मुुम्बई-त्रिवेंद्रम एक्स्प्रेस रात के घने अंधकार को चीरती हुई तेजी से भागी जा रही थी। ट्रैन करीब एक घण्टा पूर्व मुम्बई से रवाना हुई थी। सभी यात्री अब तक व्यवस्थित हो चुके थे। कुछ सोने की तैयारी कर रहे थे, कुछ बतिया रहे थे, कुछ पढ़ रहे थे, तो कुछ चुपचाप बैठे शून्य में तक रहे थे।
पूरी ट्रेन में सैकण्ड एसी यानि वातानुकूलित अपर श्रेणी का एक ही कोच था, वह भी खचाखच भरा था। डिब्बे के हर सेक्शन में चार बर्थ थी, दो नीचे , दो ऊपर। कोई जमाना था जब इन डिब्बों में बैठने वाले इने-गिने लोग होते थे। स्टेशन पर ऐसे डिब्बे में लोग चढ़ते तो अन्य यात्री उन्हें ललचायी आँखों से देखते। तब इन डिब्बों में चढ़ते भी चुनिंदा लोग थे। आज स्थिति विपरीत है। अब धानिये- भगवानिये भी इनमें सफर करते हुए मिल जाते हैं। समाज अब मात्र दो वर्गों में विभक्त हो गया है, धनी एवं गरीब।
मेरे सेक्शन में फिलहाल कुल तीन लोग थे। मैं एवं एक नया जोड़ा जो शायद हनीमून पर कहीं जा रहे थे। मेरी लोअर बर्थ थी एवं नव दंपति की एक लोअर एवं एक अपर बर्थ थी। एक अपर बर्थ खाली थी। शायद आगे किसी स्टेशन से इसके लिए यात्री चढ़ने वाला था।
वैसे महंगे वातानुकूलित डिब्बों में यात्रा करना मुझे नहीं सुहाता। ऐसा नहीं है कि मेरी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं हो, व्यापार में मैंने अच्छी दौलत कमाई है, पर मुझसे मेरी जड़ें नहीं छूटती। गरीब आदमी अमीर भी बन जाता है तो उसकी दशा रेत से निकल जाने वाले साँप की तरह होती है जो चला तो जाता है पर निशान छोड़ जाता है। धन भोगने के लिए आदमी को बेसिकली रिच अर्थात् जड़ों में अमीर होना जरूरी है। इसके लिए पीढ़ियों का वैभव चाहिए। पहली पीढ़ी जो गरीबी की सीमा तोड़कर अमीरी की रेखा में प्रवेश करती है, गरीबी से इतनी भयाक्रांत होती है कि अमीर बनने पर भी उनके अतीत का गरीब दाँत दिखाता रहता है। धन को वही भोग सकता है जिसने धन की महत्ता न समझी हो, जो सोने के पलने में झूला हो, जिसे संपदा पैदाइश से मिल गई हो।
इस बार भी मैं द्वितीय श्रेणी में ही यात्रा करने वाला था, पर पुत्र ने त्रिवेन्द्रम से फोन कर रोष जताया, ‘‘पापाजी! कुछ तो हमारी प्रतिष्ठा का भी ख्याल रखें। लोग क्या कहेंगे कि पिता अस्सी वर्ष के हैं पर पुत्र इतना बेपरवाह है कि उनकी सुविधा का जरा ध्यान नहीं रखता? हमारी बुरी लगी तो आपको अच्छा लगेगा क्या? और हाँ, थ्री टायर में तो आप बिल्कुल यात्रा न करे। वहाँ चढ़ने उतरने में दिक्कत होगी।’’ मेरे पास अब सैकेण्ड एसी में जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।
मैंने ठीक ही सोचा था। सामने बैठे दंपति हनीमून पर गोवा जा रहे थे। अभी-अभी दुल्हन ने मोबाइल पर इस रहस्य का उद्घाटन किया था। शायद अपनी किसी अंतरंग सखी से बात की थी। दुल्हन के साज-शृंगार एवं लड़के के आँखों में तैरते स्वप्नों को देखकर भी उनके नवविवाहित होने का आभास होता था।
इंसान कितना ही बूढा क्यूँ न हो जाये नव दंपति को देखकर उसके हृदय में आनंद हिलोरें लेने लगता है। वे उसके यौवन की यादें ताजा करते हैं। सामने बैठे दंपति अब आपस में बतियाना चाहते थे। दोनों के पास अनेक रसभरी बातें थी। दोनों प्रणय आतुर एक दूसरे से छेड़खानी भी करना चाहते थे, पर मैं दाल भात में मूसलचन्द की तरह उनके सामने बैठा था। वे कुछ-कुछ कहने का प्रयास करते, छेड़ने की कोशिश करते, पर मुझे देखकर सम्हल जाते।
