अतिक्रमण

चौबेजी खुली खिड़की से क्या तक रहे थे? 

उनके सामने फैला विशाल जंगल चन्द्रमा की दूधिया चाँदनी में नहाया हुआ था। खिड़की से कुछ दूर ही ऊँचे नीम के पेड़ पर एक काले रंग का चिड़ा, एक चिड़िया के साथ छेड़छाड़ कर कभी उसके ऊपर बैठ जाता, कभी अपनी चोंच उसके मुँह में डालता तो कभी उसकी गर्दन में। चिड़िया ने चीं-चीं कर अपना विरोध जताया तो चिड़ा उड़कर दूसरी चिड़िया के पास चला गया, उसकी हरकतें वहाँ भी नहीं रुकी। कुछ देर बाद पहली वाली चिड़िया उड़कर उसके पास आ गई, चिड़ा दूसरी चिड़िया को छोड़ उसके समीप आ गया। चिड़े के तेवर अब भी आक्रामक थे, कमोबेश चिड़िया ने पूर्ण समर्पण कर दिया था। खोने का भय कई बार पाने का कारण बन जाता है।

चौबेजी सोच रहे थे, क्या प्रकृति में हो रहा उन्मुक्त व्यभिचार परमात्मा के नियमों का अतिक्रमण है अथवा प्रकृति की भाषा ही परमात्मा की भाषा है? चाँद कितनी बदलियों से अठखेलियाँ करता है, लताएँ कितने तरुवरों से लिपटती हैं, चकोर लुच्चे की तरह चाँद को तकता रहता है, हवाएँ जहाँ देखो डोलती फिरती हैं, फूल-पत्ते बेरोकटोक आवारागर्दी में लिप्त हैं, भंवरा मन चाहे कली के रस को चूसता फिरता है, कुमुदनियाँ सारी रात न जाने कितने कमलों का स्पर्श कर इठलाती फिरती हैं। पशु-पक्षियों, वनस्पतियों पर कोई सामाजिक अंकुश नहीं, फिर मनुष्य को ही क्यूँ बंधन में जीना पड़ रहा है? बीवी के अलावा कहीं नजर तो उठाओ, लोग जान लेने पर उतारू हो जाते हैं। मनुष्य की सामाजिकता ने उसे कितना अप्राकृतिक बना दिया है?

चौबेजी अब डबलबेड पर पड़े अपनी प्रेयसी मंजुरी से बतिया रहे थे। मंजुरी कुछ वर्ष पूर्व उनकी इण्डस्ट्री में पीए बनकर आई थी। विधवा पर तरस खाकर उन्होंने नौकरी दी, अब दोनों के बीच यह नये समीकरण थे। दोनों के बीच यह रिश्ता कुछ अरसे से प्रगाढ हो गया था। मि. चौबे काम का बहाना कर जंगल की इस खूबसूरत होटल में ऐश कर रहे थे, उनका एक विश्वासपात्र कर्मचारी इन सारे कार्यों का सुरक्षित प्रबंध कर देता था। हाल ही उन्होंने उसे एक बड़ा इन्क्रीमेन्ट दिया था।

टेबललैंप की मद्धम रोशनी में रेशम का सफेद गाउन पहने मंजुरी अपने दायें हाथ की अंगुलियाँ चौबेजी के बालों भरे सीने पर घुमा रही थी। चौबे की दाँयी टाँग बेतरतीब उसकी अर्धनग्न जांघों पर पड़ी थी। वे एकटक उसके रूप को निहार रहे थे। खिला गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, तिरछी भौहें, सुन्दर गाल, उन्नत वक्ष एवं सुगठित अंग मानो रूप के समुद्र को कामदेव ने शृंगार की रस्सी से मथकर निकाला हो। चौबेजी  स्तंभित नेत्रों से उसे निहार रहे थे कि एकाएक उनकी पत्नी श्रेया का चेहरा उनकी आँखों के आगे से घूम गया। अतिक्रमण का अपराध उनके दिल पर दस्तक देने लगा। अपने अपराध-बोध को कुचलते हुए मंजुरी से बोले, ‘‘कहाँ तुम और कहाँ श्रेया ! रूप नहीं है सो तो कोई बात नहीं, रूप तो भगवान की देन है पर गुण भी मानो कहीं गिरवी रख दिए हैं। जो मजा तुम्हारे साथ जीने में है, जो मस्ती तुमसे बतियाने में है, वह श्रेया के साथ कहाँ !’’

