हमारे पड़ौसी का मकान बनकर तैयार है हालांकि मैं एवं मेरा दिल जानता है इसके पूरा होते-होते हमने कितनी मुसीबतें झेली हैं। पिछले पूरे वर्ष कभी मिट्टी लेकर ट्रक आ रहे हैं तो कभी सड़क पर सीमेन्ट घुट रही है तो कभी पत्थर तराशे जा रहे हैं। सारे दिन ठक-ठक। अक्सर बबलू कहता था, ‘‘मम्मी, कब बनेगा यह मकान? जब भी पढ़ने बैठता हूँ, ठक-ठक शुरू हो जाती है।’’ उसकी माँ हर बार प्रेम से यही समझाती, ‘‘थोड़े दिन में बन जायेगा, बेटा ! तुम मन लगाकर पढ़ो, कोई ठक-ठक नहीं सुनाई देगी। जब हमारा मकान बना तब भी तो मौहल्ले वालों ने यह सब सहा होगा।’’
शायद बबलू को यह बात समझ में आ गयी है पर मुझे नहीं। मुझे कांता का इतना सहिष्णु होना अच्छा नहीं लगता। अभी पड़ौसी आये नहीं, उसके पहले ही उनका प्रशंसा पुराण प्रारंभ हो गया। पहले नाप-तौल तो लें वह कैसा है? उसकी बीवी कैसी है? बच्चे कैसे हैं? कांता रिश्तों की भूमिका मिलने से पहले बनाना प्रारंभ कर देती है। आदत है उसकी। मैं समझाता हूँ तो वही घिसा-पिटा उत्तर मिलता है, आपको अपने अलावा किसी की प्रशंसा सुहाती ही नहीं। मैं प्रत्युत्तर की सोचता हूँ तब तक सर्र से चलकर कहीं और होती है। स्त्रियाँ प्रतिघात का मौका ही नहीं देती। मेरी बला से, मैं क्यों इतना सोचूं, पड़ौसी आयेंगे तो खुद पता चल जायेगा। नाईजी, बाल कितने कि काटूं तब खुद देख लेना।
हम सभी उनसे मिलने को उत्सुक है। यह मकान वर्ष भर मेहनत कर उसके साले ने बनाया है। वे तो बस चाबी लगाकर मुहूर्त करने आ रहे हैं। कितना भाग्यशाली है, भगवान ऐसा साला सबको दे। मेरा साला तो सांड की तरह घर में पड़ा रहता है, उसका बस चले तो मुझे हल में जोत दे। लेकिन कांता हर समय उसकी तारीफ करती रहती है। एकाध बार मैंने विरोध भी किया तो उसने सांड की बहन गाय की तरह तीखे सींगों से वार किया, ‘‘पहले अपने छोटे भाई को तो समझा लो, तीस वर्ष का हो गया है अभी तक नौकरी नहीं चढ़ा। शहर में कोई लड़की तक नहीं देता।’’ सींग खाकर ही मुझे समझ में आया पत्नी से पंगा लेना उचित नहीं है।
पड़ौसी के साले से मैंने जान लिया है कि नया पड़ौसी आयकर अधिकारी है, पहले बाबू था अब प्रमोशन पर आ रहा है। उसकी इकलौती बहन का पति है एवं उनके एक ही बच्ची है, करीब-करीब बबलू के उम्र की यानि नौ-दस वर्ष की। अगले सोमवार को मकान का वास्तु एवं गृहप्रवेश है। चलो, कोई कैसा हो एक निमंत्रण तो बना। इन दिनों कई दिनों से दावत पर नहीं गये।
