दुनिया की ज़ुबान भला कौन पकड़ सकता है ? यहाँ जितने मुँह उतनी बातें हैं।
फैक्ट्री के मुलाजिम एवं मजदूर इन दिनों जहां मिलते, एक ही बात करते, ‘‘आखिर सेठ हरनारायण को हो क्या गया है ? कल तक बंसत की तरह खिलने वाला सेठ आज पतझड़ की तरह क्यों मुरझा गया है ?’’ लोगों की बात सही भी थी। कुछ माह पहले तक स्थिति यह थी कि सेठजी फैक्ट्री में आते तो लोगों के प्राण सूख जाते। उनका व्यक्तित्व दमदार एवं आँखों में ऐसा रुआब था कि उनकी उपस्थिति ही आधी समस्याओं का अंत कर देती। पूरे छः फुटे एवं डीलडौल ऐसा हृष्टपुष्ट कि जहाँ खड़े होते, सामने वाला स्वतः बौना हो जाता। फिरअब क्या हो गया ?
वैसे तो यह संसार ही दुःखालय है। यहाँ कौन जानता है किसको क्या दुःख है ? अच्छे-खासे, हँसते-मुस्कुराते चेहरों के पीछे दुःख की क्या कथाएं छुपी हैं, दर्द के कितने आँवे जल रहे हैं, कोई नहीं जानता। सच्चे हमदर्द रह भी कितने गये हैं कि हम हमारे दुख का बयाँ कर सके ? लोग मजाक न बनायें तो गनीमत है। कुछ दुःख होते ही ऐसे हैं कि भोक्ता बयान भी नहीं कर सकता। उनका बयान मात्र उसके वैयक्तिक सामाजिक अस्तित्व को छिन्न-भिन्न कर सकता है। बड़े-बुजुर्ग शायद इसीलिए कह गये हैं- दुःख सहो, कहो मत। कहने से दुःख मिटता तो नहीं, हाँ, जगहँसाई जरूर होती है।
क्या सेठ हरनारायण को भी ऐसा ही कोई दुःख खा गया था ? क्या वे भी अपना दुःख बाँट नहीं सकते थे ? पर उनके तो सद्गृहस्थ पत्नी एवं समझदार बेटे हैं, वे चाहे तो उनसे भी अपना दुःख बाँट सकते हैं। माना कि बच्चे बहुत बड़े नहीं हैं, अभी-अभी काॅलेज जाने लगे हैं पर उनकी बीवी तो है। उनसे उम्र में मात्र दो वर्ष छोटी, पेंतालिस वर्ष की। इस उम्र में तो पति-पत्नी में इतनी समझ, सामंजस्य एवं परिपक्वता आ जाती है कि एक दूसरे का दर्द बिना कहे समझा जा सकता है, ऐसे में दुःख नहीं बाँटना निरी मूर्खता है। उनकी पत्नी, उनके रिश्तेदार, मित्र समझा-समझा कर थक गये पर हरनारायण अपना मुँह नहीं खोलता। अब वे भी क्या करे? आप घोड़े को पानी तक ले जा सकते हैं पर पीयेगा तो अपनी मरजी से ही। इन तमाम तर्कों के बीच हरनारायण का दुःख वे ही जानते हैं। उनकी व्यथा दिन-रात उनका रक्त चूस रही हैं पर वे मूक हैं। अब वे कैसे कहे कि उनके साथ क्या हुआ ?
