असल अपरिग्रह

कहते हैं कि किसी ने दुनिया देखकर हिंदुस्तान नहीं देखा तो क्या देखा, हिंदुस्तान आकर जोधपुर नहीं देखा तो क्या खाक देखा एवं जोधपुर आकर यहां की ठण्ड नहीं देखी तो क्या देखा ? इस शहर की सर्दियों एवं कड़ाके की ठण्ड का आलम वही जानता है जो इस शहर में रहा हो। दिसंबर बीतते यहां कोहरा इतना सघन हो जाता है कि अनेक बार शहर की सबसे ऊंची पहाड़ी पर स्थित किला मेहरानगढ तक दृष्टिगत नहीं होता। सूरज इन दिनों ऐसा दुबकता है मानो उगेगा ही नहीं। ऐसा लेकिन हर दिन नहीं होता। सूरज और कोहरे के युद्ध में कई बार सूरज अपना वजूद सिद्ध कर देता है। तब वह कोहरा फाड़कर ऐसे प्रगट होता है जैसे तमाम कष्ट , अंधेरों एवं अवसादों के मध्य खुद्दार आदमी का स्वाभिमान प्रगट हो जाता है। कोई किसी की गैरत को ललकारेगा तो वह चुप बैठेगा क्या ? प्रकाश क्या कभी अंधेरे से हारा है ? मेहरानगढ़ का एक-एक पत्थर तब चमक उठता है। 

इसी शहर के ख्यात उद्योगपति सेठ बनवारीलाल ने अपनी षष्टीपूर्ति के दूसरे दिन जब यह घोषणा की कि आज से वे अपने उद्योगों को देखने नहीं जाएंगे तो घर के सभी सदस्यों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। ऐसे दुर्धुर्ष कर्मयोगी में यकायक ऐसा वैराग्य क्यों उभर आया? ऐसा निर्णय उन्होंने आखिर क्यों लिया ? यह सच है अपने तीनों पुत्रों योगेश, विमलेश एवं राजेश पर वे बेहद विश्वास करते थे, उन्हें प्यार भी करते थे लेकिन यह भी कैसा विश्वास विशेषतः इस कलियुग में जब कि हम आये दिन सुनते हैं कि बच्चे माता-पिता के विश्वास को प्रतिपल रौंद रहे हैं ? कम से कम पत्नी कल्पना से तो राय मशविरा करते । माना कि बच्चे अब तक पूर्णतः सेटल थे, सबके विवाह हो गए, घर में योग्य बहुएं आ गई लेकिन बच्चे अभी इतने जिम्मेदार कहां थे कि सब कुछ संभाल ले। बनवारीलाल को फिर ऐसा क्या सूझा ? 

क्या साठ पार आदमी सचमुच सठिया जाता है ?

घर में सभी सदस्यों के चेहरे पर पिता का निर्णय प्रश्नचिन्ह की तरह अंकित हो गया। अपने बड़े बेटे योगेश के कंधे पर हाथ रखते हुए बनवारीलाल ने स्वयं इस प्रश्न का समाधान किया, “योगेश! गत चार दशक से मैं लगातार दौड़ रहा हूं। इस मुकाम तक आने में मैंने और कल्पना ने कड़ी मेहनत की है। लेकिन कब तक हम ऐसा करते रहें ? अभी चार माह पूर्व मेरे हमवय मित्र सुरेन्द्रनाथ का आकस्मिक निधन हुआ तब से मुझे लगा कि जीवन कितना नश्वर है। दुर्दांत नश्वर ! हम कभी थमकर सोचते ही नहीं। हम कुछ छोड़ना नहीं चाहते पर मृत्यु पलभर में सबकुछ छीन लेती है। कहने को आदमी की उम्र सौ वर्ष है पर सभी साठ-सत्तर तक चलते बनते हैं। मृत्यु सूचना देकर नहीं आती। मैं एवं कल्पना शेष उम्र अब धर्म लाभ लेना चाहते हैं। पेट के लिए, घर-गृहस्थी-कारोबार के लिए बहुत कर लिया, अब विश्राम चाहता हूं, पूरी स्वायत्तता के साथ जीना चाहता हूं।’’ कहते-कहते उनका गला भर आया। 

