बहुत पुरानी कहानी है। हजार साल से भी पुरानी, संभव है इससे भी अधिक पुरानी हो।
न राजा का नाम पता है, न देश का। हाँ, यह बात तय है कहानी प्राचीन आर्यावर्त क्षेत्र के किसी देश की है।
मेरी नानी मुझे सुनाया करती थी।
तब किसी देश में एक राजा राज्य करता था। राजा नितांत न्यायप्रिय, देशभक्त एवं प्रजावत्सल था। उस राजा के इंसाफ के किस्से दूर-दूर तक सुनाये जाते। राजा इतना इंसाफपरस्त था कि वह अपने सेनापति, राजसेवकों आदि को अक्सर कहता कि जिस तरह घोड़ा लगाम से एवं हाथी अंकुश से नियंत्रित होता है, अपराधी दण्ड से नियंत्रित होते हैं। प्रजा को उद्दण्डता से बचाने तथा दुष्टों के दमन हेतु दण्ड अपरिहार्य है। वह तो यहाँ तक कहता कि अगर दण्ड व्यवस्था लचर हो तो उससे उपजी अव्यवस्थाओं का आधा पाप राजा स्वयं भोगता है। न्याय हर एक को मिले एवं हर हाल में मिले, यही उस राजा का उसूल था। राजा न्यायप्रिय होने के साथ-साथ प्रजारंजक भी था। वह प्रजा के दुःख को अपना दुःख समझता एवं हर समय इसी धुन में रहता कि प्रजा अधिक सुखी किस तरह हो सकती है। कहते हैं राजा एक बार घोड़े पर बैठकर शिकार खेलने गया तो राह में एक किसान का बच्चा घोड़े के नीचे आ गया। राजा बच्चे को लेकर उल्टे पाँव नगर लौट आया, राजवैद्य से इलाज करवाया एवं उसके ठीक होने तक पूरे पाँच दिन अन्न का दाना तक नहीं लिया।
ऐसे न्यायप्रिय राजा को उसकी प्रजा भी हृदय से आदर देती थी। ऐसे धर्मनिष्ठ राजा एवं प्रजा के चलते उस देश में वर्षा समय पर होती थी, अनाज रसयुक्त होते थे एवं वहाँ अकाल मृत्यु सुनने में नहीं आती थी। वह देश मानो दैहिक, दैविक, भौतिक सभी व्याधियों से मुक्त था। आकाश के अगोचर देव उस देश के चारों ओर निवास कर उस देश की हर तरह से रक्षा करते थे।
इसी देश में दो मित्र निवास करते थे जिनकी बचपन से गाढ़ी मित्रता थी। दोनों एक दूसरे पर जान देते। दोनों एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं पाते। दोनों हमउम्र युवा थे एवं इनमें से एक दूसरे से एक वर्ष बड़ा था। बड़े का नाम ‘अरिष्टकेतु’ एवं छोटे का ‘सुमंत’ था। दोनों एक मोहल्ले में पैदा हुए, दोनों के माता-पिता की आर्थिक स्थिति भी तकरीबन एक-सी थी, दोनों के घर विपन्न थे, दोनों गुरुकुल में भी साथ रहे एवं विवाह होने तक बहुधा साथ देखे जाते। प्राणों के बिना तन की जो अवस्था होती है वही दोनों की एक-दूसरे के बिना होती।
विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् दोनों की नियति उन्हें भिन्न मार्गाें पर ले गई। भाग्य की दिशा तो मनुष्य का कर्म, सोच एवं पूर्व पुण्याई तय करती है। संयोग कुछ ऐसा हुआ कि सुमंत दिन-दिन आगे बढ़ता गया, चंद समय में ही उसका व्यवसाय चहुँ ओर फैल गया यहाँ तक कि व्यावसायिक जगत में उसके नाम की तूती बोलने लगी। उसके नाम की प्रतिष्ठा उतनी अधिक थी कि व्यवसायी उसकी लिखी हुण्डियों को स्वर्णमुद्राओं के समकक्ष मानने लगे। इससे ठीक विपरीत अरिष्टकेतु के सितारे तमाम प्रयासों के बावजूद गर्दिश में चले गए। वह जिस व्यवसाय में हाथ डालता उसी में नुकसान होता एवं इसी के चलते वह दिन-दिन वैसे ही सूखने लगा जैसे अकाल में नदी-तालाब सूख जाते हैं। उसकी दशा भी ऐसे ही तालाबों की उन मछलियों की तरह हो गई जो भावी की आशंका से दिन-रात तड़पती रहती है। सुमंत ने उसे अनेक बार सहयोग का प्रस्ताव भी किया, पर अरिष्टकेतु अभिमानी था, सुमंत से सहयोग लेना उसे गवारा न हुआ।
