उत्तर-काल

कैलाशनाथ, गोवर्धनदास एवं मदनलाल की दोस्ती सारे शहर में मशहूर थी। तीनों अब पके पान थे। तीनों की उम्र सत्तर पार थी। 

तीनों के व्यक्तित्व एवं स्वभाव में मूलभूत अन्तर होते हुए भी तीनों की मित्रता इससे अप्रभावित थी। कैलाशनाथ आदर्शवादी, धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। गोवर्धनदास पूरे प्रेक्टिकल थे। उनका व्यावसायिक एवं व्यावहारिक कौशल जगत विख्यात था। मदनलाल आदर्शवाद एवं व्यावहारिकता दोनों के विरुद्ध थे, हरदम एक ही बात कहते, इस कमीने जगत में जीना है तो दुष्ट की इमेज बनाओ। लोग आपके नाम से आतंकित होने चाहिये। यहाँ सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता।

कैलाशनाथ एवं गोवर्धनदास उसकी बातों पर हँसते पर वे दोनों भी स्वीकारते थे कि उनके स्वयं की अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों में मदन ने ही रास्ता निकाला था। वर्षो पहले कैलाश की इण्डस्ट्री में यूनियन वालों ने नाक में दम कर दिया था। एक बार तो नारे लगाते हुए एक मजदूर ने कैलाश को मार डालने तक की धमकी दे दी। मदन ने तब एक जांबाज की तरह उसका काॅलर पकड़कर उसे एक झापट रसीद की। उस दिन उसकी आँखों से अंगारे बरस रहे थे, ‘याद रखना! अगर कैलाश को हाथ भी लगाया तो टुकड़े-टुकड़े करके चीलों को चुगवा दूंगा।’ मदन की आँखों में तब भवानी उतर आई थी। उसका रौद्र रूप देख मजदूरों को साँप सूंघ गया। इस घटना के दो रोज बाद तूफान थमा तो गोवर्धन ने बीच-बचाव कर मामला ठंडा किया। उस दिन कैलाश को समझ में आया कि सारे काम सही तरीके से नहीं होते, सत्य की अपनी ताकत है पर हर जगह आदर्शवाद नहीं चलता। कभी-कभी मदन की तरह टेढ़ी अंगुली करने से अथवा गोवर्धन जैसों के व्यावसायिक कौशल से ही काम सिद्ध होते हैं। 

मदन भी कई बातों में कैलाश एवं गोवर्धन का लोहा मानता था। दस वर्ष पूर्व मदन की बेटी, शादी के फकत दो वर्ष बाद विधवा हुई तो कैलाश ने ही उसके दुख पर मरहम लगाया था, ‘मदन! विधाता के मंसूबो के आगे हम सभी मजबूर हैं। ललाट पर लिखा कोई नहीं मिटा सकता। हानि-लाभ, जन्म-मृत्यु, यश-अपयश सभी विधाता के हाथ हैं। प्रत्येक घटना अटल होती है। मनुष्य तो मात्र कठपुतलियों की तरह उसकी डोरी से बँंधा हुआ नाचता है। दुख की इस कठोर घड़ी में हम सब तेरे साथ हैं, सब मिलकर कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे।’ उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए गोवर्धन ने भी उसके आप्त हृदय को सांत्वना दी,  ‘मदन! कैलाश ठीक कहता है। जो हो गया सो हो गया। चिंता में घुलने से जाने वाला तो वापस आयेगा नहीं। अब हमें यह सोचना है कि बिटिया का दुख कम कैसे हो ? वह अपने पैरों पर कैसे खड़ी हो ? वह पढ़ी-लिखी है, हमें उसकी नौकरी लगवाने के लिये प्रयास करने चाहिये।’’

तब गोवर्धन के प्रयास से ही मदन की बिटिया की नौकरी उसके पति के शहर में स्थित एक प्राइवेट काॅलेज में लगी थी। उस काॅलेज का मालिक गोवर्धन का कारोबारी दोस्त था। दो वर्ष बाद काॅलेज में कार्य करने वाले एक विधुर ने उसका हाथ थाम लिया। उस दिन मदन की आँखें भीग आई लेकिन रोना उसे जरा नहीं सुहाता। उसने एक लम्बी सांस ली एवं देखते-देखते उसकी दोनों आँखों का पानी  जाने कहाँ चला गया, संभवतः अपने मित्रों के उपकार एवं अहसान का अहसास लेकर दिल के भीतर उतर गया होगा। 

