औरतें

उगते सूर्य को सभी सलाम करते हैं।

सेवा निवृत्ति के पश्चात् महेन्द्र विट्ठल ने इस सत्य को शिद्दत से महसूस किया है। वे बुरा भी नहीं मानते। व्यावहारिक दुनिया के तेल एवं तेल की धार को वे पहचानते हैं। उन्होंने बाल धूप में नहीं पकाए हैं। वे जानते हैं उगते सूर्य में ऊर्जा होती है, उत्साह होता है, चिरयात्रा की महत्त्वाकांक्षा होती है, ऐसे में कोई क्यों ढलते सूर्य को अर्घ्य दे जिसे थोड़े समय में विलुप्त हो जाना है। सच ही  है, पेड़ पर लगे हरे पत्ते सबको भाते हैं, पीले कमजोर पत्तों को तो पेड़ भी गिरा देता है।

अन्य सेवानिवृत्त लोगों की तरह महेन्द्रजी की भी जीवनचर्या तय है। रोज वही चरखा। सुबह जल्दी उठना, घर से कुछ दूर स्थित बगीचे में टहलने जाना, वहां हमउम्र बुड्ढ़ों से बतियाना, युवा पीढ़ी की ऐसी-तैसी करना, व्यवस्थाओं को कोसना, लौटते हुए दूध-शाक-तरकारी आदि लाना एवं फिर बाहर आंगन में लगी आरामकुर्सी पर आगे-पीछे होते हुए अतीत के झूले पर झूलना। स्मृतियाँ बूढ़ों की चिरसंगिनी होती हैं। 

अर्थशास्त्र का शाश्वत सूत्र “लॉ ऑफ़ डिमिनिशिंग रिटर्न” अर्थात् अधिक उपलब्ध वस्तु का मूल्य क्रमशः गिरता है, वस्तुओं पर ही नहीं मनुष्यों पर भी लागू होता है। वस्तुतः मनुष्यों पर अधिक एवं सटीक लागू होता है। जब आप घर में कम दिखते हैं तो आपकी महत्ता अधिक होती है एवं अधिक दिखते हैं तो महत्ता कम होती है। अब पूरे दिन तो कोई आपकी जी-हजूरी कर नही सकता। पूरी व्यस्तता एवं  पूरी  आय के दिनों में भी आप कौन-सा तीर मार लेते थे। अब आधी आय में निठल्ले आदमी की जितनी वखत होती है, उतनी ही तो मिलेगी।

जगत के अन्य बूढ़ों की तरह महेन्द्रजी ने भी यह कड़वे घूंट सहजता से उतार लिए हैं। आखिर अपने ही घरवालों को छोटा दिखाकर किसने कद बड़ा किया है। जीवन के उत्तरार्ध में जो जैसा है उसे स्वीकारने में ही जीत है। कई बातें बुरी लगने पर भी चुप रहने में सार है। बूढ़े फेंफड़ों में विरोध का बिगुल बजाने जितनी श्वास भी तो नहीं होती। जब शरीर लड़खड़ा रहा हो, कृशकाय हो तो किस दम पर अनुशासन की पुंगी बजाए। ऐसे में फुहार की तरह सुकून देती है तो बचपन एवं यौवन की वे स्मृतियां जिन्हें ताजा कर बूढ़े मन बहलाते रहते हैं। 

