कंदराएं

अगर मैं यह कहूं कि काली आंखें, गोरा रंग, तीखे नक्श एवं मतलब-बेमतलब  बात-बात पर हंसने वाली लड़की का नाम पद्मा है तो गलत नहीं कह रहा। सचमुच ये सभी बातें उसमें मौजूद थी। लेकिन जैसे चांद में दाग है पद्मा में भी एक ऐसा दोष था जिसे मैंने कई बार महसूस किया था। कई बार वह बिना कारण इतना गंभीर एवं उदास हो जाती कि समझना मुश्किल था, क्या यह वही पद्मा है जिसकी खिलखिलाहट भोर में धूप खिलने अथवा स्याह बादलों में बिजली चमकने का अहसास देती है।

मैं उसके लिए कोई एक उपमा नहीं दे सकता। कभी वह मुझे जामुन की तरह लगती जो ऊपर से कोमल एवं भीतर से कठोर होता है तो कभी उस अखरोट की तरह जो ऊपर से कठोर एवं भीतर से कोमल होता है। मैं उसे जितना समझने की कोशिश करता, उतना ही कन्फ्यूज होता। कई बार वह मुझे एक सरल रेखा की तरह तो अनेक बार उस अष्टकोण की तरह लगती जिसकी परिधि मापना कठिन है। निःसंदेह उसके रूप की तुलना चांद से की जा सकती है, फिर अनेक बार यह मेहताब मुझे आफताब क्यों लगता था?

क्या चांद में मात्र दाग है या फिर कोई आग भी है? किसे पता है सतह से सुंदर दिखने वाला चांद भीतर कितनी आग छुपाये है?

वह मेरी बहन स्वाति की सहपाठी एवं सहेली थी तथा उन दिनों अक्सर घर आती थी। मुझे नहीं मालूम मैं उसकी तरफ आकर्षित था अथवा नहीं, पर जैसे हर युवक सुंदर , बुद्धिमान युवती को देखकर प्रमुदित होता है, मैं भी उसे देखकर प्रसन्न होता था। स्वाति जब मुझे कहती कि आज फलां समय पर पद्मा आएगी तो मैं कोई न कोई बहाना कर उस समय घर पर ही रहता। तब वह मुझसे तीन वर्ष छोटी अर्थात् बाईस  की थी। इस उम्र के दो युवक-युवती अगर अक्सर मिलते हों तो उनमें आकर्षण स्वाभाविक है।

मेरी उससे अनेक मुद्दों पर बहस हो जाती। मैं दम लगाकर जीतने का प्रयास करता, हर मुद्दे पर दमदार तर्क जुटाता पर अंत में मुझे यही लगता कि वह क्लीन स्वीप कर गई है। मेरी शिकस्त हर बार मेरे अहम् को चुनौती देती, मैं पुनः अगली बहस में उसे पटकनी देने का प्रयास करता पर उसकी विद्वत्ता, नजरिये एवं तीखे तर्कों के आगे हर बार धूल चाटता। वह जितनी विदुषी थी उससे कहीं अधिक दृढ़ भी थी। अनेक बार कोफ्त में उसे मैं कह भी देता, तुम्हारी जैसी जिद्दी लड़की अन्यत्र मिलना मुश्किल है। तब एक उन्मुक्त हंसी बिखेरते हुए वह सारी बात यूं समेट लेती जैसे औरतें बिखरे हुए राई के दाने समेट लेती हैं।

एक दिन स्वाति ने जब बताया कि पद्मा ने एमबीबीएस टाॅप किया है तो मैं उसकी प्रतिभा का कायल हो गया। मैं अब उसमें एक ऐसी स्वप्नसुंदरी को देखने लगा जिसे पाना हर युवक अपना सौभाग्य समझता है।

आखिर मैंने स्वाति से मेरा मन बांट ही लिया। मेरी बात सुनकर स्वाति ने दांतों तले अंगुली दबाकर कहा, ‘रितेश! क्या तुम जानते हो उसका परिवार शहर के प्रमुख संपन्न परिवारों में है एवं उसके पिता इस रिश्ते की कभी इज़ाज़त नहीं देंगे, तो मैं चुप कर गया।

लेकिन मेरे मन में उथल-पुथल  मची  थी।  क्या एक अमीर लड़की का एक साधारण घर में परिणय नहीं हो सकता ? फिर पद्मा से मेरा परिणय क्यों संभव नहीं है? रूप-गुण भी तो कोई चीज है। हो सकता है वह मेरे गुणों पर रीझ जाए।