‘‘तो छोड़ क्यूँ नहीं देते उस चुड़ैल को। तुम्हारा बच्चा मैं पाल लूंगी।’’ मंजुरी कुछ और नजदीक आते हुए बोली।

‘‘छोड़ना इतना सरल है क्या? समाज का भय नहीं हो तो मैं कल ही किनारा करूँ। ढोल गले में डाल दिया है तो बजाना ही पड़ेगा।’’ चौबे की इच्छाचारी अंगुलियाँ अब स्वतंत्र विचरण करने लगी थी।

खुद की प्रशंसा एवं श्रेया की बुराई सुनकर मंजुरी के उन्नत वक्ष कुछ और ऊँचे हो गए। श्वासों का उतार-चढ़ाव घी में अग्नि डालने लगा था। चौबे की चतुर अंगुलियाँ मंजुरी के वक्ष के इर्दगिर्द यूँ विचरने लगी थी मानो विशाल पहाड़ों की तलहटी में खड़ा पर्वतारोही शिखर पर चढ़ने की मंशा बना रहा हो। जंगल में बहती त्रिविध बयार जड़-चेतन सभी की कामाग्नि को प्रज्वलित करने लगी थी। आसमान के चाँद को अभी-अभी एक सफेद बदली ने अपने आगोश में ले लिया था।

दूसरे दिन सुबह चौबेजी घर लौटे तो उनकी पत्नी श्रेया दरवाजे पर ही खड़ी थी। चौबेजी उसे देखकर मुस्कराये, घर में प्रवेश करते हुए बोले, ‘‘यह भी कोई जीवन है, श्रेया ! एक इतवार और वो भी काम की भेंट चढ़ गया। इस बार सोचा था तुम्हारे साथ आउटिंग पर निकलूंगा पर काम पीछा छोड़े तब ना।’’ कहते-कहते उन्हें लगा मानो उनसे चतुर दूसरा कौन होगा। 

‘‘अरे, यह बातें तो बाद में कर लेना। पहले तो आप सामने मैदान में कब्जा जमाये चौधरी को बाहर निकालो। अपने घर के ठीक सामने बगीचे की जमीन पर कल शाम से कब्जा कर धूनी रमा रहा है। आठ-दस गाय-भैसें और ले आया है।’’

चौबेजी ने बाहर आकर देखा। सामने खाट पर लेटा एक चौधरी हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। सर पर सफेद पगड़ी, कलाई में तांबे का कड़ा, गहरा काला रंग, भरा हुआ गोल चेहरा तिस पर बड़ी-बड़ी काली मूँछें, गले में हाँसली, ऊपर खादी की बण्डी एवं नीचे धोती पहने वह किसी डाकू से कम नहीं लग रहा था।

चौबेजी को देखते ही चौधरी ने खाट के पास पड़े लठ को पकड़ा एवं खाट से ऐसे खड़ा हुआ जैसे श्मशान में बैठा कोई तांत्रिक, प्रेत मंत्र जगाने के पूर्व अपने स्थान से खड़ा होता है।

उसके चेहरे में अद्भुत तेज एवं रौब था। 

चौबेजी के प्राण कण्ठ में आ गए। चौधरी का चेहरा-मोहरा देखकर वे भीतर ही भीतर सहम गए। लेकिन यहाँ कायरता बताने का अर्थ था उसे हमेशा के लिए झेलना।

अब महाभारत तय था। लौटने का अर्थ था श्रेया एवं बच्चे की नजरों में हमेशा के लिए गिर जाना। अभी दो रोज पहले ही उन्होंने बच्चे को वीररस की दो-चार कविताएँ सुनाकर समझाया भी था, जो रणक्षेत्र में पीठ दिखा दे, वह जीवित ही मृत समान है।

