भोर होते ही सौदागर ने पेड़ से बंधा अपना घोड़ा खोला, उसकी पीठ थपथपायी, दाना-पानी दिया एवं देखते ही देखते पेड़ के पास रखे इत्र के सातों कुप्पे उसकी पीठ पर लाद दिये। कुछ और सामान जैसे दो पानी के बड़े-बड़े मसक, दो-तीन थैलियाँ जिसमें वो रोजमर्रा का सामान रखता था आदि को भी उसने घोड़े की पीठे के पीछे व्यवस्थित किया एवं पुनः उत्तर की ओर चल पड़ा। चलते ही घोड़ा हिनहिनाया तो उसके ओठों पर प्रसन्नता की रेखा फैल गई। यह अच्छा शगुन था एवं इसका अर्थ आज सारा माल बिकना तय था। उसने कृतज्ञ आँखों से आसमान की ओर देखा, अपने आराध्य का ध्यान किया एवं मन ही मन यह सोचकर प्रमुदित हुआ कि आज यात्रा का अंतिम पड़ाव है।
आसमान से अधिकांश तारे विलुप्त हो चुके थे, बस चार-पाँच तारे रात्रि के अंतिम अवशेषों की तरह यत्र-तत्र टिमटिमा रहे थे। इन्हीं तारों के बीच भोर का तारा उसके मन की आशा की तरह चमक रहा था। दूर क्षितिज से पक्षियों की चहचहाहट भी उसके कानों में आने लगी थी। वो आशान्वित था कि ऐसी ठण्डी हवाओं में वह रास्ता बिना कठिनाई के पार कर लेगा। वैसे तो भोर हर जगह सुहानी होती है पर मारवाड़ की हवाओं के बारे में उसने सुना था कि यहाँ की ‘एक हवा सौ दवा’ के बराबर होती है। उसे इस कहावत में दम नजर आया हालांकि वह यह सोचकर हैरान था कि थार की भीषण गर्मी में सुबह की हवाएँ ठण्डी क्योंकर होती हैं?
घोड़े की लगाम को हाथ में पकड़े अब वह धीरे-धीरे गंतव्य की ओर बढ़ने लगा। मंजिल सामने हो तो गति दूनी हो जाती है। वह आधा कोस चला होगा कि उसे कुछ याद आया। वह रुका, लंबे झब्बे की लटकती दो जेबों की दांयी जेब से चांदी की एक डिबिया निकाली जिसके दो खानों में एक ओर चूना एवं दूसरी ओर जरदे की पत्तियाँ रखी थी। दोनों को बांये हाथ की हथेली पर रखकर वह दांये अंगूठे से रगड़ने लगा। जरदा मुंह में रखते ही उसमें एक नई शक्ति का संचार हुआ एवं इस बार उसके चाल की गति और बढ़ गई।
स्वर्ण किरणों का आभूषण पहने सूर्यदेव क्षितिज से ऊपर उठ आए थे। मारवाड़ का राजमहल अब मात्र दो कोस पर था। भला दो कोस भी कोई दूरी है? उसे पता था यह दूरी वह मात्र एक घण्टे में पूरी कर लेगा। रात अच्छी नींद आने के कारण वह ताजा लग रहा था। उसका शरीर सौष्ठव भी देखते बनता। वह छः फुट से कम न होगा। छरहरा बदन, मोटी रतनारी आँखें, तीखा नाक, घनी ऊपर की ओर जाती हुई मूंछे, सुघड़ दंतपंक्ति एवं खिंचे लंबोतरे चेहरे से वह सौदागर कम , सिपाही अधिक लगता था। झब्बे के नीचे लाल किनारी वाली रेशम की धोती, एक पैर में चांदी का कड़ा, दोनों पांवों में जूतियाँ जिनके आगे का नुकीला हिस्सा ऊपर की ओर मुड़ा था। उसके सर पर बंधी पगड़ी तथा रेशम की धोती से स्पष्ट आभास होता था कि वह सुदूर मालवा से आया है। तब पगड़ी एवं व्यक्ति का चेहरा-मोहरा ही इस बात की पहचान होता था कि वह किस प्रदेश से आया है।