बुड्ढे गतयौवना अवश्य होते हैं, पर गतविवेक नहीं। बच्चों की इस दुविधा को देख मुझे दया आ गई। यकायक मुझे एक विचार कौंधा। मैंने हाथों के इशारे से उन्हें पूछा, आगे कौन-सा स्टेशन आने वाला है? लड़का पहले तो सकपकाया फिर बोला, ‘‘क्या आप बोल नहीं सकते ? ’’ मैंने पहले मुँह एवं फिर दोनो कानों पर हाथ रखते हुए सांकेतिक भाषा में उन्हें उत्तर दिया। दोनों मेरे मनोभाव समझ गये। संकेतों को दोहराते हुए युवक ने पुनः पूछा, ‘‘यानि आपको सुनाई नहीं देता एवं आप बोल भी नहीं सकते ?’’ वह आश्वस्त होना चाहता था।
मैंने सर हिलाकर हाँ में उत्तर दिया। दोनों की बाँछें खिल गई।
उसने मुझे आगे आने वाले स्टेशन का नाम सांकेतिक भाषा में बताया। मौका देखकर उसने मुझे ऊपर की बर्थ पर जाने का इशारा किया। मेरे लिए ऊपर चढ़ना कठिन था फिर भी मैंने प्रयास किया। दोनों ने मुझे सहारा दिया। मैं ऊपर चादर ओढ़कर लेट गया। थोड़ी देर में लड़की मेरी वाली सीट पर आकर बैठ गयी। लड़का भी मौका देखकर उसकी गोदी में सर रखकर लेट गया। दोनों अब बतियाने लगे। दोनों रसभरी बातें कर एक दूसरे को छेड़ने लगे। लड़का जब-जब भी लड़की को छेड़ता लड़की प्रतिरोध करती, तब उसके कंगन एवं चूड़ियों का शोर वातावरण को और रसमय बना देता। लड़के की हरकतें बढ़ने लगी तो लड़की मीठे रोष में भर कर बोली, ‘‘कुछ शर्म करो! ऊपर कोई लेटा है।’’
‘‘चिंता मत कर! बुड्ढा बहरा है!’’ कहते-कहते लड़के ने अट्टहास किया तो लड़की अपना हाथ लड़के के मुँह पर रखकर बोली, ‘‘बेशरम कहीं के, हर जगह सताते रहते हो।’’
मुझे समझ नहीं आया मैं बुड्ढा होकर भी उनकी बातें क्यूँ सुन रहा था ? यही नहीं ध्यान से यह सब सुनना मुझे रससिक्त कर रहा था। क्या आदमी की कामेच्छा मरती भी है? रसविहीन ग्रंथियों के साथ बुड्ढों के पास अध्यात्म के अतिरिक्त अवलंब क्या रह जाता है? वस्तुतः मनुष्य की यौनिक इच्छा किसी उम्र में नहीं मरती, वह राख में दबे अंगारों की तरह सुषुप्त होती है। जिन कार्यों को करने की क्षमता मनुष्य खो देता है, उन कार्यों को न करने की अक्षमता छिपाने के लिए वह अन्य विकल्प ढूँढ़ लेता है। अध्यात्म आपकी अक्षमता को छिपाने की कला ही है। मौका मिलते ही ये बुड्ढे दम भरने लगते हैं। संसार भर में बिकने वाली यौनोत्तेजक दवाइयों में पिचानवे प्रतिशत का सेवन बुड्ढे करते हैं। बुड्ढे युवाओं से अधिक लंपट होते हैं, बच्चे इस बात को न जान पाएं, अतः प्रभु नाम की माला फेरते रहते हैं।
खैर! बच्चों की रसभरी बातें, दुल्हन के नखरे एवं साज-शृंगार ने मुझे उस उम्र में पहुँचा दिया जब मेरा विवाह हुआ था। क्या तो उम्र थी तब मात्र सत्रह वर्ष और दमयंती भी तो मात्र सोलह वर्ष की थी। लड़कियाँ रजस्वला होते ही उनका विवाह कर दिया जाता था। तब ऐसा मानते थे कि इस उम्र में बहकने की संभावना अधिक होती है, ऐसा हो उसके पहले भांवर डाल देते थे। तब निरोधजी , टीदेवी भी नहीं थी। जरा-सा चूके और जीवन नरक बन जाता था। बाल विवाह उस समय की अनिवार्यता थी पर यह बात अवश्य है कि जो मजा बाल-दंपति बनने में था, जो अबोधता, जिन भोली बातों का लुत्फ बाल-दंपति लेते थे वह इन बड़ी उम्र के युवको के नसीब में कहाँ।
सुहागरात की याद आते ही आज भी नस-नस में मिश्री घुल जाती है।
वे बरसात के दिन थे।
भाभी ने कमरे में धकेलकर दरवाजा बंद किया तो मैं लगभग चीख पड़ा, ‘‘यह क्या कर रही हो भौजी, शरम नहीं आती ?’’