एक बार दोपहर चार बजे वह आई तो मैं घर पर अकेला था। उसे देखते ही मेरी बांछें खिल गई। उस दिन हम देर तक बतियाते रहे। बात करतेे हुए बीच-बीच में, वह खिलखिलाकर हंसती, तो मेरे कर्णपटल खनकने लगते।

जीवन के कार्य साहस से ही संपादित होते हैं। कहते हैं मृगी शेर के मुख में स्वयं नहीं आती, शेर को इसके लिए उद्योग करना होता है। आज मैंने साहस कर उसे कह ही दिया, ‘पद्मा! मैं तुम्हें चाहने लगा हूं एवं तुमसे विवाह करने का इच्छुक हूँ। कई दिनों से, मैं, तुम्हें कहने न कहने के असमंजस में झूल रहा था, पर लगा आज तुम्हारा मन टटोल ही लूं। तुम हम एक दूसरे को कई वर्षों से जानते हैं, दोनों सुशिक्षित है फिर जीवन-साथी क्यों नहीं हो सकते?’

मेरी बात सुनकर पहले तो वह जोर से हंसी फिर धीरे-धीरे उसके चेहरे पर रोष उभरने लगा। पल भर सोचकर वह एक बार पुनः मुस्कुराई एवं इस बार इतना जोर से हंसी कि उसकी खिलखिलाहट से घर गूंज उठा। उसके बदलते व्यवहार को देखकर मुझे सांप सूंघ गया। मेरी आंखों में पहेलियों-सा रहस्य उतर आया।

मैं कुछ कहता उसके पहले ही वह बोली, ‘काश! मैं तुम्हें हां कहती पर ऐसा करना मेरे लिए संभव नहीं है। तुम अच्छे मित्र हो एवं सदैव रहोगे, लेकिन तुमसे विवाह के लिए मैं हां नहीं कह सकती। मेरी अपनी मजबूरियां एवं विवशताएं हैं, कदाचित् तुम उन्हें समझ सको।’ इतना कहकर वह तेजी से उठकर चली गई।

उसके जाते ही मुझे लगा बिना मतलब उड़ता तीर लिया। अकारण एक रिश्ता चौपट हो गया। अब स्वाति को क्या जवाब दूंगा ? क्या अब वो हमारे घर आएगी ? अगर आएगी तो क्या मैं उसे उन्हीं सरल एवं पवित्र आंखों से देख सकूंगा ? मैं स्वयं को कोसने लगा। अक्ल क्या घास चरने गई थी ? क्या तुममें इतनी भी समझ नहीं कि तुम सोच पाते कि ब्याह-बाजे तो बराबरी में शोभा देते हैं। राजकुमारियों ने क्या कभी फकीरों के गले में वरमाला डाली है ? मेरे स्थिति चौबेजी छब्बेजी बनने गए पर दुबेजी बनकर लौटने वाली थी।

सचमुच वह दस दिन हमारे घर नहीं आई। दस दिन बाद मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब वह स्वाति के साथ न सिर्फ हमारे घर आई, उसके हाव-भाव से भी ऐसा नहीं लगा कि हमारे बीच ऐसी कोई बात हुई है। अपनी बिंदास हंसी से असामान्य स्थितियों को सामान्य बनाने में उसे महारथ हासिल था। मेरे मन का बोझ तब और हल्का हो गया जब उस दिन जाते हुए मुझे एक तरफ ले जाकर उसने कहा, ‘टेंशन नहीं लेने का। मैंने स्वाति को कुछ नहीं बताया है।’

मैं हैरान रह गया। सचमुच वह कितनी महान थी।

कुछ समय बाद एक विदेशी कंपनी में मेरी नौकरी लगी। नौकरी की शर्तों के तहत प्रथम दस वर्ष मुझे लंदन में रहना था। विदेश जाने की ललक एवं मोटी पगार के लोभ को मैं संवरण न कर पाया एवं वहां जाकर नौकरी करने का मानस बना लिया। भारी मन से स्वाति, मां एवं बाबूजी ने मुझे विदा किया।

एक वर्ष पश्चात् स्वाति के विवाह पर मैं बीस दिन का अवकाश लेकर आया। स्वाति का विवाह धूमधाम से हुआ पर उसमें पद्मा नहीं आई। पूछने पर स्वाति ने बताया कि उसकी नौकरी वाशिंगटन के किसी प्रख्यात अस्पताल में लगी है एवं पद्मा अपने घर वालों के तमाम विरोध के बावजूद वहां चली गई है। मुझे समझ नहीं आया कि इतनी सरल एवं स्पष्ट कहने वाली लड़की भी क्या इतना विरोध कर सकती है?