दो माह पहले दिसम्बर के अंतिम दिनों की बात है। इक्कीस दिसम्बर की सुबह थी। पूरा शहर कुहरे की चादर ओढ़े ठण्ड के मारे ठिठुर रहा था। बंद कमरों में भी लोग सर्दी के मारे रजाइयों में सिकुड़ रहे थे। हरनारायण रोज छः बजे उठते थे। आज भी उठने ही वाले थे। कोई साढ़े पाँच बजे होंगे। सर्दी में रजाई का मोह मुश्किल से छूटता है। बहुधा उठते-उठते पुनः गहरी नींद आ जाती है। हरनारायण भी उठते-उठते गहरी नींद में फिसल गये। यकायक उन्होंने एक खौफनाक स्वप्न देखा। दो अदृश्य हाथ उनके गर्दन की तरफ बढ़ रहे थे। हाथों पर कोई कपड़ा नहीं था, पूरे नंगे थे। हरनारायण ने आँखे फाड़कर देखने का प्रयास किया पर हाथों के पीछे घना कुहरा था, तमाम प्रयास के बावजूद चेहरा नजर नहीं आ रहा था। हाथ बढ़ते-बढ़ते गर्दन तक पहुँचे तो हरनारायण ने अपने हाथ आगे कर रोकने का प्रयास किया। हाथों को रोकते ही पीछे से आवाज आई, ‘‘सेठ! सुधर जाओ! अब मैं तुम्हें जीने नहीं दूंगा।’’ कुछ क्षण चुप्पी के बाद पुनः आवाज आई, ‘‘जो कुछ तू देख रहा है वह परम गोपनीय है। इसकी चर्चा किसी से मत करना वरना वह तो मरेगा ही तुम्हारी जान के भी लाले पड़ जायेंगे।’’
‘‘तुम कौन हो ? क्या चाहते हो ?’’ हरनारायण डरते-डरते बोले। भय के मारे उनकी आँखें फैल गई । पल भर के लिए वे संज्ञाविहीन हो गये। पीछे से कोई जवाब नहीं आया। घबराहट में हरनारायण की आँख खुली तो भरी सर्दी में वे पसीने से लथपथ थे। उनके रोम-रोम में कंपन हो रहा था।
वे उठे और सीधे वाशबेसिन के पास आये। फुर्ती से नल खोलकर मुँह धोया एवं सामने खड़े काँच में चेहरा देखा। उनके चेहरे पर अब भी हवाइयाँ उड़ रही थीं। उन्होंने चीख कर बीवी को पुकारा। नीलम दौड़ी-दौड़ी आई। उनका हाथ पकड़कर बेडरूम में ले जाकर पुनः बिठाया। बच्चे दौड़े-दौड़े आये। हरनारायण की श्वास अब भी फूल रही थी।
‘‘आखिर ऐसा क्या हो गया ?’’ नीलम घबराती हुई बोली।
वे कहने ही वाले थे कि एकाएक उन्हें स्वप्न में मिला आदेश याद आया, ‘‘जो कुछ तू देख रहा है वह परम गोपनीय है। इसकी चर्चा किसी से मत करना वरना………….।’’
हरनारायण ने चुपचाप शब्द गले में निगल लिये। बीवी-बच्चे उन्हें प्राणों से अधिक प्यारे थे।
इस घटना के बाद हरनारायण सूख कर काँटा हो गये। घर-बाहर, ऑफिस में हर समय उखड़े-उखड़े लगते। कई बार तो दीवार में आँखें गड़ाये रहते। अनेक बार सोचते-सोचते उनकी आँखों से आँसू निकल जाते। यही नहीं, उन अदृश्य हाथों का भय उनके जेहन में इतना बैठा कि वे हाथ उन्हें कई-कई बार दिवास्वप्नों में दिखने लगते। भयाक्रांत उनकी नसों में खून जम जाता। सारी रात करवट बदलते। सुबह जरा-सी नींद लगती कि फिर वही हाथ और वही बात। रातों की नींद, दिन का चैन उड़ गया। बेचारे हरनारायण अच्छे फँसे। आँतें गले में आ गई। घरवालों ने ज्योतिषियों, फकीरों, तांत्रिकों एवं सिद्धों की भी शरण ली, सभी ने अपनी-अपनी रोटियाँ सेकीं, अपने शास्त्र के हुनर बताए पर हरनारायण ठीक नहीं हुए।
