हमारे देश में अनेक गांव-कस्बे-शहर हैं तो इनकी संख्या के कई गुना मोहल्ले हैं। यह भी सच है सभी अपने मोहल्लों को वैसे प्यार करते हैं जैसे वे अपनी धन-संपदा एवं औलादों को करते हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो अन्ततः उसका वजूद उसके मोहल्ले से है। जैसे गाय खूंटे से बंधी होती है, हम सब भी मोहल्लों से बंधे होते हैं। मोहल्ला हमारी खूबियां जानता है तो हमारी कमजोरियां भी पहचानता है। कुल मिलाकर जैसे हमाम में सब नंगे होते हैं, सभी अपने-अपने मोहल्लों में बेनकाब होते हैं। ऑफिस में हम कितने ही बड़े साहब क्यों न हो, मोहल्ला आपको उस नाम से पुकार लेता है जिसे सिर्फ आप एवं आपका मोहल्ला जानता है। यही कारण है कि अनेक लोग अपने मोहल्ले के बिना रह नहीं पाते, कहीं चले जाएं , थोड़े दिन बाद वहीं आकर उन्हें सुकून मिलता है। मोहल्लों के नाम पर झगड़े तक हो जाते हैं एवं क्यों न हो, आखिर आपका मोहल्ला आपकी आन-बान-शान है।
जैसे सबको अपना मोहल्ला प्यारा लगता है, मुझे भी मेरा मोहल्ला अज़ीज है। मेरा मोहल्ला परकोटे के आधा मील अन्दर है, इसके प्रवेश पर एक बड़ा दरवाजा है जिस पर नक्काशी का सुंदर काम है। हम में से किसी को नहीं पता यह दरवाजा किसने बनाया। दरवाजे के भीतर अर्धवृताकार तीस-चालीस मकान हैं एवं इन्हीं के पीछे एक मैदान है जहां अक्सर बच्चे खेलते हैं। मोहल्ले के बीचों-बीच एक विशाल चबूतरा है जहां शाम को अनेक लोग आकर बतियाते हैं। बड़े-बूढ़े यहीं बैठकर अपना ज्ञान बघारते हैं। युवक यहां ताश, चेस, केरम आदि खेलते हैं तो औरतें इसी चबूतरे के एक कोने में बैठी घर-गृहस्थी की बातें करती हैं। कभी-कभी वे कनखियों से मर्दों को देखती हैं तो मर्द सोचते उनके बारे में बातें कर रही हैं।
इस चबूतरे को हम सभी का मिलन-स्थल कहना उचित होगा। इसके ऊपर पक्के पत्थर लगे हैं जिसे स्थानीय भाषा में लोग छितर का पत्थर कहते हैं। इन पत्थरों का रंग भूरे एवं पीले रंग के मिश्रण से बने रंग जैसा है एवं यह पत्थर बारिश में चमक उठते हैं। अब यह पत्थर घिस गए हैं। चबूतरे के ठीक बीचो-बीच नीम का पेड़ है जो इतना पुराना है कि मोहल्ले के बड़े-बूढ़े भी इसका इतिहास नहीं जानते। यहां बहुधा सभी घरों के लोग दिख जाते हैं सिवाय मेहता साहब के जिनका घर मोहल्ले के अन्तिम दायें कोने पर है।
मेहता साहब का पूरा नाम सुबोधकुमार मेहता है जैसे कि मेरा नाम अतुल शर्मा है। मेहता साहब मुझसे उम्र में तकरीबन तीस वर्ष बड़े यानि साठ के आसपास हैं। पतला शरीर, मध्यम कद, गोरा रंग, भव्य ललाट, सफेद बाल एवं तीखी नाक उनकी खास पहचान है। लोग उन्हें शेयर मार्केट का उस्ताद कहते हैं। मोहल्ले के लोग बताते हैं उन्होंने इस व्यवसाय में करोड़ों कमाए हैं। वे चाहते तो कब का यह मोहल्ला छोड़कर परकोटे के बाहर किसी बड़ी कॉलोनी में चले जाते, पर उन्हें भी मोहल्ले के अन्य बाशिंदों की तरह इस मोहल्ले से बेहद प्यार है। बड़े-बूढ़े कहते हैं उन्हें अपने पिता एवं ससुराल दोनों जगह से खूब माल मिला है। पत्नी का निधन हुए दस वर्ष हो चुके हैं, बच्चे विदेशों में रहते हैं एवं वे यहां अकेले रहते हैं। घर में एक नौकर हरिराम है एवं हम सब उसी से इनके बारे में जानते हैं। मैंने मेहता साहब को अनेक बार ऑफिस जाते हुए देखा है, बहुधा गम्भीर दिखते हैं एवं अधिकतर सफेद कुर्ता-पायजामा पहनते हैं।
