एक दिन अचानक

डूबते हुए सूर्य की अंतिम प्रकाश-रेखा का कण्ठहार संध्या ने पहना ही था कि साँझ का तारा उसकी नाक पर हीरे की लौंग की मानिंद चमकने लगा। सिंदूरी साड़ी का पल्लू सर पर लेकर उसने काली पलकें उठायी तो उसके लाजभरे मुख को देख सूर्य की नीयत डोल गई। उसने, चुपचाप संध्या को गोदी में उठाया, तत्पश्चात् रात्रि के पलंग पर लिटाकर अंधियारे की चादर ओढ़ ली। सुंदर स्त्री का सहवास किस पुरुष को अच्छा नहीं लगता ?

अब तक रात्रि का दानव अपने विशाल मुख से दिन को निगल चुका था। कोई आठ बजे होंगे। हावड़ा-जोधपुर एक्सप्रेस अंधेरे को चीरकर मणिधारी सर्प की तरह भागी चली जा रही थी।

एसी सैकण्ड कोच के एक दरवाजे पर खड़े मि0 राणावत ने कुछ समय पूर्व ही डूबते सूरज का नज़ारा देखा था। हावड़ा से इस ट्रेन में वे शाम पाँच बजे चढ़े थे। जोधपुर पूरे छत्तीस घण्टे का रास्ता था। कोच में बामुश्किल पाँच-सात लोग थे। उनके सेक्शन में तो वे अकेले थे। दो घण्टे बैठे-बैठे बोर हो गए तो वे इस दरवाजे पर आकर खड़े हो गए।

ट्रेन अब धीमी होने लगी थी। आगे जमशेदपुर आने वाला था।

मि. राणावत, उम्र तकरीबन चालीस वर्ष, अच्छी कद-काठी, गोरा रंग एवं जाति से राजपूत थे। चेहरे पर राजपूती दर्प, बड़ी-बड़ी आँखें एवं तीखा नाक उनके व्यक्तित्व में इजाफा करते। इण्डियन बैंक में गत पन्द्रह वर्ष से अधिकारी थे। कोलकाता से प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने शहर जोधपुर लौट रहे थे। अभी उनकी तैनाती जोधपुर ही थी, जहां वे अपनी पत्नी एवं दो बेटियों के साथ रहते थे। दोनों बेटियों में तीन वर्ष का अंतर था, बड़ी तेरह वर्ष की एवं छोटी दस वर्ष की थी।

ट्रेन जमशेदपुर स्टेशन पर रुकी तो वे तुरन्त उतरकर मिनरल वाटर एवं स्नैक्स लेने गए। दोपहर देरी से भोजन करने के कारण रात वे हल्का भोजन लेना चाहते थे। ट्रेन यहाँ दस मिनट रुकती थी। वे कोच तक पहुँचे तब तक ट्रेन चलने लगी थी। दौड़कर वे कोच में चढ़े एवं सीधे अपने सेक्शन में आए।

सेक्शन में अब एक सुखद इज़ाफा हुआ था। एक भद्र महिला, उम्र करीब पैंतीस वर्ष, बेहद खूबसूरत, उनके सामने वाली सीट पर विराजमान थी। हल्के गुलाबी रंग की साड़ी एवं ऐसा ही स्लीवलेस ब्लाउज पहने थी। नाक में हीरे की नोजपिन, गले में मोतियों की माला एवं कलाई पर पतले काले बेल्ट की घड़ी पहने वह सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत लग रही थी। मि0 राणावत ने औपचारिकतावश उन्हें नमस्कार कहकर स्नैक्स आफर किए तो उसने ‘नो थेंक्स’ कहा, फिर कुछ क्षण रुककर बोली, ‘‘मैं डिनर लेकर चढ़ी हूँ।’’ महिला के पास एक फाइल रखी थी जिस के ऊपरी भाग में दाँये, ‘महिला अधिकार: आर-पार की लड़ाई’ लिखा था एवं नीचे महिला विकास विभाग, बिहार सरकार लिखा था। स्नैक्स लेने के पश्चात् पानी पीकर मि0 राणावत ने बात छेड़ी।