वैसे इस घटना के पूर्व उनके प्रशासन की घर-बाहर सभी जगह तूती बोलती थी। वे जो कुछ बोलते वही नियम था। फैक्ट्री एवं ऑफिस में भी मुलाजिमों की वे जरा परवाह नहीं करते। सभी को जूती पर रखते। उनके जीवन का एकमात्र मंत्र था, धन-कमाओ, धन से कठिन से कठिन समस्याओं का समाधान हो जाता है। जब सारी दुनिया बिकाऊ है तो फिर ऐसी कौन-सी चीज है जो धन के आगे नहीं बिकती? ऐसा कौन-सा ईमान है जो धन के आगे ठहर जाता है? अपने इसी सिद्धांत को सर्वोपरि मानकर उन्होंने अपार संपदा भी कमाई। जहाँ-जहाँ सम्भव होता वे मजदूरों एवं मुलाजिमों का शोषण करते। धन के बल पर यूनियन का नेता उनकी जेब में था। उनकी सफलता का नशा उनके सर चढ़ बैठा था।
लेकिन इन अदृश्य हाथों ने उनकी सारी सफलता पर पानी फेर दिया। हर तानाशाह अपने भीतर से इतना कमजोर एवं असुरक्षित होता है कि जीवन का थोड़ा-सा भय उसे आक्रांत कर देता है। अकारण अनेकों लोग उसके शक के घेरे में खड़े हो जाते हैं। वह सोचता है कि उसने एक मजबूत रक्षाकवच बना लिया है पर यह उसका भ्रम होता है, सर्वथा भ्रम। जो दूसरों को दुःख देता है, शोषण करता है वह मात्र अपने चारों और मिट्टी की दीवारें बनाता है जिसे प्रकृति का एक इशारा क्षण भर में गिरा देता है। उसकी भीतरी तहें अत्यन्त कमजोर होती हैं।
कल शाम हरनारायण फैक्ट्री से लौटे तो बेहद थके हुए थे। डिनर लेते ही लेट गये। सारी रात फिर करवट बदलते रहे, सुबह उनींदे हुए तो फिर वही स्वप्न। दो अदृश्य हाथ उनकी ओर बढ़ रहे थे। फिर वही हाथ फिर वही बात। इस बार हरनारायण ने हिम्मत जुटाई, ‘‘आखिर तुम कौन हो? क्या चाहते हो ? तुमने मेरा सारा सुख-चैन लूट लिया है। मुझ पर दया करो, तुम जो चाहोगे, मैं वही करूंगा।’’
कुछ देर चुप्पी रही। फिर उन्हीं अदृश्य हाथों के पीछे से आवाज आई, ‘‘बहुत जल्दी भूल गये सेठ! अपने पाप तुम्हें जरा भी याद नहीं रहते। तुम्हारी वर्तमान दशा तुम्हारे पापों की ही खेती है। तुम्हारी वजह से ……………….।’’
भाग (2)
फैक्ट्री के बाहर मजदूरों, मुलाजिमों एवं तमाशबीनों की भीड़ खड़ी थी। सभी के चेहरों पर अद्भुत खौफ था। दस मिनट पहले किसी ने स्टोर में आग उठते हुए देखी, मज़दूर दौड़कर आग बुझाते तब तक आग ने प्रचण्ड रूप ले लिया। भला फर्नीचर की फैक्ट्री को आग पकड़ते कितनी देर लगती। वर्कर्स मैनेजर ने तुरन्त फायर ब्रिगेड को फोन किया, पर फायर ब्रिगेड भी आते-आते आती। फैक्ट्री शहर से दस किलोमीटर दूर थी।
आग की लपटें अब ऊँची उठने लगी थी। सभी विस्मय से इस दृश्य को देख रहे थे पर भीतर जाने का साहस किसी में नहीं था। तभी एक छरहरा जवान वहाँ आया। उसकी उम्र पच्चीस वर्ष से अधिक न होगी। शरीर सौष्ठव देखने लायक था। उसकी बाजुओं में मछलियाँ फड़क रही थी, आँखों में शौर्य हिलौरे मार रहा था। अपने लम्बे कद एवं तीखे नैन-नक्श से वह बाँका लगता था। फकत दो माह पहले ही उसकी नियुक्ति हुई थी लेकिन इस छोटे से अंतराल में मानो सेठ का नमक उसके रक्त में घुल गया था। वह आते ही चीखकर बोला, ‘‘अरे! खड़े-खड़े क्या देख रहे हो? बड़े पाइप को टंकी के नल से लगाओ एवं आग बुझाना प्रारंभ करो अन्यथा थोड़े समय में यहाँ कुछ शेष नहीं रहेगा। सेठ शहर से दूर है तो क्या हमारी वफादारी कौन-सी दूर चली गई है।’’
