोनस की मांग मान ली गई है।’ त्रिवेदीजी सकपकाए तो राजेन्द्रबाबू ने उन्हें बैठने को कहा। वे बैठे तो उन्होंने अपना हाथ उनके हाथ पर रखा एवं बोले, ‘त्रिवेदीजी! आपकी बच्ची को फ्लैट मैं दूंगा। आप बेटी का रिश्ता तय करिये।’ आश्चर्य में डूबे त्रिवेदीजी धन्यवाद भी नहीं कह पाये।
शाम घर लौटते समय वे प्रफुल्लित थे। घर पहुँचे तब तक रात चढ़ने लगी थी। वे मुख्य दरवाजा खोलकर भीतर जाने ही वाले थे कि इंदु एवं तरुणा की गाड़ी उनके आगे आकर रुकी। दोनों प्रसन्न नज़र आ रहे थे। गाड़ी से बाहर आते ही इंदु उनके समीप आकर बोली, ‘भीतर चलो, एक जरूरी बात कहनी है।’
सभी अंदर आये तो इंदु गहरी सांस लेकर बोली, ‘आज गज़ब हो गया। वहाँ संध्या आरती में हमें नरेन्द्र मिल गया। आरती के पश्चात् हम बाहर आये तो वह भी पीछे-पीछे चला आया। मैं रुकी तो वह समीप आकर बोला, ‘आन्टी साॅरी! मेरी ही वजह से पापा को आपको अस्पष्ट उत्तर देना पड़ा। मैं चाहता था कि मेरी नौकरी लगने के पश्चात् ही आपसे पुनः संपर्क किया जाये। संयोग से आज दोपहर ही ई-मेल से मेरा नियुक्ति पत्र आया है। मुझे अब यह कहने में कोई झिझक नहीं कि तरुणा मुझे पसंद है। मेरे पापा परसों स्वयं आप के घर आकर मिलेंगे। आज इसी ख़ुशी में मैं मंदिर ईश्वर का आभार व्यक्त करने आया था। ईश्वर इतना शीघ्र सुन लेता है, यह तो मैं सोच ही नहीं पाया। इतना कहकर लड़के ने तरुणा से हाथ मिलाया एवं अपनी गाड़ी में बैठकर चला गया। आप तैयारी करो, परसों लड़के के पिता आने वाले हैं।’
राजेन्द्रबाबू की आँखें डबडबा आई।
चिन्तन का एक नया तारा आज उनकी आत्मा के आकाश पर दीप्त हो उठा था।
वे चलकर डाइनिंग टेबल के समीप आये।
अपने नित्य अंदाज में टेबल पर दोनों कुहनियाँ रखकर वे पुनः चिंतन में डूब गये। सोचने लगे- यह प्रकृति कितनी रहस्यमय है। इंसान अगर एक दिन, मात्र एक दिन, सही तरीके से सोच ले तो समूची ‘कायनात’ उसके साथ आ खड़ी होती है।
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