एक बिंदास लड़की

प्रो. काला को काॅलेज में पढ़ाते हुए पच्चीस वर्ष पूरे होने को आए, अनेक विद्यार्थी उनकी आंखों के आगे होकर निकल गए, जीनियस-मिडियोकर-ढोंपू सभी प्रकार के, अधिकांश को वे भूल भी गए, लेकिन कुछ नाम जो उनके जेहन में आज भी उभरते हैं उनमें ‘किश्मिश’ का नाम सबसे ऊपर है।

किश्मिश को काॅलेज छोड़े भी बाइस वर्ष से ज्यादा हुए, लेकिन आज भी अपने परम एकांतिक क्षणों में प्रो. काला उससे मूक वार्ता करते हैं। काॅलेज छोड़ने के बाद वह उनसे कभी मिली भी नहीं लेकिन अब भी उसकी यादें सवेरे की ताजा कलियों की तरह उन्हें भाव-विभोर कर देती है। 

क्या प्रो. काला उसे चाहते थे ?

वह जब एमए, राजनीति शास्त्र, के प्रथम वर्ष में आई तब प्रो. काला छब्बीस वर्ष के स्मार्ट युवक थे। नये-नये लेक्चरर बने थे। उनके साथी तब उन्हें ‘प्रोस्पेक्टिव बेचलर’ अर्थात् असीम संभावनाओं से भरा कुंवारा कहते थे। लंबा कद, ऊंचे कंधे एवं बातचीत करने के अंदाज से वे यौवन में ही गंभीर नजर आते। हल्की ललाई भरी बड़ी-बड़ी आंखें उनके रूप-दर्प में चार चांद लगाती। इन्हीं आंखों को देखकर एक बार किश्मिश ने उन्हें कहा था, ‘सर! आप बुरा न माने पर आप हैं स्मार्ट! कोई भी लड़की आपकी सुंदर आंखों एवं चिकने चेहरे पर फिसल सकती है।’ प्रो. काला तब सकपकाये, ऐसा सुनना उन्हें भला भी लगा लेकिन चेहरे पर अनुशासन का कृत्रिम मुखौटा पहनकर बोले, ‘बद्तमीज! तुम्हें पता भी है अपने टीचर से कैसे बात करते हैं।’ किश्मिश तब बिंदास हंसी बिखेरते हुए यह कहकर चली गई, ‘यू आर राइट सर! बद्तमीज तो मैं हूं।’ ऐसा कहते हुए उसकी सुंदर दंतपंक्ति मोतियों-सी चमक उठी थी।

प्रो. काला ने उस दिन घर जाकर दस बार अपना चेहरा आईने में देखा था। 

किश्मिश का असली नाम रीटा था। तब वह मात्र इक्कीस वर्ष की युवती थी। किश्मिश तो उसका उपनाम था जो उसकी बिंदास तबीयत के चलते कुछ मनचलों ने रख दिया था। इस काॅलेज में आने के पहले उसने ग्रेजुएशन लखनऊ से किया था। शायद अपने पिता के स्थानान्तरण के चलते वह भी इंदौर शहर आ गई थी। उसके पिता स्थानीय आयकर विभाग में वरिष्ठ अधिकारी थे। 

अस्सी के दशक का यह वह जमाना था जब पचास की क्लास में बामुश्किल चार-पांच लड़कियां होती थी। इतनी अल्प संख्या के चलते कन्याओं के भाव आसमान छूते थे, भले उनका रूप-रंग कैसा भी हो। हां, किश्मिश की बात अलग थी। वह रूप, चातुर्य एवं प्रतिभा की त्रिवेणी थी। गोरा रंग, तीखे नक्श, हल्की नीली आंखों पर खूबसूरत सुरमई पलकें उसे एक अलग पहचान देती। उसकी लम्बी चोटी नितंबों को छूती थी। ऊंचा कद एवं बातचीत करने के मुंहफट अंदाज से वह बरबस सबका ध्यान आकर्षित करती।  सवेरे की सूर्य रश्मियों की तरह उसके पोर-पोर से स्वातंत्र्य की प्रभा फूटती थी। पुरुषों से बात करने में ही नहीं उन्हें छूने , उनसे हाथ मिलाने एवं मन चले तो अंक में भर लेने तक से वह संकोच नहीं करती थी। उसकी क्लास में रमेश नाम का एक प्रतिभावान लड़का पढ़ता था। हर परीक्षा में वह अव्वल रहता पर स्वभाव से बेहद शर्मीला था। एक बार उसके गाल पर सबके सामने चिकोटी काटकर रीटा ने कहा था, ‘अरे! यूं शरमाओगे तो सुहागरात को बीवी का घूंघट कैसे उठाओगे! दोनों की रात शरमाने में ही बीत जाएगी।’ तब क्लास ठहाकों से गूंज उठी थी।