महेन्द्रजी भी आरामकुर्सी पर बैठे जाने किन स्मृतियों में खोए हैं। शहर के बाहर इस काॅलोनी में उनके इकलौते पुत्र अजित ने यह भव्य मकान तो बना लिया है पर उनका मन यहां नहीं रमता। हर शहर की तरह उनका शहर भी दो भागों में बंटा है, एक परकोटे के भीतर का शहर जिसे ठेठ का शहर कहते हैं, आप उसे शहर का दिल कह सकते हैं एवं एक परकोटे के बाहर नई काॅलोनियों में पसरा शहर जहां अधिकांश धनी एवं उच्च मध्यमवर्गीय तबका निवास करता है। इन काॅलोनियों में बसे मकानों में हवा-पानी की माकूल व्यवस्था है, खुले-खुले हैं लेकिन यहां की जीवनशैली तंग है। सूरज डूबते यहां के निवासी घरों में यूं दुबक जाते हैं जैसे परिंदे सांझ ढले घौंसलों में आकर खामोश हो जाते हैं। डिनर के पश्चात् वीणा के साथ जब वे टहलने जाते हैं तो वीणा कहती भी है, ‘‘महेन्द्र! लोगों ने बड़े-बड़े आलीशान भवन बना लिये, हर घर में चार-पांच कमरे भी हैं, पर एकाध कमरे से ही रोशनी नजर आती है। बाकी सारे घर में घुप्प अंधेरा रहता है। इन घरों में वह चहल-पहल नजर नहीं आती जो परकोटे के भीतर है।”

आज भी वाॅक करते हुए यही प्रसंग छिड़ आया है।

वीणा ने वही पुरानी बात दोहराई तो महेन्द्रजी बोले, ‘‘तुम ठीक कहती हो वीणा! नई काॅलानियों में लोग पड़ोसियों तक को नहीं जानते। मैं तो कहता हूूँ यहाँ के लोग एक दूसरे का चेहरा देखना भी पसंद नहीं करते। यदा-कदा रास्ते में मिल जाएं तो ऐसी कृत्रिम मुस्कान बिखेरते हैं जैसे नानी मर गई हो। साहचर्य का भाव ही समाप्त हो गया है। सभी कछुए की तरह स्वयं में सिमटे हैं। मेरा मन तो यहां बिल्कुल नहीं लगता। अजित ने जिद न की होती तो मैं सेवानिवृत्ति के पश्चात् शहर के अंदर वाले मकान में जाकर रहता। वहां के वाशिंदे ही नहीं, मोहल्ले भी जीवंत लगते हैं। हर घर जैसे नाम से पुकारता है। वे तंगहाल हैं, पर तंगदिल नहीं। उनके दिल उतने ही करीब हैं जितने वहां के सटे हुए मकान। मैं बचपन में छत पर होता तब पड़ोसियों से बतियाता रहता था। इतना ही नहीं कभी वे हमारी छतों पर आकर सो जाते कभी हम उनकी। शाक-भाजी तक बांट लेते थे। मन का कैसा सहज रेचन था। तनाव कपूर की तरह उड़ जाता। यहां तो तू है और मैं। तू भी बीवी है तो मुझे घड़ी-घड़ी सुन लेती है। बेटे-बहू को तो फुरसत ही कहां है।”कुण्ठा में महेन्द्रजी बिना रुके बोलते गए।

वीणा ने महेन्द्रजी का प्रतिकार नहीं किया। वह समझदार है। उसे पता है पति की कुण्ठा बीवी के आगे ही निकलती है। कई बार तो वह महेन्द्रजी को हवा देती है, ताकि मन की भाप बाहर निकल आए। भीतर उमड़ता धुआँ निश्चय ही दुःखदायी होता है। 

इवनिंग वाॅक से लौटते-लौटते महेन्द्रजी जाने किस कल्पनालोक में खो गए हैं। वे सचमुच अपने पुराने मकान की उस छत पर उतर आए हैं जहां बारह साल का महेन्द्र कनकौआ उड़ा रहा है। 

