कद्र

चन्द्रशेखर ऑफिस पहुँचे तब तक दिन चढ़ चुका था। गरमी में दिन चढ़ते देर क्या लगती है। अपने केबिन में आकर उन्होंने वाॅलक्लोक पर उड़ती नजर डाली। साढ़े ग्यारह बजे थे। कुर्सी पर बैठने के पूर्व उन्होंने टाई ढीली की, कमर को कुछ पल के लिए पीछे धकेला फिर आगे आकर अपने काम में लग गये। ऑफिस के एसी से उन्हें ठण्डक महसूस हुई। कुछ देर तो वे काम करते रहे फिर पेन टेबल पर रखा, अपनी दोनों हथेलियाँ आंँखों पर रखी एवं किसी गहरे चिंतन में डूब गये। किसी भी गंभीर विषय पर मनन करने का उनका यही स्टाइल था। शायद इस तरह स्वयं को रिलेक्स कर वह बेहतर सोच पाते थे।

चन्द्रशेखर इसी शहर की प्रसिद्ध कंपनी ‘मेटल्स एण्ड मेटल्स’’ में सीईओ यानि मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे। रोज दस बजे आते थे, पर आज सुबह किसी विशिष्ट क्लाईन्ट से मिलना था, अतः आते-आते देर हो गई।

उनके पद के अनुरूप ही उनका ऑफिस था। आकार में अपेक्षाकृत बड़ा एवं स्वच्छ केबिन, शानदार ऊँची गद्देदार मोबाइल कुर्सी, शीशा लगी टेबल जिस पर टेबल लेम्प, पेन स्टैण्ड एवं अन्य रोजमर्रा की वस्तुएं रखी थी। केबिन के मुख्य दरवाजे एवं खिड़कियों पर रेशम के छींटदार पर्दे लगे थे जो हौले-हौले झूलते हुए खूबसूरत लगते। खिड़कियों के बाहर रखे कैक्टस प्लांट्स एवं फर्श पर बिछा काश्मीरी कालीन केबिन की सुंदरता में और इजाफा करते। उनके सामने ग्राहकों के बैठने की कुर्सियां भी उतनी ही मनभावन थी। आजकल प्राॅडक्ट मार्केटिंग के लिए तीखे लटके-झटके चाहिए। वे दिन गये जब माल की गुणवत्ता ही उसका विज्ञापन होती थी। अब तो बाजार में घुसने एवं ठहरने के लिए भी बहुआयामी प्रतिभा चाहिए। उत्पाद अच्छा हो एवं प्रजेण्टेशन पैक भी अन्यथा कौन रिस्पांड करता है? आज का उत्पादक पेड़ पर हांडी लटकाकर मार्केंटिंग की भाजी नहीं पका सकता। जमाना अब स्पीड का है , अच्छे माल, अच्छे वातावरण एवं अच्छे व्यक्तित्व की त्रिवेणी से ही ग्राहक को रिझाया जा सकता है। बीरबल की खिचड़ी वाले तरीके अब हवा हुए।

चन्द्रशेखर का व्यक्तित्व भी चुंबकीय था। उम्र पचास वर्ष, मजबूत कद काठी, रुआबदार आँखें, तिस पर राजपुरुषों सा तीखा नाक एवं सुघड़ दंत पंक्ति उनके व्यक्तित्व में और इज़ाफा करती। ऑफिस में उनके अनुशासन की तूती बोलती। इतनी उम्र में भी चुस्त थे। विवाह किए तेबीस वर्ष होने को आए। पत्नी सुष्मिता उनकी तरह ही सुंदर एवं स्मार्ट थी। दोनों के एक ही संतान थी, पुत्री नविता जो अब बीस के पार थी।  वे उसे बेहद चाहते थे। यहीं उनके अनुशासन की डोर ढीली पड़ती नजर आती। अनुशासन की गांठें भी कहीं तो खुलती ही हैं।

न जाने चन्द्रशेखर आज इतनी देर क्या सोच रहे थे? रोज तो ऐसा नहीं होता था? बड़े अधिकारियों के तनाव भी तो कम नहीं होते। उनकी खोपड़ी की घंटियाँ बाहर की घंटियों से अधिक शोर मचाती हैं।