मि. राणावत : ‘‘लगता है आप किसी वर्कशाॅप में भाग लेकर आ रही हैं।’’

मैडम : ‘‘बिल्कुल सही! आपने कैसे जाना?’’ उसने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया। इस छोटे-से उत्तर में उसकी धवल दंत पंक्ति मोतियों-सी बिखर गई।

मि. राणावतः ‘‘आपकी फाइल देखकर। क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूँं?’’ बहुत समय से अकेले बैठे मि. राणावत अब उससे बतियाना चाहते थे। यात्रा में भात से अधिक बात से पेट भरता है।

मैडम: ‘‘मेरा नाम अमृता है। कानपुर युनिवर्सिटी में मनोविज्ञान विभाग में व्याख्याता पद पर कार्यरत हूँ। जमशेदपुर ‘महिला अधिकारों के पुनर्जागरण’ विषय पर आयोजित एक वर्कशाॅप में भाग लेने आई थी। एक दिन की वर्कशाॅप थी।’’

मैडम के बात करने के तरीके से शिष्टता एवं पोर-पोर से आत्म विश्वास फूट रहा था। उसके बात करने के अंदाज से लगता था मर्दों से बात करने में उसे किंचित संकोच नहीं है।

औपचारिकतावश मि. राणावत ने भी अपना परिचय दिया। परिचय वार्ता आगे बढ़ी तो राणावत ने जान लिया कि वह कुआंरी है एवं विवाह करना नहीं चाहती। स्त्री स्वायत्तता उसकी नस-नस में फड़कती है एवं वह विवाह को एक बंधन मानती है।

दो पेट भरे व्यक्तियों में वाद-विवाद जोर पकड़ ही लेता है। दोनों अगर विद्वान् हों तो वार्ता मानसिक खुराक बन जाती है। विद्वान् लोगों को एक-दूसरे का दिमाग चाटने में अतिशय आनन्द आता है। दोनों अगर हमवय स्त्री-पुरुष हो तो यह आनन्द दो गुना हो जाता है। गरमागरम मुद्दा पास हो तो फिर कहना ही क्या! स्त्री स्वाधीनता विषय पर दोनों चर्चा करने लगे।

मि0 राणावत : ‘‘मुझे समझ में नहीं आता, आज की स्त्री आखिर किस स्वाधीनता एवं स्वायत्तता की लड़ाई लड़ रही है। कौन-सी ऐसी आजादी है जो समाज ने स्त्रियों को नहीं दी? हमारे ही देश में स्वयंवर प्रथा थी, हमारे  ही  देश ने स्त्री को देवीतुल्य माना। यही नहीं, हमारे धर्मग्रंथों ने तो यहाँ तक लिखा कि जहाँ स्त्री की पूजा होती है वहीं देवताओं का निवास होता है। यहाँ के पुरुषों ने अपने नाम के आगे पहले देवियों के नाम लगाये फिर देवों के, जैसे उमाशंकर, लक्ष्मीनारायण, देवीप्रसाद आदि-आदि। आखिर स्त्री चाहती क्या है? क्या स्वतंत्रता का अर्थ अधिक वस्त्र उतारना है अथवा अंततः स्त्री पुरुषों के समकक्ष यौनिक स्वतंत्रता चाहती है?’’

चर्चा के प्रारंभ का इतना आक्रामक तरीका ठीक नहीं था, पर कई देर से ठाले बैठे राणावत ने मानो मांद में हाथ डाल दिया। लेकिन अमृता कौन-सी कम थी, उसने भी मानो प्रत्युत्तर की जीनें कस ली।

