नित्य की तरह परमात्मा आज पुनः वैकुण्ठ में आया एवं वहाँ रखे रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर आसीन हो गया। स्वर्ण सिंहासन की चमक अब परमात्मा की दिव्य प्रभा के आगे फीकी लगने लगी थी।
परमात्मा अब तक अपने निर्गुण-निराकार रूप में ही थे। एक दिव्य परम प्रकाश सिंहासन के चारों और आविर्भूत हो रहा था। सिंहासन के सामने दोनों ओर लगी कुर्सियों पर पृथ्वी लोक से आये देवदूत बैठे थे। इन सभी देवदूतों पर पृथ्वी के एक विशिष्ट भू-भाग का प्रभार था। पृथ्वी की कठिनतम समस्याओं के निराकरण के लिए परमात्मा ने उन्हें अलौकिक शक्तियाँ प्रदान कर रखी थी। इतना होते हुए भी कई बार ऐसी समस्याएं आन पड़ती थी, जिनका निराकरण देवदूत नहीं कर पाते थे। तब ऐसी बैठकें अपरिहार्य हो जाती थी।
हर जगह के देवदूत इस बैठक में भाग ले रहे थे- उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूरोप, अरब, रूस एवं अन्य अनेक विशाल भूखण्डों के देवदूत यहाँ उपस्थित थे। आर्यावर्त एवं चीन की विशाल जनसंख्या के मद्देनजर इन दोनों भूखण्डों पर भी एक-एक देवदूत नियुक्त था। कुल छत्तीस देवदूत इस बैठक में सिंहासन के दोनों ओर फैले विशाल हाॅल में अठारह-अठारह की संख्या में बैठे थे। अपने- अपने भूखण्डों के अधिपति ये देवदूत पृथ्वी पर सदैव अदृश्य रूप से कार्य करते थे।
परमात्मा को देखते ही सभी देवदूत आसन से उठ खड़े हुए। सभी ने झुककर उनका वंदन किया तत्पश्चात् उनमें से एक देवदूत आगे आकर बोला, ‘‘प्रभु! आपका निर्गुण, निराकार रूप निःसंदेह आत्ममुग्ध कर देने वाला है। इस अदृश्य, अगोचर रूप के दर्शन सिद्धों एवं तपस्वियों को भी दुर्लभ हैं।’’ इतना कहकर वह पुनः अपने स्थान पर चला आया।
अब एक अन्य देवदूत आगे बढ़कर बोला, ‘‘हे परमात्मन्! इस अनंत, अकथनीय एवं अजन्मे रूप की थाह न मिल सकने के कारण मनस्वियों ने नेति-नेति कहकर आपकी स्तुति की है।’’ इतना कहकर वह भी अपने स्थान पर चला गया।
अब किसी अन्य भूखण्ड का देवदूत आगे बढ़कर बोल रहा था, ‘‘हे ईश्वर! पृथ्वी पर आज भी आपके इस रूप के अधिसंख्य अनुगामी हैं। आपके इस रूप का गुणगान करते हुए भक्तों की जिह्वा नहीं थकती। आपके इसी रूप से मोहित हुए भक्तजन आपको बिना वाणी का वक्ता, बिना शरीर के स्पर्श करने वाला एवं बिना मुख के सारे भोग स्वीकार करने वाला परमदेव कहकर आपको नमन करते हैं।’’ इतना कहकर वह भी अपने स्थान पर चला आया।
एक अन्य देवदूत कह रहा था, ‘‘हे चिन्मय! आपका निराकार-प्रकाशमय रूप मुनियों के मन को भी अगम है। संसार भर के धर्मग्रंथ आपके इस रूप को माया, गुण एवं ज्ञान से परे परिमाणरहित बतलाते हैं। सारी सिद्धियाँ आपके अगोचर रूप की अनुगामी हैं, लेकिन हम सभी आपके सगुण दर्शन के आकांक्षी है। आपके सगुण दर्शन की स्मृति ध्यानावस्था में अतीन्द्रीय सुख प्रदान करती है। हे भक्तवत्सल! अब आपके साकार-सगुण रूप को प्रगट कर हमें कृतार्थ करें!’’