लेकिन ऐसा खडूस पड़ौसी भगवान किसी को न दिलाये। आज मंगलवार है, कल उनके मकान का वास्तु एवं गृहप्रवेश दोनों हो गया। कोई दो सौ लोग रात्रिभोज में थे, पर कुत्ते ने हमें नहीं बुलाया। कुल मिलाकर मुझे बात समझ में आ गयी है, इससे किसी भी हालत में पटनी नहीं है। शायद उसने मुझे बहुत कम आंक लिया। अब चटनी बनाऊंगा तब समझ में आयेगी। पूछे तो सही एक बार, दूध कहां से लेते हो, शाक-तरकारी वाला कब आता है, साफ-सफाई की क्या व्यवस्था है, अच्छी बाई कौन है आदि-आदि। अखबार वाले, केबल वाले के बारे में तो जरूर पूछेगा। मैं तो सफा यही उत्तर दूंगा, मेरी जूती ! तब उसका उतरा हुआ मुँह देखकर कैसा मजा आयेगा। अरे, जब तुम्हारे में इतनी भी तमीज नहीं कि गृहप्रवेश पर पड़ौसी को निमंत्रण देना चाहिये तो हमें कौनसी गरज है। बैठा रह अपने घर में। आयकर अधिकारी है तो रौब जमा व्यापारियों एवं कर चोरों पर, यहां तो बैंक अधिकारी हैं, सरकार पहले टीडीएस काटती है फिर तनख्वाह देती है।
रात कांता से मैंने दुःख बांटा तो उसने यही कहा, ‘‘न जाने दावत के नाम से तुम्हारी जीभ क्यूं लपलपाती है। इतना भी नहीं समझते एक मौहल्ले वाले को बुलाते तो सबको बुलाना पड़ता। ले देकर झगड़ने पर तुले हो। भगवान ने सब कुछ दे दिया पर बचपन की फकीरी अभी भी तुम्हारे मन की रेत पर साँप की तरह रेंगती रहती है।’’ सर्पिनी की तरह उसने तर्क का ऐसा फन मारा कि मेरे पास चुप रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था।
हमारे पड़ौसी को आये अब तक बीस रोज हो चुके थे।
आज शाम ऑफिस से घर आया तो पड़ौसी का पूरा परिवार हमारे यहाँ बैठा था। शायद कांता ने निमंत्रण दे दिया होगा या बबलू लपरचट्टे की तरह गुड़िया को घर लाया होगा। पीछे-पीछे यह दोनों चले आये होंगे। यह भी हो सकता है कि खुद ही चले आये हों। दूसरों को निमंत्रण नहीं दे सकते तो क्या उनके घर चरने तो जा सकते हैं।
मुझे देखते ही दोनों मियां-बीवी ने खड़े होकर नमस्ते किया। मैंने ब्रीफकेस दीवान पर रखकर उनकी और हाथ बढ़ाया। मेरे हथेली को मजबूती से थामते हुए वह बोले, ‘‘आई एम पवन परमार एण्ड शी इज माई ब्यूटीफुल वाइफ निशी।’’ फिर गुड़िया की ओर मुड़कर बोला, ‘‘यह हमारी बेटी पूजा है।’’ कितना बेतकल्लुफ था वह। मैंने भी उसी अंदाज में परिचय देना चाहा, बिल्ली तो पहली बार में ही मार लेनी चाहिये पर मानो वो मेरी नीयत पहचान गए। नीचे बैठते हुए बोले, ‘‘आपको परिचय देने की जरूरत नहीं है कांताजी ने सब कुछ बता दिया है। आप आलोक माहेश्वरी हैं, बैंक में अधिकारी हैं एवं यह आपका चुलबुला बेटा बबलू है।’’ अपने शब्द गले में निगलते हुए मैं परमार दंपती के सामने पड़े सोफे पर कांता के पास बैठ गया। परिचय देने में भी कैसा उस्ताद था, कांताजी-कांताजी कहे जा रहा था, भाभी नहीं बोल सकता था। उसके परिचय का प्रतिकार करते हुए मेरी भी इच्छा हुई कि मैं उसकी पत्नी को निशी कहकर बात प्रारंभ करूं पर बोलते-बोलते मैं कुछ और ही बोल पड़ा, ‘भाभीजी! अब तक तो आप एडजस्ट हो गए होंगे। किसी भी प्रकार की असुविधा हो तो तकल्लुफ ना करें। मैं कुछ बोलता इसके पहले ही कांता बोल पड़ी, ‘‘मैंने निशीजी को सबसे मिला दिया है। दूध, बाई, तरकारी, केबल आदि सब व्यवस्था हो गई है।’’
जैसे किसी योद्धा के तूणीर से सारे तीर निकालकर किसी ने नाली में डाल दिए हो, मेरी दशा ठीक वैसी ही थी। सुनते ही मुँह लटक गया। कांता को हर बात की जल्दी है। इतना भी नहीं समझती इतना सरल एवं सुलभ होना अच्छा नही है। प्रबंधन के मूलभूत सिद्धांतों से उसका जरा भी वास्ता नहीं है। सहज में मिली किसी वस्तु अथवा सुविधा को लोग महत्त्वहीन समझते हैं। इन्हीं को अगर छका-छका कर दो तो लोग अहसान मानते हैं।
इस मुलाकात का दिलचस्प पहलू यह था कि जहां पवन परमार कोयले की तरह काले थे, उनकी पत्नी अनिंद्य सुंदरी थी। ऐसी खूबसूरत औरतें कम ही देखने को मिलती हैं। कृशांगी, तीखे नक्श, हल्की नीली आंखें तिस पर धनुष की तरह तराशी भौहें, आई शेडो से चमकती पलकें, नाक में हीरे की नोजपीन, कानों में मोती के बुंदे तथा गुलाबी बोर्डर वाली चुनरी की साड़ी पहने वह किसी रूपसी से कम न थी। अच्छे कपड़े पहनना ही सबकुछ नहीं है। पहनने का सलीका भी काबिले तारीफ था। मेचिंग ब्लाउज, ऊँची हील की सैंडिल, हल्के गुलाबी रंग की लिपिस्टक एवं साड़ी पहनने का अंदाज सोने में सुहागे की तरह उसका रूप निखार रहा था। भगवान भी कमाल करता है, अक्सर हब्शियों के पल्ले अप्सराओं को बाँध देता है। हमारे विवाह के समय ऐसे चाँद न जाने किन बादलों में छिपे थे। ऐसा नहीं कि कांता बदसूरत है, उसके भी अच्छे फीचर्स है पर रंग गेहुआ है पर हाँ, हमारी पड़ौसन तो कमाल की है। मैं मन-ही-मन मन्नत मांगने लगा, यूं ही दर्शन देते रहना देवी ! सुबह से शाम तक किसी न किसी काम से आती जाती रहोगी तो मैं समझ लूंगा मुझे मंगला से शयन तक के देवी दर्शन हो गये हैं। आज मुझे भगवान पर भी कोफ्त आया, जब उस जमाने में मेरे जैसा तीखा-बांका-गोरा जवान, मौजूद था तो उसने ऐसी सुंदरी को इस कल्लू के पल्ले क्यूं बांधा? दो जोड़ियाँ खराब कर दी। श्याम रंग शायद ईश्वर को ज्यादा ही पंसद है, कृष्ण अवतार के समय इसीलिए उसने इसी रंग का चयन किया। अगला अवतार उसका दक्षिणी अफ्रीका में तय है।
बबलू अपने कमरे में पूजा के साथ खेलने लगा था। शाम गहरी होने लगी तो मैंने औपचारिकतावश पवनजी से कहा, ‘‘पवनजी पहली बार आये हो, डिनर लेकर जाना।’’ मुझे पूरा विश्वास था इतना जल्दी कोई हाँ नहीं कहता। उनका उत्तर सुनकर तो मैं हैरान हो गया, ‘‘कांताजी ने आपके आने के पहले ही यह करार कर लिया है।’’ मेरा बस चलता तो मैं अपना मुँह कोलतार से पोत लेता। इम्प्रेशन जमाना कोई कांता से सीखे, हर बार आगे निकल जाती है। लेकिन मेरा सारा दुःख इस सोच से पिघल गया कि इस बहाने इसकी सुंदर पत्नी से बतियाएंगे। डिनर के दरमियां मैंने ऐसी कई कोशिशें की पर कांता हर बात में, हर काम में पहल करती, मैं अपना-सा मुँह लेकर रह गया।