युवक का उत्साह देखने लायक था। तभी भीड़ से आगे आकर एक वृद्ध बोला, ‘‘काम करने की मजदूरी लेते हैं, मरने की नहीं। जो सेठ पूरा निचोड़ कर पैसा देता है उसके लिए जान जोखिम में डाल दें क्या ? तुम नये आये हो, तुम्हें जीवन का तजुर्बा नहीं है।’’
‘‘अरे अपने नमक की लाज तो रखो! जरा यह तो सोचो कि फैक्ट्री बंद हो गई तो तुम एवं तुम्हारा परिवार कहाँ जाएगा? बर्बादी की बिजली सिर्फ सेठ पर गिरेगी क्या ?’’ युवक की आँखों में भवानी उतर आई थी।
युवक के अंतिम वाक्य का असर हुआ। सभी बाहर से पानी लाकर डालने लगे। इसी बीच युवक ने बड़े पाइप को टंकी से जोड़ा एवं पाइप लेकर अन्दर घुसा। पानी का प्रेशर एवं मात्रा इतनी अधिक थी कि आग नियंत्रण में आने लगी। देखते ही देखते वह भीतर घुस गया। अब वह अकेला ही अंदर पाइप से पानी डाल रहा था। तभी उसने देखा कि लपटें बाॅयलर के समीप पहुँच रही है, अगर बाॅयलर फट गया तो सबकुछ स्वाहा हो जायेगा। वह हिम्मत कर बाॅयलर तक पहुँचा लेकिन दुर्भाग्य! जिसका अंदेशा था, वही हुआ। एकाएक तेज आवाज के साथ बाॅयलर फटा एवं युवक वहीं जान खो बैठा। अभी दो वर्ष पूर्व ही उसका विवाह हुआ था, एक माह पूर्व ही वह एक पुत्र का पिता बना था।नियति की क्रूर लेखनी ने एक सुहागन से उसका पति एवं एक नवजात से उसका पिता छीन लिया।
इसी बीच फायर ब्रिगेड पहुँची, शीघ्र ही आग पर काबू पा लिया गया।
दूसरे दिन सुबह हरनारायण फैक्ट्री पहुँचे तो वहाँ कोहराम मचा था। चतुर सेठ ने आनन-फानन में स्थिति नियंत्रण में ली। युवक की लाश बिना पोस्टमार्टम ही ठिकाने लगा दी गई। बढ़ा-चढ़ाकर बीमा क्लेम भेजा गया। बीमा कम्पनी से अच्छी साँठ-गाँठ कर एक-दो माह में ही नुकसान से अधिक का क्लेम प्राप्त कर लिया गया। फैक्ट्री की मरम्मत भी हुई। काम पुनः चलने लगा। युवक का बलिदान एक आयी-गयी बात हो गयी। कुछ मजदूरों ने दबी आवाज से युवक की विधवा को मुआवजा देने के लिए कहा तो हरनारायण उखड़ गया। उन्होंने यूनियन नेता की मुट्ठी गरम की। नेता ने मजदूरों को समझाया, ‘‘सेठ से अड़ोगे तो काम से जाओगे। एक के पीछे सब मर जाएंगे। बड़े आदमी से पंगा लेना ठीक नहीं।’’
सभी को साँप सूंघ गया। युवक की विधवा ने कई बार आकर हरनारायण के आगे गुहार की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। पत्थर दिल सेठ जरा भी नहीं हिला। पिछले दो महीनों की पे-शीट्स नयी बना दी गयी, युवक का नाम तक गायब हो गया। जब विधवा बार-बार आने लगी तो एक दिन उन्होंने धक्के मारकर उसे निकलवा दिया। वह रोती-चीखती रही पर उसकी किसी ने नहीं सुनी।
इस बात को भी अब एक वर्ष हुआ। हरनारायण इस हादसे को लगभग भूल चुके थे। हाँ, मजदूरों में अवश्य इस घटना की कानाफूसी होती।
भाग (3)
फिर वही भयानक स्वप्न। वही अदृश्य हाथ, वही डरावनी बात। हरनारायण उन अदृश्य हाथों से पूछे जा रहे थे, ‘‘आखिर तुम हो कौन? चाहते क्या हो? तुम जो कहोगे मैं करूंगा।’’ इस बार पीछे से आवाज आई, ‘‘मूर्ख सेठ! इन हाथों को गौर से देख! यह तुम्हारे स्वयं के हाथ हैं!’’ सेठ ने ध्यान से देखा। सचमुच यह उसी के हाथ थे। उसी के जैसी अंगुलियाँ, हथेलियाँ, कुहनी और बाजू। यह एक अद्भुत अलौकिक दृश्य था।
