शहर के आयकर कार्यालय के बाहर एवं अंदर हंगामा मचा हुआ था।
जितने मुँह, उतनी बातें। जो सुनता, भौंचक्का रह जाता। लोगों को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता। हो सकता है खबर गलत हो, यह भी हो सकता है उन्होंने गलत सुन ली हो अथवा कहने वाला भी तो गलत हो सकता है। वे आगे बढ़कर किसी अन्य से समाचार की पुष्टि करते।
अंततः यह समाचार सही था। कुछ लोगों ने जब यहाँ तक कह दिया कि वे खुद आँखों से देखकर आ रहे है तो अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी थी।
यह कोई साधारण खबर नहीं थी। सहायक कमिश्नर पुरुषोत्तम माहेश्वरी रंगे हाथों रिश्वत लेते हुए पकड़े गए थे। क्या जनता क्या स्टाफ, सभी ने दांतों तले अंगुली दबा ली।
इस घटना के पहले पुरुषोत्तमजी के नाम का अर्थ एवं पर्याय था-‘ईमानदारी’। लोग उनके नाम की कसमें खाते। गत तीस वर्ष से आयकर विभाग में बेदाग कार्य करने का रिकार्ड था। पुरुषोत्तमजी की ईमानदारी के बारे में कभी कोई अन्यथा मजाक भी कर लेता तो सुनने वाला विश्वास नहीं करता। जनता ही नहीं उनके स्टाफ वाले भी दम ठोककर कहते, ‘‘धरती पाताल में समा सकती है, लेकिन पुरुषोत्तमजी का ईमान नहीं गिर सकता।’’ सारे महकमे में उनकी ईमानदारी असंदिग्ध थी।
फिर ऐसा कैसे हो गया? बहुधा देखा जाता है कि ईमानदार अधिकारी कानून की अव्यावहारिक पंक्तियाँ बताकर काम नहीं करते अथवा कानून का आईना बताकर लोगों को डराते-धमकाते रहते हैं। लेकिन यहाँ तो बात उल्टी थी। पुरुषोत्तमजी बढ़-चढ़ कर कार्य करते। यथा नाम तथा गुण के अनुरूप वे सचमुच पुरुषोत्तम थे।
बाहर खड़ी जनता एवं उनके अधीनस्थ कर्मचारियों में अब कानाफूसी होने लगी थी। उनके उच्चाधिकारी भी यह सब जानकर हैरान थे। लेकिन यह बात उतनी ही सत्य थी जितना आसमान पर उगा हुआ सूर्य।
पुरुषोत्तमजी की केबिन के बाहर एक कोने में खड़े चार आदमी जिनमें दो अधीनस्थ कर्मचारी एवं दो विभाग में आवश्यक कार्य से आये अन्य व्यक्ति थे, आपस में बतिया रहे थे।
‘‘कमाल हो गया! पुरुषोत्तमजी ने फकत पांच हजार में ईमान बेच दिया। वे तो आँख के इशारे से लाखों कमा सकते थे। शायद खाते भी हों। सच कहा है बहुत सयाना कौआ एक दिन विष्ठा में चोंच मारता है।’’ एक कर्मचारी बोला। अफसरों की तौहीन करने का अधिकार एवं अवसर कब-कब तो मिलता है।
‘‘यकीन नहीं आता, यार! यह तो हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और वाली बात हो गई। पुरुषोत्तमजी तो डेढ़ सयाणे निकले। उन-सा चतुर कौन होगा। खाता रहा एवं ईमानदारी का ढोल भी पीटता रहा। यह तो दोगला निकला।’’ दूसरे कर्मचारी ने सुर में सुर मिलाया।
‘‘कुछ लोग ईमानदारी का मुखौटा पहने रहते हैं। छुटपुट लोगों को मना कर देते हैं, लेकिन कुछ खास लोगों से लेते रहते हैं। उन लोगों से लेते समय फिर छोटी- बड़ी रकम का भेद नहीं देखते। हो सकता है यह किसी बड़ी रिश्वत का एडवांस हो।’’ दो में से एक व्यापारी बोला।
अब दूसरे व्यापारी की बारी थी, वह कौन-सा चुप रहने वाला था।