इसी दरम्यान अच्छे कारोबार के चलते सुमंत सपरिवार किसी बड़े जनपद में जाकर बस गया। यह जनपद उसके नगर से सौ कोस पर था। यहाँ आकर सुमंत के पौ-बारह हो गए। बड़े जनपद में माल की बिक्री कई गुना होने से उसकी व्यावसायिक बुलंदिया आसमान छूने लगी। उसका सिक्का चलने लगा तथा विपन्नता बीते दिनों की बात बन गई। नये जनपद पर आने के तीन वर्ष पश्चात् सुमंत के माता-पिता का निधन हो गया एवं उसे हरकारों से पता चला कि अरिष्टकेतु के माता-पिता भी कुछ समय पूर्व स्वर्गलोक सिधार गए हैं। बादलों में चमकने वाली बिजली की तरह अरिष्टकेतु की स्मृति यदा-कदा उसके मनःपटल पर कौंधती लेकिन व्यावसायिक व्यस्तता के चलते धीरे-धीरे इस स्मृति का भी लोप हो गया।
काल का महानद कब रुका है। इस बात को भी दस वर्ष होने को आए। इन्हीं दिनों सुमंत एक बार अपनी ऊँची गद्दीदार पेढ़ी पर बैठा था कि एक फटेहाल भिखारी उसके समीप आया एवं वहीं आकर खड़ा हो गया। कृशकाय शरीर, सूखे होठ तथा दीन आँखों से वह साक्षात् विपन्नता का कंकाल लगता था। असहज सुमंत ने तिजोरी से कुछ निकाला एवं उसे दे ही रहा था कि यकायक चौंका। उसकी आँखें फटी रह गई। एक मित्र ने दूसरे मित्र को पहचानने में कोई भूल नहीं की। सुमंत उठा एवं अरिष्टकेतु को गले लगा लिया। हर्ष पुलकित उसकी आँखें भर आई। हृदय प्रेम, आनंद एवं श्रद्धा से भर गया। संयत हुआ तो बोला, ‘‘मित्र! तुम्हारी यह दशा कैसे हो गई ? ऐसी विकट परिस्थिति में तुम मेरे पास चले क्यों नहीं आए ?’’ कहते-कहते सुमंत की आँखों से गंगा-जमुना बह गई।
‘‘सब भाग्य का खेल है मित्र! तुम्हारे नगर छोड़ने तक मुझे लगा मैं स्वयं को पुनर्स्थापित कर लूंगा। मैनें कुछ अन्य कारोबार भी किए, लेकिन उनमें भी सफलता नहीं मिली। अब हिम्मत जवाब दे गई है। मेरे ऊपर बहुत कर्जा हो चला है एवं लोग मुझ पर विश्वास नहीं करते। तुम्हारी भाभी एवं बच्चे अत्यंत विषम परिस्थितियों में जीवन जी रहे हैं।’’ कहते-कहते अरिष्टकेतु का गला भर आया।
‘‘तुम चिंता न करो मित्र! उन सबको मैं चुकता कर दूंगा। मैंने यहाँ इतना धन कमाया है कि सात पीढ़ियों के लिए पर्याप्त है। अब मेरा इस जनपद से भी मन भर गया है। पुराने नगर की याद दिन-रात सालती है। तुमने आकर उन स्मृतियों को पुनर्जीवित कर दिया है। गत कुछ समय से इधर का व्यवसाय बंद कर अपने नगर लौटने की भी सोच रहा हूँ। तुम्हारी भाभी एवं बच्चों की भी यही मंशा है। अब तुम आ गए हो तो इस योजना को त्वरित अंजाम दूँगा। अपना नगर अपना नगर होता है।’’ कहते-कहते सुमंत की श्वासों में मिट्टी की गंध महक उठी।
कुछ ही माह में कारोबार समेटकर दोनों मित्र पुराने नगर में आ गए एवं मिलकर वहीं कारोबार करने लगे। सुमंत के सहयोग से अरिष्टकेतु की न सिर्फ पुरानी प्रतिष्ठा लौट आई, उसका व्यवसाय भी दिन दूना बढ़ने लगा।
भाग्य, भावी एवं भवितव्यता प्रबल है।
इस संसार में कौन है जिसे चिंता रूपी सर्पिनी ने नहीं खाया ? मोह ने किसे मतिभ्रम नहीं किया ? डाह ने किसे नहीं डसा ?