क्या आज कुछ रहस्यमय घटित हो रहा था? खुदा जाने।

सामने पड़े टेलीफोन की घंटी बजी तो उन्होंने लपककर चोगा उठाया। उन्हें मालूम था, सुबह जिस ग्राहक से वे बात करके आये थे वह जरूर जवाब देगा। बड़े अधिकारियों को सुबह-शाम, उठते-बैठते, सोते-जागते एवं यहाँ तक कि नींद में भी टारगेट्स दिखते हैं। लक्ष्य प्राप्ति का तनाव उन्हें अन्य किसी मुद्दे पर सोचने ही नहीं देता। कभी तनाव में शर्ट के बटन ऊपर-नीचे लगा देतेे हैं, कभी पैंट की जिप बंद नहीं करते एवं कभी-कभी तो घर में रखी दो जूतों की जोड़ियों में से एक-एक जूता पहन कर चल देते हैं। इनकी ऐसी दशा देखकर बाबुओं के पौ-बारह हो जाते है। वे लंच में इन्हीं बातों की चर्चा कर ठहाके लगाते हैं। अफसरों की फजीती उन्हें असीम सुख देती है।

टेलीफोन के उस ओर सुष्मिता लगभग चीख रही थी, ‘‘शेखर, मैं लुट गई ….नविता ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली है।’’ क्षण भर के लिए मानो समय ठहर गया। चोगा उनके हाथ से छूट गया एवं कमरे में ऐसी निस्तब्धता छा गई जिसमें एसी की आवाज तक स्पष्ट सुनाई देने लगी थी।

मामला संगीन था। यकायक वे संभले, टेबल पर रखी कार की चाबी उठाई एवं सीधे घर की ओर भागे। ऑफिस के कर्मचारी उनके इस अप्रत्याशित व्यवहार से हैरान थे पर स्थिति की गंभीरता के मद्देनजर उन्होंने किसी को कुछ भी बताना मुनासिब नहीं समझा। वे चुपचाप घर चले आए। सारे रास्ते कार वे नहीं शायद उनका भूत चला रहा था।

वे घर पहुँचे तो सुष्मिता उन्हें देखते ही लिपट गई। अब तक आस-पड़ौस के लोग भी इकट्ठा हो चुके थे। घर में मानो आसमान गिर पड़ा था। सुष्मिता चीख-चीख कर बदहवास हुए जा रही थी, ‘‘मेरी फूल-सी बच्ची जाने कहाँ चली गयी। हाय! अब मैं कैसे जिऊँगी?’’ पास खड़ी स्त्रियाँ उसे ढांढस बंधा रही थी। शायद किसी ने पुलिस को सूचना दे दी थी। पुलिस भी आने में थी।

नविता का शव घर के एक कोने में सफेद चादर में लिपटा था। चारों ओर अगरबत्तियाँ जल रही थी। अपनी पुत्री का शव सामने देख वे बिलख पड़े। लगा जैसे उनकी चिरसंचित अभिलाषाएं मिट्टी में दफन हो गई हैं। पुत्री के लिए कैसे-कैसे स्वप्न  बुने थे, सभी ताश के महल की तरह ढ़ह गये। भाग्य ने उनके ललाट पर सर्वनाश की मुद्रा अंकित कर दी थी। भीतर कुछ तड़तड़ाकर टूट रहा था। पुत्री को वे प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। चादर उठाकर उसका मुँह देखने का साहस भी वे नहीं जुटा पाये। जिस बच्ची को उन्होंने फूल की तरह सदैव हँसते-खेलते-मुस्कुराते देखा हो, उसे मुरझाये हुए कैसे देखते? उनका कण्ठ सूखने लगा, छाती में एक अजान-सी पीड़ा उभरने लगी।

शेखर आंधी में उखड़े पेड़ की तरह जड़ हो चुके थे। चुपचाप एक कोने में आकर धम्म से बैठ गये। उन्हें मालूम था उसने जहर क्यों लिया है। उन्हीं के व्यवहार से वह सर्वाधिक क्षुब्ध थी। वे ही बात-बात पर उसे टोकते थे। ऐसे करो, वैसे करो, आजकल के बच्चों में सभ्यता ही नहीं रही एवं जाने क्या-क्या! सुष्मिता अनेकों बार समझाती, जवान बच्ची है, जमाने के साथ बहने दो,लेकिन जहाँ देखो, जब देखो अनुशासन की पुँगी लेकर बैठ जाते थे।