स्वाति के विवाह में एक अजीब इत्तफाक हुआ। उसकी विदाई के समय हमारे समधि ने मेरे पिता के आगे एक अजीब-सा प्रस्ताव रख दिया। हमारे सद्व्यवहार से अभिभूत स्वाति के श्वसुर ने उनकी पुत्री सुनंदा के, मुझसे विवाह का कौल, मेरे पिता से ले ही लिया। सुनंदा सुंदर, सुशील एवं सुशिक्षित लड़की थी, मैं ना कैसे कर सकता था। इस अतिरिक्त रिश्ते से घर की खुशियां दूनी हो गई। बाद में स्वाति के श्वसुर मेरे देश छोड़ने से पूर्व विवाह पर अड़ गए। आखिर सुनंदा से मेरा विवाह हुआ एवं मैं लंदन सुनंदा के साथ ही लौटा।

नदी के पानी की तरह समय अनवरत बहता रहा। जीवन की आपाधापी में दस वर्ष बीत गए। इस दरम्यान दो बेटों का बाप भी बन गया। सुनंदा ने इतने कौशल से मेरी गृहस्थी संभाली कि हमारा प्यार पूर्णमासी के चन्द्र की तरह अनुदिन बढ़ता गया।

इन्हीं दिनों सुनंदा के पिता के निधन का दुःखद समाचार मिला। हम सभी पहली फ्लाइट से इण्डिया आये। इस घटना के कुछ रोज बाद मैं कुछ आवश्यक सामान खरीदने बाजार गया तो मुझे वहां पद्मा दिखी। उस दिन मैं अकेला था। हम दोनों ने एक दूसरे को एक साथ देखा एवं अपलक एक दूसरे से वहीं लिपट गए। आश्चर्यमुग्ध मैंने पूछा, ‘तुम यहां कैसे ?’

‘मैं गत एक वर्ष से यहीं हूं। अब यहीं एक अस्पताल खोल लिया है एवं उसी में व्यस्त रहती हूं। तुम कैसे हो ?’ वर्षों बाद बतियाने की खुशी में उसकी आंखों की चमक देखने लायक थी। 

‘आई एम फाइन! आओ सामने वाले रेस्ट्रां में काॅफी पीते हैं। तुमसे ढेर सारी बातें करनी है। वहीं बैठकर तसल्ली से बातें करेंगे।’ उससे बात करने की इच्छा मेरे हृदय में उफान लेने लगी थी।

रेस्ट्रां में हम दोनों टेबल के आमने-सामने बैठे थे। पद्मा उसी चिर-परिचित अंदाज में गाहे-बगाहे ठहाके लगा रही थी। वह जब भी हंसती, रेस्ट्रां की मंद रोशनी में उसकी स्वच्छ दंतपंक्ति मोतियों-सी चमक उठती। उसकी हंसी में आज भी वहीं खनक थी। आज भी वह उतनी ही बेबाक, पारदर्शी एवं बिंदास थी।

स्वाति ने मुझे बता दिया था कि तमाम विरोधों के बावजूद पद्मा ने ताउम्र कुंवारा रहने का निर्णय लिया है तो मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी। आखिर कोई लड़की ऐसा निर्णय लेकर दुःख के अहर्निश कुण्ड में क्यों जलना चाहती है ? उसका कोई प्रेम-प्रसंग तो असफल नहीं हो गया ? यह भी हो सकता है किसी अन्य अपरिहार्य कारणों से उसे ऐसा करना पड़ा हो ? वह मूर्ख तो नहीं है। कहीं उसे कोई गंभीर रोग तो नहीं लग गया ? यकायक मेरे मन-मस्तिष्क में अनेक प्रश्न उभरने लगे।

आज इस रहस्य के खुलासा करने का उचित अवसर था। मैंने साहस कर उससे पूछ ही लिया, ‘पद्मा! बुरा न मानो एक बात जानना चाहता हूँ। तुमने विवाह न करने का निर्णय क्यों लिया ? तुम एक खुशमिजाज, रूप-गुण संपन्न लड़की हो, आखिर तुमने ऐसा कठोर निर्णय क्यों लिया ? सुना है इसी कारण तुम्हारे पिता को दो बार हृदयाघात हुआ है ? क्या तुम्हें उनके दुःख की किंचित् परवाह नहीं ?’

