असली खुराक

‘अल्लाहो अकबर……..’ 

घर से कुछ दूर स्थित मस्जिद से आती मुल्ला की अजान सुनते ही मैंने बैठक में पड़ी आरामकुर्सी उठायी एवं बाहर बगीचे में रख दिया। कबीर ने भले अजान सुनकर कोफ्त निकाली हो कि खुदा क्या बहरा हो गया है जो इतनी तेज आवाज में बांग देते हो पर मेरे लिए तो यह अजान अलार्म क्लाॅक थी हालांकि उसका गूढ़ार्थ मुझे बहुत देर बाद समझ में आया कि, ‘हे ईश्वर! तू महान है।’ 

बाहर कुर्सी पर बैठकर मैंने दोनों टांगे ऊपर की एवं हाथों से घुटने बाँधकर कई देर इस पर झूलता रहा। 

मेरी कुछ अजीब आदतें हैं जैसे मुँह अंधेरे बगीचे में आरामकुर्सी पर बैठकर पक्षियों की आवाजें सुनना, पेड़-पौधों से बातें करना एवं इन सबसे मन भर जाये तो आसमान की ओर मुँह कर चाँद-तारों को तकना। इन सब बातों से मुझे अनिर्वचनीय सुख मिलता है।इस आनंद के आगे पड़ोसियों का पागल कहना एक क्षुद्र उपहास भर लगता है। समुद्र में गोते लगाने वाले किसके कहने से रुके हैं? भला इस आनन्द को मैं कैसे छोड़ूं ? आत्मा की तह से उठती कोयल की कुहू-कुहू में मुझे अल्लाहू का नाद सुनायी देता है।पंक्तिबद्ध नाचते हुए मोरों को देखकर लगता है मानो कृष्ण का महारास हो। चहकते हुए पक्षी मुझे राम धुन का आनन्द देते हैं।झूमते हुए पेड़ देखकर यूं लगता है जैसे समूचा अस्तित्व,पत्ता पत्ता अनुप्राणित होकर नृत्य कर रहा हो। प्रकृति की मंगला आरती की भव्यता के आगे मनुष्य की पुकार कितनी क्षुद्र है? वह तो उठते ही प्रतिस्पर्धी बन जाता है। एक पुकार के उठते ही दस धर्मावलम्बियों की आवाजें सुनायी देने लगती है……… आरतियों की, घण्टा ध्वनियों की और जाने क्या-क्या। मतवादी भला तत्ववादियों को कब समझेंगे? 

कुर्सी से उठकर मैं भीतर आया एवं सीधे बाथरूम में घुसा। सर्दी हो या गर्मी, मैं, सदैव ठण्डे पानी से ही नहाता हूँ। 

नहाकर पुनः बगीचे में आया। कुछ देर कसरत कर हाथ-पाँव गरम किये। तभी सामने वाले नीम के पेड़ पर एक दृश्य देखकर आत्मविभोर हो गया। नीम की नीचे वाली शाखा से निकलती दो टहनियों के बीच बने एक घौंसले में ‘फेमिली ब्रेकफास्ट’ हो रहा था। कुछ रोज पहले उस घौंसले में चिड़ियाँ ने अण्डे दिये थे। अब अण्डे फोड़कर बच्चे बाहर आ गये थे। कुल तीन बच्चे थे। नन्हीं पांखों, छोटीआँखों, मखमल जैसे कोमल बच्चे। चिड़ियाँ अपनी चोंच से उनके मुँह में दाना डाल रही थी। बच्चे मानो उछल-उछल कर कह रहे थे, ‘मम्मी! मी फर्स्ट!’ चिड़ियाँ सबको जवाब देती, ‘चिंता मत करो! सबको भर-पेट खिलाऊँगी। मेरे प्यारे बच्चों! मेरा पेट तो तुम्हारा पेट भरने से ही भर जायेगा।’ पास ही एक चिड़ा इधर-उधर उड़कर यहाँ-वहाँ से दाने बटोर कर ला रहा था। चिड़िया बार-बार उसकी तरफ चीं-चीं कर कहती जल्दी करो! बच्चों का पेट अभी नहीं भरा है।‘ चिड़ा ’अभी आया‘ कहकर पुनः उड़ जाता। चिड़ियाँ बच्चों को चोंच से सहलाकर समझाती, ‘तुम्हारे पापा बहुत अच्छे हैं।’ 