अरिष्टकेतु वैसे तो सुमंत का उपकार मानता था, परन्तु उसकी समृद्धि एवं संपर्कों को देख अनेक बार ईर्ष्या से दग्ध हो उठता। सुमंत की बढ़ती उसकी आँखों में खटकने लगती। यह ईर्ष्या अनेक बार इतनी गहन होती कि अरिष्टकेतु कल्पनाओं में मित्र का अरिष्ट तक सोचने लगता। व्यक्ति जब नकारात्मक विचारों से घिर जाता है तो स्वयं का विकास उसका लक्ष्य नहीं होता वह तो ‘भाई भले ही मरे, भाभी विधवा होनी चाहिए’ की तर्ज पर दूसरे का सम्पूर्ण विनाश सोच लेता है। नगर के प्रतिष्ठित व्यवसायी, समाजसेवी, राजसेवक बहुधा सुमंत के घर आते। वह अनेक समारोह में मुख्य अतिथि बन कर जाता यहाँ तक कि नगर के अनेक उत्सवों तक में नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की पंक्ति में होता। सुमंत उदार था। वह अर्जन के साथ विसर्जन की महत्ता भलीभांति समझता था। फल देने वाला वृक्ष किसे प्रिय नहीं होता। अरिष्टकेतु को यह कतई नहीं सुहाता कि उसकी दशा उसी के साथ पले-बढ़े मित्र के सामने ऐसी हो। इन्हीं विचारों के चलते अरिष्टकेतु के मस्तिष्क में एक भयानक योजना ने मूर्तरूप ले लिया।
एक बार अरिष्टकेतु सुमंत को नगर परकोटे से कुछ दूर घूमने के बहाने ले गया। दोनों बचपन में अक्सर यहाँ आते थे। बातें करते-करते सुमंत बचपन की स्मृतियों में खो गया एवं उसी समय अरिष्टकेतु ने कटार घोंपकर सुमंत का वध कर दिया। मरते-मरते सुमंत ने क्षणभर के लिए अरिष्टकेतु को देखा एवं फिर यह सोचकर आँखें मूंद ली कि अब दुनिया में देखने लायक क्या रह गया है ? अरिष्टकेतु ने बड़ी चतुराई से उसका शव वहीं गाड़ दिया एवं नगर आकर विलाप करते हुए सबको बताया कि सुमंत को एक चीता उठाकर ले गया। वह बहुत दूर उसके पीछे भागा, लेकिन चीता घनी पहाड़ियों में विलीन हो गया। पारिवारिक विश्वास के चलते थोड़े समय में उसने सुमंत के व्यवसाय पर भी आधिपत्य कर लिया एवं अब वह भी शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायियों में एक था।
इस घटना की सूचना राजा तक पहुँची एवं तफ्तीश करने पर भी कोई चिह्न न मिला तो राजा को दाल में काला लगा।
जिस नगर परकोटे की अगोचर शक्तियाँ रक्षा करती हो वहाँ यह पाप कैसे छिपता ?