आज पम्मी की यादें भी शराब के सुरूर की तरह उनकी श्वासों में घुल गई हैं।

पम्मी से प्रथम मुलाकात का दिन वे कैसे भूल सकते हैं! वे अक्टूबर के अंतिम दिन थे। मौसम में गुलाबी ठंड की तरबीयत घुलने लगी थी। उस दिन रविवार था। शीतल हवा चल रही थी। वे सुबह-सुबह पतंग एवं गिड़गिड़ी (चर्खी) लेकर छत पर पहुंच गयेे। उन्हें सब्र कहां था। सब्र एवं बचपन में तो बैर है। आनन-फानन में उन्होंने गिड़गिड़ी छत पर रखी एवं पतंग उड़ाने लगे। देखते-देखते पतंग आसमान छूने लगी। हल्की ठंड के बावजूद उनके माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगी। बारह साल का बच्चा अपने शौक का दीवाना होता है, उसे कौन थका सकता हैै। उस दिन उन्होंने ब्ल्यू रंग की हाफ पैण्ट एवं सफेद टी-शर्ट पहनी थी जो बार-बार पसीना पौंछने के कारण यहां-वहां से गंदी हो गई थी। यकायक एक पतंग उनकी पतंग के समीप आई तो वे चौंके। पतंगबाजी में वे सिद्धहस्त थे। मुझसे टक्कर! उन्होंने मांजा संभाला एवं पेच शुरू। उन्हें मालूम था पतंग के साथ थोड़ी देर ढील देकर यकायक मांजा अपनी ओर खींचने से सामने वाले की पतंग कट जाती है। उन्होंने वैसा ही किया। पतंग कटी एवं वे चहक उठे। इसके पहले कि वे कुछ बोलते, उनकी छत से सटी छत से एक तेज सुरीली आवाज आई, ‘‘वह काटा”!

उन्होंने मुड़कर देखा। अपनी पोनी चोटी लाल रंग के रिबन से बांधे एक लड़की उनके घर से बांये सटे घर की छत पर खड़ी मुस्कुरा रही थी। कोई दस वर्ष की होगी। उसकी नीली आंखें कितनी खूबसूरत थी। गोरी-चिट्टी,  सुबह की धूप की तरह खिला-खिला रंग। उसकी हल्की गुलाबी फ्राॅक का काॅलर हवा के साथ हौले-हौले उड़ रहा था। ओह, वह कितनी कमसिन थी। उसके छोटे-छोटे दांत ऐसे चमक रहे थे मानो किसी जौहरी ने मोती जड़े हों। बालक महेन्द्र मुंहफट तो था ही, तपाक से पूछा, ‘‘तू यहां नई आई है क्या ?” पूछते-पूछते उन्होंने पतंग वाले हाथ को नीचा कर कमर से कुछ उतर आई हाॅफ पैण्ट को ठीक किया।

“हां! मेरे पापा इंदौर से ट्रांसफर होकर यहां आए हैं। कल ही यह घर हमने किराये पर लिया है।” उत्तर देकर वह बेवजह मुस्कराई तो महेन्द्र झेंप गया। लड़की के चेहरे पर भी अब पसीने की बूंदें चमकने लगी थी। कुछ देर दोनों चुप रहे, फिर महेन्द्र ने बात छेड़ी।

“पहले यहां शर्माजी किरायेदार थे। इस घर में किरायेदार आते रहते हैं। शर्माजी का लड़का मेरे साथ पढ़ता था। मैं पतंग उड़ाता तब वह गिड़गिड़ी पकड़ता था।” गिड़गिड़ी को बार-बार समेटने से परेशान महेन्द्र को लगा लड़की उसकी छत पर आए तो एक पंथ दो काज हो जाए।

“मैं आऊँ तेरी छत पर। मैं भी गिड़गिड़ी पकड़ लूंगी।” कहते-कहते लड़की की नीली आंखों में लाल डोरे तैरने लगे। 

अंधा क्या चाहे दो आंखें। महेन्द्र को मन मांगी मुराद मिल गई।

“आ जा! लेकिन ध्यान से आना। बीच में एक छोटी पट्टी है उस पर पांव रखकर आना। अच्छा ठहर, मैं तुम्हें हाथ देता हूँ।”