“बाबूजी! आपके बिना हम इतना बड़ा कारोबार कैसे संभालेंगे ? अब तक तो सारे निर्णय आप ही लेते आए हैं। हम तो आपके साये मेें निश्चिंत रहते थे।’’ योगेश पिता के समीप आकर बोला। 

“योगेश! मैं चाहता हूं अब सारे निर्णय, जिम्मेदारी तुम लो। मुझे तुम सभी पर पूरा भरोसा है। इतना ही नहीं मैं आज ही अपनी तमाम संपत्ति तुम तीनों के नाम कर रहा हूं। मैंने मेरे लिए कुछ भी नहीं रखा है। अब अपरिग्रह के संपूर्णभाव के साथ जीना चाहता हूं। खाली हाथ आए, खाली हाथ चले। आखिर उन उपदेशों का क्या अर्थ जिन्हें हम ताउम्र अमल नहीं करते। मुझे क्या है आवश्यकतानुसार तुम सबसे ले लूंगा। संपत्ति का विभाजन हुआ है, संवेदनाओं का नहीं। परिवार अब भी एक है, मैं एवं कल्पना जब तक जिंदा है इसी कोठी में तुम सबके साथ रहेंगे।’’ अपनी बात समाप्त करते हुए बनवारीलाल ने एक गहरी श्वास ली मानो वे भारमुक्त हो गए हों। 

इस बात के समाप्त होते एक वकील घर में आया। बनवारीलाल ने निःसंकोच बंटवारनामा बनवाकर तमाम उद्योगों एवं चल-अचल संपत्ति को बराबर हिस्से में तीनों पुत्रों के नाम कर दिया। 

इस त्वरित निर्णय के साथ ही घर में अचंभा पसर गया। कहां तो ऐसे पिता होते हैं जो रिसा-रिसा कर देते हैं लेकिन यहां तो बनवारी ने बिन मांगे मोती बांट दिए। बेटे-बहुएं एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। सबकी आंतरिक स्थिति ऐसी थी मानो मूसलों ढोल पीट रहे हो, लेकिन मन के यह भाव किसी ने चेहरे पर नहीं आने दिए। बच्चों के लिए यह सब लाॅटरी खुलने जैसा था। 

इस दुनिया में ऐसा कौन है जो शक्तिशाली होकर प्रसन्न नहीं होता ?

रात कल्पना ने पति को जमकर लताड़ा, “ अरे! सब कुछ बांट दिया, कुछ तो अपने लिए रखते। कल बच्चों ने मुंह फेर लिया तो कहां जाएंगे ? मुझसे मशविरा तक नहीं किया ?’’ कहते-कहते उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई। 

“भाग्यवान! तुम्हें क्या अपनी परवरिश पर भरोसा नहीं है ? इन बच्चों को हमीं ने संस्कार दिए हैं, विश्वास रख! बच्चे हमें आंख के तारों की तरह रखेंगे ! ’’ उत्तर देते हुए बनवारी ठठाकर हंस पडे़। 

“संस्कार बच्चे मां-बाप से ही नहीं लेते। आजकल बाहर की हवा भी बच्चों को बिगाड़ देती है। रोज टीवी पर हम ऐसी घटनाएं देख रहे हैं। लोग यहां तक कि निकट रिश्तेदार भी धन मिलने के बाद तोतों की तरह आंख फेर लेते हैं। बुढ़ापे में तब कोई संगी नहीं होता।’’ कल्पना की बेचैनी आंखों में उतर आई थी। 

“ कुछ नहीं होगा! तू निश्चिंत रह। बच्चे हमें हथेली के छालों की तरह रखेंगे। उन्हें जिम्मेदारी नहीं देंगे तो वे जिम्मेदार कैसे बनेंगे ? जब तक वे जीवन की तपन, चुनौतियां नहीं झेलेंगे , सड़े पानी की तरह उनका व्यक्त्तित्व एवं यह कड़ी मेहनत से बनाया कारोबार भी वहीं ठहर जाएगा। वे मुसीबत में अब भी राय ले सकते हैं, मैंने आंखें थोड़े मूंद ली हैं ।’’ यह कहकर बनवारीलाल ने पुनः पत्नी की ओर देखा जो मूक सब कुछ सुन रही थी। उसके चेहरे पर आशंकाओं के बादल उमड़ने लगे थे। 

“ आपको समझाना मुश्किल है। जो स्वाभिमान आपकी सरपरस्ती में था, अब थोड़े न रहेगा।’’ कल्पना रुंआसी हो गई। 

“अरे! तुम बेफिक्र रहो। मैं हूं ना। मुझ पर विश्वास रख, सब संभाल लूंगा। ’’ इस बार उत्तर देते हुए बनवारी ने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा तो कल्पना आश्वस्त हुई। मन ही मन दुआ करने लगी ईश्वर लाज रख ले। 

दूसरे दिन से बच्चों ने पूरे कारोबार का चार्ज लिया। तीनों अब बराबरी के भागीदार थे। बनवारी को जब भी जरूरत होती बच्चों से मांग लेते ! हां, कल्पना अब भी अपनी जरूरतों की प्रतिपूर्ति पति से लेकर ही करती। इन दिनों उनका अधिकांश समय तीर्थाटन, विदेश-यात्रा अथवा संत समागम में व्यतीत होता। समाजसेवा एवं लोकोपकार के अनेक कार्यो से अब पति-पत्नी जुड़ गए थे।

कुछ दिन तो सब कुछ ठीक चला लेकिन धीरे-धीरे बनवारी को दुनिया की हकीकत समझ आने लगी। मोह की पट्टियां ईश्वर कृपा से ही खुलती है। प्रारम्भ में तो बच्चे उन्हें मुंहमांगा देने लगे। हालांकि उनकी मांग कभी नाजायज नहीं होती, लेकिन धीरे-धीरे वही रकम बच्चों को खटकने लगी। सत्ता के नशे एवं एकाधिकार को पचाना सरल नहीं है। बच्चों-बहुओं के व्यवहार से उन्हें समझ आने लगा कि वे उन पर बोझ बन गए हैं। ग़ाज तो तब गिरी जब एक दिन उन्होंने योगेश से किसी धर्म कार्य के लिए पचास हजार मांगे एवं उसने दो टूक उत्तर दिया, “बाबूजी! पूरे दिन मेहनत कर रुपये कमाते हैं, आप तो अब कुछ करते नहीं, पैसे पेड़ पर नहीं उगते कि आप जब जितना मांगे दे दें।’’, उस समय पास चुप खड़े विमलेश, राजेश एवं तीनों बहुएं मानो योगेश की बात पर सहमति की मुहर लगा रहे थे। 

बनवारी भीतर तक हिल गए। उन्हें अब बीवी की सलाह याद आई। चीखकर बोले, “ यह संपदा क्या तुम तीनों ने कमाई है ? मैंने कड़ी मेहनत के करोड़ों कमाकर तुम्हारे लिए छोड़े हैं। अब क्या इतनी छोटी रकम का भी मुझे स्पष्टीकरण देना होगा ?’’ कहते-कहते बनवारी हिलने लगे। उनकी सांस फूलने लगी। 

“ बाबूजी! मेरे पास बहस करने का समय नहीं है। वैसे आप किसी की मानते भी कब हैं। प्रारंभ से ही आपको डिक्टेट करने की आदत थी। बात चली है तो अब स्पष्ट सुन लीजिए, आप मनमानी से पैसा खर्च नहीं कर सकते। अब यह पैसा एक का नहीं तीन का है। मैं जो भी कह रहा हूं हम तीनों का संयुक्त निर्णय है।’’ इतना कहकर योगेश अपने कमरे में चला गया। योगेश के जाते ही विमलेश एवं राजेश भी पत्नियों के साथ उसकी बात का अनुमोदन करते हुए वहां से सरक लिए। 