मोहल्ले में मेहताजी को लेकर तरह-तरह की बातें होती रहती हैं। कुछ दिन पहले चबूतरे पर मोहल्ले के वयोवृद्ध उमाशंकरजी बता रहे थे कि यह बीस साल पहले मर कर जी उठा था। कहते हैं यह किसी कार्य से मुम्बई गया था, वहीं यह घटना हुई। उसके पहले यह कभी-कभी चबूतरे पर आता था, पूरा कंजूस था पर इस घटना के बाद घर में ही सिमटा रहता है। इतना हीं नहीं आज यह शहर की अनेक परमार्थिक संस्थाओं का अहम् दानदाता है। जबसे मैंने यह सुना है, मेरी उनसे मिलने की इच्छा तीव्रतर हो उठी है।
क्या मात्र एक घटना मनुष्य का जीवन बदल देती है ?
मैं कई दिनों तक उनसे मिलने की सोचता रहा पर यकायक किसी से मिलना इतना सरल भी नही होता विशेषतः ऐसे व्यक्ति से जिनका व्यक्तित्व गंभीर हो। ऐसे व्यक्ति बहुधा खडू़स होते हैं, जाने कब, कैसे रिएक्ट कर जाएं ? यही सोचकर मैंने उनसे न मिलना उचित समझा हालांकि मेरे अवचेतन मन में उनसे मिलने की उत्कट इच्छा बनी रही।
मनुष्य के अवचेतन मन की शक्ति अद्भुत है। प्रकृति का यह कैसा रहस्य है कि हर मनुष्य अन्ततः वह पा लेता है जिसे वह अंतरतम से सोचता है। कायनात हमारी उत्कट इच्छाओं को अपने आगोश में ले लेती है। इसीलिए तो बड़े-बूढ़े कहते हैं अच्छा सोचना उतना ही जरूरी है जितना कि अच्छा करना।
आज रविवार था, मैं पैदल बाजार शाक-तरकारी लेने पहुंच गया। वहीं एक दुकान पर मेहताजी टकरा गए। वे सेव ले रहे थे, मुझे भी एक किलो सेव लेने थे। मैंने पहलकर उन्हें नमस्कार किया – ‘नमस्ते अंकल ! आप कैसे हैं ?’ प्रश्न करते हुए उनके रिएक्शन को लेकर मैं आशंकित था।
“नमस्ते! मैं ठीक हूं। आप अतुलजी हैं न ! मैंने रास्ते में आपको देखा था, सोचा आपको पिक कर लूं फिर ख्याल आया आज रविवार होने से आप मोर्निग वॉक पर निकले होंगे। खैर! जाते हुए मेरे साथ चले चलना।” यकायक मुझे लगा वे कितने साफगोई हैं तथा हम लोगों के बारे में कैसी-कैसी धारणा बना लेते हैं। मुझे यह भी आश्चर्य हुआ कि वे मुझे नाम से जानते हैं।
हम दोनों अब गाड़ी में साथ थे। उनके शांत, सौम्य चेहरे से वे व्यापारी कम, दार्शनिक अधिक लग रहे थे। मुझे लगा यह बात छेड़ने का सही समय है। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वे बोले, “आपको जल्दी तो नहीं है। आप अनुमति दें तो रास्ते में एक-दो जगह रुक लूं। बस दो-चार मिनट का कार्य है।” वे अत्यन्त सहज थे हालांकि उनके द्वारा अनुमति शब्द का प्रयोग मुझे उनकी अति विनम्रता लगा।