मैंने उससे प्रश्न तो पूछ लिया लेकिन सामने दृश्य देखकर मेरा हृदय कांप गया। पद्मा की आंखों में अश्रुओं की बाढ़ लग गई एवं देखते -देखते चेहरा आंसुओं में नहा गया। उसकी दशा ऐसी थी जैसे वर्षों बंद पड़े बांध के सभी फाटक एक साथ खुल गये हों।

हम दोनों कई देर चुप बैठे रहे। एक नीरव सन्नाटा हम दोनों के भीतर उतर चुका था। दोनों आज एक दूसरे के श्वासों की आवाज तक सुन सकते थे। 

वह संयत हुई तो पर्स से रूमाल निकालकर उसने आंसू पोंछे। मुझे लगा वह थोड़ी देर में सामान्य हो जायेगी। आश्चर्य! उसका चेहरा अब क्रोध से लाल होने लगा था। इस बार मेरी ओर तीखी आंखों से देखकर बोली, ‘तुम ठीक कहते हो रितेश! मुझे अपने पिता के दुःख, पीड़ा एवं संत्रास की कोई परवाह नहीं है। सच्चाई इससे भी अधिक कठोर है। उन्हें दुखी , पीड़ित होते देख मुझे सुकून मिलता है।’

‘तुम क्या कह रही हो पद्मा! होश में तो हो ?’ मेरी उत्कंठा मानो वेदना के अजस्र स्रोतों में फूट पड़ी।

‘मैं बिल्कुल ठीक कह रही हूं रितेश! शायद तुम नहीं जानते, मेरे पिता ने यौवन में मेरी मां को कितना प्रताड़ित किया है। तब मैं बहुत छोटी थी। बचपन की एक-एक घटना मेरे स्मृतिपटल पर अंकित हैं। मेरे पिता मां से बलात् हर बात मनवाते। विरोध करने पर वे उसे कठोर दण्ड देते। पिता की जायज-नाजायज हर इच्छा मां के लिए आदेश होती। उनके घर में आते ही वह सभीत हिरणी की तरह सहम जाती। अनेक बार मैंने मेरे पिता को जूतों-लातों तक से उसे पीटते हुए देखा है। एक बार तो मेरे पिता मां पर इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने मां पर हंटर बरसाकर उसे लहूलुहान कर दिया। उस दिन मैं घण्टों दांत भींचे खड़ी रही। काश! मेरे हाथों में भी एक हंटर होता। मां मजबूरी में उनकी हर बात मानती एवं उनके घर से बाहर जाने के पश्चात् तकिए में मुंह रखकर घण्टों रोती। मेरे बाल-मन पर उसकी सिसकियां आज भी अंकित है। मैं तब प्रतिकार नहीं कर पाई पर पिता से विरोध के अंकुर मेरे मनःपटल पर बचपन से बैठ गए। मैं ज्यों-ज्यों बड़ी हुई पिता की तानाशाही दिन-दिन बढ़ती गई। इसी दरम्यान मां अनेक बार गंभीर अवसाद का शिकार हुई। मेरे पिता ने मां की बीमारी की किंचित् परवाह नहीं की। उनके जुल्म सहते-सहते मां बुत बन गई। रितेश! मेरे लिए विवाह का अर्थ दाहक नरक के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मेरा वैवाहिक उन्माद कब का समाप्त हुआ। सूखी नदी की तरह मेरे भीतर के सारे जल-स्रोत सूख गए हैं। मेरी इच्छाएं इस नदी की सतह पर बिखरी बालू मिट्टी की तरह कब की मृत हुई। सच पूछो तो मुझमें विवाह करने का साहस भी नहीं है। मेरा चिर कुंवारापन मेरे पिता को उनकी चिर प्रताड़नाओं का उत्तर है। मैं जब तक जीवित हूं मेरे पिता से मौन प्रश्न करती रहूंगी – वर्षों मां को दुःखी किया, प्रताड़ित किया, अब अपनी इकलौती बेटी को दुःखी , पीड़ित होते हुए देखो। तुम्हारे हंटर मां पर नहीं मेरी स्मृतियों की पीठ पर पड़े हैं। तुमने मां की बीमारी की परवाह नहीं की, अब मैं तुम्हारी बीमारी की परवाह क्यों करूं ? तुम्हारी तड़प मुझे आनंद देती है। यही मेरा प्रत्युत्तर है एवं यही प्रतिशोध भी। हिम्मत हो तो मुझ पर तानाशाही करके दिखाओ।’ कहते-कहते पद्मा की आंखों से चिंगारियां बरसने लगी थी।

कौन जानता है मनुष्य के अवचेतन मन की कंदराओं में क्या-क्या छुपा है ? इन अंधेरी गुफाओं के भीतर झांककर किसने देखा है ?

हम होटल से बाहर निकले तब क्षितिज के उस पार सूरज डूब रहा था।

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21-09-2010

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