परमात्मा के सगुण रूप के प्रगट होते ही चारण, गंधर्व दिव्य स्तोत्रों से उनकी वंदना करने लगे, देवांगनाएं पुष्प बरसाने लगीं एवं देवगण उनकी स्तुति में मग्न हो गये। उस परम-पुरुष का रूप-गुण परम माधुर्य से भरा था। उनके दिव्य ललाट पर मुकुट शोभित हो रहा था। आँखें पूर्ण खिले हुए कमल के समान रक्तवर्णा थी। सुंदर कपोल, सुघड़ नासिका, मोतियों की तरह उज्ज्वल दंतपंक्ति, सुंदर चिबुक एवं स्मितहास उनके रूप में चार-चाँद लगा रहे थे। नख-शिख उनके समस्त अंग अनुपम थे। वे पीतांबर धारण किये हुए थे एवं उनके मस्तक पर अंग्रेजी के ‘यू’’ अक्षर की तरह तिलक लगा हुआ था। शरीर के अंग-अंग में सैंकड़ों कामदेव समाये थे। ऐसा लग रहा था मानो जगत का सम्पूर्ण ऐश्वर्य एवं वैभव वहीं विस्तार पा रहा हो।
सभी देवदूत इस अनुपमेय रूप को चित्रलिखे-से देखते रह गये। उनके नेत्र स्तंभित हो गये। कई देर तक वे इस रूप को यूँ देखते रहे जैसे चकोर चन्द्रमा को देखता है।
तभी एक घण्टनाद हुआ। उस नाद को सुनकर सभी देवदूत अपने पूर्व रूप में आकर व्यवस्थित हुए। परमात्मा ने हाथ के इशारे से सबको अपने-अपने स्थान पर बैठने का निर्देश दिया।
सर्वप्रथम उत्तरी अमेरिका भूखण्ड का देवदूत उठा एवं बोला, ‘‘प्रभु! हमारा भूखण्ड इन दिनो आतंकवाद की आग में झुलस रहा है। आपके निर्गुण एवं निराकार रूप के भक्तजन इतने जुनूनी हो गए हैं कि वे आपके इस रूप के अतिरिक्त किसी अन्य रूप को स्वीकारने को तैयार ही नहीं हैं। वे बुतपरस्ती के घोर विरोधी हैं एवं आपकी सगुण पूजा को जड़मूल से उखाड़ फेंकना चाहते हैं।’’ कहते-कहते देवदूत का शरीर काँपने लगा।
यह सुनकर परम पुरुष के चेहरे पर एक अलौकिक मुस्कान फैल गई। वे कुछ क्षण तो चुप रहे फिर देवदूत की ओर देखकर बोले, ‘‘वे गलत कहाँ हैं। मेरे सगुण रूप के जुनूनियों ने भी इतने बुत बना दिये हैं कि लोग बुतों को ही परमात्मा मानने लग गये हैं। अगर पृथ्वी पर यूँ ही बुतों की बाढ़ आती रही तो पृथ्वीवासी मुझे एवं मेरे संदेशों को विस्मृत कर देंगे।’’
‘‘आप सत्य कहते हैं प्रभु! लेकिन क्या बुतों को तोपों से उड़ाया जाना उचित है?’’ देवदूत हाथ जोड़कर बोला।
‘‘जो व्यक्ति जिस धर्म को मानता है, उस धर्म का एक-एक संदेश उसकी बुद्धि को जकड़ लेता है। मुझमें असीम श्रद्धा होने के कारण वह इससे परे कुछ सोच नहीं पाता। वह मतांध हो जाता है। वस्तुतः मैंने तो समय, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप तरह-तरह के धर्मों का सृजन किया था, लेकिन इंसान उन्हीं बातों को पकड़कर बैठ गया। मंजिल तो भूल गया, मार्गों को लेकर युद्ध करने लग गया। धर्म का अर्थ है समयानुकूल व्यवहार। हर धर्म एक समय की उपज था। आज के धर्म को आज के समय के अनुरूप व्यवस्था बनानी होगी। जहाँ तक आतंकवाद का प्रश्न है अगर तुम्हारे भूखण्ड के लोग व्यवसायी बनकर सारे जगत को लूटने का प्रयास करेंगे तो अन्य भूखण्ड वाले उत्तेजित होंगे ही। तुम अपने भूखण्डवासियों को उनका गौरव इतिहास बताओ एवं उन्हें सर्वहित से कार्य करने को कहो।’’ यह कहकर उन्होंने देवदूत को अपना स्थान ग्रहण करने का निर्देश दिया।
इसी तरह एक-एक कर उन्होंने सभी की समस्याओं का समाधान किया। परमात्मा के निष्पक्ष न्याय से सभी देवदूत हतप्रभ थे।
अब मात्र आर्यावर्त का प्रतिनिधि बचा था। उसे देखकर प्रभु बोले, ‘‘तुम मेरे सबसे प्रिय दूत हो। आर्यावर्त एक ऐसा भूखण्ड है जहाँ अवतार लेने के लिए मैं भी विकल हो जाता हूँ। नृसिंह, राम, मत्स्य, वामन, कृष्ण एवं न जाने कितने रूपों में मैंने स्वयं वहाँ जन्म लिया। राम अवतार में वन-गमन के समय मेरे पाँव में काँटे चुभ जाते थे। तब लक्ष्मण की आँखों से आँसू बह निकलते थे। सीता विरह में, मैं, हा जानकी! हा जानकी! कहते हुए वन-वन में उसे खोजता रहा। सर्वशक्तिमान होते हुए भी मैंने नरलीला में सभी दुःखों को एक साधारण मनुष्य की तरह भोगा। क्या आर्यावर्त के लोग मेरे उस अवतार को याद करते हैं ?’’ कहते-कहते परम-पुरुष ने देवदूत को आतुर आँखों से देखा।
‘‘हे चिन्मय! आपके उस अवतार की स्मृति आज भी आर्यावर्त की श्वासों में बसी है। आपके नाम की महिमा आपसे भी बड़ी हो गई है। जैसे दीये को चौखट पर रखने से घर-बाहर दोनों ओर उजाला हो जाता है, आपके नाम को जिह्वा की चौखट पर रखकर आपके भक्तजन बाहर-भीतर अपने शरीर एवं अंतःकरण दोनों को प्रकाशित कर लेते हैं। आपके उस अवतार पर लिखे असंख्य ग्रंथों को भक्तजन नित्य वाचन करते हैं।’’ इतना कहकर देवदूत चुप हो गया।
अब प्रभु कृष्ण अवतार की स्मृतियों में डूबे थे। उन स्मृतियों को याद कर वे विह्वल हो उठे। दूत की ओर देखकर बोले, ‘‘कृष्ण अवतार की स्मृति आज भी मुझे भाव-विभोर कर देती है। सारी दुनियाँ मेरे भृकुटि-विलास पर स्थिर है, लेकिन उस जन्म में राधा मुझे ऐसे नचाती थी जैसे मदारी बंदर को नचाता है। उसके प्रेम ने मुझे उसका बंधक बना दिया था। प्रेम विह्वल गोपियों ने मुझे अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। दूत! क्या अब भी वहाँ महारास होते हैं ? क्या गोकुल, वृंदावन के लोग अब भी मुझे याद करते हैं ? क्या आर्यावर्त के लोगों के हृदय में आज भी प्रेम का वही महासंगीत गूँजता है ? क्या अब भी वे वैसे ही हैं ?’’ कहते-कहते परमपुरुष के कमल नयन गीले हो गये। आँखों में आए अश्रुओं को उन्होंने रोकने का प्रयास किया, फिर भी प्रेम नेत्रों से उमड़कर बह ही गया।
प्रभु के भावमाधुर्य को देख देवदूत असमंजस में पड़ गया। उससे कुछ उत्तर देते नहीं बना। उसे चुप देखकर परमात्मा ने पुनः अपना प्रश्न दोहराया।
देवदूत के चेहरे पर गांभीर्य फैल गया। डरते-डरते बोला, ‘प्रभु! कृष्ण अवतार में जिस-जिस स्थान पर आपके पाँव पड़े, वहाँ की रज को मस्तक पर लगाकर आज भी भक्तजन धन्य महसूस करते हैं।’’
‘‘ओह! कितने सरल एवं भावप्रधान लोग हैं आर्यावर्त के। तभी तो अन्य सभी जगह मैंने धर्म की स्थापना के लिए मेरे प्रिय दूतों को भेजा लेकिन आर्यावर्त में तो कई बार स्वयं मैं ही अवतरित हुआ। भला ऐसे धर्म प्रेमी देश में ऐसा कौन-सा संकट आन पड़ा है कि तुम्हें मेरी सहायता की आवश्यकता पड़ गई ? ’’
‘‘प्रभु! निःसदेह आज भी धर्मपरायण लोग आपको याद करते हैं, लेकिन आपके सच्चे भक्तों की गिनती इन दिनों अंगुलियों पर रह गई है। आर्यावर्त आज वैसा नहीं है, जैसा उन युगों में था। वर्तमान में इसकी राजधानी दिल्ली है। यह शहर सम्पूर्ण देश के राजतंत्र का केन्द्र है। यहाँ व्यभिचार, लूटमार, कत्लेआम एवं भ्रष्टाचार आम बात हो गई है।’’
‘‘क्या तुम सत्य कह रहे हो ?’’ विस्मय से परम-पुरुष की आँखें फैल गई।
‘‘मैं बिल्कुल सत्य कह रहा हूँ प्रभु! आर्यावर्त की राजधानी में आज जीवन मूल्य ऐसे अंधकूप में जा गिरे हैं जहाँ उनका ढूंढना भी कठिन हो गया है। पैसा खुदा हो गया है। जिसके पास पैसा है, वही गुणी कहलाता है। सर्वत्र कमीशन एवं घूसखोरी की ज्वालाएं जल रही हैं। लूटमार कर लोगों में अपना-अपना घर भरने की अफरा-तफरी मची हुई है। कौए हंस की चाल चल रहे हैं। लोग गिद्धों की तरह मजबूर स्त्रियों पर नजर गड़ाये रहते हैं।’’ दूत एक सांस में अनेक बातें कह गया।
‘‘क्या आर्यावर्त के लोग वेद-पुराण-उपनिषद के उद्घोषों को भूल गए हैं ? क्या उन्हें स्मृति नहीं कि अपने आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर ही वे कभी विश्वगुरु थे ? क्या उन्हें भी समझाना होगा कि पाप-पथ नरक का द्वार है ? क्या वे इतना भी नहीं जानते कि सुख-संपत्ति बिना बुलाये, स्वाभाविक रूप से, धर्मात्मा के पास स्वतः चली आती है ? क्या उन्हें मेरे न्याय पर विश्वास नहीं रहा ?’’
‘‘उन्हें सिर्फ धन पर विश्वास है प्रभु! इतना ही नहीं, घर-घर में पारिवारिक परिवेदनाओं ने लोगों को नागपाश की तरह जकड़ लिया है। दंपती एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते। वे बंद कमरों में साथ-साथ तो सोते हैं, पर उनके संबंध बेरुह हो गये हैं। उनके हृदय में प्रेम के गीत नहीं उठते। एक ही परिवार के लोग एक दूसरे से वज्र की तरह कठोर शब्द बोलते हैं। सर्वत्र अमानत में खयानत है। पुत्र माता-पिता से भी धोखा करने लगे हैं। गुण-ग्राहकता समाप्त हो गई है। लोग हजार आँखों से दूसरों के दोष देखने लगे हैं। अधम एवं अभिमानियों की बन आई है। धर्म अंतिम श्वास लेते बूढ़े की तरह मृृतप्राय हो गया है। दिल्ली की दुर्दशा का और क्या बयान करूं प्रभु!’’
‘‘तो तुम ऐसे शहर पर अज़ाब नाज़िल क्यूँ नहीं करते? बिजलियाँ गिरा दो ऐसे शहर पर! क्या तुम नहीं जानते कि मैंने तुम्हें अनंत शक्तियों से नवाज़ा है? क्या लोग भूल गये हैं कि मैं विधर्मियों को कठोर दण्ड देता हूँ ? मेरा प्रेम जितना गहरा है, मेरा न्याय उतना ही कठोर।’’ कहते-कहते परम-पुरुष की आँखें लाल हो गई।
‘‘प्रभु! लेकिन वर्तमान में ऐसा करना आपके निर्देशों के विरुद्ध होगा।’’ दूत ने स्पष्टीकरण दिया।
‘कौन-सा निर्देश ?’’
‘‘प्रभु! स्मरण कीजिए, सदियों पहले जब आपसे किसी ने पूछा था कि अगर एक शहर में सौ पुण्यात्मा है तो आप क्या वहाँ बिजलियाँ गिराओगे? तब आपने अपने भक्तों एवं पुण्यात्माओं को अभय करते हुए कहा था कि जब तक किसी शहर में एक भी पुण्यात्मा होगा वहाँ मेरा कोप नहीं गिरेगा। आपका यही निर्देश मेरे मार्ग की बाधा बन गया है।’’
‘‘अभी-अभी तो तुम कह रहे थे कि वहाँ पुण्य अशेष हो गये हैं।’’
‘‘प्रभु! मेरा कथन सत्य है पर वहाँ एक सरकारी चपरासी है, जो प्रखर पुण्यात्मा है। वह कभी किसी को कष्ट नहीं देता। नियमानुसार सुबह-शाम आपका ध्यान करता है। मेहनत एवं ईमानदारी उसके हृदय में रची-बसी है। यही नहीं, आपके निर्देशानुसार वह अपनी आय का एक हिस्सा दान भी देता है। समाजसेवा एवं लोकोपकारी कार्यो में ही उसका समय व्यतीत होता है।’’ कहते-कहते देवदूत की आँखें भीग आयी।
‘‘फिर उस शहर पर तो तुम बिजलियाँ हरगिज नहीं गिराना। जब तक एक पुण्यात्मा भी किसी शहर में है, वहाँ मेरा अज़ाब नहीं गिर सकता। हर पुण्यात्मा को मेरा यह वादा है। लेकिन तुम उसका स्थानान्तरण करवाकर तो ऐसा कर सकते हो!’’