वे एक अनाथालाय रुके। यहां पांच लाख का चैक दिया, फिर मार्ग में विधवाश्रम, वृद्धाश्रम एवं एक स्कूल में रुके, यहां भी चैक दिए एवं सहज ही गाड़ी में चले आए। मैं उनके साथ ही था। मुझे लगा उनकी दानवीरता के लिए प्रशंसा के दो शब्द कहूं पर जाने क्या सोचकर चुप रहा। प्रथम मुलाकात की अपनी मर्यादा होती है।
मोहल्ले में आकर वे गाड़ी अपने घर तक ले गए, मैं उतरकर उन्हें धन्यवाद देता उसके पहले ही वे बोले, “अतुलजी ! आप वर्षों बाद यूं अंतरंगता से मिले हैं, चाय पीकर जाइयेगा।” मैं फिराक में था, उनकी आंखों का आग्रह भी देखते बनता था, मैं भीतर चला आया।
उनका ड्राइंगरूम अत्यंत साधारण था। दीवारों पर दो-तीन महापुरुषों के चित्र लगे थे। सोफा इतना साधारण जैसे महज औपचारिकतावश रखा हो। सेंट्रलटेबल लकड़ी की बनी थी, एक-दो और चीजें रखी थीं, जो कुल मिलाकर यही संकेत दे रही थीं कि उनकी जीवनशैली अतिसाधारण है। वे भीतर गए, हरिराम को चाय का कहा एवं पुनः चले आए। मैं बात प्रारम्भ करता कि उनका कॉल आ गया, शायद कोई जरूरी कॉल था, किसी अस्पताल से, उन्होंने बात की, कुछ हिदायतें दीं तब तक हरिराम चाय लेकर आ गया।
“क्षमा करें ! कोई जरूरी कॉल था, उसी में मशगूल हो गया।” इस बार मेहताजी ने बात प्रारंभ की।
“अरे नहीं अंकल! आप जिस तरह बात कर रहे थे, मुझे लगा कोई सीरियस है।” मैंने बात बढ़ाई।
“हां किसी सीरियस पेंशेंट के लिए कुछ रकम की व्यवस्था करवानी थी। मैं शहर के कुछ एनजीओज् से जुड़ा हूं, इसी बहाने समय निकल जाता है। यह रोजमर्रा के काम हैं।” कहते हुए उन्होंने बिस्किट की प्लेट आगे सरकाई।
“अंकल ! आप अनेक पारमार्थिक संस्थाओं से जुडे़ हैं। हमारा सौभाग्य है कि आप जैसे देवता हमारे मोहल्ले में रहते हैं।” मुझे लगा कहीं से तो बात बढाऊं।
“देवता कहां ! मैं तो वह कर रहा हूं जो मेरा परम कर्तव्य है। अगर ईश्वर ने किंचित् धन दिया है तो उसका इससे बेहतर उपयोग और क्या हो सकता है ? बरसों तन्द्रा में रहे, अब तो जागें।” कहते हुए वे शून्य में झांकने लगे।
यह अंकल से अहम बातों पर चर्चा का अनुकुल समय था।
“अंकल ! मैंने सुना है आप वर्षों पूर्व मरकर पुनः जी उठे थे। क्या यह परिवर्तन उसके बाद आया है ?” मैंने अवसर देखकर मन की उत्कंठा प्रकट कर दी।
“आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। यह परिवर्तन उसके बाद का ही है।” उनका उत्तर मेरे प्रश्न जितना ही ईमानदार था। हां, अब वे पूर्णतया गंभीर हो गए थे, उनके माथे पर सलवटें पड़ने लगी थीं।
“निश्चय ही आपका मरकर जी उठना एक विरल अनुभव है। मृत्यु के बाद की गति के बारे में कौन जानता है ? अंकल ! बुरा न माने तो मैं जानना चाहता हूं मृत्यु के बाद आपका अनुभव क्या था?” मैंने निःसंकोच प्रश्न किया।
मेहता साहब ने आंखों पर लगे काले प्लास्टिक फ्रेम का चश्मा उतारा एवं जेब से रुमाल निकालकर इसे साफ करने लगे। कमरे में कुछ देर चुप्पी रही फिर धीरे-धीरे बोलते हुए वे मेरे प्रश्न का उत्तर देने लगे।