एक दिन एक गडरिये ने आकर सेनापति को समाचार दिया कि वह अपनी मरी भेड़ गाड़ने के लिए एक स्थान खोद रहा था कि वहाँ उसे एक कंकाल एवं कुछ वस्त्र दिखे तथा उस कंकाल के समीप से यह दो अंगूठियाँ एवं कटार भी प्राप्त हुए हैं। सेनापति ने अंगूठियों एवं अन्य वस्तुओं की तफ्तीश करवाई तो यह स्पष्ट हो गया कि यह जघन्य अपराध अरिष्टकेतु ने किया है।
सेनापति उसे पकड़कर राजा के पास लाया एवं राजा को बताया कि किस तरह इस कृतघ्न ने इस पर उपकार करने वाले सज्जन मित्र की जघन्य हत्या की है। सेनापति ने दोनों की मित्रता का इतिहास राजा को बताया तो राजा के माथे पर बल पड़ गए। उसकी आँखें क्रोध से चमकने लगी, लेकिन वह संयत रहा। राजा उसे इस तरह एवं ऐसा दण्ड देना चाहता था जिसकी गूंज दूर तक जाए। राजा ने गौर से अरिष्टकेतु की ओर देखा। राजा ने अनेक अपराधी देखे थे। अरिष्टकेतु को देखकर वह ताड़ गया कि अरिष्टकेतु मूलतः सज्जन है, लेकिन लोभ एवं ईर्ष्या के वशीभूत उसने ऐसे जघन्य कृत्य को अंजाम दिया है। संभवतः इसने भी ऐसा घिनौना कृत्य करने की कल्पना नहीं की होगी। आँखों में परदा पड़ जाय तो इंसान क्या नहीं कर बैठता। अपराध फिर भी अपराध है एवं अपराधी को सजा मिलनी ही चाहिए। राजा सेनापति के निकट आया एव तेज आवाज में पूछा, ‘‘सेनापति! तुम्हीं बताओ ऐसे कृतघ्न मित्रघाती को क्या दण्ड दिया जाय ?’’
‘‘राजन्! इसे बांधकर नगर के बाहर ऐसी जगह डलवा दिया जाय जहाँ माँसभक्षी पशु-पक्षी इसे नौंच-नौंच कर खा सकें। पक्षियों की तीखी चोंचें जब इसके बदन को आहत करेंगी तब इसे मित्र के उपकार एक-एक कर याद आएंगे।’’ कहते-कहते रोष एवं आवेश के मारे सेनापति की आँखें लाल हो गई।
‘‘लेकिन यह कैसे संभव है सेनापति ? क्या तुम नहीं जानते…….’’ कहते-कहते राजा ने सेनापति की ओर इस तरह देखा मानो वो उसे कोई विशिष्ट संदेश देना चाहता हो।
चतुर सेनापति ने राजा के मन की थाह जान ली। वह राजा की आँखों के इशारे का गूढ़ार्थ भांप गया। कुछ रुककर बोला, ‘‘राजन्! मैं क्या नहीं जानता ? मैंने कुछ गलत तो नहीं कह दिया ? क्या यह दण्ड ऐसे जघन्य अपराध के अनुकूल नहीं है ?’’