चौबेजी ने ताल ठोकी। आँखों में रोष भरकर बोले, ‘‘क्यों चौधरी ! यह जमीन क्या तुम्हारे नाम की है? यह जगह तो काॅलोनी के चारों ओर बने मकानों के बीच बगीचे के लिए सरकार ने रख छोड़ी है। यहाँ क्यूँ धूनी रमा कर बैठा है?’’ कहते-कहते उनके ओठ भय मिश्रित साहस के कोकटेल को चखकर क्रोध से फड़कने लगे। चेहरे-मोहरे से वे भी चौधरी से कम नहीं थे।

‘‘गाँव में अकाल पड़ा है, बाबूजी! पशु मर रहे थे अतः शहर ले आया। आप चिंता न करे पहली बरसात होते ही चला जाऊँगा।’’ चौधरी दबी आवाज में बोला। 

चौधरी को हल्का जानकर चौबेजी का साहस हिलोरे लेने लगा। जीभ के धनुष पर वचनों के तीखे तीर चढ़ाकर बोले, ‘‘अरे एक बार जिसने कब्जा कर लिया, वह जाता है क्या? हमारे देश में रजिस्ट्री झूठी एवं कब्जा सच्चा होता है।’’ कहते- कहते उन्होंने अपना दायाँ हाथ अपनी झीनी मूंछों के पास ऐसे रखा मानो कह रहे हों, अपनी औकात में रह वरना जड़ें उखाड़ दूंगा।

चौधरी अभी तक अपने आपे में था। एक कुशल रणधीर की तरह वह ऐसे कार्यों की कानूनी नजाकत समझता था, नया पैंतरा डालते हुए बोला, ‘‘बाबूजी तरस खाइये, बाल-बच्चे कहाँ जाएंगे। साथ में घरवाली भी है।’’ कहते-कहते उसने अंगुली से इशारा कर पचास कदम पीछे खड़े बीवी-बच्चों को दिखाया।

चौबेजी हिलने वाले कहाँ थे। चौधरी को ढीला देखकर उनकी छाती और फूल गई। बंदर घुड़की देते हुए बोले, ‘‘मुझे झूठी-सच्ची कहकर मत फुसला। ऐसा कर, आधे घण्टे में सामान समेट कर रफा-दफा हो जा, नहीं तो सीधे पुलिस को दे दूंगा। शहर की पुलिस अच्छे अच्छों की खाल खींच लेती है।’’

चौधरी कौन-सा फूंक से उड़ने वाला था। कब्जा करते वक्त ही उसने तोल लिया था कि जरूरत पड़ी तो तीखे तेवर दिखाने पड़ सकते हैं। अपना रण-कौशल अब तक उसने सीने में छिपा रखा था, अन्तिम तीर डालते हुए बोला, ‘‘क्या फरक पड़ता है बाबूजी! कुदरत खाल उतारे या पुलिसवाले, हमें तो हर हाल में मरना है।’’

चौबेजी को लगा चौधरी मिट्टी का माधो है, इस बार क्रोध में तमतमा कर बोले, ‘‘जबान लड़ाता है। लगता है कभी कोई टेढ़ा आदमी मिला नहीं। मेंढक की तरह टर्र-टर्र किये जा रहा है। अब रास्ता नाप।’’ कहते-कहते उनके नेत्र लाल एवं भौंहे ऐसे टेढ़ी हो गई जैसे शिव धनुष टूटने पर जनक की सभा में परशुराम की हो गई थी।

चौधरी को लगा अब मोर्चा सम्भालना पड़ेगा। इस बार आँखें लाल कर बोला, ‘‘काॅलोनी में पचास घर है, और तो कोई कुछ नहीं कह रहा। एक आपको ही तकलीफ है क्या?’’इस बार उसने डंके पर धीरे से चोट दी। चौबे की छाती पर साँप लोट गए। लगभग चीखते हुए से बोले, ‘‘अरे जिसे तकलीफ हो वही तो बोलेगा। कब्जा मेरे घर के सामने किया है तो मैं ही बोलूंगा। तू ऐसा कर किसी और घर के सामने डेरा डाल दे, मैं कुछ नहीं बोलूंगा।’’

‘‘सामने वालों ने ही तो मुझे इधर भेजा है बाबूजी! मैं क्या चक्करघिन्नी की तरह घूमता रहूँ?’’ चौधरी अपनी भीगी मूँछों पर ताब देते हुए बोला। उसकी जटबुद्धि अब उखड़ने लगी थी।

चौबेजी को अब माजरा समझ में आया। अन्तिम ब्रह्मास्त्र डालते हुए बोले, ‘‘तू निकलता है कि उधेड़ूं तेरी चमड़ी।’’

इतना सुनना चौधरी की आन का अतिक्रमण था। उसका वीरोचित शौर्य उसके चेहरे पर उमड़ आया। धरती में लठ ठोकते हुए बोला, ‘‘रामजी की दुहाई ! अब तो चौधरी की लाश ही यहाँ से जाएगी। जमीन क्या तेरे बाप की है, सड़क-बगीचों के भी क्या पट्टे लिखा रखे हैं?’’

