इन्साफ

वीर मौहल्ला, गंगानगर, में गंगूबाई एक शख्सियत से कम न थी। उसके काम का कोई जवाब नहीं, जहाँ काम करती, उस घर से प्रशंसा पाती। यही उसके जीवन की उपलब्धि थी। जवानी पूरी बीत गई, पचास से ऊपर होने को आई, बाल सन्न-से सफेद हो गए, चेहरे पर झुर्रियों ने दस्तक दे दी पर काम में आज भी वही फुर्ती, वही सफाई, वही चपलता। आँखें धँस गई पर आँखों में आज भी वही पुरानी चमक थी। अथक, अनवरत श्रम करने वाले इंसान न जाने किस अदृश्य शक्ति से स्फूर्त होते हैं। उनके चेहरे पर नित्य नई आभा होती है, मन में विश्वास होता है एवं हाथों में अद्भुत शक्ति आ जाती है। बहता पानी सदैव उज्जवल होता है।

गंगूबाई ने न कभी मौहल्ला बदला, न कभी नाजायज मेहनताना मांगा। काम-दाम दोनों परफेक्ट, कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं। गंगानगर में पिछले तीस वर्षों से वीर मौहल्ला के ही घरों में काम करती। न जाने यह मौहल्ला उसे इतना क्यूँ रास आ गया, यहीं छः-सात घर संभाल लेती। गाय की तरह एक खूंटे से बंध गई। धीरे-धीरे खूंटे से भी मोहब्बत हो जाती है। सुबह-शाम सरपट एक घर से दूसरे घर आते-जाते नजर आती। एक ही काॅलोनी में काम करने का सबसे बड़ा फायदा यह था कि इधर-उधर, आने-जाने में उसका समय और श्रम जाया नहीं होता था। पिछले 30 वर्षों से उसने इसी मौहल्ले के अनेक घरों में काम किया, सिर्फ दाल-रोटी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी कमाई।

अन्य बाईयों की तरह वह घास नहीं काटती थी। बर्तन ऐसे साफ करती कि कोई शक्ल देखले। कपड़े ऐसे धोती की धोबी भी क्या धोए। झाडू-पोचा ऐसे लगाती मानो आंगन सूर्य की किरणों के पड़ने से चमक उठा हो। खाना ऐसा बनाती कि लोग अंगुलियाँ चाट ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य था-जहाँ भी काम करो पूरे मन से करो, ऐसा करो जैसे वह स्वयं का कार्य हो। इसीलिए मौहल्ले भर में उसकी मांग थी। जिस घर को गंगूबाई मिल जाती वह घर निहाल हो जाता। कमरतोड़ मेहनत करके भी हर पल मुस्कुराती नजर आती। कुछ भी कह दो कभी नाराज नहीं होती, वाणी इतनी मधुर जैसे चन्द्रमा की शीतल किरणें बरस रही हों। मुँह पलटकर जवाब देने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अपनी स्थिति एवं सीमाओं को वह अच्छी तरह समझती थी। निर्धन व्यक्ति अपनी लक्ष्मण रेखाओं से बहुधा खबरदार होते हैं।

इतने सब गुणों के साथ उसकी ईमानदारी सोने पर सुहागे का काम करती। मेहनत और ईमानदारी ही उसकी अब तक की जमा पूँजी थी, यही जीवन भर की कमाई थी। क्या दुर्दिन नहीं देखे उसने ? शादी के पाँच वर्ष बाद पति का सड़क दुर्घटना में निधन हो गया। वैधव्य ने सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। तब उसका पुत्र अमर मात्र तीन वर्ष का था। ससुराल वालों ने कलमुँही कहकर निकाल दिया, फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी।