महेन्द्र की छत लड़की की छत से कुछ ऊंची थी। उसने हाथ आगे बढ़ाकर उसे सहारा दिया। हाथ पकड़कर ऊपर खींचते हुए उसे विचित्र-सी सिहरन हुई। वह बारह वर्ष का था। कैशोर्य ने उसके जीवन में कदम रखा ही था, लेकिन कई मायनों में इस उम्र के बच्चों से वह अधिक परिपक्व था। वह ऐसी अनेक बातें जानता था जो उसकी उम्र के बच्चे नहीं जानते थे जैसे कि माँ-बाबा रात को कुछ घुसर-फुसर करते हैं। उसे इस बात का भी धुंधला ज्ञान था कि पड़ोस वाली आंटी कैसे गर्भवती हुई है। उसे यह भी पता था कि लड़कियों के संग बैठने पर मस्ती आती है, वे मीठी-मीठी बातें करती हैं एवं उनके छूने पर कभी हल्की सिहरन तो कभी ठण्डी कंपकंपी होती है।

लड़की इन बातों को बिल्कुल नहीं जानती थी या फिर किंचित् जानती तो इतना भर जिसे सोचकर छिः कहने की इच्छा हो।

लड़की अब लड़के की छत पर थी। 

महेन्द्र ने लड़की को गिड़गिड़ी देते हुए पूछा, ” तेरा नाम क्या है ?”

“प्रमिला! लेकिन पापा-मम्मी मुझे पम्मी कहते हैं।”

“अच्छा! मेरा नाम महेन्द्र है।” महेन्द्र ने बिना पूछे बेतरतीब उत्तर दिया।

“तू कौन-सी क्लास में पढ़ता है ?” लड़की ने बात आगे बढ़ाई। कहते-कहते हवा से उड़कर दो लटें उसके मुंह पर आ गई।

“छठी में। हमेशा अव्वल आता हूँ। और तू………।”

“चौथी में! लेकिन मेरे नंबर अच्छे नहीं आते। तू मुझे पढ़ा दिया कर ना।” लड़की ने लटें ठीक करते हुए बात बढ़ाई।

“तू आ जाना बैग लेकर। पढ़ाने मैं तेरे घर नहीं आऊंगा।” वह उसके घर जाने को तैयार था, लेकिन पहली मुलाकत में हैकड़ी झटकना अच्छा नहीं होता। उसने बाबा को कई बार मां को कहते हुए सुना था , बिल्ली पहली मुलाकात में मार लेनी चाहिए। बाबा गलत थोड़े कहते हैं।

लड़की समझ गई कि यह हैकड़बाज है लेकिन पढ़ना तो इसी से है। 

इसके बाद पम्मी अक्सर उसके घर आने लगी। धीरे-धीरे वह उसके घर का अंग बन गई। देखते-देखते एक वर्ष बीत गया। अब महेन्द्र के चेहरे पर हल्की मूंछे दस्तक देने लगी थी, इतनी हल्की कि अपने कोमल हाथों से खींचकर कभी-कभी पम्मी उसे कहती थी, ‘‘छछूंदर!” इन दिनों पम्मी का चेहरा भी उससे बात करते हुए अकारण लाल हो जाता।

एक दोपहर पम्मी बैग लेकर आई तब वह घर में अकेला था। उस दिन माँ किसी सहेली के यहां गई हुई थी। बाबा सुबह ऑफिस निकल जाते थे। दोपहर का समय था। दोनों कुछ देर पहले ही स्कूल से आए थे। महेन्द्र अभी-अभी लंच लेकर अपने कमरे में आया था एवं पंखे के नीचे पलंग पर औंधा लेटा था।

महेन्द्र ने पम्मी को देखा और कहा, ” निकाल गणित की काॅपी। देखूं क्या होमवर्क दिया है।” उसने तीन-चार सवाल समझाए, पर लड़की के लिए गणित उतनी ही कठिन थी जितना किसी फिसड्डी के लिए पर्वत पर चढ़ना। वह पलक झपकते नींद में लुढ़क गई।