‘‘प्रभु! सरकार में अफसरों का स्थानान्तरण तो संभव है पर चपरासी को हिलाया भी नहीं जा सकता। सरकारी नियम इसकी अनुमति नहीं देते।’’
‘‘तो तुम उसे किसी से किडनेप करवाकर कुछ समय के लिए शहर के बाहर क्यों नहीं कर देते!’’
‘‘प्रभु! मैंने इस अस्त्र का भी प्रयोग कर लिया है, लेकिन आपका अज़ाब पुनः लौट आया। बिजलियाँ गिरने के पूर्व ही उनकी दिशा बदल गई।’’ देवदूत बोला।
‘‘वह कैसे ?’’ परमात्मा के चेहरे पर आश्चर्य फैल गया।
‘‘उस शहर के द्वार पर एक स्त्री ने उसे रोक लिया।’’
‘‘कौन है वह ? उस गुस्ताख को हमारी शक्तियों का जरा भी भय नहीं ?’’
‘‘आप ठीक कहते हैं प्रभु! उसे किसी का भय नहीं।’’
‘‘उसका नाम बयान करो।’’ परम-पुरुष रोष में भरकर बोले।
‘‘प्रभु! उसका नाम ‘आशा’’ है। वह कहती है जब तक मैं जिन्दा हूँ, पुण्य अशेष नहीं हो सकते। मैं घर-घर जाकर अलख जगाऊंगी, लोगों को पुण्य का महत्व बताऊंगी। अभी मेरे प्रयास समाप्त नहीं हुए। मैं लोगों की निराशा, अवसाद एवं अकारण भयों को दूर कर उनमें उम्मीदों की प्राणवायु भरूंगी। मैं पुनः धर्म का शंखनाद करूंगी। मेरे जीते जी अज़ाब नाज़िल नहीं हो सकता।’’
यह सुनते ही परम-पुरुष की ललाट पर त्रिवली खिंच गई, चेहरे पर गांभीर्य उतर आया।
‘‘वह ठीक कहती है दूत! पुण्यात्मा के न रहने पर भी अगर वहाँ आशा जिन्दा है तो वहाँ अज़ाब नहीं गिराया जा सकता। तुम लौटकर उसकी मदद करो। घर-घर में उसे सद्भावों का दीपक जलाने दो। जिस शहर में आशा का निवास है, जिस घर में उम्मीद जिंदा है, वहाँ मेरी आवश्यकता ही नहीं है। वे घर-शहर पुनः अपना निर्माण कर लेते हैं। आशा के हर अंकुरण में मैं अगोचर रूप में छुपा होता हूँ। इन बीजों के फूटते ही मैं स्वयं प्रगट हो जाता हूँ। दूत! तुम विश्वास रखो जिस व्यक्ति की, जिस शहर की, जिस देश की एवं जिस भूखण्ड की आशा जीवित है वह कभी मृत नहीं हो सकता। तुम निश्चिंत होकर चले जाओ। मनुष्य की आशा उस एक सूर्य किरण की तरह है जो समूचे संसार का अंधकार हर लेती है।’’
देवदूत की आँखें चमक उठी। आज उसने साक्षात् परम-पुरुष की आँखों में ‘आशा’’ के दर्शन किये। उसे समझ में आ गया कि आशा का जादू कितना विशाल है।
आशा जीजिविषा है, परमात्मा की मायावी शक्तियों का सबसे बड़ा रूप है।
आर्यावर्त का देवदूत पुनः अपने स्थान पर चला आया।
तभी परमात्मा अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए। उनके खड़े होते ही सभी देवदूतों ने खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया।
थोड़ी ही देर में परमात्मा वैकुण्ठ से प्रस्थान कर अन्य अज्ञात लोक में चले गए।
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25.04.2007