आज सुबह वह नाश्ते की टेबल पर आई तब कितना प्रसन्न थी। ‘‘गुड माॅर्निंग डेड!’’ कहकर कुर्सी पर बैठी तब उसका चेहरा दमक रहा था। युवा बच्चे अजस्र ऊर्जा के स्रोत होते हैं। एक-दो बार तो बातें करते हुए ठहाका लगाकर ऐसे हंसी मानो गाय के थनों से धारोष्ण दूध की धारा बह निकली हो, लेकिन कुछ देर में ही बाप-बेटी में तकरार  हो गई। बाद में जमकर बहस भी हुई। ऐसा अक्सर होता था। दोनों का इसके बिना पेट नहीं भरता था। दोनों ऐसे बौद्धिक विवाद में असीम आंनद लेते थे। नित्य सुबह वे दो नाश्ते एक साथ लेते, एक जो सुष्मिता बनाती एवं दूसरा तकरार का।

सुष्मिता ने टेबल पर नाश्ता लगाया तब नविता अखबार पढ़ने लगी थी। शेखर खाली थे, टेबल  पर  अगुंलियाँ थपथपाते हुए बोले, ‘‘नविता, जरा अखबार इधर देना!’’ ‘‘पापा, आप देख नहीं रहे, मैं पढ़ रही हूँ।’’ नविता पढ़ते-पढ़ते बोली। ऑफिस का सीईओ घर में मन मसोस कर रह गया। नविता नाज़ों से पली थी, बाप की हुकूमत के नियम उस पर असर नहीं करते थे।

‘‘तो बीच का ही पेज दे दो बेटा।’’ शेखर नविता को बेटा ही कहते थे।

‘‘पापा! यू नो माई हेबिट्स, मैं पूरा पढ़कर ही दूँगी।’’ नविता की खोपड़ी में कुछ विशिष्ट गणित चल रही थी।

एकाएक बात को उलटते हुए उसने अखबार बंद किया एवं पापा की ओर बढ़ाते हुए बोली, ‘‘चलो आपके लिए सेक्रिफाईस कर देते हैं, लेकिन एवज में आपको दो जीन्स की पेंट्स दिलानी होगी। पहले भी दो बार कह चुकी हूँ।’’

‘‘नो-नो! मुझे ऐसी भद्दी चिपकती हुई पेंटे जरा भी पसंद नहीं। पहनना है तो सलवार-कुर्ता पहनो। कपड़े सलीकेदार होने चाहिए।’’ अखबार हाथ में आने के बाद शेखर को क्या गरज थी।

‘‘नो-नो से काम नहीं चलेगा पापा! मुझे चाहिए यानि चाहिए। आप हर चीज  रिसा-रिसा कर दिलाते हैं। इस बार मैं स्पष्ट कहे देती हूँ जीन्स भी लूँगी, डिस्को सीखने भी जाऊँगी एवं उसके बाद अर्पित के साथ घूमने भी।’’ नविता कौन-सी बाप से डरती थी।

‘‘उसी लफाड़ी के साथ, जो पढ़ता है न लिखता है। हमारे जमाने में उसका बाप भी एक नंबर का बदमाश था।’’ शेखर तमतमाये।

‘‘पापा उसे लफाड़ी न कहो। वह एक अच्छा लड़का है।’’ नविता के चेहरे पर अब रोष उभरने लगा था।

‘‘करो अपनी मनमरजी, जहाँ चाहे घूमो-फिरो। एक तो वह हमारी जाति का नहीं, दूसरे ठेठ के फकीर हैं। ऐसे घर में अंतरंगता बढ़ाने से क्या फायदा?’’ शेखर कौन से चुप बैठने वाले थे।