मैं इस दृश्य में इतना खोया कि मुझे मेरे माता-पिता की याद हो आयी। दोनों का स्वर्गवास हुए पाँच वर्ष से ऊपर होने को आये। पाँच वर्ष पूर्व मम्मी की मृत्यु हुई। मरते वक्त भी उनकी आँखों में सुहागन होने का गर्व था। डाॅक्टर ने जब स्टेथ हटाते हुए कहा, ‘साॅरी! शी इज नो मोर’, तब सारा घर बिलख उठा था। डाॅक्टर रोग का इलाज कर सकता है, मौत का इलाज किसके पास है? इसके दो माह पश्चात् हृदयाघात से पापा का निधन हो गया। वे दोनों एक दूसरे के लिए ही बने थे। पापा हमेशा मम्मी से कहते थे, ‘तुम पहले मत मरना! मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊँगा।’ मम्मी एक ही रट लगाती, ‘मैं तुम्हारे कंधे जाऊँंगी, ईश्वर मुझे सुहागन मारे।’ भगवान ने मम्मी की सुनी पर इस तरह कि पापा भी निराश न हो। शुद्ध अंतःकरण से निकले शब्द कई बार आगत घटनाओं के पूर्वसूचक होते हैं। यह बातें हमें तभी समझ में आती है जब घटनाएं घट जाती हैं। 

बचपन का एक-एक लम्हा मुझे आज भी याद है। छोटा-सा परिवार था हमारा। दो भाई, मैं एवं मुझसे छोटा योगेश। हम दोनों से छोटी शारदा जिसे हम प्यार से छुटकी कहते थे। उम्र्र में छोटी पर अक्ल में तलवार की धार जैसी तेज। पापा की चमची थी। पापा सैदव उस का पक्ष लेते। जहाँ हमारी पापा के साथ बैठने तक से जान सूखती, छुटकी में जाने क्या जादू था, पापा से हर बात मनवा लेती। 

डाईनिंग टेबल पर हम सभी एक साथ नाश्ता लेते। हमारे खाने का ध्यान मम्मी रखती। यह लो, वह लो, दूध पीकर जाना, दूध नहीं पीने वाले बच्चों के दिमाग कमजोर हो जाते हैं आदि-आदि लुभावनी बातें कहकर हमें खिलाती रहती थी। खुद ने खाया या नहीं इसकी सुध-बुध भी नहीं। पापा अखबार पढ़ते हुए दर्शनशात्र झाड़ते। हमें उनकी बातें जरा भी समझ नहीं आती। एक दिन न जाने क्या सोचकर मम्मी से बोले, ‘तू तो बस इनका पेट भरने की चिंता में रहती है, असली खुराक नहीं देती….।’ पापा कुछ और कहते उसके पहले छुटकी ने बात काटकर पूछा, ‘पापा! असली खुराक क्या होती है?’

तब पापा की आँखें शून्य में तकने लगी थी। उत्तर देने के पूर्व कोई महान दर्शन उनकी आँखों में सिमट आया था। छुटकी के रेशमी मुलायम बालों को सहलाते हुए बोले, ‘असली खुराक से सिर्फ पेट ही नहीं भरता, मन भी प्रसन्न रहता है।वह हमारे नित्य प्रतिदिन की ऊर्जा बैटरी की तरह चार्ज करती है। वह बाजार में नहीं मिलती पर अनमोल होती है। उसमें शक्कर नहीं डालनी पड़ती पर वो चासनी से भी अधिक मीठी होती है, उसमें …..।’ 

उस दिन हमारी आँखों में पहेलियों सा रहस्य उतर आया था। तब मम्मी ने सर खुजाते हुए पापा को फटकार लगाई, ‘आपको क्या अक्ल का अजीर्ण हो गया है? ठौर-कुठौर कुछ तो देखा करो। मन के लड्डुओं से भूख नहीं मिटती। तुम्हारी इन पहेलियों के कारण मेरे बच्चे आधे भूखे रह जाते हैं। दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हो तो अपना शास्त्र काॅलेज में झाड़ा करो। तुम्हारे भरोसे तो बच्चे स्कूल भी नहीं पहुँचे।’ 