चौधरी की आँखें अब अंगारे उगलने लगी थी।

धूल भी ठोकर मारने से ऊपर की ओर उठती है। 

चौबेजी को लगा जैसे किसी बिच्छु का डंक सारे शरीर में चढ़ गया हो। मुख का तेज फीका पड़ गया, धोती ढीली होने लगी पर जात के ब्राह्मण थे, यूँ मोर्चा कैसे छोड़ते। चौधरी के सुर से भी तेज सुर में बोले, ‘‘चूं चपड़ मत कर। मुझे छुइमुई मत समझ लेना। मेंढ़क की छींक से मैं डरने वाला नहीं। तेरे जैसे कई देखे हैं !’’

यह चौबेजी के शौर्य की अन्तिम सीमा थी, कहते-कहते वे हिलने लगे थे।

स्थिति देखकर दूर खड़ी चौधरी की बीवी आगे आई, चौबे को हाथ जोड़ते हुए बोली, ‘‘बिरामन देवता! इनसे क्यूँ उलझते हो, इनकी तो जटबुद्धि है। आप तो पढ़े लिखे हो। कुछ महीनों में यहाँ से निकल जाएंगे।’’

चौबे ने चौधराइन को घूर कर देखा। हट्टी-कट्टी, नख-शिख तक सुंदर। गदराया बदन, गोरा रंग, ऊँचा कद मानो अप्सरा खड़ी हो। उसे देखते हुए उन्होंने पीछे खड़ी श्रेया को देखा, कैसी मरियल है। जवानी में ही जैसे बुढ़ापा आ गया हो। यह सोचकर उनका क्रोध कुछ और चढ़ गया। इस बार चौधराइन की ओर आँखें घुमाते हुए बोले, ‘‘तू मर्दों के बीच क्यों बोल रही है? ध्यान रखना तू भी चक्की पीसेगी।’’ 

 अब चौधरी आपे से बाहर हो गया।

‘‘अरे बाबूजी! जेल जाना तो दूर कोई हाथ तो लगाए इसे। ढेर नहीं कर दिया तो नाम मानाराम चौधरी नहीं।’’

पीछे खड़ी चौबेजी की पत्नी श्रेया दोनों के बलाबल को तोल रही थी। चिल्लाकर बोली, ‘‘अन्दर आ जाओ। यह जट समझेगा नहीं।’’

चौबेजी चुपचाप अंदर आ गए। अन्दर आकर बोले, ‘‘तूने आवाज क्यों दी। साले की लुगदी बना देता। अभी उसने देखा ही क्या है !’’

‘‘सारे शहर में अतिक्रमण हो रहे हैं, सरकार अपने आप कार्यवाही करेगी। आप क्यूँ पंगा लेते हो। कीचड़ में ईंट डालोगे , खुद के कपड़े खराब होंगे। इन फकीरों का क्या जाना है ? नंगा नाचे फाटे क्या !’’

चौबेजी आज ऑफिस नहीं गए। सारा दिन मूड उखड़ा रहा, हाँ, चौधराइन का रूप कभी-कभी उनके हृदय की जलन को अवश्य ठण्डा कर देता था।

दूसरे दिन सुबह वे दूध लेने निकले तो चौधरी दूध दुह रहा था। अब तक उसने गाय-भैंसों के खूंटे भी गाड़ दिए थे। आस-पास से कंटीले पेड़ काटकर मेढ़ भी बना ली थी। चौबेजी को काटो तो खून नहीं।

चौबेजी को देखते ही वह दूध दुहते-दुहते बोला, ‘‘राम-राम बाबूजी! पांय लागूं।’’ उसके अभिनंदन ने चौबेजी की क्रोधाग्नि को और भड़का दिया।