महेन्द्र ने उसे गौर से देखा। सचमुच वह बहुत खूबसूरत थी। उसके चेहरे पर निश्चिंतता का साम्राज्य पसरा था। इतनी अबोध, इतनी नाज़ु़क, इतनी ताज़ा मानो कोई कली अभी-अभी चटकी हो।

महेन्द्र के कैशोर्य ने एक नई अंगड़ाई ली। बालसिंह की तरह कोई भावना भीतर से दहाड़ने लगी। उसे लगा आज इसे छूकर देखा जाय। उसने पुनः पम्मी की ओर देखा। वह गहरी नींद में थी। जाने कौन-सा शैतान आज उसकी आंखों में उतर आया। उसने हाथ आगे बढ़ाया तो वह यकायक मुड़ी एवं छातियों के बल लेट गई। उसने कुछ देर इंतजार किया फिर साहस कर उसे हल्का-सा झिंझौड़ा। वह निश्चिंत हो गया कि पम्मी गहरी नींद में है। हालांकि ऐसा करते हुए उसका हृदय दूनी गति से धड़कने लगा था। कुछ देर रुककर उसने पुनः हाथ बढ़ाया एवं साहस कर फ्राॅक की चैन खोली जो उसकी आधी कमर तक जाती थी। वह पम्मी की नंगी कमर देखकर हैरान रह गया। दुधिया…….झक्क श्वेत। उसने धीरे से उसकी कमर को छुआ एवं एक अद्भुत रोमांच से भर उठा। उसने और हिम्मत दिखाई एवं अब उसकी कमर पर हाथ फेरने लगा। ओह! वह कैसा नर्म गुदगुदा अहसास था। उसके हाथ अब उसकी छातियों की ओर बढ़ने लगे, लेकिन यहां कुछ भी छूना नामुमकिन था। वह जग गई तो ? गुस्से में मां को भी कह सकती है ? तब कैसी डांट पडे़गी ? बाबा को बता दिया तो टांग टूटना तय है। घबराहट के मारे वह ऊपर से नीचे तक पसीने से भीग गया। उसने तुरंत हाथ बाहर निकाला, चुपके से जिप बंद की एवं चुपचाप ऐसे लेट गया मानो उसने कुछ किया ही ना हो। आज वह अपनी धड़कनों की आवाज स्पष्ट सुन सकता था।

उसके कुछ दिनों तक पम्मी नहीं आई तो वह घबरा उठा। कहीं उसे पता तो नहीं चल गया ? इन्हीं दिनों मां ने उसे बताया कि पम्मी की मां बीमार है एवं पम्मी दिन-रात उसका हाथ बंटाती है तो वह निश्चिंत हुआ।

अब वार्षिक परीक्षाएँ करीब थी।

वह परीक्षाओं में मशगूल हो गया। उसे फिर अव्वल आना था। परीक्षाओं में उसका आधा दिमाग पम्मी में फंसा रहा, फिर भी उसके पेपर्स अच्छे हुए।

परीक्षाएँ समाप्त होने के दिन मामा घर आ टपके। रात मामा ने उसे बताया कि कल सुबह उसे और मम्मी को साथ लेकर वह ननिहाल जा रहे हैं तो महेन्द्र हैरान रह गया। वह एक बार पम्मी से मिलना चाहता था। लेकिन अब यह संभव नहीं था। ट्रैन अलसुबह जाती थी। 

ननिहाल वह अक्सर पम्मी के बारे में सोचता रहता। उसे इस बात का दुःख था कि उसने जाते वक्त पम्मी को कुछ नहीं बताया। वह माँ के साथ वापस आया तो पापा ने माँ को बताया कि पड़ोसी का ट्रांसफर पुनः इंदौर हो गया है एवं वे मकान खाली कर चले गए हैं। 