“आज से बीस वर्ष पहले की बात है। मैं किसी व्यावसायिक कार्य से मुम्बई गया था। मेरी पत्नी गायत्री तब मेरे साथ थी। वहां नरीमन पाईंट हम किसी होटल में रुके थे। मैंने पूरे दिन अपना कार्य निपटाया, रात डिनर कर अपने बिस्तर पर लेटा ही था कि मेरे सीने में तेज दर्द हुआ। दर्द इतना तेज था कि मैं बेहोश हो गया। गायत्री ने कॉल कर होटल मैंनेजर को कहा, आनन-फानन डाक्टर बुलवाया गया जिसने जांच कर मुझे मृत घोषित कर दिया।”
गायत्री पर यह वज्राघात था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, क्या न करे ? उसने मुंबई हमारे मित्र-रिश्तेदारों को सूचना दी, जोधपुर घर पर सूचना दी एवं असहाय वहीं बैठ गई। होटल के कर्मचारी उसे ढाढ़स बंधा रहे थे। इस बात को कोई आधा घण्टा बीता होगा कि यकायक मेरी लाश में हरकत हुई। वहां खड़े लोग चिल्लाए कि अरे! यह तो पुनः जिन्दा हो गए हैं। शोर सुनकर मैंने आंखें खोली एवं वहीं उठकर पलंग पर बैठ गया। वहां बैठते ही मैं चिल्लाकर कहने लगा, “मुझे धक्का किसने दिया है ?”
उसी डाक्टर को पुनः बुलवाया गया। वह आश्चर्यचकित था, यह हुआ कैसे ? उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं। मुझे चिल्लाते देख उसे कुछ अकल्पनीय लगा, उसने मुझे एक इंजेक्शन लगाया एवं मैं तुरन्त नींद में चला गया। दूसरे दिन हम फ्लाइट से जोधपुर आ गए। इस घटना को जानकर सभी मित्र, रिश्तेदार आश्चर्य में डूब गए।’ कहते-कहते मेहता साहब की आंखें सजल हो उठीं। वे शून्य में इस तरह झांकने लगे मानो किसी अन्य लोक में चले गए हों।
“अंकल! मृत घोषित होने के बाद से पुनः जीवित होने के बीच आपके साथ क्या हुआ ? इस दरम्यान आप कहां थे ? आपको किसने धक्का दिया ?” प्रश्न करते हुए मेरी आंखें आश्चर्य से लबालब थी।
“मैं जब बेहोश हो रहा था तब मृत्यु के आगोश में जा रहा था। मुझे लगा जैसे मेरी सारी पीड़ाएं समाप्त हो गई हैं, मैं आनन्द से भर गया हूं एवं मुझसे एक छायातत्व अलग हो रहा है। वस्तुतः मैं एक छायातत्व में तब्दील हो गया था। मैं सबको देख रहा था, सुन रहा था पर मुझे न तो कोई देख पा रहा था, न सुन पा रहा था।” कहते-कहते अंकल मानो उस अनुभव में उतरने लगे थे।
“छायातत्व….यानि मैं समझा नहीं अंकल ?” मैंने बात आगे बढ़ाई।
“यूं समझो जैसे मेरे शरीर के पंचतत्वों में से जल, अग्नि, पृथ्वी तत्व शरीर के साथ पड़े थे एवं मैं अब वायु एवं आकाश तत्व का बन गया था। यह एक प्रेमिल, स्वप्निल परम आनन्दमयी स्थिति थी। ऐसा आनंद जिसका बयान मुश्किल है। जैसे आप एकदम सरल, हल्के हो गए हों। मैं स्पष्टतः महसूस कर रहा था कि मेरा शरीर मर चुका है। मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मेरा छायातत्व एक अमरतत्व है।” उत्तर देते हुए वही आनन्द उनकी आंखों में सिमट आया था।
“आश्चर्य ! तो क्या मृत्यु के बाद स्थितियां इतनी आनंदमयी हो जाती हैं ?” प्रश्न करते हुए मैं भी गंभीर हो चला था।
“निसंदेह ! तब मुझे लगा मृत्यु से हम डरते क्यों हैं ? मृत्यु तो उत्सव है, सेलिब्रेशन है।”
“तो क्या हमें किसी की मृत्यु पर रोना नहीं चाहिए ?”