उस दिन से ही कुछ लड़कों ने उसका नाम किश्मिश रख दिया था। जैसे किश्मिश को मुंह में रखने से मन आह्लाद एवं मिठास से भर जाता है, रीटा के दर्शन कर उसके सहपाठी ही नहीं, उसके शिक्षक तक मुग्ध हो जाते। खुदा जाने, उसके मन की पवित्रता उसे उच्छृंखल बनाती थी अथवा उसके हृदय का साहस पर कुल मिलाकर समुद्र मंथन के समय जैसे देव और दानव, दोनों, मोहिनी को देखकर मुग्ध थे, यही हाल पूरे काॅलेज का था।

उसके क्लास में दो ऐसे लड़के भी पढ़ते थे जिनके आतंक से पूरी क्लास ही नहीं पूरा काॅलेज कांपता था। क्लास से दूर सभी उन्हें गुण्डे कहते, पर उनसे मिलते ही सभी ‘यस बाॅस’ कहकर पूंछ हिलाते। दोनों नजदीक के एक गांव से आए चचेरे भाई थे। अच्छे मुस्टण्डे थे। भौण्डे तरीके से पेश आना उनका स्वभाव था। इनमें से बड़े का नाम नाहरसिंह एवं छोटे का रणवीरसिंह था। गुण्डागर्दी के चलते पूरे काॅलेज में उनका दबदबा था। उन्हें देखकर सभी दूर से किनारा कर लेते। काॅलेज प्रशासन तक उनसे सहमा रहता। न जाने वे कब, किसकी फजीती कर दें। दोनों को काॅलेज में एक-दो बार पिस्तौल हाथ में लिये भी देखा गया था। लोगों को डराने के लिए वे किसी भी प्रदर्शन से गुरेज नहीं करते थे। काॅलेज के एक प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार उन्हें चेतावनी दी तो दोनों उसके पीछे पड़ गए। कभी उसकी कार पंचर मिलती तो कभी कार के शीशे टूटे होते। कई बार तो महत्त्वपूर्ण फाइलें तक ऑफिस से गायब होती, यही फाइलें बाद में किसी क्लास के कोने में पड़ी मिलती। इसी के चलते बेचारे ने इनसे माफी मांगकर तौबा की।

क्लास में इन्हें देखकर लड़कियों की तो क्या लड़कों तक की सांस फूल जाती। दोनों अक्सर लड़कियों पर भद्दी गालियां बरसाते, कइयों को अखरता भी लेकिन भेड़ियों के मुंह में हाथ कौन डाले। सभी मन मसोस कर रह जाते। दोनों निर्दय ही नहीं निर्लज्ज भी थे।

समय कब रुका है। रथचक्र की तरह कालचक्र भी निर्बाध, निरंतर गतिशील है। 

किश्मिश को काॅलेज आए अब डेढ़ वर्ष होने को आया। दूसरे वर्ष की वार्षिक परीक्षाएं भी चार माह पश्चात् होने वाली थी, इसी के चलते सभी पढ़ाई पूरा करने में लगे थे। इन्हीं दिनों एक बार प्रो. काला की क्लास में वे जब बोर्ड पर लिख रहे थे, नाहरसिंह ने एक अजीब खुराफ़ात की। उसने एक पुस्तक उठाकर उनके कंधे पर फेंकी। देखते ही देखते रणवीर ने भी एक पेपरवेट उनके सर पर दे मारा। सारी क्लास सकते में आ गई। प्रो. काला के सर से खून बह रहा था, कुछ विद्यार्थी उन्हें तुरन्त अस्पताल ले गए। उनके जाने पर दोनों मूंछों पर ऐसे ताव दे रहे थे जैसे किसी महान साहसिक कार्य को अंजाम दिया हो। अपने प्रिय टीचर का ऐसा अपमान देख रमेश भड़क उठा। लेकिन वह अकेला इन भेड़ियों के आगे कैसे टिकता। दोनों ने लातों घूंसों से पिटाई कर उसे अधमरा कर दिया। सारी क्लास देखती रह गई। उस दिन किश्मिश ने ही साहस कर उसे कंधा दिया एवं उसे घर तक छोड़कर आई। वह जब उसे ले जा रही थी तो रणवीर बोला, ‘अब दवा-दारू भी तू ही करना। रात बच्चे को गोदी में पुचकार कर सुलाना।’ किश्मिश की आंखों में अंगारे दहकने लगे, वह क्रोध से जल उठी। लेकिन वहां क्या किया जा सकता था ? वह चुपचाप रमेश को लेकर चली गई।