चौबेजी ने उसे देखते ही तोते की तरह आँख फेर ली। चौधरी काम छोड़कर दौड़ा-दौड़ा आया। चौबेजी के हाथ से बर्तन छीनते हुए बोला, ‘‘बाबूजी! अब दूध बाहर से थोड़े न लाने दूंगा। एक बार मेरी भैंस का दूध पीकर तो देखो, आप बाहर से दूध लाना भूल जाएंगे। रामजी की सौं जो एक बूँद भी पानी डालूँ।’’ फिर कुछ रुककर बोला, ‘‘बाबूजी, हम तो ठेठ के गंवार हैं,हममें अकल होती तो आपके सामने बोलते। बिरामन देवता, आपकी हमारी क्या बराबरी। कहाँ सिर , कहाँ चरण। कहाँ आप ज्ञान के समन्दर ,कहाँ हम बुदबुदे। हम तो हर तरह से आपसे हारे हुए हैं।’’

यह कहते हुए चौधरी चौबेजी के बर्तन में दूध भर लाया। चौधरी की वाक्पटुता एवं प्रशंसा के तरीके ने चौबेजी को मुग्ध कर दिया। जाति का अभिमान उनके हृदय में हिलोरे लेने लगा। कल उनके चेहरे पर शिकस्त का शोक था आज विजय का दर्प। मन ही मन सोचने लगे, यह पोखर का कछुआ पहाड़ उठाने चला था, अब समझ आई कि चाँद पर थूकने से थूक खुद पर गिरता है। प्रमुदित चौबेजी दूध भरा बर्तन हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘अब तू ग्राहक भी इकट्ठा कर ले ताकि यहीं धूनी रमाता रहे।’’

कल तक आग उगलने वाली चौबेजी की वाणी में आज शक्कर घुल गई थी। 

चौधरी कम चतुर न था। जैसे एक चतुर शिकारी मृग को पास आते देख फंदा तैयार करता है, चौधरी ने एक नया फंदा डाला, ‘‘बाबूजी! आप बोलते कड़वा हो पर आपका दिल मक्खन की तरह मुलायम है। मेरी घरवाली भी कल यही कह रही थी।’’

चौधरी की बातों ने चौबेजी के जले दिल पर मरहम लगा दिया, चौधराइन की प्रशंसा ने तो उन्हें बाग-बाग कर दिया। चौधराइन पास ही खड़ी थी। चौधरी की बातों को सुनकर उसने साड़ी का पल्लु मुँह में दबा लिया। चौबेजी ने चोर आँखों से उसे देखा। आशिक मिजाज तो थे ही, मन ही मन चौधराइन से बोलने लगे, ‘‘सुंदरी! मुलायम दिल है तभी तो तुम्हारी बात मान कर कल चला गया था। मैंने तो जबसे तुम्हें देखा है, तुम्हारे मुखचन्द्र का चकोर हो गया हूँ।’’

खोये हुए चौबेजी को जगाते हुए चौधरी बोला, ‘‘बाबूजी! कल से दूध मैं खुद घर पर दे जाया करूंगा। सिर्फ दूध लाने के लिए आप नींद क्यूँ खराब करते हो।’’

नेकी और पूछ-पूछ। चौधरी बिल्कुल सही था। फकत दूध लाने के लिए उन्हें रोज सुबह नींद खराब करनी पड़ती थी। चौबेजी को नींद से उठते हुए बहुत कोफ्त होती। सवेरे की मीठी नींद उन्हें अमृततुल्य सुख देती। चौधरी अगर घर पर दूध दे जाएगा तो फिर छक कर नींद लेंगेे।

चौबेजी के स्वप्नवर्तुलों को तोड़ते हुए श्रेया ने घर से आवाज दी, ‘‘अब खड़े-खड़े बतियाते ही रहोगे या घर भी आओगे।’’

चौबेजी घर के भीतर घुसते हुए बोले, ‘‘श्रेया! कल से मुझे जल्दी मत उठाना, चौधरी खुद दूध दे जाएगा।’’