कुछ क्षण चुप्पी के बाद पुनः आवाज आई, ‘‘तुम अवश्य जानना चाहोगे, मैं कौन हूँ? अब मैं तुम्हें बता ही देता हूँ। मैं स्वयं तुम्हारी आत्मा हूँ। तुम जो कुछ करते हो उस प्रत्येक घटना की साक्षी हूँ। जैसे कम्प्यूटर एवं बहियों में तुम्हारे सारे खातों का लेखा-जोखा होता है वैसे ही मैं तुम्हारे एक-एक कर्म की प्रविष्टि करती हूँ। तुम्हारे एक-एक कर्म का तुम्हें हिसाब देना होता है। मैं दृष्टा हूँ तुम्हारे घड़ी-घड़ी की गतिविधियों की। चतुर सेठ! अपनी चतुराई से तुम सबसे बच गये, अब मुझसे बचकर दिखाओ। जिस चतुराई की चलनी में तुमने अपने लोभ का दूध दूहा, वह तो मिट्टी में मिल गया। अब किस चतुराई से इस दूध को बचाओगे? जवाब दो, चुप क्यों हो गये ? मेरे प्रश्न-प्रतिप्रश्नों का उत्तर तुम्हें देना ही होगा ? उस युवक ने नमक की लाज रखते हुए अपनी जान पर खेलकर तुम्हारी फैक्ट्री को बचाया और तुमने उसकी विधवा को भी दुत्कार दिया? तुमने कभी सोचा वह कैसे गुजारा करेगी ? उसका बच्चा कैसे पलेगा ? तुम्हारे पास अपार संपदा है, तुम्हें बीमा क्लेम भी नुकसान से अधिक मिल गया फिर तुमने उस विधवा के क्लेम का भुगतान क्यों नहीं किया ? यही नहीं तुमने चतुराई से सारे रिकाॅर्ड बदल दिये। मूर्ख! निर्लज्ज! याद रख कि जो क्लेम रिकार्ड पर अंकित नहीं होते वे भी कहीं अंकित होते हैं। तुम्हारा बनाया रिकार्ड शायद मिट सकता है पर तुम्हारी आत्मा पर अंकित रिकार्ड अमिट होते हैं। इतने दिनों से तुम्हारी ही आत्मा के यह अदृश्य हाथ तुम्हें भयभीत कर रहे हैं। यह तुम्हारी ही निर्गुण आत्मा का सगुण रूप है जो तुम्हें तुम्हारे दुष्कृत्यों की याद दिला रहा है। अधर्म जब-जब ताण्डव करता है तुम्हारा यह निर्गुण, निराकार रूप अपने सगुण रूप में आकर तुम्हें बोध देता है। हरनारायण, ये अदृश्य हाथ और कुछ भी नहीं स्वयं तुम्हारा आत्मक्रंदन है। तुम्हारी ही अव्यक्त अंतर्व्यथा है। तुम्हारी ही अंतर्वेदना का विलाप है। तुम्हारे ही अंतर-तमस की चीत्कार है। तुम कैसी तन्द्रा में सो गये ? धन के नशे ने तुम्हारे सारे विवेक को हर लिया। तुरन्त उस विधवा को भुगतान करो और आगे भी धर्म एवं न्याय की राह पर चलो, अन्यथा तुम धन तो इकट्ठा कर लोगे लेकिन पुण्यक्षया होकर आत्मिक स्तर पर दिवालिया हो जाओगे। उस गरीब विधवा की हाय तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी। धर्म शांति का मूल है, जो यहाँ दिवालिया हो गया, वह धनी होकर भी कंगाल है।’’
‘‘मैं आज ही जाकर उस विधवा को उसका हक ब्याज सहित अदा करूंगा। इतना ही नहीं उसे ऑफिस में नौकरी दूंगा एवं उसके बच्चे की भी परवरिश करूंगा। यह मेरा वचन है।’’ इतना कहते ही हरनारायण फूल-से हल्के हो गये।
दोनों अदृश्य हाथ अब गले से हटकर उनके आगे प्रणाम-मुद्रा में ऐसे खड़े थे मानो हरनारायण का आभार प्रगट कर रहे हों।
सेठ हरनारायण सकपका कर उठे।
सर्दी के कुहरे को फाड़कर सूर्य पूर्वांचल से उठा ही था। सेठ हरनारायण ने नोटों से भरा बैग कार में रखा। आज वे कितने प्रसन्न, कितने खिले हुए लग रहे थे।
उन्होंने कार स्टार्ट की तो नीलम घबराई हुई बाहर आयी, ‘‘सुबह-सुबह कहाँ जा रहे हो ? तबीयत तो ठीक है ?’’ उसका दिल धड़क रहा था।
‘‘ऋण चुकाने!’’ कहते-कहते हरनारायण तेजी से आगे बढ़ गये।
…………………………….
14.03.2007