करीब एक सप्ताह पश्चात् प्रो. काला पुनः क्लास में आए तो पढ़ाते हुए कांप रहे थे। वे जानते थे उनका पानी उतर गया है लेकिन कर्तव्य की इतिश्री भी तो करनी होती है। 

कुछ दिन बाद सभी ने किश्मिश के व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन महसूस किए। उसे अक्सर नाहरसिंह अथवा रणवीर के साथ कैंटीन जाते देखा गया। इन गुण्डों के साथ यूं खिलखिलाते देख अन्य विद्यार्थियों को काठ मार गया। उसके सहपाठी कानाफूसी करने लगे, ये कैसी लड़की है? अपनी फजीती करने वालों को भी शह दे रही है। किसी ने कहा इस बेहया में जरा भी शर्म नहीं, जो मिले उसे चारा डाल देती है। किश्मिश का बिंदास व्यवहार संशयों की अग्नि में घी का काम करता। कुछ कहते कि उसका नाहर से चक्कर है तो कुछ उसे रणवीर की प्रेयसी बताते।

बसंत आ चुका था। काॅलेज में पलाश के अनेक पेड़ थे। लाल-सूर्ख फूलों से लदे यह पेड़ इन दिनों ऐसे लगते मानो वे भी किश्मिश को कोसने वाले विद्यार्थियों की तरह अपना रोष प्रकट कर रहे हों। चटकती धूप की आंच ऐसे लगती जैसे अनेक दिनों से ऊंघते सूर्य को किसी ने यकायक जगा दिया हो।

इन्हीं दिनों एक बार किश्मिश नाहरसिंह की मोटरसाइकिल के पीछे बैठी काॅलेज आ रही थी। उसका दांया हाथ नाहर की कमर में बंधा था। हल्के पीले रंग की सलवार-कुर्ता पहने वह बला की खूबसूरत लग रही थी। उसकी बिदांस प्रकृति की तरह उसका दुपट्टा भी अनियंत्रित हवा में लहरा रहा था। यकायक उसने रणवीर को पीछे अन्य मोटरसाइकिल पर आते देखा तो जोर से चिल्लाई, ‘हाय रणवीर, कैसे हो।’ आज नाहर रणवीर को बताना चाहता था कि किश्मिश उसके कब्जे में है। युवा मित्रों में, विशेषतः युवतियों के लिए, स्पर्धाभाव प्रखर होता है। उसने मोटरसाइकिल रोकी लेकिन यह क्या किश्मिश उसकी मोटरसाइकिल से उतरकर रणवीर के पीछे जाकर बैठ गई। देखते ही देखते उसने रणवीर को कसकर पकड़ लिया। हाथ में आए बटेर की तरह रणवीर उसे मोटरसाइकिल पर लेकर उड़ गया। इस अभिराम दृश्य को पूरा काॅलेज देखता रह गया, नाहर के तलवे जल गए। बांबी में असमय छेड़े नाग की तरह वह वहीं खड़े लम्बी, गरम सांसें भरने लगा।