‘‘मैं तुम्हारे द्वारा बताये दण्ड को गलत नहीं कह रहा, पर संभवतः तुम नहीं जानते……’’ कहते-कहते राजा कुछ क्षण के लिए रुक गया।
‘‘राजन्! आप अपनी बात स्पष्ट करें।’’ सेनापति बोला।
‘‘सेनापति! क्या तुम नहीं जानते कि मेरे नगर के माँसभक्षी पशु-पक्षी कृतघ्न व्यक्ति का माँस नहीं खाते। इसने अपने परम उपकारी मित्र का वध किया है। ऐसे दुर्दान्त, मित्रघाती एवं निकृष्ट व्यक्ति का माँस खाकर वे अपनी गति क्यों बिगाड़ेंगे ? पशु-पक्षी भी किसी धर्म से बंधे होते हैं। इससे तो अच्छा यही होगा कि वे किसी सड़े-गले मरे जानवर का मांस खा लें, ऐसा करके वे एक महान पाप से बच जाएंगे।’’ कहते-कहते राजा ने तीखी आँखों से अरिष्टकेतु की ओर देखा।
अरिष्टकेतु पर बिजली गिरी। राजा का एक-एक वाक्य अपमान का तीखा बाण बनकर उसकी आत्मा में धंस गया। वह नख-शिख पसीने से नहा गया। सुमंत का चेहरा उसकी आँखों के आगे होकर घूमने लगा। उसकी पराजित, ग्लानित, अपमानित आत्मा उसके आगे असंख्य प्रश्न लेकर खड़ी हो गई। रे नराधम! रे कृतघ्न! तुमने ऐसा क्यों किया ? सुमंत ने तुम्हें भिखारी से श्रेष्ठि बनाया पर तुमने क्या सिला दिया ? तुम्हारे विश्वास पर तो वह सब कुछ छोड़कर जनपद से नगर चला आया था ? हा मित्र! मैंने यह क्या कर डाला ? हा! हा! मैंने यह क्या कर डाला ? मैं इतना निकृष्ट क्यों कर हो गया ? राजन् ठीक ही कहते हैं कि मुझ पातकी का माँस माँसभक्षी पशु-पक्षी तक नहीं खाएंगे ? यही सोचते-सोचते उसका सर घूमने लगा, आँखों से गंगा-जमुना बह निकली, वह निश्चेष्ट हो गया तथा देखते ही देखते राजा एवं सेनापति के सामने जड़ से कटे वृक्ष की भांति नीचे गिरकर ढेर हो गया।
अरिष्टकेतु की मृत्यु के पश्चात् विस्मयविमुग्ध सेनापति ने राजा से पूछा, ‘‘राजन्, आज आपने यह कैसा दण्ड दिया ? आपकी वह बात मैं पूरी तरह समझ नहीं पाया कि आपके नगर के माँसभक्षी पशु-पक्षी कृतघ्न मित्र का माँस नहीं खाते ? यह कैसे संभव है ? भला ऐसे पशु-पक्षी भी किसी को बख्शते हैं? उनका तो यही धर्म है। वे यह कहाँ सोच पाते हैं कि यह कृतज्ञ का माँस है अथवा कृतघ्न का ?’’
इस बार राजा मुस्कुराया एवं सेनापति के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, ‘‘तुम ठीक कहते हो पशु-पक्षी ऐसा नहीं सोच सकते, लेकिन मनुष्य तो ऐसा सोच सकता है कि उसने कितना जघन्य अपराध किया है ? भटके हुए सज्जन एवं क्रूर अपराधी के दण्ड में अंतर तो होना ही चाहिए। दण्ड अपराध के अनुरूप ही नहीं, अपराधी के अनुरूप भी हो। पशु भी एक लाठी से नहीं हाँके जाते। मनुष्य तो फिर प्रज्ञाचेतन जीव है। मैं चाहता था कि दण्ड के पूर्व अरिष्टकेतु आत्मचिंतन करे। उसका आत्मचिंतन ही उसका मृत्युदण्ड था।’’
‘‘मैं समझा नहीं राजन्!’’ ऐसे अनूठे दण्ड को सुनकर सेनापति की आँखें फैल गई।
‘‘सेनापति! कठोर मृत्युदण्ड की सजा तो जगत के दुर्जनों के लिए है, सज्जन तो अहसास मात्र से मर जाते हैं। अरिष्टकेतु के समक्ष मैं जो कुछ कह रहा था, वह तो मात्र उसका अहसास जगाने भर के लिए था।’’
‘‘राजन्! सचमुच आप न्यायविद् हैं।’’ कहते-कहते सेनापति का गला भर आया।
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31-08-2012