अमृता : ‘‘लगता है आप परिधि से बाहर आ गए। यही वह इल्जाम है जिसे हर बार हमपर लगाकर आप हमारी जुबान बंद करना चाहते हैं। क्या आप आए दिन होने वाली दहेज हत्याएं, घरेलू हिंसा, बलात्कार एवं स्त्री प्रताड़ना के समाचार नहीं पढ़ते ? देश की नब्बे प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा एवं यौनिक दुर्व्यवहार की शिकार हैं। हमारी समकक्षता की लड़ाई हमारे सम्मान एवं आदर की लड़ाई है। औरत को दो अधिकार क्या मिल गए, पुरुष भट्टी की तरह जलने लग गया। वर्षों औरत दहलीज में बंधी रही तब तो आपको हमारी सुधि नहीं आई। फिर हमारे अधिकार आपने हमें थोड़े न दिए हैं, इसे आज की जागरूक स्त्री ने अपने विवेक एवं साहस से जुटाए हैं।’’

मि. राणावत को पहले ही उत्तर में समझ में आ गया कि यह तीखे सींगों वाली गाय है। मैडम के उत्तर को चुनौती की तरह लेते हुए उन्होंने वार्ता को आगे बढ़ाया।

मि. राणावत : ‘‘मैडम, स्त्री हर क्षेत्र में पुरुष की समकक्षता क्यूँ चाहती है? जब भगवान ने नैसर्गिक रूप से स्त्री को पुरुष से भिन्न बनाया है तो कुछ अधिकार बल्कि कुछ विशिष्ट कार्य क्या स्त्री को नहीं दिये जा सकते ?’’

अमृता : ‘‘ऐसा हर कार्य जो पुरुष करता हो, स्त्री भी कर सकती है। आपने अपनी मानसिकता ही ऐसी बना ली है तो स्त्री क्या करें? वर्षों पहले स्त्री नौकरी के लायक नहीं थी, घर की चारदीवारी ही उसकी परिधि थी। आज स्त्रियाँ हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। पहले यही काम नाजायज थे। स्त्री हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा एवं दक्षता का लोहा मनवा रही है। हाँ, कई क्षेत्रों में अभी हम नहीं पहुँचे है पर मैं पूरी आशावान हूँ। गर्मी से सर्दी आई है तो अब बसंत कौन सा दूर है।’’

मि0 राणावत : “तो क्या आपके मत में स्त्री-पुरुषों के बीच कोई नैसर्गिक बँटवारा है ही नहीं ? क्या आपको नहीं लगता डिफेंस के क्षेत्र में पुरुष अधिक कारगर है ? क्या वर्षों आदमी ने अपना खून बहाकर औरत को सुरक्षा नहीं दी ? सीमा पर अब तक हजारों सैनिक शहीद हो गए, तब तो पुरुषों ने यह कभी नहीं कहा आधी औरतें मरनी चाहिए। मरने के क्षेत्र में तो पुरुष एकाधिकार कर ले, जीने के हर क्षेत्र में हमें आधा हिस्सा चाहिए। माफ करना और आप स्वयं इस बात को मानेंगी कि अगर यहाँ कोई लुटेरा आ जाए तो सबसे पहले मैं ही आपको बचाऊंगा। स्त्री पुरुष द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा के तथ्य को इतने जल्दी क्यूँ इन्कार कर देती हैं। जब कभी भी सेनाओं का शत्रु देश के शहरों में अतिक्रमण होता है, वहाँ से औरतों को पहले अन्यत्र भेजा जाता है। क्या स्त्री को इसके लिए पुरुष का आभारी नहीं होना चाहिए? क्या स्त्री अहसानफरामोश नहीं हो गई है ? लगता है स्त्री में धन्यवाद का भाव ही मर गया है ?’’

अमृता ने बिना झिझक बात को गंभीरता से पकड़ा।

अमृता : “आपने सिक्के का एक पहलू तो बता दिया। लेकिन जहाँ-जहाँ भी सेनाएं बढ़ती है वहाँ सबसे पहले स्त्री की ही फजीती होती है। मानव इतिहास में युद्धोपरान्त सर्वाधिक बलात्कार सैनिकों ने ही किये हैं। जब भी स्त्री असहाय हुई पुरुष का पशु सर उठाने लगता है। वह पुरुष क्रूरता की साक्षी नहीं, भोक्ता रही है। आपका यह तर्क भी गलत है कि हम रक्षा के क्षेत्र में अक्षम है, स्त्री रक्षा भी पुरुषों के समकक्ष कर सकती है, उसे अवसर तो मिले। क्या झांसी की रानी स्त्री नहीं थी ? आप स्वयं पर शूरता का ब्राण्ड लगा लेंगे तो औरत क्या करेगी ? आज स्त्रियाँ रक्षा के क्षेत्र में भी जा रही हैं, हो सकता है कल वह आपके समकक्ष हो जाएं।’’