भारतीय विधवा की विडंबना का कोई अंत नहीं। आश्रयहीन को कोई सहारा नहीं देता। न जाने कितनी हसरतें कुचलकर, कितने अरमानों को खाक करके, कितने मन के महलों को ढहाकर उसने अमर को बड़ा किया। यही उसके प्राणों का एकमात्र आधार था, पर यहां भी विधाता ने उसे निराश किया। बीस वर्ष का होने को आया पर अभी भी मेट्रिक में अटका है। चार बार फेल हो गया, पढ़ाई छूट गई, आज भी काम की तलाश में इधर-उधर भटकता रहता है। कहो तो काटने दौड़ता है। जिसे सहारा समझकर पाला वह भी बोझ साबित हुआ लेकिन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी गंगूबाई का हौसला एवं जीवट आज भी जिन्दा था। गरीबी एवं हालात ने कहीं का नहीं छोड़ा, पर ईमान आज भी बरकरार था।

एक बार तो मौहल्ले में आते हुए उसे चार तोले सोने की चैन मिली, गंगूबाई तुरन्त पहचान गई। यह तो काॅलोनी की श्रीमती गुप्ता की थी, वह इसे अक्सर पहनती थी। उस घर में उसने कई बार काम किया था। उसने तुरन्त चैन श्रीमती गुप्ता को लौटा दी। उस दिन से तो मौहल्ले में उसकी ऐसी धाक जमी कि लोग उसको लेकर निःशंक हो गए, वह बेधड़क किसी घर में घुस जाती। यही नहीं जहाँ काम करती, उस घर में कोई बीमार होता तो गंगूबाई ऐसे-ऐसे नुस्खे बताती कि आदमी पलक झपकते भला-चंगा हो जाता। किसी का सर दुखता तो ऐसी मालिश करती कि सरदर्द गायब ! पेट के रोगों की तो विशेषज्ञ थी। नस-सुतवाई में तो इतनी पारंगत थी कि तुरन्त नाभि संतुलित कर देती। न जाने कितने तो चूर्णों के नाम उसकी जबान पर थे, आधा इलाज तो वही कर देती।

मेरा तबादला तीन-चार माह पहले ही धौलपुर से गंगानगर हुआ था। मैं यहाँ फैमिली कोर्ट में अतिरिक्त सैशन जज बनकर आया था। सरकारी क्वार्टर अभी एक भी खाली नही था, अतः किराये के मकान में रहना मजबूरी थी। पत्नी शांति दमे की पुरानी मरीज थी, अक्सर खाट पकड़े रहती। लड़का ’प्रतीक’ अब इक्कीस वर्ष का जवान था, अक्सर घर से बाहर रहता। एक उम्र में बच्चे अपनी कंपनी में ही सिमट जाते हैं। हमने भी मकान वीर मौहल्ले में किराये पर लिया। पत्नी की बीमारी के मद्देनजर हमें भी काम वाली बाई की सख्त जरूरत थी। सभी आस-पास वालों के कहने पर हमने भी गंगूबाई को घरेलू काम-काज खाना बनाने के लिए रख लिया।

कुछ ही समय में गंगूबाई ने हमारे घर में भी काम की धाक जमा ली, प्रकाश जहां भी पहुँचता है, वहां स्वतः उजाला हो जाता है। सबसे पहला फायदा तो उससे शांति को हुआ। न जाने किस पहाड़ी के संत से एक बूटी लाकर दी कि शांति का पुराना दमा ठीक हो गया। मेरी एड़ियों में बहुत तेज दर्द रहता था, न जाने कौन-सी आयुर्वेदिक दवाई मंतर करवाकर लाई कि कुछ ही दिनों में दर्द जाता रहा। उसका काम और व्यवहार दोनों ही सुंदर थे। सुंदर मन में ही सुंदर व्यवहार निवास करता है।