इतना भारी सदमा उसे पहली बार लगा था।

जीवन की रफ्तार कब रुकी है। वह बड़ा हुआ एवं पहली प्रतिस्पर्धा में ही रेलवे में अधिकारी बन गया। वीणा से शादी हुए अब पैंतीस वर्ष होने को आए। उनकी एक ही संतान हुई, अजित, जिसके साथ महेन्द्र इन दिनों रह रहे थे। 

इन वर्षों में महेन्द्रजी ने क्या-क्या नहीं देखा। उम्र की ढलान पर अतीत की टेप को रिवाइंड कर उसे तटस्थ होकर देखना कितना अद्भुत्, कितना रोमांचकारी अनुभव है। यौवन से बुढ़ापे तक की यात्रा अनवरत संघर्ष की ही तो कथा है। इस कथा में मधुर यादों के पुष्प हैं तो संघर्ष के नुकीले कांटे भी हैं। रिश्तों के माधुर्य की महक है तो उन्हीं से प्राप्त छल के दंश भी हैं। कभी दौड़ है तो कभी  विश्राम है। चढ़ान है , ढलान भी है। महत्त्वाकांक्षाओं की मंजिलें हैं तो संतोष के पड़ाव भी हैं। आनंद की असंख्य फुहारें हैं तो ग़म की मजा़रें भी हैं। पड़ाव-दर-पड़ाव कितने मित्र, कितने शत्रु मिले। कभी पैसे की घोर तंगी तो कभी बेशुमार आवक। कभी बीमारियों का डेरा तो कभी अतिथियों का बसेरा। गृहस्थ के इस महासमर को क्या वे अकेले लड़ सकते थे ? वीणा ने हर परिस्थिति में उनका साथ दिया। आज उसके अहसानों को याद कर उनकी आंखें गीली हो गई। अब तो उन्हीं की तरह वह भी थकने लगी है। सच ही कहा है बुढ़ापा उम्र की वह डोर है, जिसमें अनुभवों के असंख्य मोती पिरोये हुए होते  हैं।

अब तो महेन्द्रजी को रिटायर हुए भी पांच वर्ष होने को आए। 

आज मोर्निंग वाॅक कर वे आरामकुर्सी पर बैठे थे। नित्य की तरह सवेरे की ताजा हवा उनके मन को स्फूर्ति दे रही थी। दीपावली नजदीक थी। शिशिर ग्रीष्म को शिकस्त देकर अपना साम्राज्य  बढ़ा  रहा था। सड़क पर खड़े पेड़- पौधे एवं उनके बगीचे के कुछ गमलों में भी पुष्प एवं कलियाँ चटकने लगी थी। यकायक चले आने वाले किसी मेहमान की तरह पेड़-पौधों पर अनेक नये पक्षी दिखने लगे थे। प्रकृति की ऋतु-संधि प्रकृति का कैशोर्य ही तो है। महेन्द्रजी अखबार पढ़ रहे थे तभी एक महिला उनके घर के आगे से गु़जरी। वह धीरे- धीरे चल रही थी। उन्होंने सिर उठाकर गौर से देखा। माथे पर मोटी लाल बिंदी, चेहरे पर झुर्रियां एवं नीली आंखें बिल्कुल पम्मी जैसी। उनके हृदय में एक विचित्र-सी सिहरन हुई। वे सब कुछ भूल सकते थे, लेकिन उन नीली आंखों को भूलना असंभव था। पवित्र प्रेम कुदरत की अबूझ डोरी से बंधे होते हैं। उन्हें भीतर से कोई धकेलने लगा। वे उठे, दरवाजे तक आए एवं महिला को जाते हुए देखा। वह हल्के गुलाबी रंग का सलवार-सूट पहने थी। कुर्ते की गोलाई पर गर्दन के नीचे कमर के ऊपरी हिस्से पर उन्होंने एक काला तिल देखा तो उनकी स्मृतियां उघड़ गई। कहीं यह पम्मी तो नहीं ! उसके भी तो ठीक इसी जगह एक तिल था। उन्होंने बच्चे की तरह तेज आवाज में पुकारा, ‘‘जरा रुकिये !”