‘‘मुझे समझ नहीं आता, मैंने खुद मेरे सीए के मार्फत उन्हें अनेक बार लाखों रुपये देने की पेशकश की लेकिन उन्होंने हर बार विनम्रता से मना कर दिया। हमें क्या पता था उनकी औकात पाँच हजार की थी, अन्यथा छोटी रकम से सेंध लगाते। हम तो वाकई कच्चे निकले नहीं तो अब तक जाने कितने काम निकलवा लेते। दुनिया ठीक कहती है खाते सभी हैं पर सबके लटके-झटके ,स्टाइल अलग है। घर आई लक्ष्मी कोई छोड़ता है क्या? फिर पुरुषोत्तमजी ठहरे बनिये। वे तो पूर्ण श्रद्धा एवं आदर के साथ उन्हें ग्रहण करते हैं। बनिये को तो प्राण अथवा लक्ष्मी दोनों में से एक का चयन करना हो तो वह पहले प्राण छोड़ेगा।’’ कहते-कहते दूसरे व्यापारी ने जोर से अट्टहास किया।
ऐसी ही अनेक बातें अलग-अलग झुण्डों में बँटे लोगों के बीच हो रही थी। अब तक प्रेस वाले भी कैमरामेन के साथ पहुँच चुके थे। उनके लिए भी यह हाॅट खबर थी। पुरुषोत्तमजी के केबिन में एण्टीकरप्शन वाले आवश्यक कार्यवाही कर रहे थे। कुछ सिपाही भीतर एवं कुछ बाहर खड़े थे।
अभी कुछ समय पहले ही ठेकेदार रणजीतसिंह ने उन्हें भ्रष्टाचार निरोधक विभाग से ट्रेप करवाया था। रणजीत की फाइल कई दिनों से आयकर विभाग में अटकी थी। पुरुषोत्तमजी ने इस फाइल को जाँचा तो हैरान रह गये। भारी अनियमितताएं थी। ठेकेदार वर्षों से करवंचना कर रहा था। अब तक जाने कैसे बच गया। करोड़ों बकाया बन रहा था। वह लगातार विभाग को चूना लगाये जा रहा था।
कुछ दिन पहले उसकी पुरुषोत्तमजी से बात भी हुई थी, ‘‘सर! जैसे भी हो ले-देकर निपटा दीजिए। दुनिया जैसे चल रही है, उसे वैसे ही चलने दीजिए। हम ठेकेदार हैं। आप तो हुक्म कीजिए। बस मुँह खोल दें। शराब, शबाब अथवा जो भी रकम आप उचित समझें, इशारा कर दीजिए। लेट्स मेक बिजनिस। फाइल तो हमारी आपको सेटल करनी होगी।’’ उस दिन रणजीत ने सारे पत्ते एक साथ डाल दिए थे।
रणजीत की बात सुनते ही पुरुषोत्तमजी आग बबूला हो गये, ‘‘शायद तुम मुझेे जानते नहीं। मैं सरकार का नमक खाता हूँ। सरकारी वेतन से मेरा परिवार पलता है। अपने फ़र्ज एवं नमक के साथ मैं किसी कीमत पर गद्दारी नहीं कर सकता। नियमानुसार जो भी रकम हर्जाने के रूप में बनती है, तुम्हें जमा करवानी होगी। तुम्हें खुद इससे सुकून मिलेगा। तुम्हारी फाइल में इतनी विसंगतियां है कि मैं चाहता तो तुम्हारे विरुद्ध आपराधिक मामला भी दर्ज करवा सकता था लेकिन मेरी तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है। लोभ एवं लालच के वशीभूत लोग ऐसे कार्य कर लेते हैं जैसे कि तुमने किये हैं, लेकिन तुम अब भी हर्जाना देकर अपनी फाइल ठीक करवा सकते हो। जरा सोचो, अगर तुम्हारे जैसे सम्पन्न एवं सामर्थ्य वाले लोग इस तरह एवं इतनी चोरी करने लगे तो साधारण करदाताओं को क्या समझायेंगे? तुम्हारे आयकर से ही सड़कें बनती है, राष्ट्र के विकास कार्य होते हैं, स्कूल एवं अस्पताल खुलते हैं। इन सुविधाओं का धनी-गरीब हर वर्ग हिस्सेदार बनता है। इसी धन से सरकार निर्धनों एवं असहायों के लिए अनेक योजनाओं को अंजाम देती है। इसी धन से राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा होती है। क्या राष्ट्र के कमजोर वर्ग एवं सुरक्षा के प्रति तुम्हारा कोई दायित्व नहीं ? लोग तो अपने अर्थोपार्जन का एक हिस्सा जकात तक में दे देते हैं, तुम्हें अपनी आय से कर देने में क्या एतराज है?’’ कहते-कहते पुरुषोत्तमजी की आँखें लाल हो गई।