यह यात्रा उसने बड़ी कठिनाई से तय की थी। अपना देश छोड़े उसे तीस रोज से अधिक हो चुके थे। वह इत्र के बीस कुप्पे लेकर चला था जिसमें आधे से अधिक उसने रास्ते में बेच दिये। घोड़े पर भार कम होने के साथ-साथ उसकी यात्रा सुगम होने लगी थी। एक कोस ओर चलने के पश्चात उसे थकान होने लगी तो उसने घोड़े पर बंधी चमड़े की मसक निकाली, पानी पीया, उसी को ऊँचाकर घोड़े के मुँह में पानी उड़ेला एवं इस बार घोड़े की पीठ पर बंधी काठी पर सवार हो गया। काठी पर बैठकर उसने ऊपर जाती घनी मूंछो को ताव दिया एवं हाथों पर लगा शेष पानी कानों पर लगाया तोे कानों की स्वर्ण मुरकियाँ सवेरे की सूर्य किरणों की तरह चमक उठी।
सूरज ऊपर उठ आया था। दिन उगे आधा प्रहर हुआ लेकिन उफ्फ! अभी से इतनी गर्मी! ऐसी गर्मी तो पहले कभी नहीं देखी। भीषण गर्मी ने उसे बेहाल कर दिया। मारवाड़ में यह अकाल का दूसरा वर्ष था। ढोर तो क्या मिनखों तक के पिंजर निकल आये। रास्ते भर सूखे पेड़ विरक्त वैरागियों की तरह खड़े थे। अनावृष्टि के चलते आम रियाया त्रस्त थी। किसान आंखे फाड़े आसमान की ओर देखते लेकिन इन्द्र मानो इस बार भी कोप बरसाने पर आमादा थे। सावन-भादो सूखा निकल जाय तो क्या उम्मीद बचे? सौदागर ने रास्ते में अनेक जगह मरे जानवर भी देखे थे।
वह पहली बार मारवाड़ आ रहा था एवं उसने अपने साथियों से मारवाड़ के वैभव के अनेक किस्से सुने थे। उसके एक साथी सौदागर ने तो यहाँ तक कहा कि मारवाड़ के राजा इतने रईस हैं कि आगंतुक सौदागर को कभी निराश नहीं करते। बहुत वर्ष पूर्व उन्होंने एक सौदागर के सौ कुप्पे खरीद लिए थे। इसी के चलते सौदागर आश्वस्त था कि मारवाड़ के राजा उसे निराश नहीं करेंगे।
राजमहल आने के पूर्व उसने स्वयं को व्यवस्थित किया, घोड़े से नीचे उतरा एवं मुख्य द्वार तक आया। वह दरबान से पूछने ही जा रहा था कि वह राजा से कब मिल सकता है तभी यह देखकर चकित रह गया कि स्वयं राजा सामने से दरबारियों के साथ मुख्य द्वार की तरफ आ रहे थे। उसे मुँह मांगी मुराद मिल गई। उसने आश्चर्य से दरबान की ओर देखा तो उसने धीरे से बताया कि गत एक माह से राजा ने घोड़ा, रथ, सवारी सब छोड़ रखी है। वह इसका कारण जानता तब तक राजा द्वार के इतना समीप आ गए कि दरबान चुप सीधा खड़ा हो गया। राजा के माथे पर लहरिया पाग तथा पाग पर सोने का पेच लगा था। चेहरा ऐसा मानो सूर्य का तेज उन्हीं में आकर सिमट गया हो।
राजा मुख्य द्वार तक आये तो सौदागर ने झुककर सलाम किया। पास ही खडे़ दरबान की तरह उसने भी ‘खमाघणी’ कहकर उनका अभिवादन किया। राजा उसे देखकर रुके तो सौदागर ने राजा की प्रशंसा में कसीदे पढ़े, उनकी पीढ़ियों का यशगान किया फिर बोला, ‘बापजी! मैं बहुत दूर मालवा से आया हूँ। आपकी उदारता के वहाँ बहुत चर्चे हैं। इत्र के कुप्पे बेचने आया हूँ। ऐसा इत्र आपको दूर-दूर तक नहीं मिलेगा।’
उसे देखकर राजा गंभीर हुए। उनकी आँखों में शौर्य मिश्रित दीनता झलक आई। कुछ सोचकर उन्होंने सौदागर के कंधे पर हाथ रखा, फिर बोले, ‘तुम ठीक कहते हो सौदागर! मालवा के सौदागरों को मैं खूब जानता हूँ। उनका माल भी अच्छा होता है, दाम भी वाजिब लेते हैं एवं बात के भी धनी होते हैं।’
अपने वतन की प्रशंसा सुनकर सौदागर के आँखों की चमक दूनी हो गई। ऐसे उदार राजा भला उसे क्यों निराश करेंगे? वह कुछ और कहता उसके पहले राजा ने उसका कंधा हल्के से दबाया और बोले, ‘निश्चय ही तुम्हारा इत्र उतना ही अच्छा है जितना तुम कह रहे हो लेकिन मैं मजबूर हूँ। मेरे राज्य में दो साल से अकाल पड़ा है। प्रजा भूखी मर रही हो एवं उसकी आँखों में आँसू हो तो राजा इत्र कैसे लगा सकता है? राजा प्रजा से ही तो है। सौदागर! क्षमा करना! इस बार मैं तुम्हारा इत्र न खरीद सकूंगा और मैं जानता हूँ अगर मैंने इत्र लगाने से इंकार किया तो अन्य दरबारी एवं प्रजाजन भी तुमसे इत्र खरीदने का साहस नहीं कर सकेंगे। इस बार यह इत्र तुम कहीं ओर जाकर बेच दो। कभी सुकाल हुआ और तुम भीगी पाग आये तो मेरा वादा है इससे दोगुना इत्र मुँह मांगे दामों पर खरीदूँगा।’ यह कहकर राजा दरबारियों के साथ आगे निकल गए।
सौदागर का दिल डूब गया। काटो तो खून नहीं लेकिन अब किया क्या जा सकता था? खुली मुट्ठी से बहने वाली रेत की तरह उसके सारे मंसूबे वहीं बिखर गए, चेहरा लटक गया एवं चेहरे पर वही भाव उभर आये जो उसने रास्ते में अकाल से त्रस्त किसानों एवं मजदूरों के चेहरे पर देखे थे। उसने घोड़ा मोड़ा एवं उल्टे पाँव लौट पड़ा। हाँ, इस बार उसकी गति पहले से आधी थी।
राजमहल के नीचे आकर उसने घोड़े को दाना-पानी दिया, वहीं भोजनालय में खाना खाया, दोनों मसक पानी से भरकर घोड़े पर लादे एवं मन ही मन यह बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ गया कि वह कहाँ चला आया। उसकी सारी यात्रा एवं मेहनत बेकार हो गई। शहर के परकोटे से वह एक कोस आगे आया तो उसने पीछे मुड़कर देखा। दूर-दूर तक कोई नहीं दिखा तो उसमें दम भर आया। उसकी कुण्ठा सर चढ़ बैठी। वह अण्ड-बण्ड बकने लगा, ‘यह कैसा राजा एवं कैसा राज्य है? नाम बड़े दर्शन खोटे। मारवाड़ियों एवं मारवाड़ के राजा के बारे में तो उसने क्या कुछ नहीं सुना था पर यहाँ तो मामला फुस्स निकला। कितनी उम्मीद लेकर आया था लेकिन यहाँ तो फकीर बसते हैं। यहाँ का राजा भी विचित्र है? भला काल क्या राजमहलों पर पड़ता है? राजकोष क्या कभी खाली होता है? अगर राजा इतना-सा इत्र नहीं ले सकता तो कैसा राजा? राजा तो मणि-माणक, हीरे-जवाहरात एवं जाने क्या-क्या खरीद लेते हैं? वे तो अपनी रईसी एवं उदारता से ही जाने जाते हैं। ऐसे राजा किस काम के?’ सौदागर भड़ास निकालते हुए जा रहा था कि उसे दूर धूल का गुब्बार नजर आया। धीरे-धीरे यह आकृति स्पष्ट होने लगी तो उसने देखा घोड़े पर कोई राहगीर दूर से आ रहा है। सौदागर कुछ देर के लिए वहीं रुक गया। भरा व्यक्ति रीता होने का अवसर ढूंढता है।
उसका अनुमान सही था। घोड़े पर कोई महाजन आ रहा था। उसके चेहरे-मोहरे से ऐसा ही लग रहा था। माथे पर हल्के गुलाबी रगं की पतली पट्टियों वाली पगड़ी थी, ललाट पर वैष्णवी तिलक, कानों में सोने के भारी लोंग एवं गले में पड़े कण्ठे को देखकर कोई भी कह सकता था कि वह महाजन है।
सौदागर को देखकर महाजन ने घोड़ा रोका। वह भी बहुत दूर से आ रहा था, सोचा दो पल इससे भी बतिया लिया जाय। इसी बहाने वह और उसका घोड़ा सुस्ता लेंगे। मारवाड़ी को तो बात और भात से ही सुकून मिलता है। ऐसा नहीं होता तो उसके शहर में सौ से अधिक हत्थईयाँ क्यों होती जहाँ शाम को लोग मात्र बतियाने के लिए मिलते थे। वह नीचे उतरा तो सौदागर ने पूछा, ‘महाजन हो?’
‘आपने ठीक पहचाना। इसी मारवाड़ का माहेश्वरी महाजन हूँ।’ महाजन की आवाज इतनी मीठी थी मानो बोली में शहद घुला हो। सौदागर की आँखों में प्रश्न देख बात आगे बढ़ाते हुए वह पुनः बोला,’ ‘देशाटन पर कुछ माह के लिए बाहर गया था, वापस घर लौट रहा हूँ। “इतना कहकर उसने अपने सफेद झब्बे के बीच बंधे केसरिया दुप्पटे को खोलकर पसीना पोंछा एवं पुनः कसकर बांध दिया। थोड़ा नीचे झुककर फिर उसने कमर से बंधी धोती को व्यवस्थित किया। गरमी से वह भी बेहाल था।
महाजन को देखते ही सौदागर की कुण्ठा हाण्डी से रकाबी में आ गई। मन का दबा राक्षस विकराल होकर प्रकट हो गया। उसे लगा बनिये को कुछ भी कहो, कर क्या लेगा? वह फिर बड़बड़ाने लगा।
महाजन ने अत्यंत विनम्र स्वर में पूछा, ‘आखिर बात क्या है? क्या माल बिका नहीं?’
सत्य प्रगट होते ही सौदागर को पका बालतोड़ छू गया। उसकी बकवाद और तेज हो गई। उसकी व्यथा, उदासी एवं गुस्सा आँखों में उतर आया। स्थिति देखकर महाजन ने पूछा, ’क्या मारवाड़ में किसी ने तुम्हें धोखा दे दिया? लेकिन यह हो नहीं सकता। यहाँ के लोग निष्कपट है। वे किसी को धोखा नहीं देते एवं ओछा भी नहीं बोलते। मीठी वाणी, सुंदर खाना एवं अच्छी संस्कृति ही तो यहाँ की पहचान है।’ महाजन हंसते हुए बोला।
‘वाणी तो मीठी है पर यहाँ के लोग भीतर से चालाक हैं। बस जबान के शेर हैं। डींगे मरवा लो। हवा में गाँठे लगवा लो। टरकाऊ विद्या में तो महारथ है तुम लोगों की। परदेशियों की इज्जत करना तो सीखा ही नहीं। खैर उनका भी क्या दोष, जैसा राजा वैसी ही तो प्रजा होगी। राजा कंजूस होगा तो प्रजा भी वैसी होगी। राजा उदार होगा तो प्रजा भी उदार होगी। बहुत किस्से सुने थे मैंने मारवाड़ एवं यहाँ के राजा के लेकिन आज उन्हें भी देख लिया।’ सौदागर ने दिल का बुखार क्षणभर में उगल दिया।
इस बार महाजन गंभीर हुआ। उसके माथे पर बल पड़ गए। बात की थाह लेने के बहाने उसने पुनः पूछा, ‘अब बताओ भी कि बात क्या है?’
‘तुम्ही बताओ मैं इतने दूर मालवा से आया हूँ। राजे-महाराजे सौदागरों को कभी निराश नहीं करते। वे जानते हैं हम ही उनकी प्रतिष्ठा के दूत हैं लेकिन तुम्हारे राजा ने मेरा इत्र खरीदना तो दूर सूंघने तक से मना कर दिया। अकाल का बहाना कर टाल दिया। यह भी कोई बात हुई कि प्रजा मर रही हो तो मैं इत्र नहीं लगा सकता। इतना ही नहीं मुझे यह कहकर आगे बढ़ने से रोक दिया कि मैं नहीं खरीदूंगा तो दरबारी एवं प्रजा भी नहीं खरीद सकते। महाजन! तुमने ठीक कहा यहाँ के लोग मीठा बोलते हैं लेकिन यह नहीं बताया कि उन्हें गुड़ में लपेटकर जहर देना भी खूब आता है। अरे! जो राजा इत्र नहीं खरीद सकता वो और क्या खरीद सकता है? लोग ठीक कहते हैं डूंगर दूर के भले। अब तो मैं सभी सौदागरों को कह दूंगा कि इस इलाके में नहीं आए। यहाँ तो ऊँची दुकान फीके पकवान हैं। मारवाड़ी हैं तो थोथे चने पर गाल बहुत बजाते हैं।’
महाजन की आँखें यह सुनते ही लाल हो गई। उसके चेहरे पर पीढ़ियों की आन उतर आई। क्षणभर के लिए उसे लगा मानो आज कोई उसके देश की अस्मिता को ललकार रहा है।
अब उसने मोर्चा संभाला। यह उससे कहीं अधिक उसके प्रदेश की प्रतिष्ठा का प्रश्न था। गुस्सा भीतर निगलते हुए उसने सौदागर के कंधे पर हाथ रखा, एक गहरी सांस ली एवं इस बार तीखी आँखों से देखते हुए सौदागर से पूछा, ‘यह कितने कुप्पे हैं?
‘सात कुप्पे हैं। इन कुप्पों में ऐसा इत्र भरा है जो हजार कोस तक ना मिले।’ सौदागर ने निःशंक होकर जवाब दिया।
‘इन सभी कुप्पों का क्या मूल्य है?’ महाजन की आँखें अब व्यावसायिक निपुणता से लबालब थी।
‘सौ स्वर्ण मुद्राऐं।’ महाजन की बात सुनकर सौदागर की आँखे आशा के दीपों की तरह चमक उठी।
‘मात्र सौ स्वर्ण मुद्राएं! तुम तो अभी अपने इत्र का ऐसा प्रशंसा-पुराण पढ़ रहे थे कि हजार कोस तक ऐसा इत्र नहीं मिलता।’ महाजन बोला।
‘वह बात तो ठीक है पर मूल्य तो जो होगा वही मागूंगा। मैं मारवाड़ी थोड़े हूँ जो एक का चार बनाऊं।’ बात कुछ अधिक कड़वी थी अतः नजर चुराते हुए उसने ऊपर आसमान की ओर देखा।
सूरज माथे पर चढ़ आया था।
सौदागर की बात महाजन के हृदय में विषतीर-सी लगी लेकिन वह शांत रहा। आज उसे एक ऐसा सौदा करना था जो अनमोल हो एवं जिसके बारे में सुनकर उसकी एवं उसके देश की पीढ़िया संदेश लें।
‘क्या तुम मुझे अपना इत्र बेचोगे?’ इस बार महाजन ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘ईश्वर आपका भला करे। क्या तुम सचमुच इसे खरीदोगे? राजा को पता चल गया तो?’ सौदागर की आँखें फैल गई। गुस्सा रूई की तरह उड़ गया।
‘उसकी तुम चिंता न करो। वह मैं देख लूंगा। म्हारी जोखिम म्हें जाणू ।’ महाजन बोला।
‘तो दो मुझे स्वर्ण मुद्राएं एवं ले लो इत्र।’ सौदागर हैरान था कि मरूभूमि में कल्पवृक्ष कहाँ से चला आया।
महाजन ने अपनी बण्डी से एक थैली निकाली एवं सौदागर के हवाले करते हुए कहा,’ गिनलो! खरी है एवं पूरी सौ स्वर्ण मुद्राएँ हैं।’
सौदागर ने स्वर्ण मुद्राएँ हाथ मे ली, थैली खोली एवं देखकर चकित रह गया। उसने एक-एक कर उन्हें गिना एक….दो…..तीन एवं अंत में जब सौवीं मुद्रा गिनी तो वह आशंकित हो गया। जहाँ राजा ऐसा हो वहाँ का महाजन बिना मोल-तोल किए यूँ मुद्राएँ दे दे? यह कैसे संभव है? उसने घोडे़ की जीन पर बंधी थैली से कसौटी निकाली एवं रगड़कर देखा तो आँखों की चमक दुगुनी हो गई। उसका दिल बल्लियों उछलने लगा। सचमुच वे असली स्वर्ण मोहरें थी।
‘तुम कमाल के साहूकार हो। यह इत्र तुम्हारा हुआ। तुम कहो तो मैं कुप्पों को तुम्हारे घोड़े पर बांध दूं।’ सौदागर की आँखों से खुशी टपकने लगी थी।
‘ठहरो! अभी सौदा पूरा नहीं हुआ? ” ‘महाजन का गाम्भीर्य अब शिखर पर चढ़ बैठा। उसकी नस-नस, बोटी-बोटी फड़कने लगी फिर भी वह संयत रहा।
अब क्या रह गया महाजन? इत्र तुम्हारा है एवं स्वर्ण मुद्राएँ मेरे हाथ में हैं।’ सौदागर ने कौतुक से पूछा।
‘तुम्हें मेरा एक काम करना होगा?’ इस बार बोलते हुए महाजन की आंखें पानीदार हो गई।’
‘क्या?’ विस्मय में डूबे सौदागर ने पूछा।
‘अब तुम इन सातों कुप्पों से इत्र निकालकर मेरे घोड़े की पीठ एवं पूंछ के लंबे बालों में उड़ेल दो।’
‘यह क्या कह रहे हैं आप? इत्र क्या घोड़े की पूंछ एवं पीठ पर लगाया जाता है?’