चतुर ब्राह्मणी सारा माजरा समझ गई। आखिर चौधरी ने इन्हें जाल में फँसा ही लिया। यह भी तो अक्ल के अंधे हैं। कल थोड़ी ताकत और बताते तो यह निकल जाता पर अब तो कोढ़ के दाग की तरह जाने वाला नहीं। चौबेजी पर मन-ही-मन कुढ़ते हुए फुसफुसाने लगी, सभी मर्द घर में शेर बनते हैं, बाहर घण्टा हिलाते रहते हैं।

दूसरे रोज से चौधरी खुद हर सुबह आकर दूध दे जाता। धीरे-धीरे सुबह दूध, दोपहर छाछ एवं समय-समय पर घी भी आने लगा। चौधरी जब भी गाँव जाता गेहूँ, दालें आदि भी ले आता। चौबेजी के तो घर बैठे गंगा आ गई। ताजा अच्छा माल और वह भी सस्ते भावों पर। बाजार जाने की दिक्कत और मिटी।

धीरे-धीरे चौधरी उनके कई और काम करने लगा जैसे सब्जी लाना, धोबी को कपड़े देकर आना, बगीचे में तरह-तरह के पौधे लगाना, चौबेजी की गाड़ी साफ करना, दुपहर उनके बच्चे को स्कूल से लाना आदि-आदि। कुल मिलाकर चौधरी उनके जीवन का हिस्सा एवं जरूरत बन गया। चौधराइन भी जब-तब श्रेया का हाथ बँटाती रहती। दोनों ने स्नेह एवं सेवा की अदृश्य रस्सी से चौबे दंपती को जकड़ लिया।

समय कब ठहरता है। चौधरी को रहते हुए अब छः मास से ऊपर होने को आए। इस दरम्यान चौधरी ने चारों दीवारें पक्के पत्थरों की बना ली। 

एक रोज चौबेजी घर से निकल रहे थे कि यकायक एड़ी मुड़ने से धड़ाम-से दरवाजे के आगे गिरे। डीलडौल पहले से भारी था अतः हड्डी पर गहरा जोर आया। उन्होंने तेज आवाज में श्रेया को पुकारा। वह तो आती जब तक आती, चौधरी दौड़ा-दौड़ा दरवाजे पर आया, चौबेजी को कंधे पर उठाकर भीतर ले आया। उन्हें दीवान  पर  लिटाकर  चौधराइन को  पुकारा,  ‘‘जरा ऊंटनी का दूध तो लाना।’’ चौधराइन दूध लेकर आई और चौधरी से बोली, ‘‘तुम जरा हटो। तुम्हारा हाथ भारी है।’’ उस दिन चौधराइन ने खुद उनके टखने की मालिश की। चौबे साहब निहाल हो गए। मन-ही-मन कहने लगे, ‘‘प्रभु! ऐसी हसीन दुर्घटनाएं बार-बार हो।’’ उनका अवचेतन मन चौधराइन के मुख पुष्प पर भंवरा बनकर मंडराने लगा था। दो रोज में ही टखना ठीक हो गया। न दवा न दारू, फकत हाथों की जादूगरी।

चौधरी अब जब भी घर आता, चौबेजी की उपकृत आँखें नम हो जाती।

एक बार चौबेजी सपरिवार आउटिंग पर गए हुए थे। वे जब भी आउटिंग पर जाते शनिवार रात को निकल जाते एवं रविवार रात तक वापस आते।

दुर्योग से उसी शनिवार की रात चौबेजी का घर बंद देखकर एक चोर उनके घर में घुस आया। खटपट सुनकर चौधरी ने मोर्चा सम्भाला। पिछवाड़े से छत पर चढ़कर उसने रोशनदान से झाँका। भीतर का दृश्य देखकर चौधरी की आँखें फैल गई। अंदर एक चोर गहने एवं बहुमूल्य चीजों की गठरी बाँध रहा था। चोर दबे पाँव घर से निकला उसी समय मौका देखकर चौधरी सीधे उस पर कूदा। चोर जोर से चिल्लाकर भागा लेकिन हड़बड़ाहट में गठरी वहीं छोड़ गया।

इसी दरम्यान शोर-शराबा सुनकर मौहल्ले के लोग आ गए। सभी ने चौधरी की बहादुरी एवं हौसले की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