‘‘सर! मैं यहाँ उपदेश सुनने नहीं आया हूँ। रणजीत को भीख माँगने की आदत नहीं है। मैं जो करता हूँ, दम ठोककर करता हूँ। मुझे सारे पत्ते खेलने आते हैं।’’ कहते-कहते रणजीत ने मानो युद्ध का बिगुल बजा दिया।
उसकी बातें सुनकर पुरुषोत्तमजी सकते में आ गये। चोरी और सीनाजोरी। बोल तो ऐसे रहा है जैसे कर चोरी उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो। सरकारी अधिकारी तो बस घास खोद रहे हैं। इस बार उन्होंने मोर्चा संभाला, गंभीर होकर बोले, ‘‘बेहतर होगा तुम यहाँ से चले जाओ, तुम्हें घर पर नोटिस भेज दिया जायेगा।’’
‘‘सर! मैं आपको पुनः चेता रहा हूँ, फाइल तो आपको सेटल करनी होगी। ध्यान रखें, ठेकेदारों से उलझना ठीक नहीं है, हम कच्ची गोलियाँ नहीं खेलते हैं।’’ रणजीत ने चेतावनी के लहजे में कहा।
‘‘तुम अपना काम करो। हमें तुम जैसों से निपटना आता है।’’ कहते-कहते पुरुषोत्तमजी ने मानो आग में घी डाल दिया।
घायल बघेरे की तरह रणजीत पाँव पटकते हुए तेजी से चला गया। उसके विचारों की गणित इससे भी तीव्र गति से चल रही थी।
उसी रणजीत ने आज उन्हें एक विश्वासपात्र सेवक द्वारा ट्रेप करवाया था। आज सुबह जब पुरुषोत्तमजी केबिन में आकर बैठे, रणजीत के सेवक ने उन्हें एक लिफ़ाफ़ा देते हुए कहा, ‘‘मेरे बाॅस ने यह पत्र आपके लिए भेजा है।’’
पुरुषोत्तमजी आज जाने किस उधेड़बुन में थे, इतना भी नहीं पूछा किसने भेजा है। ईमानदार व्यक्ति के हृदय में संशय होता भी नहीं। बहुधा हम लोगों को वैसा ही समझने की गलती कर बैठते है, जैसे हम हैं। हमें हमारे ही चश्मे से देखने की आदत पड़ जाती है। ईमानदार व्यक्ति स्वाभाविक रूप से लापरवाह हो जाते हैं।
उन्होंने पत्र खोलकर अंदर से जो कुछ निकाला तो हक्का-बक्का रह गये। उनके हाथ में एक-एक हजार के पांच नोट थे। वे कुछ कहते तब तक भ्रष्टाचार निरोधक दस्ता भीतर घुस चुका था। वे रंगे हाथों पकड़े गये।
पुरुषोत्तमजी के ऊपर की सांस ऊपर एवं नीचे की नीचे रह गई। चेहरा उतर गया। घटना इतनी अप्रत्याशित थी कि उनकी बोलती बंद हो गई। शब्द गले में अटक गये। वे कुर्सी से चिपक गये। उनका बदरंग चेहरा उनकी बर्बादी बयां करने लगा था। जैसे राहू चन्द्रमा का अमृत पीकर ही शांत होता है, दुष्ट ठेकेदार पुरुषोत्तमजी की छाती में कील गाड़कर ही तुष्ट हुआ।
दुनियाँ में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपने नाखून के लिए दूसरों का गला काट लेते हैं।
आज बाज ने एक निर्दोष कबूतर को झपट लिया था।
अब तक लोग इकट्ठा होने लगे थे। सभी दूर खड़े पुरुषोत्तमजी को आश्चर्य से देख रहे थे। उनकी दशा ऐसी थी जैसे किसी व्यापारी ने अपना मूलधन गंवा दिया हो। कुम्हलाये चेहरे को देखकर लगता था जैसे अपमान के अथाह गड्ढे में गिर पड़े हों।
गैरतमंद आदमी की गैरत चली जाये तो फिर क्या शेष रह जाता है?