‘‘शरम! मेरी शरम तो तेरा भैया पी गया!’’ कहते-कहते भाभी जोर से हँस पड़ी थी।
मैंने भीतर से चिटकनी लगाई एवं चुपचाप धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उन दिनो बल्ब कहाँ थे। कमरे की एक दीवार के मध्य बने चौखट में दिया जल रहा था। दीपक की मद्धम रोशनी में दमयंती पलंग पर गठरी बनी बैठी थी। पलंग के पास दूध से भरे दो गिलास एवं पास में कुछ फल रखे थे। ऐसा करना उस समय की प्रथा थी।
मैं दबे पाँव पलंग तक आया। मुझे देखकर दमयंती और सहम गई। पहले से ठोड़ी तक आये घूंघट को उसने और नीचा किया। उसने लाल जोड़ा पहन रखा था, जिसकी किनारों पर जरी का मनभावन काम था। जोड़े पर जगह-जगह सितारे टंगे थे। मैं पलंग तक पहुँचता, उसके पहले उसकी सांस फूलने लगी थी। भय के मारे उसने अपना बायाँ हाथ छाती पर रख लिया था।
मैं कौन-सा सूरमा था। पलंग पर चुपचाप आकर बैठ गया। मिलन की उत्कंठा एवं समागम की शत-शत कल्पनाएं मेरे हृदय में हिलौरे ले रही थीं, लेकिन उन्हें साकार रूप देने के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है, वह मुझमें कहाँ था! इस उम्र में जहाँ एक अजीब अबोधता होती है, वहीं एक भोला अहंकार भी होता है। मैं क्यूँ पहले बात करूँ? कमरे में एक अजीब चुप्पी तैरने लगी थी। एक दूसरे के श्वासों की आवाज हम स्पष्ट सुन सकते थे।
हमारी उत्कण्ठाओं को प्रकृति ने साहस दिया। बाहर कहीं तेज आवाज में बिजली कड़की। पहले से भयातुर दमयंती क्षणभर के लिए मुझसे लिपट गई। अनायास मिले इस पुण्यलाभ का मैंने भरपूर फायदा उठाया। कई देर वह मेरे बाहुपाश में रही फिर एकाएक घूंघट ऊपर कर बोली, ‘‘शरम नहीं आती तुम्हें।’’ फिर उसे लगा वह कुछ गलत बोल गई, ठोड़ी पर हाथ रखकर बोली, ‘‘उई माँ! मैंने आपको तुम कह दिया, इसका पाप तो जरूर लगेगा।’’ सभीत हिरणी की तरह उसकी आँखें फैल गई।
तब मैंने उसके रूप के प्रथम दर्शन किए। काम उल्लसित चकित आँखें, कमनीय भृकुटि, मंत्रसिद्ध काजल, तीखे नाक पर होले-होले हिलती हुई नथ, रक्तवर्ण कपोल, सुघड़ बत्तीसी, सुंदर चिबुक एवं सुराहीदार गर्दन। उसकी लंबी काली चोटी नितंबों तक आ रही थी। कंगनों की खन-खन एवं नूपुर की क्षीण ध्वनि मेरे हृदय में प्रणय का महासंगीत जगा रही थी। मुझे प्रथम बार लगा, नारी पुरुष की दीर्घ तपस्या, पूजा एवं पुण्य का श्रीफल है। जिसे स्त्री मिल जाए उन्हें इन मिथ्या अवलंबों की क्या आवश्यकता है ? पृथ्वी पर आकर जिस पुरुष ने सुंदर स्त्री को नहीं भोगा, निःसंदेह वह ठगा गया।
‘‘आपने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया!’’, वह पुनः बोली। अब उसकी वाणी आत्म विश्वास से लबरेज थी।
‘‘नहीं-नहीं ऐसे अन्जाने में तुम कहने से पाप थोड़े लगता है।’’ मैं श्वास रोककर बोला।
थोड़ी देर फिर कमरे में चुप्पी रही। मेरी दशा देखकर पुनः दमयंती ने मौन तोड़ा, ‘‘यूँ चुपचाप कब तक बैठे रहोगे ? कल मेरी सहेलियाँ पूछेगी कि तुम्हारा दूल्हा कैसा है तो उन्हें क्या उत्तर दूंगी?’’