रात कांता डबलबेड पर आयी तब कितनी प्रसन्न थी। क्यों न हो अब पड़ौसन जो मिल गई पति की बुराई करने को। वर्षों घर में कुढ़ती रही अब मौका मिला है। सब कुछ कहेगी उससे। यह घर का काम जरा भी नहीं करते, घर का तो दूर बाजार का सारा सामान यहां तक कि इनके चड्डी-बनियान तक मैं ही खरीदती हूँ, इन्हें तो इनकी साइज तक का पता नहीं। जब देखो दार्शनिक की तरह दीवारों में झाँकते रहते हैं जैसे इनके पुरखे इनमें सोना गाड़ गये हो। शादी में इनकी माँ ने मुझे फकत पाँच तोला सोना दिया था, वो तो मेरे पापा है जिनकी वजह से लाज ढक रही हूँ। मम्मी ने पूरे पचास तोला सोना दिया था जिस पर अकड़ यह कि हमने मांगा कुछ नहीं। अरे ठुकराया भी तो कुछ नहीं। यह भी कह सकती है ये अपनी हैंकड़ी में ईमानदार रहते हैं, मुझे तो कई बार कहते रहते है, काश! मैं भी बेईमान होता तो हमारे पास भी अच्छी कार एवं बंगला होता। इस बात को तो जरूर कहेगी कि एक पुरानी कार के लिए एक व्यापारी से इनकी सौदेबाजी पिछले बीस दिन से चल रही है। वह डेढ़ लाख कह रहा है और यह एक। दोनों की बातों से उसने निष्कर्ष निकाल लिया है कि इस जन्म में यह फटीचर दुपहिया पर ही घुमायेगा।
एकाएक मैं चौका। नाइट गाउन पहने कांता की रसभीनी अंगुलिया मेरी छाती पर यूँ चल रही थी जैसे कोई भेड़ें चराने वाला गड़रिया जंगल का चप्पा-चप्पा जानता हो। स्त्रियों के हावभाव ही तो उनकी प्रणय चेष्टाएं हैं। प्रणयातुर स्त्री का अंग-अंग वाचाल होता है। आज प्रसन्न होने से वह खिली-खिली भी थी। मैं अनायास ही निशीजी के मुखचन्द्र से कांता की तुलना करने लगा था। कितनी सुन्दर, कितनी कमसिन है निशीजी! अभी भी वक्षों में कैसा उभार है, कैसी उज्ज्वल हँसी है मानो सहस्रों जूही के फूल एक साथ बिखर गये हों। औरत का रूप पुरुष को कैसा उन्माद देता है। बुद्धिमान और बात-बात में तर्क करने वाली औरतें तो कागज के फूल जैसी लगती है। रूप की मदिरा से तृप्त होकर ही पुरुष के मन की स्त्री मर सकती है। जिनके खूबसूरत बीवियाँ नहीं होती वे मर्द सारी उम्र ताका-झांकी करते हैं।
‘‘नये पड़ौसी अच्छे है ना !’’ कांता के इस वाक्य को सुनकर मेरे सारे वर्तुल बिखर गये। मैं कहना तो यही चाहता था कि पवनजी मस्त आदमी है पर मुँह से छूट गया, ‘‘पड़ौसन बहुत खूबसूरत है।’’इंसान का अवचेतन मन पानी में तैरते उस बर्फखण्ड की तरह होता है जिसका तीन चौथाई हिस्सा पानी के नीचे होता है। एक चौथाई चेतन मन प्रेरा हुआ-सा अवचेतन का अनुगामी बनने को बाध्य है।
कांता को मेरी बात एक चुनौती-सी लगी। मेरे ओठों के पास अपने उष्ण ओठ लाते हुए बोली, ‘‘दिल मत दे देना, जान से मार दूंगी।’’ स्त्री के पजेजिव वाक्य पुरुष की कामाग्नि में घी का कार्य करते हैं। मैं उसकी ओर यूँ बढ़ा जैसे वेग से समुद्र की ओर आती हुई नदी को अपने में समाहित करने के पूर्व समुद्र उसे लहरों का अधरदान देता है।