दूसरे दिन प्रेस ने इस खबर को मुखपृष्ठ पर छापा। जीवन भर सर ऊँचा करके जीने वाले पुरुषोत्तमजी के चेहरे पर कालिख पुत गई। वर्षों की कमाई इज्जत क्षण भर में धूल में मिल गई। जमानत मिलने से फिलहाल छूट तो गये, लेकिन घर से निकलना दूभर हो गया। वे जनता और स्टाफ की नजरों में ही नहीं, पत्नी, बच्चों एवं यहांँ तक कि खुद की नजरों में गिर गये। मन बेचैन रहने लगा, रातों की नींद उड़ गई।
जीवन की इतनी घोर प्रवंचना किसे शांत रहने देगी?
इस घटना को एक माह होने को आया लेकिन पुरुषोत्तमजी का मन अशांत ही रहा। घर में मानो विपत्ति एवं विषाद ने डेरा डाल दिया। रातें कालरात्रि की तरह डरावनी हो गई। उनका वजन गिर गया, खून सूखने लगा एवं चेहरे की कांति फीकी पड़ गई।
दुःख के समुद्र में डूबा एवं दुर्देव का मारा हुआ इंसान कहे भी तो किसे? उसकी कुढ़न, घुटन एवं क्लांत मन आश्रय के लिए पत्नी की ओर ही तकता है। आज रात पत्नी को कह रहे थे, ‘‘निकिता! मैं तो कहीं का नहीं रहा। क्या मैं यह कालिख मिटा पाऊँगा? मैंने ऐसे कौन से पाप किए जिसकी ईश्वर ने यह सजा दी? क्या ईश्वर मनुष्य की नेकियों, सत्कर्मों एवं ईमानदारी का यही सिला देता है? मैंने रिश्वत ली होती तो मैं स्वयं को मना लेता लेकिन यह सजा तो मैं रिश्वत न लेने की भुगत रहा हूँ। जीवन में ऐसे कठोर दिन आएंगे, ऐसी तो कल्पना भी न की थी। क्या मनुष्य को वह पाप भी भुगतने पड़ जाते हैं जो उसने कभी नहीं किए? यह सब इन्हीं आँखों के आगे हुआ पर अभागे शरीर ने प्राण नहीं छोड़े। काश ! मैं पेशी होने से पहले ही मर जाऊँ।’’ कहते-कहते पुरुषोत्तमजी बच्चे की तरह सुबक पड़े। निकिता ने उन्हें संभाला। चेहरे से आँसू पोंछते हुए बोली, ‘‘विश्वास रखो, उसके घर देर है अंधेर नहीं। दुर्भाग्य से हमारे परिवार पर यह वज्र आन पड़ा है। आप हौसला रखें, सब ठीक हो जायेगा।’’
‘‘अब क्या ठीक हो जायेगा निकिता! मैंने इतना भी नहीं सोचा कि इस तरह लिफाफा हाथ में लेना प्राणघाती बन सकता है। अक्ल घास चरने चली गई। इतना तो पूछ सकता था तुम्हारे बाॅस कौन हैै? बुद्धि विपरीत हो गई।’’ कहते-कहते वे विह्वल हो उठे, हृदय में हाहाकार मच गया, दिल से प्रभु को पुकारने लगे, ‘‘प्रभु! मुझ पर रहम कर ! मैं सब कुछ सह सकता हूँ पर इस कलंक का बोझ मुझसे नहीं उठ सकेगा। यह तेरा कैसा इंसाफ है?