‘मैंने इसका मूल्य दिया है, मैं चाहे जो करूँ।’ महाजन की तेज आवाज सुनकर सौदागर सकते में आ गया। उसने महाजन की ओर देखा तो उसके तेवर देखकर भांप लिया कि आज जो यह कहे वही करना उचित होगा। जिस सनक में इसने सौदा किया है उसी सनक में यह सौदा रद्द न कर दे।
सौदागर ने एक-एक कर सारे कुप्पे घोड़े की पीठ एवं पूंछ में उडे़ल दिए। घोड़ा इत्र में नहा गया। इत्र उसके पेट एवं पूंछ से टपकने लगा।
‘चलो तुमने जैसा कहा वैसा कर दिया। अब मैं चलूं?’ सौदागर आशंकित था कि बनिया कोई नया फितूर न कर बैठे।
सौदागर मुड़ा तो महाजन ने उसके कंधे पर हाथ रखा एवं इस बार चीरती आँखों से देखकर बोला,’ अब कभी मारवाड़ एवं मारवाड़ के राजा की बुराई नहीं करना। तुमने हमारे राजा को समझा नहीं। उनकी प्रजावत्सलता पर सौ नहीं सहस्त्रों स्वर्ण मुद्राएँ भी न्यौछावर की जाय तो कम है। तुम कदाचित नहीं जानते कि जिस इत्र को बेचने के लिए तुम इतनी बातें कर रहे थे उतना इत्र तो मारवाड़ का एक छोटा-सा महाजन अपने घोड़े की पूंछ में उड़ेल देता है। मेरे जैसे एवं मुझसे कई बडे़ यहाँ सैंकड़ो महाजन हैं। वे चाहें तो तुम जैसे हजार सौदागर खडे़-खडे़ खरीद लें।’ महाजन की वाणी आन-मान एवं शान से लबालब थी। उसकी आँखों का तेज देखकर सौदागर दंग रह गया।
उसे काठ मार गया।
वतनपरस्ती का ऐसा जज़्बा तो उसने पहले कहीं नहीं सुना।
ऐसा सौदा भी उसने पहले कभी नहीं किया।
घोड़े पर बैठकर सौदागर ने ऐड लगाई तो घोड़ा तेज रफ्तार से भागा।
टापों की आवाज सुनाई देने तक महाजन वहीं खड़ा रहा। वह जब आश्वस्त हो गया कि दूर-दराज तक कोई नहीं देख रहा है तो वह घोड़े की पीठ के पिछले हिस्से की ओर आया, वहाँ बंधी म्यान से तलवार निकाली एवं पूरी ताकत के साथ घोड़े की गरदन पर वार किया तो घोड़ा वहीं ढेर हो गया।
मुट्ठी भर रेत उठाकर उसने हाथ साफ किये एवं परकोटे की ओर बढ़ने लगा।
देशाटन पर तो वह पहले अनेक बार गया था, बड़े-बड़े नफे-नुकसान भी देखे पर ऐसा नुकसान पहली बार ही देखा जिसमें सब कुछ खोकर भी लगा मानो ऐसा एवं इतना बड़ा नफ़ा पहले कभी नहीं हुआ।
यह असल मुनाफा था।
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20-08-2012