चौबेजी वापस आए तो चौधरी ने उन्हें गठरी सम्भलाई। सारा घटनाक्रम जानकर चौबेजी की आँखें भीग गई, हृदय चौधरी के उपकार से लबालब हो गया।

रात चौबेजी की आँखों में नींद कहाँ थी। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे उस पहले दिन को कोस रहे थे जब उन्होंने चौधरी को भला-बुरा कहा। उस दिन वे लड़-मरने को तैयार थे, आज वही चौधरी उनकी आँख का तारा था। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि अब वे उसे जाने नहीं देंगे। जरूरतमंद इंसान अतिक्रमण नहीं करेगा तो क्या करेगा? अकाल का मारा किसान शहर में आसरा नहीं ढूँढ़ेगा तो कहाँ ढूँढ़ेगा। अपने एवं बीवी-बच्चों का पेट पालने के लिए इंसान क्या-क्या नहीं करता? यहाँ कौन निरपराध है? क्या मंजुरी के साथ सम्बन्ध बनाकर मैंने वैवाहिक नियमों का अतिक्रमण नहीं किया? मैंने तो ऐसा मात्र अपने सुख एवं आनन्द के लिए किया लेकिन चौधरी ने अतिक्रमण कठोर विवशता एवं मजबूरी में किया। क्या मैं उससे अधिक पापी नहीं? आज वे चौधरी के आगे स्वयं को बौना महसूस कर रहे थे। उनका मन ग्लानि से गलने लगा। उन्होंने प्रण किया कि वे अब मंजुरी से कभी नहीं मिलेंगे।

आज सुबह चौबेजी उठकर बाहर आए तो एक दृश्य देखकर सिहर उठे। शहर का अतिक्रमण दस्ता चौधरी को कब्जा हटाने की हिदायत दे रहा था। कब्जा हटाने के लिए अतिक्रमण अधिकारी ने उसे दो घण्टे का समय दिया था। चौधरी, चौधराइन एवं उसका बच्चा एक कोने में उदास बैठे थे। चौधरी का चेहरा ऐसा था जैसे किसी पेड़ पर बिजली गिर गई हो। 

सारा माजरा जानकर चौबेजी अतिक्रमण अधिकारी के समीप आए। चौधरी ने कातर आँखों से उन्हें इस तरह देखा जैसे कह रहा हो, ‘‘बिरामन देवता! अब तो आप ही खेवनहार हो।’’

चौबेजी ने मोर्चा सम्भाला। मौहल्ले एवं सरकारी विभागों में उनका दबदबा था। अब तक पूरा मौहल्ला भी वहाँ इकट्ठा हो गया था। चौबेजी को देखते ही अतिक्रमण अधिकारी को साँप सूंघ गया। आँखों में रोष भरकर चौबेजी बोले, ‘‘आप यह कब्जा हटा ही नहीं सकते। इस कब्जे की चारों दीवारें पक्की हैं एवं चार फीट से ऊपर हैं। चार फीट से ऊपर की पक्की दीवार आप कानूनन कोर्ट के दखल के बिना कैसे हटा सकते हैं? और देखता हूँ कोर्ट भी क्या करता है ! मैं खुद इसका केस लडूंगा। गरीबों के लिए न्याय है कि नहीं? बड़े लोग अतिक्रमण करते हैं, उनका तो आप बिगाड़ नहीं सकते , अकाल के मारे किसानों पर कहर ढाने चले आते है।’’

आज चौबेजी की वाणी से रुद्र फूट रहा था।

अतिक्रमण अधिकारी अपना-सा मुँह लेकर चला गया। चौधरी ने बिलख कर चौबेजी के चरण पकड़ लिए। उसे उठाते हुए चौबेजी बोले, ‘‘यूँ रोता ही रहेगा कि घर दूध देने भी आएगा।’’

दूर खड़ी चौधराइन साड़ी के कोर से अपने आँसू पोंछ रही थी। पास आकर चौधरी से बोली, ‘‘देखा, बिरामन देवता कितने ऊँचे होते हैं।’’

चौधरी की आंखें डबडबा आई। गद्गद् हृदय से चौधराइन की तरफ देखकर बोला, ‘‘तू ठीक कहती है, हाथी के पाँव में सबका पाँव है।’’

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11.03.2006

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