भाग (2)
भरत जब सारथी के साथ अयोध्या पहुँचे तो सारे नगर में भयानक चुप्पी पसरी थी। अनुज शत्रुघ्न उनके समीप ही बैठे थे। राजमार्ग पर सर्वत्र श्मशान की तरह सन्नाटे साँय-साँय कर रहे थे। घोड़ों की टापों अथवा कभी-कभी बोलने वाले कौओं की आवाज को छोड़कर सर्वत्र शांति थी। नगरजन ही नहीं पशु, पक्षी, वन, बाग तक शोभाहीन लग रहे थे।
उनका रथ तेज गति से राजपथ पर चल रहा था। नगरजन उन्हें देखकर सिर नीचे कर लेते। ऐसा लग रहा था मानो नगर पर विद्युतपात हुआ हो। सभी के चेहरों की दशा ऐसी थी जैसे कोई दुर्दांत राक्षस सारा धन छीन ले गया हो।
भरत का मन असंख्य आशंकाओं से भर उठा। उन्होंने तुरंत आकलन कर लिया कि कोई भारी अनर्थकारी घटना घट चुकी है।
महल पहुँचकर उन्होंने अपने विश्वासपात्र सेवक को बुलाया। उसने बताया कि माता कैकेयी के दो वर माँगने की वजह से यह अनर्थ हुआ है तो वे सहम गये। उन्हें जब पता चला कि देवतुल्य अग्रज राम, अनुज लक्ष्मण एवं भाभी जानकी के साथ वनगमन कर चुके हैं तथा पिता दशरथ का इसी दुःख में निधन हो गया है तो उनके कानों में शीशा पिघल गया। चेहरे की दशा ऐसी हो गई जैसे कमलों के वन को पाला मार गया हो।
भरत स्वाभाविक रूप से सच्चे एवं सरलमना व्यक्ति थे। उन्होंने स्वप्न में भी न सोचा था कि उनके कारण ऐसा अनर्थ होगा। उनके सारे अंग शिथिल हो गये, हृदय भयानक संताप से जलने लगा।
प्रतिष्ठित एवं सच्चे व्यक्ति के लिए कलंक मृत्युतुल्य होता है।
अब उन्हें समझ में आया कि नगरजन उन्हें देखकर क्यूँ मुँह फेर रहे थे। इससे भी अधिक चिंता उन्हें इस बात की थी कि गुरुजन, प्रियजन, माता कौशल्या एवं स्वयं अग्रज राम ने यह अवश्य सोचा होगा कि यह दुष्ट भरत की कूटनीति है। उनका सोचना उचित भी है। मैं कैसे इन सबको सिद्ध करूँगा कि मैं निर्दोष हूँ, निरपराध हूँ। क्या मैं इन सबको मुँंह दिखा सकूँगा? न जाने कौन-से पाप किये थे जिनका ऐसा कठोर फल मिला। मैं अकारण कुलघाती, अपयश का भागी एवं प्रियजनों का द्रोही हो गया। तीनों लोकों में आज मुझसे अधिक अभागा कौन है? हे ईश्वर! मैं किस-किस को जाकर समझाऊँगा, मैं कितना हतभाग्य हूँ! उन्हें लगा जैसे अपमान के विषैले बाण चहुँ ओर से उन पर आघात कर रहे हैं। ओह, मेरी यह दशा मेरी ही माँ कैकेयी के द्वारा हुई। माँ तो सुख की गंगोत्री होती है, पुत्र-यश में वृद्धि करती है, लेकिन यहाँ तो सब उल्टा हो गया।
वे माँ कैकेयी के पास आये तब उनका चेहरा लाल एवं आँखें अंगारे बरसा रही थी। उसे देखते ही भभक पड़े, ‘‘माँ तुमने यह क्या कर दिया? पापिनी! तुमने सभी तरह से कुल का नाश कर डाला। माँ होकर भी मुझे अपयश का पात्र बना दिया। इससे तो अच्छा होता पैदा होते ही मुझे मार डालती। तुम्हारे हृदय में ऐसा बुरा निश्चय आया कैसे? वचन मांगते हुए तुम्हारी जीभ गल क्यों नहीं गई? राजा ने तुम्हारा विश्वास कैसे कर लिया? तुमने अपने ही पुत्र को नगरजनों, प्रियजनों एवं राम का विरोधी घोषित कर दिया। राम तो जनता के प्राण हैं। क्या इतना जनविद्रोह मैं सहन कर सकूँगा? क्या तुम्हारा पुत्र यह कलंक धो सकेगा?’’ कहते-कहते क्रोध से उनके सारे अंग जल उठे।
इसके पश्चात् वे सीधे माता कौशल्या के पास आये। चरण छूकर उनके समीप ऐसे खड़े हो गये जैसे ब्रह्महत्या का अपराधी खड़ा हो। क्या कौशल्या उन्हें क्षमा करेंगी? ऐसी कौन-सी माँ है जो अपने प्राण प्रिय पुत्र के वनगमन एवं नवोढ़ा पुत्रवधू के बिछोह एवं कष्टों का कारण बनने वाले दुष्ट को क्षमा कर दें। वे बिलखकर कौशल्या के चरणों में गिर पड़े, ‘‘माँ! मैं निर्दोष हूँ। तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मुझे इस योजना का किंचित भान नहीं था। बिना कारण मेरे मत्थे चढे़ इस पाप का मैं क्या प्रायश्चित