पापा तब ठठाकर हँस पड़े थे। 

मम्मी जब भी पापा को फटकार लगाती, मुझे अतुलनीय सुख मिलता था। यह सुख पहेली के समाधान की पीड़ा से बचने का होता अथवा पापा की तानाशाही पर मम्मी के विरोध का, मुझे नहीं मालूम।

अतीत की उस झूमती शाखा पर हमारा कितना सुन्दर घौंसला था। ठीक सामने वाले घौंसले की तरह। पापा-मम्मी और हम तीन बच्चे। आज मैं पचास वर्ष का हूँ, योगेश सैंतालीस का एवं छुटकी पैंतालीस की। तीनों के अपनी-अपनी कोठियाँ हैं, पर उस घौंसले के आगे कुछ भी नहीं। 

उन क्षणों की याद आते ही आँखें भर आती है। 

भोर के अण्डे को किरणों की चोंच से फोड़कर बाल-सूर्य चूजे की तरह पूर्वांचल पर मुँह निकाल रहा था। आँगन में अब प्रकाश बिखरने लगा था। 

यकायक भीतर से श्रीमती की तेज आवाज सुनकर चौंका, ‘यूँ चिड़े-चिड़ी को ही देखते रहोगे अथवा घर की भी सुध लोगे। बच्चे डाईनिंग टेबल पर इंतजार कर रहे हैं। आज रात आपको नये ठेके के टेण्डर एवं पेपर्स लेकर दिल्ली भी तो जाना है।’ 

मैं झेंपकर भीतर आया।

ब्रेकफास्ट करने के बाद मैंने ऑफिस की राह ली। आज टेंडर, बिल, काॅन्ट्रेक्ट आदि-आदि तैयार करवाने जरूरी थे। बैंक से एडवान्स एवं अन्य खर्चो हेतु रकम भी निकलवानी थी।

सारा दिन आपा-धापी में बीत गया।

सभी व्यवस्थायें कर देर रात वाली ट्रेन से मैं दिल्ली रवाना हुआ। ट्रेन में काफी भीड़ थी। जाते समय का तो रिजर्वेशन मिल गया था, आते समय का रिजर्वेशन नहीं बन पाया। अनारक्षित कोच में आने की कल्पना से ही मन काँप गया। 

ठेकेदारी भी कोई काम है? कन्स्ट्रक्शन ठेेकेदारी में तो ‘जेक ऑफ आल’ यानि बहु प्रतिभाशाली होना पड़ता है। सारे गुण जिसमें निवास करे उसे ठेकेदार कहते हैं। लेकिन समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं। सबका पेट भरो लेकिन खुद चोर कहलाओ। अफसर भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हैं वे साहब कहलाते हैं। यहाँ दिन-रात खून-पसीना बहाकर दो पैसे कमाते हैं फिर भी चोर कहलाते हैं। इस देश में व्यापारी की कोई इज्जत नहीं। महीने के दस हजार कमाने वाला सरकारी चपरासी लाखों कमाने वाले को कतार में खड़ा कर देता है।

दूसरी सुबह ट्रेन दिल्ली समय पर पहुँच गई थी। पूरे दिन टेंडर जमा करवाने एवं अफसरों से गप-शप करने में बीत गया। अफसरों के तलवे सहलाये बिना भी कभी टैण्डर पास हुए हैं? 

रात वापस जाने के लिए मैं रेलवे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन दस बजे रवाना होती थी। आरक्षण था नहीं अतः नौ बजे पहुँच गया। दिल्ली की लम्बी कतारों में टिकट लेने में बहुत समय लगता है।

खिड़की के बाहर एक लम्बी कतार थी, शैतान की आँत की तरह। टिकट मिलना बांस पर खिचड़ी पकाने जैसा था पर अन्य कोई विकल्प भी तो नहीं था। मेरे आगे पच्चीस-तीस लोग तो होंगे ही। सबको इसी ट्रेन से जाना था। सबके चेहरे पर तनाव एवं आतुरता के चिन्ह स्पष्ट थे। मैं भी लाईन के अंत में जाकर खड़ा हो गया। देखेते-देखते पाँच-सात और लोग मेरे पीछे आकर खड़े हो गये। टिकट मिलने वाले खिड़की से ऐसे लौट रहे थे मानो परीक्षा में उत्तीर्ण बच्चे रिपोर्ट कार्ड लेकर आ रहे हों। 