सच में नदी समुद्र में समा गई थी। अहंकारी समुद्र ने उसे खुद में समाहित करने के पूर्व कितना शोर मचाया।
अब कहीं एक गहरा मौन घट गया था।
दूसरे दिन बगीचे में पानी देते समय मुझे उस सुंदरी के मंगला दर्शन हुए। मैं लगभग चीखा, ‘‘अरे निशीजी! कैसी हो?’’ वह कुछ उत्तर देती तभी ड्राईंगरूम से निकलकर पवनजी ऐसे आये जैसे राहू चन्द्रमा को निगलने के लिए तेजी से बढ़ता हैं। ‘‘वेरी गुड सर! आपके यहाँ से आने के बाद हम तो निश्चिंत होकर सो गये। अच्छा पड़ौसी हो तभी तो न चैन की बंशी बजती है।’’ पवनजी बाहर आते हुए बोले।
‘‘यह बात मुझ पर भी तो लागू होती है।’’ मैंने नहले पर दहला दिया। इसका प्रत्युत्तर पवनजी के पास कहाँ था। खड़े खड़े ही बोले, ‘‘आओ चाय का लुत्फ लेते हैं।’ मैं कुछ कहता उसके पहले ही निशीजी बोली, ‘‘संकोच मत करो, पवन चाय बहुत अच्छी बनाते हैं।’’ इस बात ने मेरे मन के पाल के लिए वायु का कार्य किया। तुरत-फुरत काम समेट कर मैं वहाँ पहुँचा। पवनजी ‘एक्सक्यूज मी’ कहकर चाय बनाने चले गये। मैं निशीजी के पास ही पड़े एक मोढे़ पर बैठ गया। सुंदरी के मंगला दर्शन का इससे अच्छा अवसर भला कब मिलता?
‘‘आपके गले में मोतियों का यह हार कितना अच्छा लगता है !’’ मैंने प्रशंसा का पहला तीर फेंका। मुझे मालूम है स्त्री चाहे जड़ हो या विद्वान, प्रशंसा की कायल होती है।
‘‘यह तो नकली है। इन्होंने सुहागरात के दिन मुँह दिखाई में दिया था।’’ कहते-कहते वह जोर से हँस पड़ी।
मैंने मन-ही-मन सोचा यह फकीर और दे ही क्या सकता था। निशीजी की आगे की बात सुनकर मैं चौंका, ‘‘कुल पाँच तोला सोना इनकी माँ ने विवाह के समय दिया था। वो तो भला हो पापा का जिन्होंने पूरे पच्चास तोला देकर मेरी लाज रखी वरना यह तो मुँह दिखाने लायक नहीं रखते। तिस पर हैंकड़ी यह कि हमने दहेज नहीं मांगा। अरे दहेज का विरोध नहीं करना भी तो दहेज लेना ही है।’’
मैं हैरान रह गया। कहाँ मैं यह सब कांता के लिए सोच रहा था लेकिन इसने तो सचमुच उगल दिया। कांता के बारे में तो मैं मात्र ऐसा सोचता हूँ, अब तक किसी ने मुझे यह नहीं कहा कि वह मेरी शिकायत करती है।
अब तक पवनजी चाय बनाकर ले आये थे। अदरक, तुलसी एवं मसालों की मोहक सुगंध से भरे चाय के कप को मैंने ओठों से लगाया तो कहे बिना नहीं रह सका, ‘‘पवनजी, चाय बनाना कोई आपसे सीखे।’’ वे उत्तर देते उसके पहले ही निशीजी बोली, ‘‘शादी हुई तब इन्हें नाक साफ करना भी नहीं आता था। चाय बनाना तक मैंने सिखाया है। दिन भर में एक चाय ही तो बनाते हैं। घर का सारा किराना, कपड़े एवं अन्य सामान मैं ही खरीदती हूँ। यह तो आफिस की फाईलें तक घर ले आते हैं। इनकी बीवी तो यह फाइलें ही है। जिस पर ईमानदारी का तमगा पहन रखा है। मेरे भाग में तो ये हरीशचन्द्र की औलाद ही लिखी थी। पापा ने तो सोचा बेटी राज करेगी, यहाँ करम ठोक रहे हैं।’’