एक बार गोवर्धन भी ऐसे ही फँस गया था। जीवन में सुख-दुःख से कौन अछूता रहा है ? वर्षों पूर्व एक ठेका प्राप्त करने के लिए उसने सम्बन्धित अधिकारी के घर एक अमूल्य उपहार भेज दिया। अपने व्यावसायिक कार्य सिद्ध करने के लिए वह ऐसी तिकड़में रात-दिन बिठाता रहता था। उसके कार्य इस तरह सिद्ध भी होते थे। प्रेक्टीकेलिटी को वह जीवन का सर्वोपरि सिद्धान्त मानता था। लेकिन इस बार पासा उल्टा पड़ गया। अधिकारी डेड ऑनेस्ट यानि ठेठ का ईमानदार निकला। ऐसे अधिकारी सरकारी विभागों में अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। उसकी त्यौरियाँ चढ़ गई, उसने शिकायत लिखकर उपहार सीधे पुलिस थाने पहुँचा दिया। तब मदन एवं कैलाश ने बड़ी मशक्कत कर मामला रफा-दफा करवाया। कैलाश ने सरकारी अधिकारी के पाँव पकड़े, गोवर्धन के बीबी-बच्चों की दुहाई दी, तब जाकर उसने शिकायत वापस ली। खुदा का शुक्र था, थानेदार ने एफआईआर दर्ज नहीं की, वरना लेने के देने पड़ जाते। उस दिन गोवर्धन को समझ आया सभी काम व्यावहारिकता से सिद्ध नहीं होते। संसार में सिद्धान्तों का भी वजूद है। 

तीनों मित्र एक दूसरे के कारोबार एवं घर-गृहस्थी में बढ़-चढ़ कर मदद करते। कैलाश के घर उत्सव हो, मजाल गोवर्धन एवं मदन वहाँ ना दिखे। यही बात गोवर्धन एवं मदन के यहाँ होने वाले विवाह, पार्टी एवं अन्य कार्यों में लागू होती थी। अब तक तीनों के परिवार भी एक-दूसरे में ऐसे घुल मिल गये थे जैसे पानी में शक्कर। 

तीनों की जवानी के किस्से भी मजेदार हैं। मदन जवानी में एक नम्बर का लफाड़ी था। शादी के तीन वर्ष बाद न जाने कहाँ से एक मास्टरनी पटा लाया। उन दिनों वह घण्टों उसके आगे पीछे डोलता।  वह थी भी रूप की परी। बस हूर समझो। कैलाश एवं गोवर्धन तब ठण्डी आहें भरते। मित्र होने के नाते रहस्य भी प्रगट नहीं कर सकते थे। एक दिन तीनोें रेस्तराँ में बैठै बतिया रहे थे। उस दिन कैलाश ने पहले बात छेड़ी। 

‘अब छोड़ भी दे उस चमक चाँदनी को! भाभी कौन-सी कम सुंदर है ?’ कैलाश मदन को समझाते हुए बोला।

मदन उत्तर देता उसके पहले गोवर्धन बोला, ‘विवाह के कुछ समय बाद बाहर का गुड़ अधिक मीठा लगता है, घर की खाण्ड भी किरकिरी लगती है।’

‘तू ठीक कहता है गोवर्धन! चोरी का गुड़ ज्यादा मीठा लगता है। पर तुम दोनों कौन से धर्म के अवतार हो, चलो कैलाश को तो मैं फिर लंगोट का सच्चा मान लूँ पर गोवर्धन! तेरा बस चले तो तू लंगोट पर फाग खेले। कोई तेरे जाल में तो फॅँसे। उस दिन देखता हूँ तो उसे छोड़ता है क्या ?’