‘‘अगर वो फकीर न होकर अरबपति होते तो क्या अधिक गुणी हो जाते ? और अब कौन-सा जांति-पांति का बंधन रह गया है। मंचों से तो मुख्य अतिथि बनकर आप ऊँची-ऊँची बातें करते हैं, वहाँ तो समाज सुधार का ढोल पीटते हैं लेकिन घर में वही दकियानूसी। आज स्पष्ट सुन लें कि मैं उसे चाहती हूँ एवं उसी से ब्याह करूँगी।’’ नविता की पुतलियों के इर्दगिर्द अब हल्का लाल रंग उभरने लगा था।

‘‘मुझे क्या! फकीरी भोगोगी तब खुद अक्ल आ जायेगी। यह फकीरों के बच्चे अक्ल से बहुत तेज होते हैं एवं अमीरों की लड़कियाँ एकदम गधी।’’ शेखर लगभग चीख रहे थे।

‘‘तभी तो समाजवाद आयेगा, डैड।’’ नविता ने नहले पर दहला दिया। 

तकरार की कुढ़न को नविता ने नाश्ते पर निकाला। आज आलू के परांठे बने थे, उसने मम्मी को नूडल्स बनाने को कहा था। प्लेट में आलू के परांठे देखते ही नविता ने नाक, भौं सिकोड़ी।

‘‘मुझे नहीं खाने आलू के परांठे, मम्मी! मैंने कहा नहीं था आज नूडल्स लूंगी।’’ कहते-कहते नविता ने प्लेट गुस्से में पीछे सरकाई।

‘‘बित्तुभर की छोकरी, गज़भर की जुबान। तो खुद बनाया करो न नाश्ता! काम होता नहीं, पर चाहिए राजशाही भोजन। कोई भी काम दे दो, बहाने जुबान पर रहते हैं। कदाचित कर भी लो तो जैसे हम पर एहसान हो। नखरे और सहो, एक कदम चली नहीं कि तिरसां मरगी।’’ शेखर को भी मानो कहने का मौका मिल गया।

‘‘ऐसे खाने से तो जहर न खा लूँ।’’ नविता गुस्से में उठी एवं तेजी से अपने कमरे में जाकर कुण्डा लगा लिया।

शायद इसके बाद ही उसने जहर खा लिया होगा?

घर में मानो प्रेत सन्नाटे पसर गये थे। शेखर स्वयं को माफ नहीं कर पा रहे थे। अगर बच्ची की बात मान लेते तो क्या हो जाता? क्या वे विषय बहुत गंभीर थे? घरेलू अंतर्विरोध कहाँ नहीं होते? बच्ची अगर जीन्स पहन लेती तो क्या बुरा हो जाता? क्या हर कार्य में मीन-मेख निकालना जरूरी है? क्या लड़कियाँ आजकल जीन्स नहीं पहनती? कुछ दिन पहले तुमने उसे स्विमिंग सूट खरीदने का भी मना किया था। इतना तो सोचते कि वह स्विमिंग करेगी तो स्विमिंग सूट में ही करेगी। अगर अर्पित उसे पसंद था तो कौन-सी आफत आ गई थी? लड़का स्मार्ट है, गुणी है, अच्छे नंबर लाता है। क्या धन से ही सारे सुख मिल जाते हैं? अगर उसने अपनी पसंद के नाश्ते के लिए कह दिया तो कौन-सा बुरा कर दिया? बच्चे खाने-पीने के शौकीन होते ही हैं। वे वैरायटी पसंद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? तुम खूसटों को खाना नहीं पचता तो वे भी रोज खिचड़ी खायें? हर बात में टोका-टोकी। कई बार वह रेस्टराँ चलने को कहती थी। तब तो यह काम है, वह काम है और अर्पित के साथ जाने लगी तो आंवे जल गए। कड़वे बोले तो कड़वा भुगतो। जबान में ही रस और जबान में ही विष है। दो कौड़ी का स्वभाव था तुम्हारा। तुम तो यही चाहते थे कि वह तुम्हारे निर्देशों की बेड़ियों में बंधी रहे। तुम्हीं ने उसकी आकांक्षाओं एवं महत्त्वाकांक्षाओं के वृक्ष को दकियानूसी की कुल्हाड़ी से आहत किया है। विष बीज तुमने बोये, फल भी तुम्ही भोगो। तुम्हारी ही अक्ल पर पर्दे पड़े थे। पूरे औंधी खोपड़ी थे। वह तुम्हारी ही संकुचित विचारधारा एवं संकीर्ण मानसिकता का शिकार हुई है। कभी उसका तर्क, उसका मत जानने की कोशिश ही नहीं की। वह आम कहती, तुम इमली कहते। तुम्हारी माँ ठीक कहती थी दुनिया में डेढ़ अक्ल है, एक तुझमें, बाकी सब में। और लगाओ होशियारी! और दिखाओ चतुराई! गलत विचारों की चलनी में दूध दूहो, फिर भाग्य को दोष दोे। आगे अब सारा जीवन सूखे खेतों की तरह वीराना होगा। तुमने स्वयं अपने गृहस्थी की फसल चौपट की है, काश! तुम उसकी बात मान लेते।’’