करूँ? मैंने नीति शास्त्र में पढ़ा है कि माता, पिता एवं पुत्र के हत्यारे कठोर पाप भाजक होते हैं। मैंने यह भी सुना है कि नगर जलाने वाले, स्त्री एवं बालक की हत्या करने वालों के पाप सर चढ़कर बोलता है। मैं यह भी जानता हूँ कि विद्वद्जनों, मित्रों एवं निर्धनों का उपहास करने वाला दुर्दांत पाप का भागी होता है। अधर्म पर चलने वाले, चुगलखोर, कपटी, कुटिल, कलहप्रिय, लोभी, क्रोधी, अभिमानी एवं धर्मशास्त्रों की निंदा करने वालों को भी उनका पाप नहीं छोड़ता। वह परछाई की तरह उनका पीछा करता है। इसके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक पाप हैं जो मनुष्य मन, वचन , कर्म से करता है एवं जिनका दुष्परिणाम वह समय-समय पर भोगता है। हे माँ, मुझे यह सारे पाप एक साथ लग जाएँ अगर इस अनर्थ में मेरी जरा भी सम्मति हो।’’
विह्वल कौशल्या ने उठाकर उन्हें गले से लगा लिया, अंक में भरकर बोली, ‘‘चन्द्रमा अमृत की बजाय विष बरसा सकता है, असंभव संभव हो सकता है मगर तुम राम के प्रतिकूल नहीं हो सकते।’’
कौशल्या के शब्दों ने उनके घायल मन पर मरहम लगाया। उनसे विदा लेकर वे सीधे गुरु वशिष्ठ के पास आए। उनकी आँखों में आँसू उमड़ रहे थे, चेहरे का रंग उड़ चुका था। गुरु के चरणों में प्रणाम कर बोले, ‘‘गुरुदेव मेरे भाग्य का उत्कर्ष तो देखो कि मैंने सूर्यवंश में जन्म लिया, ऐसा वंश जिनकी पीढ़ियों का गुणगान सारा जगत करता है। दशरथ जैसे प्रतापी राजा मेरे पिता हुए, राम-लक्ष्मण जैसे देवतुल्य भ्राताओं से ईश्वर ने मुझे नवाजा फिर यह विडंबना कैसे हो गई? कैकेयी मेरी माँ क्यों हो गई? उनकी दशा देखकर वशिष्ठ ने उन्हें समझाया, ‘‘भरत! भावी प्रबल है। मनुष्य का अधिकार कर्ममात्र में है। उसकी स्वतंत्रता, स्वायत्तता एवं चयन कर्म करने तक ही है। फल तो मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार मिलते हैं, प्रारब्ध जिसे कोई और लिखता है, जो हमारे जन्म-जन्मांतरों के पाप-पुण्यों के आधार पर बनता है। मनुष्य यहाँ जन्म-जन्मान्तर के पाप भोगता है। हानि, लाभ, जीवन, मृत्यु, यश , अपयश सभी विधाता के हाथ हैं, मनुष्य का इन पर कोई वश नहीं। भाग्य के इन आरोह-अवरोह को कौन समझ सकता है?’’ यह समझाते हुए उन्होंने भरत को पिता का अंतिम संस्कार करने का निर्देश दिया।
पिता का दाह संस्कार कर वे नगरजनों, गुरुजनों एवं प्रियजनों के साथ राम के पास आए। कदाचित राम के क्षमा करने एवं पुनः अयोध्या चलने से उनका कलंक मिट जाए लेकिन राम ने उन्हें यही कहा, ‘‘हमारे पिता ने वचन पालन करने के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। क्या अब हम उनके वचन तोड़कर उन्हें छोटा करें? प्रजा राजा की अनुगामिनी होती है, अगर राजाओं के ही वचन टूटने लग गये तो आम आदमी के लिए तो एक दूसरे को वचन देने का कोई अभिप्राय ही नहीं रह जायेगा। तुम व्यर्थ ही इतना शोक कर रहे हो। राम भरत पर अविश्वास कर ही नहीं सकता। भरत नाम है सच्चाई, सरलता एवं ईमानदारी का। तीनों लोकों में तुम-सा बड़भागी पुण्यात्मा नहीं मिल सकता। निःसंदेह आने वाली पीढ़ियाँ तुम्हारी सच्चाई एवं ईमानदारी की दुहाई देंगी। मैं शिव को साक्षी रखकर कहता हूँ कि यह पृथ्वी तुम जैसे सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार लोगों के कारण ही अपनी धुरी पर ठहरी है। तुम्हारे जैसे पुण्यात्मा पृथ्वी का शृंगार हैं।’’
प्रभु श्री राम के स्नेह सरोवर में डुबोये अमृत वचन सुनकर भरत का क्लांत मन शांत हुआ। सचमुच इस जगत में ऐसा कौन है जो जीवन के किसी मोड़ पर अकारण अपयश का पात्र नहीं बना, लेकिन इंसान का मन अगर निर्मल है, प्रयासों में ईमानदारी है तो उसका अपयश कितने दिन ठहर सकता है? कुहरा चन्द्रमा को कब तक ढक सकता है?