“तुम ठीक कहते हो। गायत्री जब रो रही थी, मैं पुनः पुनः उसे सांत्वना दे रहा था, वस्तुतः वह मेरे आनन्द को भंग कर रही थी। ओह! यह कैसा सत्-चित्-आनन्द था, मानो वर्षों के बाद मिला हो।”
“अंकल ! आपने बताया था कि आप एक छायातत्व में तब्दील हो गए थे। क्या यही तत्व आत्मतत्व था जिसका हमारे सद्ग्रन्थों में उल्लेख है ?”
“बिल्कुल ! यह मेरी आत्मा ही थी। गीता एवं अन्य ग्रन्थ ठीक कहते हैं, वायु इसे सुखा नहीं सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता। यह अक्षय, अछेद्य एवं अकाट्य है।”
“इसके बाद क्या हुआ ?” मेरी उत्सुकता की आग में मानो घी पड़ गया था।
“इसके बाद मुझे लगा मेरी आत्मा के समीप दो दिव्यात्माएं खड़ी हैं। वे मुझे अपने साथ लेकर एक ऐसे भव्यलोक में ले गईं, जिसे उन्होंने आत्म-लोक बताया। रास्ते में हमें छोटे-छोटे अन्य लोक भी मिले जहां आत्माएं विलाप कर रही थीं। एक लोक के आगे से बढ़ते हुए मैंने पूछा – यह आत्माएं चिल्ला क्यों रहीं हैं ? एक दिव्यात्मा ने बताया कि ये उन लोगों की आत्माएं हैं जिन्होंने संसार से दुःखी होकर आत्महत्या कर ली थी। ऐसी आत्माएं आत्म-लोक तक नहीं पहुंचती, वे इन्हीं अंधेरों में तब तक सर-पटकती रहती हैं जब तक इनका पुनर्जन्म नहीं हो जाता। मृत्यु के समय सत्चित्आनंद मात्र उन आत्माओं को मिलता है जो अपने हाथों अपना नाश नहीं करती।” यह अनुभव बयां करते हुए मेहताजी का चेहरा एक अबूझ रहस्य से भर गया था।
“अंकल! आप कह रहे थे ऐसे छोटे-छोटे अन्य लोक भी आपको रास्ते में मिले। वे क्या थे ?” मेरी जिज्ञासा थम नहीं रही थी।
“इन लोकों में वे आत्माएं विलाप कर रही थीं जिन्होंने पृथ्वी पर नारकीय कार्य किए थे एवं वे आत्माएं भी जो हर समय नकारात्मक सोचती थीं। दिव्यात्मा ने मुझे बताया कि नकारात्मक चिन्तन नारकीय कार्यों की जड़ है। इनका अंजाम बुरा कार्य करने वालों से भी बुरा होता है।” मेहता साहब सभी घटनाओं का क्रमबद्ध बयान कर रहे थे।
“अंकल फिर उस अंतिम भव्यलोक में क्या था ?” में सबकुछ जानना चाहता था। ऐसे प्रश्नों का उत्तर भला कब मिलता है।
“भव्यलोक में अनेक आत्माएं यहां-वहां विचर रही थी। इनमें से कुछ संभवतः पृथ्वी की ओर लौट रही थीं। मैंने दिव्यात्माओं से पूछा तो उन्होंने कहा तुम ठीक सोच रहे हो, यह आत्माएं वहीं जा रही हैं जहां से तुम आए हो एवं तब तक आती जाती रहेंगी जब तक अपना सम्पूर्ण परिष्कार नहीं कर लेंगी।” मेहताजी का स्वर भरभराने लगा था।