मैं सकपका गया। तब स्त्री महाग्रंथ में छुपे अगाध रहस्य के प्रथम पृष्ठ को मैंने समझने का प्रयास किया। मुझे लगा इस महाग्रंथ को समझने का वांछित विवेक अभी मुझसे कोसों दूर है।
मैं सोचता ही रह गया एवं वह साहस के प्रथम सोपान पर चढ़कर मेरे पौरुष को ललकारने लगी।
शराब के चढ़ते सुरूर की तरह मैं धीरे-धीरे उसकी और बढ़ने लगा। उसकी देहभंगिमाएं, रस अंगुलियों का स्पर्श, बांकी चितवन मेरे धैर्य के सारे बाँध तोड़ रही थी। ऊपर नीचे होता हुआ वःक्षस्थल, अर्ध मूंदे नेत्र, श्वासों की उष्माहट मेरी कामाग्नि को हवा देने लगी थी। कामदेव अब धनुष हाथ में लेकर शर-संधान को तैयार थे।
बाहर मेघ जोरों से गरजने लगे थे मानो सब कुछ लुटाकर रिक्त हो जाना चाहते हों। भीतर भी कुछ ऐसा ही घट रहा था। कोई बादल की तरह गरज रहा था कोई नदी की तरह उल्लसित होकर उमड़ रही थी।
मेरी आत्मा के आकाश पर सहस्रों बिजलियाँ एक साथ कौंध गई थी। मन-प्राण किसी में विलय हो गये थे। कोई प्रणयमस्ता हो गई थी, कोई विदेह हो गया था। मैं पसीने से तरबतर था। वह चातकी की तरह मेरे श्रमकणों को पी गई।
दमयंती उसी रात मेरे मन के अंतःपुर में प्राण मोहिनी-सी अधिष्ठित हो गई। उस मधुनिशा की यादें आज भी मेरे श्वासों में, प्राणों में, अहसासों में बसी है।
दमयंती का स्वर्गवास हुए दस वर्ष हो गए, लेकिन आज एक बार फिर मैंने सुहागरात मनायी। मेरी इस वैचारिक मधुनिशा में पुनः मैंने उस देवी के दर्शन किये। यह मेरी दूसरी सुहागरात थी। रात कब सोया पता ही नहीं चला।
सुबह कोच में खटपट हुई तो मैं चौंककर उठा। धीरे-धीरे बर्थ से उतरकर नीचे आया।
मंझगाँव आ गया था। गोवा जाने वाले सभी यात्री यहाँ उतर रहे थे। नवदंपति भी अपना लगेज लेकर जाने लगे तो मैंने दोनों की ओर देखकर कहा, ‘‘थेंक यू न्यूली वेड्स। गोड ब्लेस यू!’’ (धन्यवाद! नव- दंपति पर ईश्वर की असीम कृपा हो!)
नीचे उतरते-उतरते दोनों की आँखें विस्मय से फैल गई।
रात वाला रहस्य तो मैं बिल्कुल भूल गया।
नव- दंपति चुपचाप नीचे उतर गये। ट्रेन यहाँ दो मिनट रुकती थी। इंजन अब सीटी बजा रहा था।
यकायक, मैंने देखा कि वही नवयुवक, बिजली की गति से कोच में घुसा एवं मेरे कानों के समीप आकर जोर से बोला, ‘‘बुड्ढे हरामी होते हैं।’’
इतना कहकर वह तेजी से प्लेटफार्म पर उतर गया।
उसने सही कहा था, मैं इस महासत्य का कैसे विरोध करता! अब तक गाड़ी भी गति पकड़ चुकी थी।
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01.04.2007