प्रभु श्री राम की पादुकाओं को सिर पर रखकर भरत अयोध्या लौट आए।
भाग (3)
अदालत खचाखच भरी थी। इससे भी अधिक भीड़ अदालत के बाहर थी। पुरुषोत्तमजी जानते थे कि भ्रष्टाचार निरोधक विभाग वाले हर संभव उन्हें अपराधी सिद्ध करने का प्रयास करेंगे। सरकारी वकील प्रश्नों के ढेर लगा देंगे। मेरी बेगुनाही का मैं क्या प्रमाण दूँगा?
कुछ समय पूर्व जब वे घर से रवाना हुए तो उनके मन-मस्तिष्क में ऊल-जलूल कल्पनाओं एवं आशंकाओं का बवण्डर घूमने लगा था। पूरे मार्ग यही सोच रहे थे कि आज कोर्ट में बुरी गत होगी। कोर्ट के नजदीक आते-आते उनकी हालत और खराब होने लगी थी। रणजीत राक्षस की तरह अट्टहास कर उनके हौसले को पस्त करने लगा था।
पुच्छल तारा ज्यों-ज्यों बढ़ता है जगत में विनाश की आशंका बढ़ जाती है। उनकी कल्पनाओं का पुच्छल तारा इसी प्रकार उनके हताश मन के आकाश पर फैलने लगा था। बार-बार स्वयं की लापरवाही एवं विधाता की करनी को कोस रहे थे। प्रभु! यह तुमने कैसा विपत्ति का बीज बो दिया। उनके पैर डगमगा रहे थे। दशा ऐसी थी जैसे पिंजरे से छूटा हुआ कबूतर बिल्ली के सामने आन पड़ा हो।
वे अदालत नहीं साक्षात यम की दाढ़ में जा रहे थे। उनकी आशाओं के सारे दीप बुझ चुके थे। मात्र एक अंतरज्योति ही उनके अंधेरे कोने में उन्हें साहस दे रही थी – यह गुनाह मैंने नहीं किया है।
नियत समय पर अदालत प्रारंभ हुई। सबकी नजरें रह-रहकर पुरुषोत्तमजी पर टिक जाती थी। प्रभुनाम का अवलंब लिए पुरुषोत्तमजी चुपचाप बैठे थे। त्वचा जल रही थी, शरीर कांप रहा था। एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था।
जिरह प्रारंभ हुई। सरकारी वकील ने अपने तर्क रखे, भ्रष्टाचार विभाग ने अपनी बात कही। सारे साक्ष्य पेश किए गए। हर साक्ष्य दमदार था। पुरुषोत्तमजी को एक-एक साक्ष्य उनकी अरथी के सामान की तरह लग रहा था। उनके वकील ने भी उनका पक्ष रखा लेकिन उसके तर्क एवं पलड़ा कमजोर दिखने लगा था। कुल मिलाकर केस का दारोमदार रणजीत एवं उसके सेवक की गवाही पर टिका था।
रणजीत जब गवाह के कटघरे में आया तो पुरुषोत्तमजी उसे ऐसे देख रहे थे जैसे फाँसी के तख्ते पर खड़ा अपराधी जल्लाद की ओर देखता है।
रणजीत ने बोलना प्रारंभ किया तो उसकी बात सुनकर सभी हैरान रह गये। भीड़ चित्रलिखे से उसको देखती रह गई। वह कह रहा था, ‘‘जज साहब! मनुष्य क्या सोचता है एवं क्या हो जाता है। कभी-कभी परिस्थितियाँ मनुष्य के सारे अहंकार को क्षणमात्र में ध्वस्त कर देती है। मैंने भी यही सोचा था कि मेरी गवाही के बाद पुरुषोत्तमजी का जेल जाना तय है। उनकी सारी हेकड़ी एवं ईमानदारी पस्त हो जाएगी। लेकिन मेरा सोच भ्रामक