“परिष्कार? मैं समझा नहीं ?” इस बार प्रश्न करते हुए मेरे पूरे चेहरे पर आश्चर्य फैल गया।
“मैंने दिव्यात्माओं से परिष्कार का अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया कि हर आत्मा को जन्म दर जन्म कुछ विकास करना होता है, कुछ ऊपर उठना होता है, कुछ दुर्गुण छोड़ने होते हैं। मुझे इस जन्म में लोभ एवं संग्रहण से मुक्ति लेनी थी। मेरा भाग्य, जीवन-पथ इसी प्रकार बनाया गया था, पर मैं धन पाकर उन्मत्त हो गया। जिस धन से मुझे जरूरतमंदों को मदद करनी थी उसी धन को पाकर मेरी आत्मा अभिमान एवं अहंकार में लिपट गई।” उत्तर देते हुए मेहताजी के चेहरे पर पसीने की बूंदे उभर आईं।
“अंकल ! क्या दिव्यात्माएं बहुत क्रोध में थीं ?” मेरे प्रश्न अभी भी शेष थे।
“वे क्रोध में ही थीं। उन्होंने मुझे कहा नीचे झांककर देखो, लोग किस प्रकार मरने के बाद भी तुम्हारी निंदा कर रहे हैं।” अंकल का चेहरा ज़र्द पड़ चुका था। वे यकायक चुप हो गए।
“अंकल! बात पूरी कीजिए।” इस बार मेरा स्वर अपेक्षाकृत तेज था।
“मैंने नीचे झांककर देखा | मैं मरकर भी निंदा का पात्र बना हुआ था। कोई कह रहा था, ऐसा कंजूस देखने में नहीं आया, जीवनभर इकट्ठा करता रहा। कोई मक्खीचूस तो कोई लोभी तो कोई समाजद्रोही जाने क्या-क्या कह रहा था। मैं पश्चाताप से भर उठा। आंखों से धुंध छट गई। ओह, मैंने इतना दुर्लभ जीवन यूं ही व्यर्थ कर डाला। तमाम वैभव के बीच उपहास का पात्र बन गया। काश! मैं मायातीत बनकर अपनी आत्मा का परिष्कार करता तो यूं दुर्गति नहीं झेलनी पड़ती।” अंकल की आंखों में कोई महान् दर्शन सिमट आया था।
“उसके पश्चात् क्या हुआ अंकल ?” मेरा आश्चर्य थम नहीं रहा था।
कुछ समय पश्चात् मैं दोनों दिव्यात्माओं के साथ एक खिड़की के आगे खड़ा था। आत्मलोक में जाने के पहले यहां से अनुमति लेनी पड़ती थी। जैसे विदेश जाने के पूर्व इमीग्रेशन, आप्रवासन क्लीयरेंस आवश्यक होता है, यहां भी क्लीयरेंस जरूरी था। खिड़की पर अन्य दिव्यात्मा यह कार्य देख रही थी। मेरा रिकार्ड देखते ही वह तेज आवाज में बोली, “अरे ! किसे उठा लाए हो ? इसका समय पूरा नहीं हुआ है। अभी तो इसे अपनी सम्पूर्ण सम्पति का दान करना है। यह एक अपरिष्कृत आत्मा है, इसे पुनः नीचे भेजो।” यह कहते हुए उस दिव्यात्मा की आंखें अंगारों की तरह चमकने लगी थीं। तभी किसी ने मुझे जोर से धक्का दिया एवं मेरी आत्मा पुनः मेरे शरीर में लौट चुकी थी।
………………………………………..
18.05.2020