महिला रुकी एवं मुड़कर उनके दरवाजे तक आई। अपने अप्रत्याशित व्यवहार से हैरान महेन्द्रजी पहले तो झेंपे फिर साहस कर बोले, ‘‘लगता है आपको पहले कहीं देखा है। आप यहां नई आई हैं ?” पूछते-पूछते उनके चेहरे पर वैसी ही नन्हीं पसीने की बूंदें उभर आई जो कभी कनकौआ उड़ाते हुए चेहरे पर चमकती थी। 

‘‘आपने ठीक कहा। मैं इधर नहीं रहती। मैं मुंबई से अपनी बेटी को छोड़ने यहां आई हूूँ। मेरे दामाद आपसे थोड़ी दूरी पर रहते हैं। मुझे दो घण्टे बाद वापस ट्रैन पकड़नी है। मार्निंग वाॅक की वर्षों पुरानी आदत है अन्यथा सारे दिन आलस्य रहता है। इसीलिए इधर टहलने चली आई।” महिला ने बेझिझक उत्तर दिया।

महेन्द्रजी ने उसे गौर से देखा। वे चौंके। उनके स्मृति-नभ पर एक तेज बिजली कड़की। वे तुरंत पहचान गए। उतना ही समय उस महिला को पहचानने में लगा। महेन्द्रजी चीखकर बोले, “पम्मी तुम!”

“महेन्द्र तुम!” कहते-कहते महिला की नीली आंखें आश्चर्य से लबालब हो गई।

क्षणभर के लिए समय थम गया। उन्होंने पम्मी से भीतर आकर चाय पीने का अनुरोध किया तो वह बोली, “महेन्द्र, आज बहुत जल्दी में हूँ। फिर कभी आना हुआ तो तुम्हारे यहां अवश्य आऊंगी।”

“ओह! तुम भी कमाल कर रही हो। इतने वर्षों बाद मिली हो और आनाकानी कर रही हो।” महेन्द्रजी अधीर हुए जा रहे थे।

“तुम आज भी उतने ही जिद्दी हो जितने बचपन में थे।” कहते-कहते पम्मी की आंखों में बचपन उतर आया।

“पम्मी! यह ठीक बात नहीं है। चाय तो तुम्हें पीनी होगी।” बारह वर्ष के बच्चे की तरह पुनः महेन्द्रजी ने अनुरोध किया।

देखते-देखते दोनों उम्र की उसी छत पर उतर आए। 

“मैं नहीं आती! तुम्हारा क्या है मुझे गिड़गिड़ी पकड़वा दो एवं खुद कनकौआ उड़ाते रहो।” पम्मी मुस्कुराकर बोली।

“नहीं! नहीं! अब ऐसा नहीं करूंगा।” महेन्द्रजी ने हंसकर उत्तर दिया।

पम्मी ने कलाईघड़ी की ओर देखा। शायद चाय पीना संभव नहीं था। अब टरकाना आवश्यक था। पम्मी ने आखिरी पैंतरा डाला।

“मैं भीतर नहीं आती! मुझे तुमसे डर लगता है।”

“क्यों ? क्यों ?” महेन्द्रजी का अनुरोध पुतलियों में उतर आया।

“तुम्हारा क्या भरोसा! जाने कब जिप खोलकर हाथ फेरने लग जाओ।” कहते-कहते पम्मी ने ऊपर के दांतों से नीचे का होंठ यूं काटा मानो उन्हें पुरानी हरकतों की याद दिला रही हो। 

“क्या बात कर रही हो पम्मी!” महेन्द्रजी झेंपे।

“बुद्धू! उस रोज मैं सोयी थोड़े न थी।”

इतना कहकर वह खिलखिलाकर हंसी एवं महेन्द्रजी के देखते-देखते आगे बढ़ गई।

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26-10-2010

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