निशीजी की बातें मुझे उस स्याह बादल की तरह लगी जो चन्द्रमा के रूप को ढक लेता है। रूप में अगर गुण का मेल न हो तो रूप उस फूल की तरह है जिसमें कोई सुगंध नहीं। बातों का रुख पवनजी की ओर मोड़ते हुए मैंने कहा, ‘‘आपको कार खड़ी करने में जरूर परेशानी होती होगी, आपका पार्किंग स्पेस बहुत छोटा है।’’
‘‘नहीं, बहुत नहीं। थोड़ा प्रयास करने से पार्क हो जाती है।’’ पवनजी ने उत्तर दिया।
‘‘पापा ने पिछले वर्ष पूजा की वर्षगाँठ पर दी थी। इनके भरोसे तो जीवन दुपहिया पर ही चलता।’’ दाल-भात में मूसलचन्द की तरह निशीजी ने एक बार फिर अवांछित उत्तर दिया।
निशीजी की अनर्गल बातों से उनके रूप का नशा मेरे जेहन से क्षण-भर में उतर गया। कांता इससे कितनी ऊँची, कितनी महान है। पुरुष का मन क्यूं अतिक्रमण करता है?
‘‘आपके पास कार नहीं है भाई साहब!’’ निशीजी का एक और प्रश्न मेरे कानों में ऐसे उतरा जैसे किसी ने तप्त लोहा उड़ेल दिया हो। मेरी कुढ़न अनायास ही फूट गई, ‘‘गत बीस दिनों से एक व्यापारी से पुरानी गाड़ी खरीदने की बात चल रही है। वह डेढ़ लाख से नीचे नहीं उतर रहा। मेरे पास जोड़-तोड़कर एक लाख ही है।’’
‘‘व्यापारी का क्या नाम है?’’ पवनजी चाय पीते हुए बोले।
‘‘अश्विनी कबाड़ी।’’ मैंने उतर दिया।
शायद पवनजी उसे जानते थे। कोर्डलेस उनके हाथ में ही था। उन्होंने आनन-फानन फोन घुमाया। आयकर अधिकारी का फोन सुनते ही उसके हाथ-पाँव फूल गये। मेरे ही सामने पवनजी ने उससे कार की कीमत कम करने का अनुरोध किया। उसने तुरंत कीमत सवा लाख कर दी। दबा हुआ बनिया नींबू की तरह निचुड़ता है। फोन पर ही उन्होंने उसे कार घर पर लाने का निवेदन किया।
मैं उनके अहसान से लबालब था। आभार प्रगट करता उसके पहले वे उठे,भीतर गये एवं कुंछ देर में पुनः लौट आये। मोढे़ पर बैठकर मुझे पच्चीस हजार का पैकेट थमाते हुए बोले, ‘‘जब सहूलियत हो वापस कर देना।’’ कुछ रुककर पुनः बोले, ‘‘कार में हमें भी घुमाने तो ले जाओगे आलोकजी!’’
क्षण-भर के लिए मेरी जिह्वा को सन्निपात हो गया। उनके कोयले जैसे रंग में आज मुझे एक चमकता हुआ हीरा दिखाई दे रहा था। एक ऐसा आत्मप्रकाश जिसके प्रकट होते ही कुरूप भी रूपवान से अधिक सुंदर दिखायी देता है।
घर आकर मैंने कांता का चेहरा अपने हाथों में लेकर यही कहा, ‘‘हाउ ग्रेट यू आर कांता !’’
दायें हाथ की प्रथम तीन अंगुलियाँ कनपटी पर रखकर वह खड़ी-खड़ी हिलने लगी। मेरे शब्द सुनकर वह आश्चर्य में डूब गयी। कुछ क्षण पश्चात् संयत होकर बोली, ‘‘आज आपकी तबीयत तो ठीक है?
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18.10.2006