गोवर्धन की व्यावहारिकता तब उतंग पर चढ़ बैठी थी। चाशनी नापते हुए बोला, ‘बात तो तू ठीक ही कहता है मदन! चुटिया हाथ में आने पर कौन मर्द छोड़ेगा।’ कहते-कहते उसने कातर आँखों से मदन की ओर देखा। शातिर मदन को भला उसका मन पढ़ने में कौन-सा समय लगता। उसकी दाढ़ी में हाथ डालते हुए बोला, ‘साफ क्यों नहीं कहता तुम्हे भी मास्टरनी के दर्शन करने हैं।’

गोवर्धन की बाँछें खिल गई। थोड़े समय बाद दोनों उससे मिलने लगे। अंत में दो मुल्लों के बीच मुर्गी हराम हो गयी। एक दिन मास्टरनी ने दुःखी होकर दोनों की पत्नियों को शिकायत कर दी। 

उस दिन गोवर्धन एवं मदन की हालत देखने लायक थी। तब कैलाश ने दोनों की पत्नियों को यह कहकर मनाया था कि यह एक बिगड़ैल औरत है, भले आदमियों को ब्लैकमेल करती रहती है। दो चार गवाहियाँ भी दिलवाई तब उखड़ी हुई औरतें मानी। 

इस घटना के बाद गोवर्धन एवं मदन ने तौबा की, अब पराई नार की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेंगे, हाँ, मदन को इस बात का गिला कई महीनों तक रहा कि काश! अगर मैं गोवर्धन को मास्टरनी से नहीं मिलाता तो अच्छा होता। कैलाश भी कई बार उसकी ठण्डी आहों के साथ चटकारे लेता, ‘तू भी जड़ मूर्ख है! गोवर्धन जैसों को भी कभी मलाई दिखाई जाती है? तूने तो चोट्टी बिल्ली को मलाई दिखा दी, यह सब तो होना ही था।’

तब गोवर्धन उचक कर बोला, ‘हाँ भई, यह चूक गया इसलिए भड़ास निकालेगा ही। 

दिन, महीने, वर्ष यूँ ही बीत गये। वे दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था। वर्षों बीत जाने पर भी तीनों के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आया, हाँ, मूल स्वभाव में परिपक्वता की गाँठें अवश्य लग गई। कैलाश यथासम्भव सारी उम्र सत्य का पक्षधर रहा, गोवर्धन व्यवहारपटु एवं मदन अपने पुराने विचारों के इर्दगिर्द ही डोलता रहा, अर्थात् इस दुनिया में सज्जन बनकर नहीं जिया जा सकता। वह अक्सर कहता, आँख दिखाओेगे तो दुनिया सलाम करेगी एवं सलाम करोगे तो आँख दिखायेगी। 

कहते हैं यह सारा संसार प्रकृति के तीन गुणों सत् , रज एवं तम के अधीन हैं। सत् जो सत्य के बल पर खड़ा है, तम जो आसुरी एवं तामसी वृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है एवं रज जो इन दोनों का सेतु बनकर व्यावहारिकता को जीवन का परमोच्च गुण मानता है। हर व्यक्ति में किसी एक गुण की ही प्रधानता होती है, इसलिए तो किसी का स्वभाव बदलना कठिन होता है। 

तीनों मित्रों में कई बार झगड़े भी हुए। एक बार कैलाश एवं मदन में लम्बी ठन गई तब गोवर्धन ने बीच का रास्ता निकाला था। इसी तरह एक बार गोवर्धन, कैलाश से उलझ पड़ा तब मदन ने ही समझौता करवाया था। जीवन के लम्बे अनुभवों के बाद तीनों को यह बात समझ में आ गयी थी कि तीनों एक दूसरे के पूरक हैं, किसी का कार्य एक दूसरे के बिना नहीं चल सकता।

हजारों टांकी सहकर एक महादेव बनते हैं। तीनों ने जीवनभर कड़ा संघर्ष किया, तीनों का कारोबार भी बढा। वे उस मुकाम पर तो नहीं पहुँचे, जहाँ लोग रईस कहलाते हैं लेकिन इतनी धन-सम्पदा अवश्य बनायी कि बुढ़ापा आराम से निकल जाये। 