मि. राणावत : ‘‘यही  तो  बात  है  स्त्री-शिक्षा  ने उसे सहिष्णु कम एवं तार्किक अधिक बना दिया है। मुझे समझ में नहीं आता कि नैसर्गिक तौर पर अगर स्त्री पुरुषों से अच्छा लालन पालन कर सकती है एवं पुरुष बेहतर सुरक्षा दे सकता है  तो  दोनों  की प्रतिभाओं को विरोधाभासी क्यूँ बनाया जाय? वे पूरक भी तो हो सकते हैं। पुरुषों के अधिकार एवं लाभों से तो स्त्री को इतना विरोध है, लेकिन सरे आम स्वयं स्त्रियों द्वारा परोसी जाने वाली अश्लीलता से जरा भी विरोध नहीं।’’

अमृता: ‘‘नैसर्गिक कार्य विभाजन आपका सोच है, आपका सोच सत्य हो अथवा अंतिम विचार हो, आवश्यक नहीं है। दूसरे स्त्री की अश्लीलता को भुनाने के पीछे पुरुषों की भूमिका से शायद आप वाक़िफ़ नहीं है।’’

मि. राणावत को समझ में आ गया कि अमृता के तर्क जरख चढ़ी डाकण की तरह भयानक हो गए हैं। वे कुछ प्रत्युत्तर देते उसके पहले ही अमृता बोली-

अमृता: ‘‘खैर! यह विषय एक लम्बी बहस का विषय है फिर भी आपके कुछ तर्क मुझे अच्छे लगे, जैसे कि आपने कहा कि यहाँ लुटेरा आए तो मैं सबसे पहले सुरक्षा दूंगा।’’ गरम लोहे पर मानो ठण्डा पानी बरसा।

मि. राणावत : ‘‘थैंक गॉड! चलो कहीं तो आपने आभार माना।’’

अमृता : आपने भी अंततः यह मान ही लिया कि स्त्रियाँ आभार भी प्रगट करती है।’’

दोनो कुछ क्षण के लिए खिलखिलाकर हँस पड़े।

मि. राणावत: ‘‘बस स्त्रियों की यही अदा तो आदमी को मारती है। बेचारा सदियों से स्त्री की खुशामद कर रहा है पर स्त्री पिघले तो।’’

अमृता: ‘‘पुरुष और स्त्री की खुशामद। जूती न मारे यह भी उसका अहसान है।’’

मि. राणावत : ‘‘कमाल करती है अमृताजी! अब तक के प्रमुख पच्चीस हजार फिल्मी अथवा गैर फिल्मी गीतों में पुरुष ही स्त्री को रिझा रहा है। चौदहवी का चाँद हो या आफताब हो………… तेरी आँखों के सिवा दुनियाँ में रखा क्या है…………न झटको जुल्फ से पानी ये मोती टूट जायेंगे……….और न जाने क्या-क्या एवं कितने- कितने ! आप कोई दो-चार गीत तो बता दें जहाँ स्त्री पुरुष की प्रशंसा कर रही है।’’

अमृता : ‘‘पुरुष स्त्री की खुशामद कर रहा है तो जरूर उसके दुष्प्रयोजन होंगे। गाँठ में तो वह स्त्री को गिरफ्त में ही लेने की सोचता है। फिर जब स्त्रियों को शिक्षा ही नहीं दी गई तो वे गीतकार कैसे बनती ? आपके एकाधिकार के क्षेत्र से हम कैसे सृजन करती ?’’