इन्हीं दिनों एक दोपहर मैं बैंक से बीस हजार रूपये निकाल कर लाया। शांति कई दिनों से वाशिंग मशीन खरीदने का कह रही थी। रकम एक हल्के पीले रंग के लिफाफे में रखकर लाया था। घर आकर मैंने लिफाफा फ्रीज पर रख दिया, सोचा शांति उठेगी तब अलमारी में रख देगी। प्रतीक ड्राईंगरूम में बैठा टी वी देख रहा था, गंगूबाई रसोई में काम कर रही थी। गर्मी में हारा थका आया था अतः दीवान पर विश्राम करने के लिए लेट गया। न जाने कब मुझे नींद लग गई व कब गंगूबाई घर से निकल गई। उठा तब प्रतीक वहीं बैठा था व शांति नींद से उठ चुकी थी। मैंने उससे चाय बनाकर लाने को कहा। चाय पीते-पीते मैंने उसे रकम फ्रीज से उठाकर अलमारी में रखने को कहा। वह फ्रीज तक गई और बोली ’’यहाँ तो लिफाफा नहीं है, आपने खुद तो अंदर नहीं रख दिया।’’

“नहीं! वहीं रखा होगा, अभी एक घंटे पहले तो रखा है।’’ मैंने निःशंक भाव से कहा।

उसने जब दूसरी बार कहा कि लिफाफा नहीं है तो मैं चौंककर उठा, देखा सचमुच लिफाफा वहाँ नहीं था। मैं हैरान रह गया। यकायक मुझे लगा दाल में काला है। मैंने, प्रतीक एवं शांति ने सारा घर ढूंढा, पर लिफाफा नहीं मिला। मैंने प्रतीक से पूछा, ’’ गंगूबाई कहां है ?’’ शक की सुई सबसे पहले निर्धन व्यक्ति की ओर जाती है। इन दिनों गंगूबाई का पुत्र अमर बीमार भी था, वह अस्पताल में भर्ती था। मेरा शक दृढ़ हो गया। तभी प्रतीक बोला, ’’पापा ! अभी-अभी कुछ समय पहले गंगूबाई यहाँ से गई है, शायद उसके पल्लू में कुछ बंधा हुआ भी था।’’ कुछ देर बाद उसने फिर कहा, क्या लिफाफा हल्के पीले रंग का था। मैंने विस्मय से कहा ’’हाँ।’’ प्रतीक ने पुष्टि की कि कुछ ऐसे ही रंग का लिफाफा उसने गंगूबाई को ले जाते हुए देखा था।

अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। देखते-देखते बात मौहल्ले में फैल गई, मैंने प्रतीक को तुरन्त गंगूबाई के घर जाकर उसे बुलाकर लाने के लिए कहा। इशारे से मैंने कहा, ’’तुम उसके घर को देखने का भी प्रयास करना।’’

गंगूबाई प्रतीक को देखकर ठगी-सी रह गई। बड़ा आदमी छोटे आदमी के घर बिना मतलब कभी नहीं जाता। गंगूबाई ने दुनिया देखी थी। गंगा भी कभी उलटी बही है ?

“बाबूजी अभी एकाएक कैसे आए ? अंदर तो आओ।’’ उसने आश्चर्य से पूछा। प्रतीक ने वहां तो कुछ नहीं कहा पर गंगूबाई को तुरन्त हमारे घर चलने को कहा। गंगूबाई प्रतीक के इस व्यवहार से हैरत में पड़ गई, कई आशंकाओं ने घेर लिया। उसके मन में एक ही बात की चिन्ता थी, अवश्य ही शांति मेमसाहब की तबीयत पुनः बिगड़ गई होगी। सच्चे हृदय में गलत सोच प्रविष्ट ही नहीं होता। वह तुरन्त घर से बाहर आई। प्रतीक उसे स्कूटर पर लेकर हमारे घर पहुँचा।

सारा मौहल्ला, क्या औरतें-क्या बच्चे, क्या बुजुर्ग, हमारे घर पर इकट्ठा थे। गंगूबाई की आँखें विस्मय से फैल गई, पूछा, “बाबूजी क्या हो गया है ? सब ठीक से तो है ?’’ मैंने तरीके से बात संभालने की कोशिश की, “गंगूबाई, कुछ घंटे पहले मैंने एक लिफाफा यहां फ्रीज पर रखा था, उसमें बीस हजार रूपये थे, मिल नहीं रहा है। कहीं तुमने अन्यत्र तो नहीं रख दिया ?’’