बनवारी जड़ हो गए, चेहरे की दशा ऐसी थी मानो किसी पेड़ पर बिजली गिरी हो एवं पेड़ जलकर काला पड़ गया हो। कल्पना ने आगे बढकर उन्हें संभाला। इससे अधिक सुनना अब संभव नहीं था। दोनों चुपचाप कमरे में चले आए। 

रात दोनों की आंखों में नींद कहां थी। विश्वास टूटे कांच के बर्तन की तरह चूर हो चुका था। बनवारी बार-बार बीवी की ओर देखते और मन ही मन सोचते, उफ! यह कैसा निर्णय हो गया ? अतिविश्वास में उन्होंने यह क्या कर डाला ? वे बीवी को तो क्या किसी और को भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। काश! वे कल्पना से मशविरा कर निर्णय लेते। पुत्र मोह ने उन्हें किस तरह जकड़ लिया ? अपरिग्रह का यह कैसा भाव उनकी आत्मा पर उभर आया ? अच्छा हुआ अभी मैं जीवित हूं अन्यथा मेरे बिना अकेली कल्पना पर क्या गुजरती ? आत्मवेदना एवं पश्चात्ताप की एक तेज चीख उनके हृदय को चीरकर निकल गई। वे विचलित हो उठे। उठकर बालकनी में आए एवं सर उठाकर आसमान की ओर देखा। बरसात के दिन थे। आसमान का चांद काली बदलियों के पीछे छुपा था। यहां – वहां झांकते तारे मानो उनका मखौल उड़ा रहे थे। बनवारी स्वयं को क्षमा नहीं कर पा रहे थे। 

इसी उहापोह में यकायक उनकी हाथों की मुट्ठियां कस गई। ओह! जीवनभर स्वाभिमान से सर उठाकर जीने वाला सेठ बनवारी क्या शेष जीवन यूं ज़लालत का जीवन जीएगा? कदापि नहीं ! मैंने सम्पत्ति का बंटवारा किया है अनुभव का नहीं। मेरा व्यावसायिक हुनर आज भी जिन्दा है। आज भी मुझमें इतनी कुव्वत है कि बाजी पलट सकता हूँ और मुझे यह करना ही होगा। जीवन की इस नई चुनौती को मैं अपने जीवट, अनुभव एवं कौशल से शिकस्त देकर रहूंगा। मुझे एक और पारी खेलनी ही होगी। सोचते-सोचते उनकी आंखें एक अभिनव संकल्प से चमक उठी।

दूसरे दिन मुंह अंधेरे ही पति-पत्नी ने बच्चों को बिना बताये घर छोड़ दिया। बनवारी ने अपने एक पुराने साथी व्यवसायी मोहनलाल का दरवाजा खटखटाया। मोहन किसी जमाने में दिवालिया होने की कगार पर था। तब बनवारी ने ही उसे सहारा दिया था। बनवारी ने उसे जब अपनी दुर्दशा का बयां किया तो मोहन की आंखें भर आई, पास खड़ी मोहन की पत्नी बोली, “हम आपके अहसान आज तक नहीं भूले हैं। आप दोनों यहां जब तक चाहें, रह सकते हैं। वैसे भी हम अकेले हैं। दोनों बच्चे विदेश में रहते हैं। आपके आने से अच्छी कम्पनी रहेगी।’’ कहते हुए वह कल्पना को भीतर लेकर आई। बनवारी सोचने लगे जिन बच्चों पर सबकुछ कुर्बान किया आज वे अहसानफरामोश हो गये एवं इस व्यक्ति को किंचित सहारा दिया वह आज तक अहसान से भरा है। यही सोचते उनकी आंखें नम हो गई। मोहन ने योगेश को फोन कर बनवारी के निर्णय से अवगत करवा दिया। उन्हें कौन-सी परवाह थी, एक भी पुत्र उनसे मिलने नहीं आया। आंख फूटी , पीर गई। 