हमारी लाईन के साथ-साथ एक अपंग व्यक्ति अधकटी जाँघों के बल आगे सरक रहा था। उसके दोनों पाँव जाँघों तक कटे थे। उसका नम्बर मेरे आगे खड़े आठवें-नवें आदमी के साथ था, हाँ, कतार से अलग वह उनके साथ-साथ आगे बढ़ रहा था। एक कदम आगे बढ़ता, बढ़ने के साथ अपना बैग भी सरकाता जाता। उसके चेहरे पर चिंता एवं विषाद के चिन्ह स्पष्ट थे। 

अब तक पौने दस बजे चुके थे, ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। उसे टिकट भी लेना था, अपंग होने का प्रमाण-पत्र बताकर छूट भी लेनी थी। इतना ही नहीं वह इस बात को लेकर भी चिंतामग्न था कि उसे टिकट लेकर कोच तक पहुँचने में अन्य लोगों से दूना समय लगेगा। उसके पैबन्द लगे कपड़ों से उसकी आर्थिक स्थिति स्पष्ट थी अर्थात् वह हर हाल में कन्सेशन लेगा एवं बिना कुली रगड़ते हुए ही कोच तक पहुँचेगा। मेरी ठेकेदारी गणित ने क्षणभर में अनुमान लगा लिया कि वह आज ट्रेन पर नहीं चढ़ पायेगा अथवा बराबर वक्त पर ही पहुँच पायेगा यानि जरा सी देरी से उसकी यात्रा रद्द हो जायेगी। उम्र भी उसकी पचास पार थी।

मेरे आगे अब मात्र आठ आदमी कतार में थे। घड़ी का काँटा तेजी से दस की ओर बढ़ रहा था। उसका नम्बर आते ही उसने अपने साथ खड़े व्यक्ति की ओर रुपये एवं प्रमाण-पत्र बढ़ाया। अपनी कटी हुई जाँघों के बल वह पक्षी की तरह खड़ा हो गया, बमुश्किल वह कतार में खड़े व्यक्तियों की कमर तक पहुँच पा रहा था। 

उसने याचक आँखों से कतार में आगे खड़े व्यक्ति को निवेदन किया, ‘बाबूजी! मेरा नम्बर आ गया है, मुझे टिकट ले दो।’

उस व्यक्ति ने देखकर ऐसे मुँह घुमाया मानो देखा ही ना हो। तोते की तरह आँख फेरली। तुरन्त अपना टिकट लिया और चलता बना। 

अपंग व्यक्ति लहू का घूंट पीकर रह गया। उसकी व्यथा और बढ़ गयी। उसने इस बार सबसे आगे खड़े व्यक्ति से निवेदन किया पर वह भी टिकट लेकर चलता बना। 

न पहले ने सुध ली न दूसरे ने।

अपंग व्यक्ति का दम घुटने लगा। वह मन ही मन कुढ़ने लगा। सबको अपनी पड़ी है, गैर का सर कद्दू बराबर।

तीसरे व्यक्ति के तो उसने चरण पकड़ लिये, ‘बाबूजी! बेटे की तबीयत बहुत खराब है। मेरा इस ट्रेन से जाना जरूरी है। मुझे टिकट ले दो। मेरा नम्बर कब का आ चुका है।’ 

तीसरा व्यक्ति आगे दो वालों से भी अधिक चतुर था। उसने भी टिकट लिया और चलता बना। 

चौथे व्यक्ति ने भी यही क्रम दोहराया। सब के सब एक से…. पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर। जाते-जाते चौथा व्यक्ति अपंग व्यक्ति को फुटबाल की तरह लुढ़का गया। बस यही कमी शेष थी। 

अपंग व्यक्ति सम्भल कर उठा पर सभी को अपनी पड़ी थी। हमारा घोड़ा छाँव में खड़ा हो जाये, बाकी मरे तो मरे। 

मेरे आगे अब मात्र चार लोग खड़े थे। सबको दरकिनार कर न जाने  क्या सोच कर उसने मेरी तरफ देखा। करुणा, दीनता एवं निरीहता से डबडबायी याचक आँखों से उसने मुझे अंतिम अवलम्ब मानकर पुकारा, ‘बाबूजी! मेरी कोई नहीं सुन रहा, आप मेरी मदद कीजिये।’

मेरे हृदय में हाहाकार मच गया। क्या अपंग लोगों के लिए अलग लाइन अथवा काउन्टर नहीं हो सकता? शायद सरकार ने व्यवस्था भी की हो लेकिन किसको दूसरे की पड़ी है ? मुझे लगा आज मनुष्यता को पाँवों तले रौंदा गया है। क्या तुम भी वही करोगे जो दूसरों ने किया है अथवा उसे सहारा देने का साहस जुटाओगे? 