“नहीं साहब । हमें तो मालूम भी नहीं आपने लिफाफा कब रखा।’’ उसने सहज भाव से उतर दिया। उसके बाद शांति ने कड़ी निगाह से आँखें तरेर कर पूछा, ’’तो फिर लिफाफा गया कहाँ ? घर में और तो कोई आया ही नहीं।’’

गंगूबाई को अब माजरा समझ में आया। वह समझ गई कि सारा घर उस पर शक कर रहा है। यह उसके सख्त आजमाइश की घड़ी थी। प्रतिष्ठा सुई की नोक पर थी । पूरे जी-जान से इनकी सेवा की, उसका यह बदला ? जिस गंगूबाई की ईमानदारी की घर-घर में धाक थी, आज वही शक के घेरे में खड़ी थी । उसे लगा सारा मौहल्ला उसे घूर रहा है। विधाता प्रतिकूल होते हैं तो सभी दुश्मन बन जाते है, अपने पराये हो जाते हैं।

सबके बीच खड़े मैंने शाति को इशारा किया तो वह गंगूबाई को कमरे के अंदर ले गई। अंदर जाकर शांति ने साफ ही कह दिया, ’’ गंगूबाई ! हमारा लिफाफा लौटा दो, बात हमारे-तुम्हारे बीच रह जाएगी अन्यथा प्रतीक का गुस्सा तुम जानती हो। बात पुलिस तक भी पहुँच सकती है।’’ दमा ठीक होने के बाद उसके फेफड़े अतिरिक्त ताकत से भरे हुए थे।

गंगूबाई को काटो तो खून नहीं। प्रतिष्ठित, ईमानदार व्यक्ति के लिये अपमान मृत्यु से अधिक दारूण होता है। काश ! आसमान उसके ऊपर गिर जाता अथवा धरती फट जाती। वह तो मुहँ दिखाने लायक नहीं रही। बाहर आई तो प्रतीक ने सारे मौहल्ले के बीच गुस्से में भरकर कहा, ’’ लिफाफा लौटा दो अथवा फिर मेरा गुस्सा तुम जानती हो ?’’ जिसको वो अपने पुत्र के समान मानती थी, आज वही उसे ज़लील कर रहा था। वह गुस्से में तमतमा उठी, आँखों से चिंगारियाँ फूट पड़ी, जीवन भर का धैर्य बिखर गया ’’बाबूजी। मैं अमर की कसम खाकर कहती हूँ मैंने रूपये देखे तक नहीं। अमर अस्पताल में भर्ती जरूर है पर बेईमानी के पैसे से मैं कभी इलाज नहीं कराऊँगी चाहे मुझे उसका मरा मुँह ही क्यों न देखना पड़े।’’

“ ज्यादा होशियार मत बनो। मैंने स्वयं तुम्हे एक पीला लिफाफा ले जाते हुए देखा है।’’
“बाबूजी! आपकी आँखें धोखा खा गई होगी, मैं भला इतनी रकम का क्या करूंगी। आप चाहे तो मेरे घर की तलाशी ले लें। साँच को आँच नहीं।’’ उसकी एक-एक बात से सच्चाई टपक रही थी शब्द मानो अंतस्तल से फूट रहे थे।