सूर्य अब अस्ताचल की ओर था। जीवन संध्या के इस मुकाम पर तीनों इस तरह से हाथ पकड़कर खड़े थे जैसे कोई छूट न जाये। किसी को कोई दुःख हो बाकी दो उसे दूर करने में तन-मन-धन लगा देते। तीनों मिलकर अपराजेय थे। 

कहते हैं जो किसी से नहीं हारते अपनी औलाद के आगे हार जाते हैं। 

तीनों मित्र शाम को नियम से इवनिंग वाॅक पर निकलते। तीनों शहर के प्रसिद्ध गार्डन गांधी पार्क में रोज मिलते, दो-तीन मील पैदल चलते, फिर एक घण्टा बैठकर घर गृहस्थी की बातें करते। यह अजीब इत्तफाक था कि तीनों के एक-एक लड़का एवं एक-एक लड़की थी। तीनों की लड़कियों के विवाह शहर से बाहर हुए थे। तीनों इस सिद्धांत के पक्षधर थे कि बेटी का विवाह स्वयं के शहर में नहीं होना चाहिये। तीनों के पुत्रों के विवाह हुए भी सात-आठ वर्ष होने को आये। अब तक तीनों नाना-दादा बन चुके थे। 

आज पार्क में घूमने के पश्चात् तीनों बैंच पर बैठे तो गोवर्धन एवं मदन ने महसूस किया किया कि कैलाश अन्यमनस्क है। बात सही भी थी। वह इन दिनों अक्सर खोया-खोया दिखता जैसे भीतर कुछ सुलग रहा हो। बाकी दो से भला यह बात कैसे छिपती! तीनों की जान एक-दूसरे में बसती थी। तीनों एक-दूसरे को आँखों से पहचान लेते। दोनों ने कुरेदा तो कैलाश बोला, ‘बेटे को इतने लाड़-प्यार से पाला। सारा घर-कारोबार उसके नाम कर दिया, सोचा बुढ़ापा इत्मीनान से गुजारूँगा लेकिन मेरी सोच गलत निकली, पैसा मिलते ही बेटे-बहू प्यादे से फर्जी बन गये। चार दिन पहले हुइ्र्र छोटी-सी कहासुनी को लेकर उन्होंने अलग मकान ले लिया है। उम्र के इस पड़ाव पर हमें मझधार में छोड़कर चला गया। उसकी माँ सूखकर काँटा हो गई है। जिस औलाद को कलेजे का टुकड़ा समझ कर पाला उसी ने दिल तोड़ दिया। छाती के यह छेद किसे बताऊँ, बोलूं तो मेरा ही घर बिगड़ता है एवं ना बोलूं तो खून निचुड़ता है।’ 

गोवर्धन एवं मदन भौचक्के रह गये। चार दिन से कैलाश इस दुःख को ढो रहा था। बताया तक नहीं। तीनों कुछ देर चुप बैठे रहे। गोवर्धन एवं मदन मन ही मन सोचने लगे कि क्या किया जाय जिससे कैलाश का दुःख हल्का हो। साहस बटोरकर गोवर्धन बोला, ‘कैलाश! यह आम घरों की कहानी है। टीवी एवं इंटरनेट कल्चर ने स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता की परिभाषाएँ बदल दी हैं। मित्र! अपने मन पर बोझ मत डालो। बच्चे इन दिनों एक-दूसरे से प्रभावित होकर माँ-बाप को छोड़कर अन्यत्र रहने लगे हैं।’ 

मदन ने सुर में सुर मिलाया, ‘गोवर्धन ठीक कह रहा है कैलाश! यह नये जमाने की हवा है। तुमने मेहनत कर बच्चे को पंछी की तरह पाला, बड़ा किया, उसे पंख फैलाने सिखाये, उड़ना सिखाया, आज वह पंख फैलाकर उड़ गया। उसे उड़ जाने दो, एक दिन वह आसमान की ऊँचाई नापेगा। तुम्हारा खून है, तुम स्वयं एक दिन उसे ऊँचे उड़ता देख गौरवान्वित होंगे, फिर कौन-सा परदेश गया है, जब चाहे मिल आया करो। बुड्ढों को नाक मोम जैसी बनानी पड़ती है, जिधर चाहे घुमा दी।’

कैलाश का कलेजा ठण्डा हुआ।

इस घटना के चंद रोज बाद गोवर्धन उदास बैठा था। उसके हावभाव ऐसे थे मानो कोई असह्य चोट लगी हो। मन का विलाप रह-रहकर चेहरे पर आ जाता, चेहरा तब सफेद फक्क पड़ जाता। 

कैलाश एवं मदन उसकी मनोदशा जान गये। अब तक वे एक दूसरे के आईने थे। इस बार कैलाश ने बात छेड़ी, ‘क्या हो गया गोवर्धन? घर में सब ठीक तो है?’ 

गोवर्धन की छाती पर साँप लोट गये। आँखों में आँसू भर आये, रुंधे गले से बोला, ‘बेटे ने सफेद बालों में धूल डाल दी।’

‘हुआ क्या है?’ मदन ने उसके कंधे पर हाथ रखकर हौंसला दिया। 

‘अब बड़े बुजुर्गों का लिहाज भी नहीं रहा। पैसा धर्म हो गया है। बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया।‘ कहते हुए गोवर्धन का चेहरा ऐसा हो गया मानो किसी ने छाती पर पत्थर रख दिया हो। 

‘अब बता भी, ऐसा क्या हो गया है?’ कैलाश ने चीखकर पूछा।

दुःख बाँटने से हल्का होता है। गोवर्धन को राज उगलना पड़ा। 

मेरे लड़के ने मेरे झूठे दस्तखत कर धीरे-धीरे मेरे बैंक खाते से सारी रकम निकाल ली। जीवन की गाढ़ी बचत पुत्र के छल से समाप्त हो गयी। मैं बैंक गया तो मैनेजर ने मुझे चैक एवं अन्य पेपर बताये। मैं हैरान रह गया। अगर ना कहता तो बेटे को जेल होती। मैं चुपचाप यह कहकर चला आया कि यह मेरे ही दस्तखत है।‘ कहते-कहते गोवर्धन मुँह पर हथेलियाँ रखकर रो पड़ा। 

कैलाश एवं मदन सकते में आ गये। मित्र के दिल दहला देने वालेे विलाप ने दोनों पर गोवर्धन को सांत्वना देने की जिम्मेदारी डाल दी। इस बार बागडोर मदन ने संभाली। गोवर्धन को ढाढ़स देते हुए बोला, ‘इसी का नाम तो रिश्ता है मित्र! बरगद की जड़ों से भी मजबूत दिखने वाले यह रिश्ते कभी-कभी धनिये जितने कमजोर हो जाते हैं। लेकिन तू इतना परेशान क्यों हो रहा है ? गोवर्धन! थोड़ा ठण्डा होकर सोच! आज नही तो कल रकम उसे ही देनी थी, उसने आज ले ली। तेरा बोझ कम हुआ। इज्जत खराब हुई तो उसकी हुई। तुम्हारा विश्वास आज भी वहीं है। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा। आजकल लड़के जल्दी बहक जाते हैं। समझ आयेगी तब तेरे पाँव पकड़कर रोयेगा। गोवर्धन जैसा पिता नसीबों से मिलता है। 

‘मदन सही कहता है गोवर्धन! हमें कौन-सा धन छाती पर लाद कर ले जाना है। इन्हीं औलादों के बीच जीना है। जैसे भी हैं ये ही हमारी मिट्टी ठिकाने लगायेंगे।’ कैलाश ने सुर में सुर मिलाया। 

मित्रों की सांत्वना के मरहम से गोवर्धन ने राहत महसूस की। कह-सुनकर उसका भी कलेजा ठण्डा हुआ। 

इस घटना को भी एक माह बीत गया। आज मदन उदास बैठा था। चेहरा ऐसा बुझा-बुझा था जैसे अपमान के स्याह मेघों ने उसे घेर लिया हो। मन के बादलों पर तड़पती बिजलियाँ भी कभी छुपी है? हाण्डी की भाजी रकाबी में आये बिना नहीं रह सकती। 

कैलाश एवं गोवर्धन को मित्र का मन भाँपने में देर नहीं लगी। इस बार गोवर्धन ने मोर्चा सम्भाला। मदन को हौसला देते हुए बोला, ‘मित्र! अब तुम भी अपनी कह दो।’ 

मदन की छाती पर मनो किसी ने अंगारे रख दिये। अपने काँपते हुए हाथ को गोवर्धन के कंधे पर रख कर बोला, ‘सारी उम्र औलाद को कलेजे के कोर की तरह पाला, दूध में भीगो-भीगो कर रोटी खिलायी पर जोंक दूध भरे स्तनों पर चढ़कर भी खून ही पीती है। गोवर्धन! मेरा दुःख ऐसा है कि मैं किसी को कह भी नहीं सकता।’ कहते-कहते मदन की घिग्घियां बॅध गई, भीतर जमे आँसू उबल पड़े।

इस बार कैलाश ने मदन के कंधे पर हाथ रखा, ‘क्या हम पर विश्वास नहीं रहा मदन!’ 

मदन अब भी चुप था। चेहरा जैसे सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी हो। 

गोवर्धन ने फिर पूछा, ‘बोल मदन! ऐसा क्या हो गया? अब तक सभी सुख-दुःख बाँटते आये हैं, भला ऐसा कौन-सा दुःख है, जिसे हम मिलजुल कर न बाँट सकें ?’

मदन के हिचकियाँ बंध गई। रुक-रुक कर बोला, गोवर्धन! दो रोज पहले मेरे पुत्र ने मुझसे पाँच लाख रुपये मांगे। वह इस रकम को सट्टे में लगाना चाहता था। मैंने मना कर दिया तो उसने…..।‘ कहते-कहते मदन रुक गया। 

‘बोलो भी दोस्त क्या हो गया? तुम पाँच लाख मुझसे ले लो, अपना मन न दुखाओ।’

‘ऐसी बात नहीं है गोवर्धन! सच बात तो यह है कि मेरे मना करने पर उसने मुझे जोर से थप्पड़ मारा एवं क्रोध में भरकर कहा, ‘किसी दिन रस्सियों से बाँधकर गंगा में फेंक आऊँगा। तब तो न धन मुझे ही मिलेगा।’ 

अब तक रात हो चली थी। पार्क में पक्षियों का कलरव थम चुका था। अंधेरा प्रकाश को मुँह में निगलकर चिरप्रवास की तैयारी पर था। 

मदन की व्यथा सुनकर कैलाश एवं गोवर्धन को साँप सूंघ गया। 

अब इस दुःख का क्या तोड़? इसे भला किस तर्क से जस्टीफाई करें। पहाड़ से इस दुःख को कौन से तिल की ओट में रखें? 

पार्क में कुछ देर सन्नाटे तैरते रहे।

थोड़ी देर बाद गोवर्धन ने मदन के कंधे पर हाथ रखकर उसे समझाया, ‘मदन! जो कुछ तेरे साथ हुआ उसका हमें दुःख है। इस अंधेरे में भी मुझे रोशनी की एक लकीर चमकती हुई दिख रही है। इस दुनिया में सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता। तू सोच! जो पुत्र अपने बाप को चपत मार सकता है, वह दूसरे लोगों को कितनी चपत मारेगा। आज नहीं तो कल वह बहुत बड़ा आदमी बनेगा। हमारा क्या है, हमें तो वक्त ने इतने चपत मार दिये हैं कि अपनों की चपत का क्या हिसाब लगायें! हमारी आयु का सूर्य तो अब अस्त होने को चला। उन्हें अब स्वार्थ, नफरत एवं घृणा के नए सूर्योदय में जीने दो। तुम्हारा पोता जब इससे भी घृणित व्यवहार करेगा, उसे खुद अक्ल आ जायेगी। 

कैलाश ने सुर में सुर मिलाया, ‘यह सभी घर-घर की कहानियाँ हैं मदन! हम सभी समान पाखी हैं।’ 

इस घटना के एक माह उपरान्त पांच-पांच दिन के अंतराल पर तीनों बुड्ढ़ों ने प्राण त्याग दिये।

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25.12.2004

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