मि0 राणावत अमृता के सटीक तर्कों के आगे शिकस्त महसूस करने लगे थे। उनकी स्थिति उस सांड की तरह थी, जो गरजता हुआ किसी गली में घुस तो जाता है पर अंततः गोबर कर वापस लौटता है।स्थिति भाँपकर उन्होंने कूटनीतिक शस्त्र उठाये।

मि0 राणावत : ‘‘तर्क देना तो कोई आपसे सीखे। आप जितनी खूबसूरत हैं उतने ही सुंदर आपके तर्क भी।’’

अमृता: ‘‘फ्लर्ट तो नहीं कर रहे। वैसे मैं आपको बता दूँ, मैं झाँसें में नहीं आने वाली।’’ कहते-कहते अमृता जोर से हँस पड़ी।

मि0 राणावत : ‘‘मेरी तौबा! कुछ रहम कीजिए मैडम, दो बच्चों का बाप हूँं।’’वातावरण अब कुछ हल्का होने लगा था। शायद कोई स्टेशन नजदीक आने से यहाँ-वहाँ घरों से रोशनी झाँकने लगी थी। आगे राँची आने वाला था। ट्रेन रुकी तो नीचे उतरकर राणावत दो सोफ्ट ड्रिंक लाये। गाड़ी चलने के बाद कई देर तक दोनों कई मुद्दों पर बतियाते रहे। श्री राणावत की विद्वत्ता एवं जीवन दर्शन से अमृता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। बातों ही बातों में कुछ ऐसी बातें चली की अमृता अभिभूत हो गई। पहलकर बोली, ‘‘क्या ही अच्छा हो अगर हम हमेशा के लिए मित्र बनकर इस यात्रा को चिरस्मरणीय बना दें। मित्रता के लिए क्या कोई सम्बन्ध जरूरी है ?’’

श्री राणावत को जैसे बिना प्रयास ही यात्रा का ऐसा फल मिल गया, जो प्रयास करने पर भी मुश्किल से मिलता है।

सुबह जब ट्रेन कानपुर पहुँची तो राणावत गहरी नींद में थे। अमृता ने उन्हें उठाना मुनासिब नहीं समझा, मित्र भला मित्र को क्योंकर कष्ट दें। ट्रेन से उतरने के पहले उसने मि0 राणावत के पास एक छोटा सा पत्र लिखकर रखा, ‘‘एक शानदार सहयात्री बनने के लिए धन्यवाद। यह यात्रा तो यहीं समाप्त होती है पर मुझे विश्वास है हमारी मित्रता की यात्रा टेलिफोन एवं पत्रों द्वारा जारी रहेगी।’’

रात जब राणावत जोधपुर पहुँचे तो उनके पास एक अतिरिक्त लगेज था। अमृता का वह छोटा-सा पत्र जो उनकी बेशकीमती सौगात थी।

मि0 राणावत को आए अब तक सात रोज हो चुके थे। यात्रा की मधुर स्मृतियाँ एवं अमृता के साथ की यादें आज भी उनके जेहन में थी। एकाध बार उन्होंने फोन करने की सोची भी पर जाने क्या सोचकर टाल गए। 

जीवन कितने अद्भुत संयोगों का सम्मिश्रण है। एक दिन अचानक हमारे जीवन में आकर एक ऐसा व्यक्ति घर कर लेता है जिसके बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं था। यूँ सोचते हैं तो लगता है सारा जीवन रामरजाई के अधीन है। कब, कौन, किस समय जीवन में आयेगा और कब बिछुड़ जायेगा यह विधाता के अतिरिक्त कौन जानता है?

इन्हीं दिनों एक बार मि0 राणावत आफिस में बैठे थे कि उनके मोबाइल पर अमृता का काॅल आया। वह लगभग चहक रही थी, ‘‘गुडमाॅर्निंग मि0 राणावत! अपने मित्र को भूल तो नहीं गए।’’ मि0 राणावत बल्लियों उछल पड़े। ‘‘अमृताजी, ऐसा असंभव है। मैं इन दिनों व्यस्त रहा, अतः फोन नहीं कर सका। आपसे ट्रेन में मुलाकात एवं आपसे हुई बातें अविस्मरणीय है। भला आप जैसे विद्वान् मित्र को कोई कैसे भूल सकता है।’’ उसके बाद तो जैसे बातों का सिलसिला प्रारंभ हो गया। मि0 राणावत ने एक-दो वार्ताओं में ही उसे समझा दिया कि वह घर पर बात न करे। उनकी पत्नी पजेजिव है, आपके बार-बार फोन आने से उनका रिश्ता दुष्प्रभावित हो सकता है। अमृता स्वयं इस बात को समझती थी। दोनों की अक्सर ऑफिस में ही वार्ता होती अथवा उन एकांतिक क्षणो में जब राणावत घर पर अकेले होते।

इस फोन मित्रता को अब सात वर्ष होने को आए। शायद ही कोई ऐसा मुद्दा था, जिस पर दोनों ने चर्चा नहीं की हो। कई बार मि0 राणावत अमृता को विवाह करने के लिए समझाते, पर वह हर बार इस बात को टाल जाती। सदैव यही कहती ‘‘प्रेम के लिए क्या विवाह जरूरी है?’’ मि0 राणावत की कई पारिवारिक एवं कार्यालय की समस्याओं के समाधान में भी अमृता सटीक राय देती। अब तो मि0 राणावत जब भी उलझते अथवा उदास होते , अमृता से ही बात करते। उनके जीवन के सुख के क्षण भी वो अमृता से बाँटते। उनका प्रमोशन हुआ तो उन्होंने सर्वप्रथम अमृता को ही सूचित किया। मनुष्य को अगर जीवन में एक भी ऐसा विश्वासपात्र साथी मिल जाये जिससे वह बेझिझक अपने चेतन-अवचेतन मन को बाँट सके तो इससे बड़ी विधाता की नेमत क्या हो सकती है?

लेकिन एक बात अवश्य थी। जितना अपने बारे में खुलकर मि0 राणावत अमृता से कहते, अमृता उतना खुलकर नहीं कहती। कई बार तो मि0 राणावत कोफ्त में कह देते, ‘‘क्या तुम्हारे जीवन में कोई समस्या ही नहीं है?’’ तब अमृता खिलखिलाकर हँस पड़ती, ‘‘होगी तो तुम्हें ही सबसे पहले कहूंगी।’’

रिश्ता दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होता गया। इसी दरम्यान राणावत की बड़ी बेटी का विवाह हुआ तो अमृता ने उन्हें डीडी भेजकर आर्थिक मदद भी की। मि0 राणावत ने आभार प्रगट किया तो उसने यही कहा, सच्चे मित्र कभी आभार प्रकट नहीं करते।

बेटी के विवाह पर मि0 राणावत के लाख कहने पर भी वह नहीं आई। विवाह के पश्चात् राणावत ने शिकायत की तो उसने यही कहा, ‘‘अगर मैं आती तो हमारी फोन मित्रता का मजा किरकिरा हो जाता। यह भी हो सकता था कि भाभी इसे अन्यत्र लेती। तुम्हारे पारिवारिक जीवन में किसी प्रकार का दुःख मेरे कारण आए ऐसा मैं सोच भी नहीं सकती।’’ उस दिन मि0 राणावत की आँखें डबडबा आई थी। फोन रखने के पश्चात् ऊपर हाथ उठाकर उन्होंने प्रभु का आभार प्रगट किया, ‘‘प्रभु! क्या अमृता के रूप में तुम मेरे जीवन में उतर आए हो? तुम्हारी ही तरह वह भी मुझसे दूर क्यों है?’’

क्या दिव्य आत्माएं अपने निज स्वरूप को गुप्त रखती हैं ?