इस घटना के बाद दोनों में ऐसी दरार पड़ी कि दोनों एक-दूसरे की जान के दुश्मन बन गए। किश्मिश को लेकर एक बार दोनों ऐसे उलझे कि काॅलेज में ही हाथापाई हो गई। नाहरसिंह ने गुस्से में रणवीर की काॅलर पकड़कर उसे एक करारा थप्पड़ मारा तो रणवीर ने पास ही पड़ी लाठी उठाकर उसे अधमरा कर दिया। अपने अपमान से आहत रणवीर ने एक बड़ा पत्थर उठाकर नाहर के सर पर दे मारा। उस दिन दोनों रोके नहीं रुक रहे थे। सभी इस तमाशे का चुपचाप आनंद ले रहे थे। नाहर एवं रणवीर दोनों ऐसे लड़ रहे थे जैसे गाय के लिए सांड आपस में भिड़तेे हैं। लड़ते-लड़ते अंततः आंधी से आहत वृक्षों की तरह दोनों जमीन पर गिर गए। काॅलेज प्रशासन ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया। नाहर के सर पर दस टांके आए, उसका बाजू भी टूट गया। रणवीर का टखना एवं कोहनी टूट गई एवं उसके सर पर भी बारह टांके आए। डाॅक्टरों ने उन्हें स्पष्ट कर दिया कि वे इस वर्ष परीक्षा न दे सकेंगे, उन्हें ठीक होने में कम से कम छः माह लगेंगे। 

इस घटना के चार रोज बाद किश्मिश प्रो. काला से मिलने उनके घर गई। उस दिन इतवार था एवं प्रोफेसर अखबार पढ़ रहे थे। उसे यूं आते देख उनकी बांछें खिल गई। नाहर एवं रणवीर के सर फुट्टव्वल की घटना से वे इन दिनों अति प्रसन्न थे। वे ही क्या सभी विद्यार्थी एवं काॅलेज प्रशासन तक इस घटना से बाग-बाग थे। जिस कार्य को पूरा स्टाफ, प्रशासन एवं विद्यार्थी मिलकर नहीं कर पाये, उसे एक लड़की ने अंजाम दे दिया।

प्रो. काला जानते थे कि किश्मिश मन ही मन उन्हें चाहती है। उसकी बिंदास तबीयत के वे दीवाने थे। किश्मिश ज्यों ही अंदर आई उन्होंने उसे आगोश में लेने के लिए बांहें खोल दी। लेकिन यह क्या ? प्रो. काला की मनेच्छा के ठीक उलट उसने उनके चरण छूए एवं कहा, ‘सर! मुझे तो अपने चरणों में स्थान दीजिए। पूरे दो वर्ष आपके अध्यापन से मैं अभिभूत रही, आज उसी का आभार प्रकट करने आई हूं।’

प्रो. काला संकोचग्रस्त भी हुए एवं भाव-विभोर भी। यह मिश्रित भाव उनके चेहरे पर गज़ब ढा रहा था। क्लास में एक घण्टा निर्बाध बोलने वाले प्रोफेसर से आज कुछ कहते नहीं बन रहा था। किश्मिश जब डाईंगरूम में बैठी तो प्रो. काला को लगा आज बसंत स्वयं चलकर उनके घर में प्रविष्ट हुआ है।

किश्मिश जाने लगी तो उन्होंने साहस कर उससे मन की बात कह ही दी, ‘किश्मिश! तुम एक अद्भुत प्रतिभावान लड़की हो। जो कुछ तुमने किया है उसके लिए मैं एवं काॅलेज प्रशासन सदैव तुम्हारे ऋणी रहेंगे। लेकिन यह तो बताओ तुमने नाहर एवं रणवीर की ऐसी दुर्गत क्यों की? एक लड़की होकर तुमने इतनी जोखिम उठाई?’

‘सर! एक स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है लेकिन उसका उपहास नहीं सहन कर सकती जिससे वह प्रेम करती है। अपने प्रेम की रक्षा के लिए वह किसी भी सीमा का अतिक्रमण कर सकती है। उसके जीवन की धन्यता उसके प्रेम के संरक्षण में है। प्रेम के लिए स्त्री कुछ भी कुर्बान कर सकती है।’ कहते-कहते किश्मिश की आंखों में पहेलियों-सा रहस्य उतर आया।

‘तो क्या तुम सचमुच मुझे चाहती हो ? मेरे अपमान ने क्या तुम्हें इतना आहत कर दिया ?’ प्रो. काला ने साहस कर मन की आखिरी गिरह भी खोल दी। 

‘नहीं! मैं मेरे सहपाठी रमेश से प्यार करती हूं। परीक्षा के बाद हम दोनों परिणय – सूत्र में बंधने वाले हैं।’ कहते-कहते किश्मिश सर्र से बाहर निकल गई।

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01-06-2010

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