सारा मौहल्ला स्तब्ध था। बिना अपराध गंगूबाई की आँखें जमीन में गड़ गई। उस निर्बल अबला का कोई सहारा न था । बाद में प्रतीक, शांति व मैं मौहल्ले के दो-तीन लोगों के साथ उसके घर गए, सारा घर छान मारा पर कुछ न मिला। आखिर रूपये गए कहाँ ? धरती खा गई अथवा आसमान निगल गया ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाने की भी सोची पर शांति ने मना कर दिया, ’’सोच लो हमारे से ही यह रकम कहीं खो गई।’ हम दोनों की आत्मा से एक मूक आवाज आ रही थी- गंगूबाई चोर नहीं हो सकती। मौहल्ले वालों ने भी उसे पुलिस में नहीं देने की पुरजोर वकालत की। जाने क्या सोचकर मैं टाल गया।

उसके बाद गंगूबाई कभी हमारे घर नहीं आई। मौहल्ले के अन्य घरों में भी जहाँ-जहाँ जाती, लोग उसे शंका भरी निगाहों से देखते। इज्जत के धागे में गाँठ लग चुकी थी। कलंक काजल से भी काला होता है। उसके आते ही औरतें, आदमी सभी तरीके से बहुमूल्य चीजें अंदर रख देते। लोगों की बदली हुई निगाहों को समझने में गंगूबाई को देर नहीं लगी। इस जिल्लत से तो भूखा मरना अच्छा। उसने मौहल्ला छोड़ दिया।

इस बात को भी चार महीने बीत गए। अब तक सभी इस घटना को विस्मृत कर चुके थे। इन दिनों प्रतीक स्टडी टूर पर नेपाल गया हुआ था। मुझे एवं शांति को आज शहर के किसी रेस्ट्रां में डीनर लेने की इच्छा हुई।

क्वालिटी रेस्टोरेन्ट शहर का सबसे अच्छा रेस्टोरेन्ट था। यहाँ हम अक्सर आते थे। डीनर लेकर पेमेन्ट करके बाहर निकल ही रहा था कि रेस्ट्रा के मालिक बेरी साहब ने मुझे इशारे से बुलाया । मैं उनके पास गया तो वे मुझे एक तरफ ले गए और कहा, ’’अरोड़ा साहब! आप बुरा न मानें तो एक अर्ज करूं।’’

“कहो, क्या बात है ? सब कुशल से तो हैं ?’’

“नहीं ! वैसे तो सब ठीक है पर आप शहरके प्रतिष्ठित आदमी हैं, अतः कहना ही पड़ेगा।’’ फिर न जाने क्या सोचकर बेरी साहब चुप हो गए।

“निःशंक होकर कहिए बेरी साहब ! मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि आप मेरे शुभेच्छु हैं।’’

“दरअसल, आपके साहबजादे प्रतीक के कदम इन दिनों ठीक नहीं है। गत छः माह से रोज शाम वो काॅलेज के तीन-चार आवारा लड़कों के साथ यहाँ आता है, ऊपर एक कमरा किराये पर लेते हैं एवं वहां तीन पत्ती, रम्मी या ऐसा ही कुछ ताश का जुआ खेलते हैं। चार-पाँच महीने पहले उसके एक साथी ने मुझे बताया कि उसने प्रतीक से बीस हजार से ऊपर जीते हैं। प्रतीक ने उसे रूपये चुकाए भी है। अभी फिर पाँच हजार हार गया है एवं पैसे चुका नहीं पा रहा है।’’

मैं हक्का-बक्का रह गया। जिसे मैं सोना समझ रहा था वह पीतल निकला एवं जिसे मैंने पीतल समझकर निकाल दिया वह सोना निकला। बात स्पष्ट थी। अब सोचने को क्या बचा था। आत्मग्लानि के एक तेज तूफान ने मुझे आवृत्त कर लिया। उस समय तो मैं उसे प्रतीक को समझाने का कहकर चला आया, पर मुझे यह बात साफ हो गई कि बीस हजार रूपये का लिफाफा प्रतीक ने ही पार किया है। घर आकर मैंने शांति को सारी बात बताई, वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठी।

रात आधी बीत चुकी थी। हम दोनों करवट पर करवट बदल रहे थे। नींद न आने के कारण दोनों बालकाॅनी में आकर खड़े हो गए। मैंने ऊपर देखा। आसमान पर चमकते हुए तारे हमारा मखौल उड़ा रहे थे। हमारे मन का सन्नाटा रात के सन्नाटे से भी गहरा था। मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी, मैं अपने ही से नजर नहीं मिला पा रहा था। न्याय मुझे चीख-चीख कर पुकार रहा था। रह-रह कर गंगूबाई का निरीह चेहरा याद आता। न्यायाधीश होकर भी मैंने इतना घोर अन्याय किया, उसकी दलील तक नहीं सुनी। इतना पाशविक व्यवहार ! मेरा आत्म-क्रंदन मुझसे न्याय मांग रहा था। तराजू के एक तरफ मोह था, एक तरह इंसाफ। गंगूबाई की स्वच्छ चुनरी को हमने स्याह कर दिया था। सारी रात में सो नहीं पाया। मेरी आत्मा मुझसे इंसाफ मांग रही थी, ’’ जगदीश अरोड़ा ! खुद का बेटा चोर निकला तो चुपचाप पड़े हो। उसे भी सरेआम लज्जित क्यूं नहीं करते ? जिसकी वजह से एक ईमानदार, निरपराध विधवा को इतनी जिल्लत मिली, उस पुत्र पर कैसा रहम !’’ फिलहाल शांति से मैंने प्रतीक के आने पर चुप रहने को कहा।

कुछ रोज बाद प्रतीक टूर से आया तो मैंने घर में घुसते ही उसे दो थप्पड़ रसीद किए। मैंने उसे प्यार एवं दुलार से पाला था। मेरे इस अप्रत्याशित व्यवहार से वह घबरा गया। शांति ने उसे अंदर ले जाकर सारी बात बताई तो उसको दिन में तारे नजर आने लगे। चोर के पाँव नहीं होते, निर्बल आत्मा व्यक्ति को अशक्त कर देती है। बबूल बोने वाले आम कैसे पाएंगे ? उसकी आँखें शर्म से गड गई। वह फूट-फूट कर अपनी करनी के लिए रोने लगा। बिलखकर उसने मेरे पाँव पकड़ लिए, ’’पापा! आप मुझे जो चाहें दण्ड दें, मैं ही असली गुनाहगार हूँ।’’ उसका विह्वल रूदन भी मुझे आज न्याय के पथ से विचलित नहीं कर सका। जिस आदर्श न्याय की बात रात-दिन हम हमारी अदालतों में करते हैं, वो हमारे घर में अलग क्यूं ? हम हमारे घर में ही न्याय की स्थापना नहीं कर सकते तो समाज की अपेक्षाओं पर कैसे खरे उतरेंगे ? पल भर में मैंने आगे की सारी योजना बना ली। मैंने उसके कंधे पर पितृस्नेह से हाथ रखा, ’’पुत्र! जीवन में कौन अपराध नहीं करता, पर बेगुनाह पर इल्ज़ाम लगाना सबसे बड़ा पाप है। तुम अपना पाप कुबूल करो एवं गंगूबाई से सरेआम माफी मांगो, शायद प्रायश्चित के आँसू एवं उसके क्षमा करने से हमारे पाप मिट जाये अन्यथा याद रखना, सच्चे सहृदय इंसान का रोआं दुखाने वाले के लिए जीवन में मात्र नरक का अग्निकुण्ड है।’’ प्रतीक से कुछ कहते नहीं बन रहा था। मेरी बात मानने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं था।

अगले इतवार हमारे घर सारा मौहल्ला इकट्ठा था। मैंने सभी को चाय-पान पर बुलाया था। सभी कारण जानने को आतुर थे पर हम चुप थे। हमारी चुप्पी सबकी आतुरता बढ़ा रही थी। जितने मुँह उतनी बातें हो रही थी।

थोड़े समय में गंगूबाई अपने पुत्र अमर के साथ हमारे पड़ोसी मित्र शर्माजी के संग वहाँ आई एवं द्वार पर ठिठक गई। फटी जीर्ण धोती, बिखरे सूखे बाल, नंगे पाँव, कांतिहीन निस्तेज चेहरा जैसे सिर्फ हड्डियों की ढेर एक वैरागिनी खड़ी हो। आज उसकी आँखों में चमक नहीं थी, चाल में वह चपलता नहीं थी जो सारे मौहल्ले का मन हर लेती थी। प्राण किसी न्याय के इंतजार में अटके थे। धरती, आसमान, सातों दिशाओं से उसकी क्षुब्ध आँखें व जीवन का नैराश्य एक ही दान मांग रहा था, ’’क्या मेरे जीवन का कलंक मिटेगा ? क्या मेरी खोई प्रतिष्ठा मैं पुनः प्राप्त करूंगी ?’’ उसने अंतिम आशा से मुझे एवं शांति को निहारा। लगा जैसे एक तपस्विनी हमारे द्वार पर खड़ी हो। उसके पांव लड़खड़ा रहे थे, होठ काँप रहे थे। कुछ कहने की शक्ति ही कहां बची थी उसमें। ज्योति टिमटिमा रही थी, दीपक में तेल सूख चुका था, पर बाती अभी भी अंतिम उम्मीद के सहारे जल रही थी। प्रकाश अंतिम सांस तक अंधकार से लड़ता है। मैंने एवं शांति ने आगे बढ़कर उसके पाँव छुए ,उसे लेकर आगे आए। वह अजीब उलझन में थी। हमारी जलालात तो वह बर्दाश्त कर गई पर हमारी विनम्रता का बोझ नहीं ढो पाई। भीड़ के बीच खड़े होकर मैंने मौहल्ले को सारे घटनाक्रम से अवगत करवाया। सच्चाई बताने में मुझे जरा भी संकोच नहीं हुआ। न जाने इतना आत्मबल कहां से आ गया, सत्य का अपना बल है, वह स्वयं में नारायण समेटे है।

प्रतीक वहींखड़ा था। आगे बढ़कर उसने गंगूबाई के पाँव पकड़ लिए, ’’माँ ! मुझे अपना पुत्र अमर समझकर माफ कर दो। मैं ही आपका अपराधी हूँ, मैंने ही पापा के रूपये चुराए थे। आप जो चाहे मुझे सजा दें, मुझे मंजूर है।’’ विह्वल गंगुबाई ने प्रतीक को उठाकर हृदय से लगा लिया, ’’पुत्र ! तुमने मेरा खोया सम्मान वापस लौटा दिया है, अगर माता ही पुत्र को अपराधी कहेगी तो ममता का आदर कौन करेगा। सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो भूला नहीं कहलाता ।’’ दीपक बुझने के पहले और प्रज्वलित हो रहा था। कहते-कहते गंगूबाई निढाल होने लगी। उसकी आँखें पथराने लगी थीं, देखते-देखते वह कंकाल की तरह गिरकर धरती पर ढेर हो गई।

सबकी आँखें नम थी, जीवन भर सबका काम करने वाली कर्मयोगिनी अनंत विश्राम मे लीन हो चुकी थी।

गंगूबाई के निधन को अब एक वर्ष बीत चुका था।। आज उसकी प्रथम बरसी पर मैं, शांति, अमर एवं प्रतीक उसके चित्र के आगे पुष्पांजलि दे रहे थे।

प्रकृति में कोई वर्तुल अधूरा नहीं रहता । परमात्मा का इंसाफ हर अपूर्ण वर्तुल को पूर्ण कर देता है।

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01.06.2002

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