सिद्ध हुआ। कोई है जो इस संसार को चलाता है। वस्तुतः इस घटना के बाद मैं एक दिन भी शांति से नहीं सो पाया। उनका खून मेरी आत्मा पर चढ़ गया। दिन-रात मेरी आत्मा मुझसे प्रश्न करने लगी, नराधम! क्या एक ईमानदार आदमी को झूठी सजा दिलवाकर तुम चैन से सो सकोगे? इतना ही नहीं इस घटना के बाद मेरे एक मात्र पुत्र को मस्तिष्क ज्वर हो गया। अभी वह अस्पताल में अंतिम श्वासें गिन रहा है। मैं सीधे अस्पताल से आ रहा हूँ। मैं वहाँ से चला तब मेरी पत्नी बिलख कर कह रही थी, आज कोर्ट में आप झूठ नहीं बोलेंगे।
कोर्ट में निस्तब्धता छा चुकी थी। रणजीत कहे जा रहा था, ‘‘मुझ पर आसमान गिर जाए, पाताल के गर्त में जाना पड़ जाए अथवा सारी उम्र जेल में सडूँ पर सच्चाई यही है कि मैंने पुरुषोत्तमजी को झूठा फँसाया है। मेरे काम के लिए मना करने एवं पेनेल्टी जमा करने के लिए बाध्य करने के पश्चात् मेरा मन प्रतिशोध से भर उठा। मैंने उन्हें अपने सेवक के मार्फत फँसा तो दिया लेकिन यह भूल गया कि एक कचहरी आसमान में भी है जहाँ से इंसाफ खुदा के नूर के साथ उतरता है, जहाँ हर व्यक्ति को उसके कर्मों का सिला मिलता है। देर से ही सही, लेकिन वहाँ से न्याय मिलता अवश्य है। वह रहीम है, शरणागतवत्सल है लेकिन साथ ही एक कठोर न्यायाधीश भी। ईमान वालों पर उसकी रहमत बरसती है तो बेईमानों पर उसका अज़ाब। यह आकाश ईमान के अदृश्य खंभों पर ही खड़ा है। अब मेरी आँखों से धुंध छँट गई है। मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि पुरुषोत्तमजी जैसे लोग समाज के नगीने हैं, राष्ट्र के गौरव हैं। ईमान के ऐसे ही दीये मनुष्यता को आलोकित करते हैं।’’ कहते-कहते रणजीत कटघरे में ही बिलख पड़ा। उसका चेहरा प्रायश्चित के आँसुओं से नहा गया। रणजीत के सेवक ने कटघरे में आकर उसके तथ्यों की पुष्टि की।
अदालत में सभी मंत्रमुग्ध थे। पुरुषोत्तमजी की दशा ऐसी थी मानो मुर्दे को प्राण मिल गए हों।
विद्वान् न्यायाधीश ने न सिर्फ पुरुषोत्तमजी के पक्ष में निर्णय दिया, विभाग से उन्हें पदोन्नत करने एवं सरकार से पुरस्कृत करने की भी अनुशंसा की। सुख का सूर्य अब दुख के बादलों को फाड़कर आसमान की छाती पर चमक रहा था।
अदालत से बाहर आते ही लोगों ने उन्हें फूलमालाओं से लाद दिया। विभाग के कर्मचारियों ने उन्हें कंधे पर बिठा लिया।
आज एक बार फिर सत्य की जीत हुई।
आज फिर कोई प्रभुकृपा की पाँवरिया मस्तक पर रखकर अपने घर लौट रहा था। आज फिर किसी की आँखों में आँसू एवं हृदय में ईमान का समुद्र छलछला रहा था- ठीक वैसे ही जैसे कभी भरत अयोध्या लौटे थे – अपने अक्षुण्ण यश के साथ।
…………………………………
10.10.2007