बनवारी ने पुनः मोर्चा सम्भाला। कभी-कभी बुरा समय मनुष्य की चेतना को इतनी अपरिमित शक्तियों से भर देता है कि मनुष्य असंभव को भी संभव बना देता है। हमारे दृढ़ संकल्प चुम्बक की तरह हमारे ध्येय को अपनी और खींच लेते हैं। बनवारी ने धन ही नहीं प्रतिष्ठा भी बनाई थी। किसी जमाने में लोग उन्हें ‘काॅटन किंग’ कहते थे। व्यापारियों से उधार माल लेकर उन्होंनें पुनः कारोबार प्रारम्भ किया। मार्केटिंग, विक्रय-कला में तो सिद्धहस्त थे ही , कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। कुछ वर्षो में ही वारे-न्यारे हो गए। जो सम्पति बनवारी जीवनभर नहीं कमा पाए, उन्होंनें कुछ वर्षो में पुनः अर्जित कर ली।

उधर दम्भ एवं नशे में डूबे बच्चे कारोबार नहीं सम्भाल पाए एवं कुछ समय में ही फैक्ट्री के ताले जड़ गए। पैसा मिलते ही तीनों ने दो दूनी चार के चक्कर में काॅटन का सट्टा किया, काॅटन के भाव इसी बीच औंधे मुंह गिरे एवं इसके साथ ही उनके स्वप्न ताश के पत्तों की तरह ढह गए। बडे-बूढ़े सच ही कह गए हैं मनुष्य के कर्म पल-पल उसके साथ चलते हैं। माता-पिता के रूठने के साथ ही उनका भाग्य भी रूठ गया। भाग्य कर्म का ही तो दूसरा नाम है। विपत्ति में अब तीनों को पिता की याद आई।

तीनों पिता के पास सहायता के लिये आए, इस बार बनवारी ने कुछ भी देने से इन्कार कर दिया। उन्हें बच्चों पर किंचित् रहम नहीं आया। बच्चे मुंह लटकाकर घर से निकल गए। कल्पना ने भी अतीत को यादकर हृदय में उमड़ती ममता को दबोच लिया। कपूत बच्चों को सिर्फ इस आधार पर सहायता क्यों मिले कि वे हमारी औलादें हैं। यह सहायता उन्हें क्यों न मिले जो निर्धन, असहाय होते हुए भी परिश्रमी एवं हुनरमंद हैं लेकिन धन की कमी के चलते जिनकी महत्त्वाकांक्षा के पांवों में अवरोधों की बेड़ियां लग जाती हैं।

सर्दियां फिर आई। सूरज और कोहरे में फिर युद्ध हुआ। इस बार सूरज विजेता रहा। धूप बिखरी तो मेहरानगढ़ का एक-एक पत्थर चमक उठा। पहाड़ी पर सर उठाये मेहरानगढ़ मानो शहर के तमाम बुजुर्गों से कह रहा था, जागो! मोह से जागो! इसे नष्ट किए बिना तुम्हारी आत्मा का अंधेरा कैसे मिटेगा ? प्रकाश कैसे प्रकट होगा ?

बनवारी के जीवन का यह नया सवेरा था। उनका मोह समूल नष्ट हो गया। इस बार वे अपरिग्रह के एक अभिनव भाव से भर उठे।

कुछ समय बाद उन्होंने वकील को बुलाकर अपनी तमाम सम्पति का ट्रस्ट बनाया, एक ऐसा ट्रस्ट जिससे निर्धन, हुनरमंद बच्चों को आगे बढ़ने के लिए बिना ब्याज एवं बिना जमानत सहायता मिल सके।

उन्हें आज पहली बार लगा वे भारमुक्त हो गए हैं।

यह असल अपरिग्रह था।

ट्रस्ट बनाने के कुछ दिन बाद पति-पत्नी दूर किसी वृद्धाश्रम में चले गए।

दिनांक: 17/01/2018

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