शेखर का विक्षुब्ध मन आर्तनाद कर उठा। लगा जैसे कोई उसके अंतःकरण को ऊखल में डालकर पीट रहा हो। वे मन ही मन चीखने लगे थे, ‘‘नविता! बस एक बार क्षमा कर दो। कण्डे की मार भी मार है क्या बेटा! तुुम्हें सबसे ज्यादा प्यार भी तो मैं ही करता था। एक बार पुनः उठ जाओ और देखो तुम्हारा पिता वह सब करने को तैयार है जो तुम कहती थी। बस एक मौका दे दो।’’ उनकी आखों से आंसुओं की बाढ़ उमड़ पड़ी थी।

लेकिन अब लकीर पीटने से क्या होने वाला था। मृत्यु उतना ही शाश्वत सत्य है, जितना आमसान की छाती पर चढ़ा हुआ सूरज। गाड़ी उलटने के बाद विनायक मनाने से क्या फायदा मिल सकता है? उजाड़ गांव फिर बस जाते हैं, गरीब धनवान हो जाते हैं, पर जिसे एक बार मृत्यु का सर्प डस ले उसे कौन बचा सकता है?  

बाहर-भीतर अब गरमी बढ़ने लगी थी। सूर्य भी मानो शेखर पर रोष करके अंगारे उगलने लगा था।

तभी दरवाजे से पुलिस अंदर आयी। थानेदार के हाथ में हथकड़ी थी, वह सीधा शेखर की ओर बढ़ रहा था। गुस्से में शेखर चिल्लाने लगे थे……… हाँ, मैंने ही इसे मारा है, मैं ही अपराधी हूँ, मेरे ही व्यवहार ने इसे जहर लेने के लिए मजबूर किया है……………….. मुझे ही सबसे पहले हथकड़ी लगाइये।

एकाएक उन्हें लगा कोई उनके मुँह पर पानी के छींटे उछाल रहा है। वे चौंके, देखा तो सामने ऑफिस का चपरासी उन्हें झिंझोड़ रहा था, ‘‘सर! यह क्या हथकड़ी लगा दो……हथकड़ी लगा दो…… चिल्ला रहे हैं। क्या आप को नींद में बोलने की आदत है।’’

शेखर झेंपे एवं चुपचाप उठकर बाहर आ गये।

अब वे कार में घर की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में ही उन्होंने नविता को मोबाइल पर कह दिया था , ‘शाम जल्दी घर चले आना। आज तुम्हें जीन्स दिलानी है, तुम्हारा स्विमिंग सूट खरीदना है एवं बाद में रेस्टरां जाना है। हो सके तो तुम अर्पित को साथ ही ले आना। बहुत स्मार्ट लड़का है, मुझे बहुत पसंद है। और हाँ, आज मैं मम्मी को स्पष्ट हिदायत दे दूँगा कि तुम्हारी पसंद का नाश्ता बनाये। रोज-रोज घास फूस किसे अच्छी लगती है।’’ शेखर एक श्वास में सब कुछ बोल गये।

मात्र एक अहसास ने उनके भीतर असंख्य अंतरदीप जला दिये थे। इन्हीं दीपों के प्रकाश में अपनों की बेकद्री का अंधेरा भी लुप्त हो चुका था।

‘‘मेरे अच्छे पापा! यू आर ग्रेट! मैं सीधे घर पहुँच रही हूँ। अर्पित मेरे साथ ही आयेगा।’’

मोबाइल ऑफ़ करते-करते शेखर की आँखें डबडबा गई थी।

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10.08.2007

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