इन दिनों दस रोज से अमृता का फोन नहीं आया तो मि0 राणावत को चिंता हुई। पहले तो उन्होंने सोचा उससे फोन पर बात की जाय, बाद में एकाएक उन्हें लगा अमृता के इतने अहसानों के लिए व्यक्तिशः जाकर उसका आभार प्रगट करना चाहिए। लेकिन इस मुलाकात को वो गुप्त रखना चाहते थे। क्या ही अच्छा हो अमृता को उसके घर पहुँच कर सरप्राईज दिया जाय। अचानक मुझे देखकर वह कितनी प्रसन्न होगी! हो सकता है मुझे बाहों में कसकर कहे, ‘‘आज तुमने मुझे निहाल कर दिया।’’ मुझे यूँ अपने पास देखकर वह फूली नहीं समाएगी। जिसने मेरे जीवन में मुस्कराहटों की बगिया खिला दी, उसके जीवन में मुस्कराहट का एक फूल मैं भी तो अर्पण कर सकता हूँ।

मि0 राणावत ने जाना तय कर लिया।

पाँच रोज का अवकाश लेकर वे कानपुर पहुँचे। सुबह स्टेशन पर काफी चहल-पहल थी। स्टेशन से घर आते-आते उनका दिल मानो उछल कर बाहर आना चाहता था। रास्ते में टैक्सी ड्राईवर ने उनसे टाइम पूछा तो वे बोले, ‘‘आठ बजे है भाई, आज 30 जून 2006 है। ड्राईवर ने तारीख नहीं पूछी थी, शायद मि0 राणावत का अवचेतन मन तारीख बताकर स्वयं को कहना चाह रहा था- यह दिन तुम्हारे भाग्य का उत्कर्ष है।

मि0 राणावत अब अमृता के घर के बाहर खड़े थे। दरवाजे पर नेमप्लेट लगी थी, ‘अमृता जैन।’ नेम प्लेट के पास ही लगी एक तख्ती पर लिखा था, मित्र का घर कभी दूर नहीं होता।

बेल बजाने के पूर्व मि0 राणावत एक अजीब कल्पना लोक में खो गए। कैसा लगेगा यह सरप्राइज उसे ? क्या वह खुशी से झूम उठेगी? अब तक उसका चेहरा भी बदल गया होगा? हो सकता है सर पर कुछ सफेद बाल आ गए हो? न जाने अभी किस ड्रेस में हो? हो सकता है दूध वाला समझकर ऊंघते हुए बर्तन आगे बढ़ा दे, मुझे देखे ही नहीं? तब मैं खुद ही उसे बाहर खींच लूंगा। उनकी सतरंगी कल्पनायें पलभर में आसमान पर चढ़ बैठी। मिलन की तीव्र उत्कंठा उनकी सांसों में, प्राणों में, अहसासों में ऐसे समा गई मानो यह दो मनुष्यों का मिलन न होकर दो पवित्र नदियों का संगम होने वाला था।

धड़कते दिल से उन्होंने बेल बजाई। बेल बजाने एवं दरवाजा खुलने के मध्य होने वाले छोटे से अंतराल में मानो युग बीत गए।

लेकिन यह क्या! दरवाजा एक वृद्धा ने खोला। शक्ल अमृता से मिलती थी पर वह अमृता न थी। मि0 राणावत का चेहरा देखकर वह खुद ही बोली-

‘‘मैं अमृता की माँ हूँ। आपको किससे मिलना है?’’

‘‘अमृता से!’’ मि0 राणावत उतावले हुए जा रहे थे।

‘‘अंदर आ जाइये! कहाँ से आ रहे हैं ?’’

‘‘जोधपुर से!’’ सोफे पर बैठते हुए मि0 राणावत बोले।

‘‘पहले आपके लिए पानी लाती हूँ!’’ यह कहते हुए वह रसोई में चली गई।

मि0 राणावत अधीर हुए जा रहे थे। रात उन्हें नींद भी बराबर नहीं आई थी। दोनों हाथ ऊपर कर आलस्य तोड़ते हुए उन्होंने सर उठाया तो मानो कड़क कर बिजली गिरी। सामने अमृता की तस्वीर टंगी थी जिस पर चंदनहार लगा था। नीचे लिखा था –

स्व0 अमृता जैन

जन्म: 30 जून 1964

अवसान: 20 जून 2006

कुछ पल के लिए मि0 राणावत जड़ हो गए।

बाद में उनकी माँ से बात करने पर उन्हें पता चला कि अमृता को पिछले आठ वर्ष से छाती का कैंसर था।

…………………………..

27.01.2007

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