सद्विचार हमारे आत्मविश्वास को दूना कर देते हैं। 

मैंने तुरन्त उसके हाथ से प्रमाण-पत्र लिया, अपनी जेब से रुपये निकाले एवं मेरे आगे खड़े सभी व्यक्तियों को एक तरफ कर काउन्टर पर आ गया। मेरा रक्त उबल रहा था। आँखों में भवानी उतर आयी थी। मैं चीखकर बोला, ‘अगर किसी की माँ ने दूध पिलाया हो तो इसके पहले आज कोई टिकट लेकर देखेे।’

इतने शोरगुल के बीच एक भयानक निस्तब्ध्ता छा गयी।

काउन्टर क्लर्क को साँप सूंघ गया। मैंने उसे लताड़ा, ‘जब तक इसका टिकट नहीं बनता, आज कोई टिकट नहीं ले सकता। आप कैसे मुलाजिम है? क्या आपको यह व्यक्ति दिखाई नहीं देता?’ मेरी आँखें क्रोध से दहक रही थी। पुतलियों से चिंगारियाँ बरस रही थी। 

काउन्टर क्लर्क पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगा। उसने खड़े होकर उस व्यक्ति को देखा। उसकी आँखें शर्मिन्दगी से झुक गयी। उसने आनन-फानन हम दोनों का टिकट बनाया। अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखते हुए बोला, ‘बाबूजी! फुर्ती करें, ट्रेन जाने में है। मैं इसके लिये व्हीलचेयर की व्यवस्था कर देता हूँ।’ 

व्हीलचेयर पर उसे बिठाकर मैं दौड़ा। प्लेटफार्म पहुँचते-पहुँचते ट्रेन रवाना होने लगी थी। मैंने तुरन्त उसे कोच में चढ़ाया। उसने चढ़कर मेरी ओर देखा। उसकी आँखें मेरे उपकार से लबालब थी। अहसान समाता न था। 

ट्रेन अब गति पकड़ चुकी थी। कन्धे पर बैग लटकाये मैं ट्रेन के साथ दौड़ रहा था। देखते ही देखते उसका कोच आगे निकल गया। उसके पीछे वाले कोच में खड़े कुछ यात्रियों ने मुझे हाथ दिया। मैं हाँफते हुए कोच में चढ़ा। 

कोच में आती ठण्डी हवा के झौंकों से मेरा मन शांत हुआ।

आज मैं कितना प्रफुल्लित था। वस्तुतः आज जितनी प्रसन्नता मैंने वर्षों महसूस नहीं की। यह कैसा आत्म-आलोक था? कैसा स्वर्गिक सुख? कितना मूक, कितना वाचाल, कितना रस भरा ? आज मैं डिनर नहीं ले पाया पर मेरा पेट भरा था। यह अनिर्वचनीय सुख मेरी आत्मा को आनन्द से रससिक्त कर रहा था। वर्षो पहले पापा की कहीं बातों का अर्थ मुझे आज समझ में आया, ‘असली खुराक से सिर्फ पेट ही नहीं भरता, मन भी प्रसन्न रहता है। वह हमारे दिन-प्रतिदिन की ऊर्जा बैटरी की तरह चार्ज करती है। वह बाजार में नहीं मिलती पर अनमोल होती है। उसमें शक्कर नहीं डालनी पड़ती, पर वह चासनी से भी मीठी होती है। उससे शरीर ही नहीं हमारा मन, प्राण एवं आत्मा तक तृप्त होती है।’

मैं मन ही मन फुसफुसाने लगा था, ‘पापा! यू वर ग्रेट ।’

दूसरे दिन सुबह घर पहुँचा तो श्रीमतीजी ने मुस्कराते हुए बधाई दी, ‘बीती रात ग्यारह बजे केन्द्रीय निर्माण विभाग, दिल्ली से फोन आया था।’ आपका टेन्डरपास हो गया है।

………………………………………

28.09.2005

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *