क्या आपने अगियावेताल के बारे में सुना है?
गरमी में पूर्वी छोर से सूर्य नहीं आग का गोला उगता है। भक्तजन उसे ठण्डा करने के लिए जलांजलि देते हैं तो असहाय पक्षी कलरव कर अपनी व्यथा प्रगट करते हैं। ठण्डी हवाएँ उससे उलझना नहीं चाहती, वे भी कहीं दूर जाकर दुबक जाती हैं। पेड़-पौधे बेचारे भाग तो नहीं पाते, हाँ, मुँह नीचा कर ऐसे खड़े हो जाते हैं जैसे पकड़े गए अपराधी अदालत में खड़े होते हैं। बादल यूँ तो हर समय आवारागर्दी करते हुए नजर आते हैं पर अब जरूरत पड़ी तो वे भी ऐसे गायब हुए जैसे विपत्ति पड़ने पर खुदगर्ज़ दोस्त। नदी-तालाब-महासागर सभी बुज़ुर्गों की तरह सूरज को समझाते हैं – तू क्यूँ अपने क्रोध से सब पर कहर बरपाता है पर उसे किसी की परवाह हो तब ना। क्रोधी व्यक्तियों ने कब किसी की सुनी है ? उन्हें तो सिर्फ जलना और जलाना आता है।
ऐसा ही एक सूर्य शीतल के घर में आग उगल रहा था। भय के मारे वह एक पाँव पर खड़ी थी।
‘‘मुझे समझ नहीं आता रात भर में तिजोरी की चाबी कहाँ चली गई? धरती निगल गई अथवा आसमान खा गया। रात घर में आते ही मैंने चाबी डाइनिंग टेबल पर रखी थी। तुम उसे ठीक जगह रखना तो दूर इधर-उधर और डाल देती हो। एक भी काम ढंग से नहीं करती।’’ कहते-कहते अमित देव की आँखें लाल होने लगी थी।
‘‘मुझे तो मालूम भी नहीं रात आपने चाबी कब रखी थी। घर में घुसते ही तो अंगारे उगलने लगे थे। इन दिनों कारोबार बिल्कुल ठीक नहीं चल रहा, किसी की नजर तो नहीं लग गई और न जाने क्या-क्या। दोनों बच्चे तो आपकी आवाज सुनकर चुपचाप ऊपर कमरे में चले गए थे। मैं कुछ कहती इसके पहले ही आप मुझ पर झल्ला पड़े, अब खड़ी-खड़ी देखती ही रहोगी या खाना भी बनाओगी। मैं खाना लेकर आई तब तक आपका गुस्सा शिखर पर था। रात की टूटी हुई प्लेटें अभी भी रखी हैं। न खुद ने खाया न मुझे खाने दिया। खुदा का शुक्र है आपने प्लेट फेंकी तब मैं थोड़ा सरक गई अन्यथा प्लेट फूटती या नहीं मेरा सर अवश्य फूट जाता। आखिर आपको हो क्या गया है?’’
‘‘इन दिनों न जाने क्यूं दिमाग इतना गरम रहता है। बात-बात में गुस्सा आता रहता है। रात में भी अजीब तरह के स्वप्न आते हैं। कभी लगता है जंगल में खड़ा हूँ एवं चारों ओर आग धधक रही है। कभी देखता हूँ कि जलती भट्टी के बीच खड़ा हूँ। एक बार तो विचित्र स्वप्न आया कि मैं अंगारे खा रहा हूँ।’’ कहते-कहते अमित के माथे पर क्रोध एवं विषाद की रेखाएँ खिंच गई।
‘‘अंगारे खाओगे तो राख हंगोगे।’’ शीतल हँसते हुए बोली। वह जानती थी यह हँसने का समय नहीं है, पर कई बार हँसी एन्टीडाॅट का काम करती है। अपनी बात आगे बढ़ाने के पहले उसने अपना हाथ अमित के हाथ पर रखा एवं समझाते हुए से बोली, ‘‘अमित! अपने स्वभाव को थोड़ा शान्त करो। आपके साथ सारे घर को जलना पड़ता है। किसी भी समस्या का निदान उस समस्या को समझने से ही हो सकता है। उफनता हुआ दूध सदैव राख में गिरता है।’’
शीतल ने बात तो पते की कही थी पर क्रोधी व्यक्ति को तो मात्र क्रोध ही सूझता है।
शीतल की बात सुनते ही अमित बारूद की तरह फट पड़े, ‘‘तुम्हें तो बस उपदेश देना आता है। तुम्हें मालूम है इन दिनों फैक्ट्री में कितनी प्राॅब्लम्स हो गई हैं !’’
‘‘फैक्ट्री में प्राॅब्लम्स हैं तो मुझसे शेयर किया करो, शायद मैं आपकी मदद कर सकूँ। गुबार निकालने से ही मन हल्का होगा।’’
‘‘अरे, वह मदन है ना! यूनियन का नेता, वही जिसे तुम्हारे पिताजी के कहने से रखा था, कह रहा था मजदूरों का वेतन नहीं बढ़ाया तो अगले महीने से हड़ताल करेंगे। एक तो फैक्ट्री ठीक नहीं चल रही फिर कंगाली में आटा गीला।’’
कहते-कहते अमित सर पकड़ कर बैठ गए।
अब तक फैक्ट्री जाने का समय हो चुका था। शीतल ने आनन-फानन में नाश्ता बनाया, जल्दी-जल्दी में अमित ने नाश्ता लिया एवं तेजी से निकल गए।
इन दिनों शीतल अक्सर अमित के पसंद का खाना बनाती है पर अमित को तो खाना देखते ही उबकी आती है। स्वाद का सम्बन्ध भी शायद मन की प्रसन्नता से है।
शीतल और अमित के विवाह को दस वर्ष होने को आए। पहले तीन-चार वर्ष तो हवा की तरह सन्न से निकल गए। आगे दो-तीन वर्ष अमित फैक्ट्री के कार्य में मशगूल रहे। उनकी मेहनत रंग लाई। उनके प्राॅडक्ट की तूती बोलने लगी। शहर में नाम फैला, पर न जाने गत एक वर्ष से क्या हो गया। इन दिनों अमित हर समय गुस्सा करते रहते हैं, वैसे गुस्सैल तो वे शुरू से ही थे पर इन दिनों गुस्सा जामे से बाहर हो गया है।
अब शीतल को वो रस भरे दिन याद आते हैं जब अमित उन्हें हथेली के छाले की तरह रखते थे। फैक्ट्री की समस्याएं भी दिनों दिन बढ़ रही हैं, बच्चों का स्वास्थ्य भी इस वर्ष ठीक नहीं रहा। दो महीने पहले शीतल को भी मस्तिष्क ज्वर हुआ, खुदा का शुक्र था बीमारी समय पर पकड़ी गई अन्यथा न जाने क्या होता। यह समस्या खत्म हुई तो अब फैक्ट्री की समस्या आ खड़ी हुई। कल बैंक मैनेजर का भी फोन आया था कि आजकल किश्तें देरी से जमा हो रही हैं। भाग्य जब रूठता है तो मनुष्य की हड्डियाँ निचोड़ देता है।
एक वर्ष में ऐसा क्या हो गया?
पिछले एक वर्ष से महेन्द्रजी भी तो नहीं आते। अमित ने वर्षों की दोस्ती क्षण भर में तोड़ दी अन्यथा मित्र के साथ दुःख बाँटने से मन हल्का होता है। कोई एक वर्ष हुआ, उस दिन अमित और महेन्द्र ड्रिंक कर रहे थे। दोनों को कभी-कभी दारू की तलब होती थी। अमित अगर ड्रिंक लेते तो मात्र महेन्द्र के साथ। उन दिनों दोनों का कारोबार अच्छा चलता था। दोनों एक दूसरे की व्यावसायिक जरूरतें पूरी करते रहते थे। एक बार कुछ रोज के लिए अमित ने महेन्द्र को एक लाख रुपये दिए थे। महेन्द्र ने दूसरे दिन लौटाने को कहा था पर दस रोज बीत गए। न जाने कैसे अमित ने ड्रिंक के तीसरे पेग के साथ यह रकम मांग ली। महेन्द्र को अमित का मांगना नागवार गुजरा। दोनों में अच्छी तकरार हुई। बात में बात बढ़ती गई। यकायक दोनों तेज आवाज़ में बोलने लगे। मोहल्ला सर पर उठा लिया। उस दिन शीतल बीच-बचाव नहीं करती तो शायद हाथापाई हो जाती। दोनों क्रोध के मारे फुफकार रहे थे। उस दिन के बाद महेन्द्र नहीं आए एवं शायद अमित के अच्छे दिन भी साथ ले गए। वचनों की चिंगारियाँ दुःख का दावानल बन गई।
मनुष्य का मन भी कितना विचित्र है ! कई बार तो वचनों की तलवार से लहूलुहान होकर भी वह उद्वेग में नहीं आता, कई बार मात्र अहंकार पर खरोंच प्रचण्ड क्षोभ का कारण बन जाती है।
ऐसा क्यों होता है?
रात अमित फिर देरी से आए। उनके भीतर कुछ सुलग रहा था। शायद यूनियन की समस्या उन्हें खाये जा रही थी।
शीतल ने डाइनिंग टेबल पर थाली रखी। एक कौर ही लिया होगा कि बिफर पड़े, ‘‘इन दिनों रोज बेकार की भाजी बनाती हो। कोई स्वाद ही नहीं।’’ अमित ने जलती आँखों से शीतल की ओर देखा।
शीतल ने चुपचाप सुना एवं बिना बहस किए बेडरूम में आ गई। थोड़ी देर में अमित भी नाइट सूट पहनकर आए एवं बेड पर लेटकर पुस्तक पढ़ने लगे। यकायक उन्होंने स्विच ऑफ कर लाइट बुझायी।
तनाव में कामदेव का ही सहारा है पर तनाव में सब फुस्स हो जाता है।
गलती चाहे पुरुष की हो पर क्रोध स्त्री पर ही उतरता है।
‘‘आजकल तुममें पहली-सी उत्तेजना नहीं रही। जरा सज-धज कर रहा करो। बासी मुँह देखते ही मूड आफ हो जाता है।’’
‘‘लगता है आजकल आप बातचीत करने की सामान्य मर्यादा भी भूल गए हैं।’’ स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है पर अपने रूप की बुराई नहीं।
‘‘उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे। मैं तो तुम्हारे ही हित की बात कर रहा था। औरत का आधा रूप उसका शृंगार है।’’
‘‘कभी खुद की शक्ल भी आईने में देखी है। मैं कहती हूँ आप भी सोने से पहले सजधज कर क्यूँ नहीं आते। जब देखो, यही नाइट सूट एवं यही लटकता हुआ नाड़ा।’’
इतना सुनते ही अमित बौखला गया। जैसे किसी ने चूने में पानी डाल दिया हो। क्रोधी पुरुष के पास एक ही अवलम्ब होता है, हिंसा का। उस दिन अमित ने शीतल को एक करारी थप्पड़ रसीद की।
यह शीतल की सहनशक्ति की इंतहा थी। वह चाहती तो प्रतिरोध कर सकती थी पर जाने क्या सोच कर चुप रह गई। उसके आहत मन में अब भी एक ज्योति जल रही थी। आखिर अमित को हो क्या गया है?
अगली दोपहर शीतल अपने नाना के घर गई। उसके नाना-नानी एवं मामा घर से कुछ दूरी पर ही रहते थे। शीतल का बुझा चेहरा देखकर उसके नाना हैरान रह गए। पूरी कथा सुनकर वे उसे एक सिद्ध योगिराज के पास ले गए। न जाने योगिराज ने शीतल की आँखों में झाँककर क्या देख लिया?
कुछ रोज बाद योगिराज शीतल के घर आए। घर का निरीक्षण कर बोले, ‘‘आपके घर में अगियावेताल है। अभी वह आपके पति के दिमाग में बैठा हुआ है।’’
‘‘यह अगियावेताल क्या होता है?’’ बोलते-बोलते शीतल की आँखें भय के मारे फैल गई।
शीतल और नाना दोनों योगिराज की बात सुनकर सहम गए।
‘‘क्या आपके घर कुछ समय पूर्व कोई झगड़ा-फसाद अथवा तेज आवाज में बातें हुई थी।’’
एकाएक शीतल को महेन्द्र वाली घटना याद आई। उसने योगिराज को पूरी बात बताई।
‘‘बस उसी दिन से अगियावेताल आपके घर में है। क्रोध, झगड़ा, वाद-विवाद एवं झंझटें उसका भोजन हैं। जब तक उसे उसकी खुराक मिलती रहती है, वह घर नहीं छोड़ता।’’
‘‘फिर इसका निदान क्या है, योगिराज?’’
‘मौन उसका परम शत्रु है। तुम दोनों को कुछ रोज मौनव्रत करना होगा। कुछ अन्य उपाय भी मैं बतलाऊंगा, लेकिन उससे भी पहले जरूरी है कि अगियावेताल के उद्भव के बारे में आप जान लें। क्या आपने शिव धनुष टूटने पर परशुराम के आगमन की कथा सुनी है? पहले आप उस प्रसंग को जान लें, अगिया वेताल के बारे में आप खुद समझ जाएंगे।’’
भाग-2
सीता स्वयंवर के लिए रखे शिवधनुष को जब कोई महारथी नहीं तोड़ सका तो जनक प्रचण्ड क्षोभ से भर गए। उनकी अकुलाहट ने उनके क्रोध को और हवा दी, रोष में भरकर वे अपने सिंहासन से उठकर खड़े हो गये। सभा में उस समय निस्तब्धता छा गई। उपस्थित सभी राजाओं एवं वीरों की ओर देखकर जनक बोले, ‘‘लगता है यह पृथ्वी वीरों से खाली हो गई है। अब कोई राजा अपनी वीरता का अभिमान न करे। अभिमान करने को अब रह ही क्या गया है? आश्चर्य है ! शिवधनुष को तोड़ना तो दूर आप में से कोई उसे हिला तक नहीं सका। धिक्कार है आर्यवर्त के वीरों, राजाओं, रथियों एवं महारथियों को। लगता है वैदेही के भाग्य में विधाता ने विवाह रचा ही नहीं।’’ कहते-कहते उनकी आँखें लाल एवं चेहरा ताम्रवर्णी हो गया।
तब गुरु की आज्ञा पाकर प्रभु श्री राम उठे। सिंह की एड को भी लजाते हुए वे शिवधनुष तक आए एवं देखते ही देखते एक अद्भुत चमत्कार हो गया। उन्होंने बिजली की फुर्ती से शिवधनुष उठाया, प्रत्यंचा तानी एवं पलक झपकते सभी सभासदों के सामने उसे तोड़ दिया।
सीता ने प्रभु राम को जयमाला पहनाई ही थी कि सभाद्वार की ओर पुनः खलबली मच गई। उस ओर से चीख, पुकार के स्वर आने लगे। कोलाहल सुनकर जनक एवं सभी सभासद विकल हो उठे। उत्सव का माहौल भय एवं विषाद में बदल गया।
सभाद्वार से भृगुकुलश्रेष्ठ परशुराम प्रविष्ट हो रहे थे। सूर्योदय होने से जैसे चन्द्रमा एवं सभी तारागणों का तेज श्रीहीन हो जाता है, परशुराम को देखकर सभी राजा निस्तेज हो गए। लम्बा कद, तीखी नाक, अंगारे उगलती आँखें, विशाल ललाट, उस पर चमकती हुई लाल त्रिपुण्डी, सिर पर जटाओं का जूड़ा, प्रलंब बाहों एवं छाती पर भभूति, दायें हाथ में धनुष-बाण, पीछे तरकस एवं बाँये कंधे पर रखे फरसे से लग रहा था मानो साक्षात् काल आ गया हो। वल्कल वस्त्र, गले में माला, कंधे पर मृगचर्म, सुन्दर यज्ञोपवीत एवं पाँवों में खड़ाऊ पहने हुए वे ऐसे लग रहे थे मानो वीररस से पगा कोई मुनि सभा में खड़ा हो।
पृथ्वी को कई बार क्षत्रियों से सूनी कर देने वाले उस तेजस्वी मुनि ने टूटे हुए शिवधनुष की ओर देखा। अनन्य शिवभक्त थे वे। अपने आराध्य का भग्नचाप देखकर उनकी भृकुटियाँ तन गई। क्रोध में आगबबूला होकर उन्होंने सभा में उपस्थित सभासदों, राजाओं एवं अन्य वीरों की ओर देखा। उनके कुपित नेत्रों को देखकर कई राजा एवं सभासद चेतनाशून्य हो गए।
जनक सिंहासन छोड़कर उनके समीप आए एवं उनके चरणस्पर्श करते हुए बोले, ‘अहोभाग्य! प्रभु आपका आगमन अनुकूल समय पर हुआ है। जानकी-विवाह के शुभ प्रसंग पर आपके आगमन से मैं कृतकृत्य हो गया।’ कहते-कहते उन्होंने वहीं खड़ी जानकी, राम एवं लक्ष्मण को इशारा कर उनसे आशीर्वाद लेने को कहा।
हिरणी की तरह सहमी हुई सीता आगे बढ़ी एवं मुनि श्रेष्ठ के चरणस्पर्श किए। ‘‘सौभाग्यवती भव!’’ उनकीआँखें अब भी रक्तवर्णा थी। स्थिति देखकर सीता वहाँ से प्रस्थान कर महल में चली गई।
तब प्रभु श्रीराम एवं लक्ष्मण आगे बढ़े एवं उन्होंने भी भृगुकुलनाथ के चरणस्पर्श किए। अपने पाँवों को हटाते हुए परशुराम ने पहले भग्न धनुष की ओर देखा फिर कुपित होकर जनक की ओर मुख करके बोले, ‘‘हे जड़जनक! अपने चतुर वचनों से मुझे न लुभा। बता! मेरे आराध्य महादेव का यह धनुष किसने तोड़ा है? या तो उस व्यक्ति को मेरे सम्मुख उपस्थित कर, अन्यथा समझ ले जहाँ तक तेरा राज्य है वहाँ तक की धरती उलट दूंगा।’’
सभा में भयानक निस्तब्धता छा गई। परशुराम के क्रोध एवं तेज से सभी राजा परिचित थे। सारी सभा को साँप सूंघ गया।
उफनते हुए दूध का एक ही इलाज है, शीतल जल के छींटे।
तब प्रभु श्री राम आगे बढ़कर अमृत स्वर में बोले, ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ! अजेय शिवधनुष को भला आपके अनुग्रह एवं आशीर्वाद के बिना कौन तोड़ सकता है? ऐसा करने वाला तो आपका ही कोई शिष्य हो सकता है। आपकी शक्तियों से स्फूर्त हुए बिना ऐसा करने का दुस्साहस किसमें हो सकता है?’’
क्षणभर के लिए परशुराम का क्रोध शांत हुआ लेकिन वे तुरन्त अपने पूर्वरूप में आ गए। उनका क्रोध पुनः उनके सर चढ़कर बोलने लगा।
अभी दूध पूरा नहीं उफना था। गर्म दूध में शीतल जल के छींटे व्यर्थ हैं। पूर्ण उफान पर ही दूध इतना शक्तिहीन होता है कि मात्र पानी की कुछ बूंदें उसे नियंत्रण में ले लेती हैं। क्रोधी व्यक्ति का भी क्रोध जब तक पूर्णतः बाहर नहीं आ जाता, उस पर नियंत्रण मुश्किल होता है।
परशुराम अब भी तमतमा रहे थे। राम की ओर मुँह कर बोले, ‘‘शिष्य वह है जो शिष्य जैसा कार्य करे। अपने गुरु के आराध्य का अपमान कर वह कौन-सी वीरता का प्रदर्शन कर रहा है?’’ कहते-कहते पुनः सभा को घूरते हुए वे बोले, ‘‘राम! सुनो! जिसने शिवधनुष भग्न करने का दुस्साहस किया है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। मैं सब लोगों को मारना नहीं चाहता। वह अकेला मेरे सामने आ जाए, अन्यथा सभी समझ लें कि यहाँ उपस्थित सभी लोगों पर काल आ चुका है।’’ कहते-कहते उनकी आँखों से चिंगारियाँ बरसने लगी थीं।
अब प्रभु राम ने इशारे से लक्ष्मण की ओर देखा। वे जानते थे इस दूध को पूरे उफानने का कार्य लक्ष्मण ही कर सकता है। अंगारे तेज होंगे तभी तो दूध उफनेगा। परवान चढ़ा क्रोध, क्रोधी को स्वतः श्रीहीन कर देता है।
प्रभु का इशारा पाकर लक्ष्मण आगे बढ़े। परशुराम को भी तो शेष की फुफकार का स्वाद मिले। आगे बढ़कर बोले, ‘‘मुनिवर! बचपन में हमने अनेक धनुहियाँ तोड़ी तब तो हम पर कोई क्रोध करने नहीं आया। भला इस धनुष में ऐसी कौन-सी बात है? मेरे अग्रज राम ने तो इसे छुआ भर था और यह टूट गया। धनुष पहले से ही पुराना था, इसमें रामचन्द्रजी का क्या दोष? तीर-तरकसों से खेलना एवं धनुष-बाणों को तोड़ना तो हम क्षत्रियों को बचपन में ही सिखा दिया जाता है। क्षत्रिय क्षत्रियोचित कार्य नहीं करेंगे तो क्या करेंगे !’’ कहते-कहते लक्ष्मण की आँखें रोष से लाल होने लगी थी।
‘‘रे मूर्ख बालक! लगता है तेरा विवेक पंगु हो गया है। क्या तू जगत विख्यात शिवधनुष को धनुहिया समझता है? क्या तूने बोलने की मर्यादा भी नहीं सीखी? क्या तेरे सर पर काल छा गया है? तू मेरे इस फरसे की ताकत को नहीं जानता। इसने अनेक बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन किया है। इसी फरसे ने सहस्रबाहु की असंख्य भुजाओं को केले के वृक्ष की तरह काटा है। लगता है तूने मेरे क्रोध के बारे में सुना नहीं। मेरा नाम सुनने भर से स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं।’’ कहते-कहते परशुराम के रोम-रोम से ज्वाला फूटने लगी थी।
‘‘मुनिवर ! आप तो ललकारने लग गए। मैं कोई छुइमुई नहीं जो आपके क्रोध से डर जाऊँ।’’ लक्ष्मण ने सिंहनाद किया। अब तक उनकी चढ़ी हुई आँखें सूर्य की तरह आग उगलने लगी थी।
एक क्षुद्र बालक की चुनौती सुनकर परशुराम के हृदय में शोले भभक उठे। गले की धमनियाँ तन गई। कई देर तक दोनों में वाद-प्रतिवाद होता रहा। लक्ष्मण के वाक्बाण परशुराम की क्रोधाग्नि में घी का काम कर रहे थे। क्रोध के मारे उनके सारे अंग जल रहे थे। ऐसा लग रहा था उनके क्रोध की नदी उत्सव के सारे आनंद को बहा ले जाएगी। लक्ष्मण का एक-एक वाक्य विषैले तीर की तरह उनके हृदय को बींध रहा था।
अब परशुराम अपना कठोर फरसा हाथ में लेकर खड़े हो गए। उनके नथुने ऐसे फड़कने लगे मानो जंगल में बड़वानल भभक उठा हो। उस समय उनकी दशा ऐसी थी मानो वे लक्ष्मण को कच्चा ही खा जाएंगे। उनके क्रोध को देखकर कटहल के फल की तरह राजाओं के रोम-रोम खड़े हो गए। सभी सभासद सांस रोके खड़े थे। आँखों से अंगारे बरसाते हुए परशुराम बोले, ‘‘अब मुझे कोई दोष ना दे। यह बालक वध के ही योग्य है।’’
विश्वामित्र एवं जनक दोनों ने नीति का हवाला देते हुए उनसे अनुरोध किया कि बालक, स्त्री एवं शरणागत वध के योग्य नहीं होते, पर क्रोध की भट्टी में भभकते हुए परशुराम लक्ष्मण वध पर अडिग थे।
दूध अब पूरे उफान पर था। निरन्तर क्रोध ने उनकी शक्तियों का क्षय कर दिया था।
तब प्रभु राम आगे बढ़कर बोले, ‘‘मुनिवर! आपका धनुष मैंने तोड़ा है। मैं ही आपका अपराधी हूँ। आपको क्रोध अथवा रोष जो भी करना है, मुझ पर कीजिए। दण्ड देना है तो मुझे दीजिए।’’ इतना कहकर राम मस्तक झुकाकर उनके आगे खड़े हो गए।
उफनते दूध में इस बार शीतल जल के छींटे कारगर हुए पर परशुराम का अहंकार अब भी देदीप्यमान था। राम की ओर देखकर बोले, ‘‘शायद तू मेरे प्रभाव को नहीं जानता। धनुष तोड़कर ऐसे खड़ा है मानो कोई महावीर हो। लगता है अब तक बराबरी वालों से तेरी टक्कर नहीं हुई।’’
परशुराम का दर्प मर्दन करते हुए राम गंभीर वाणी में बोले, ‘‘अब तक मैं तपस्वी समझकर आपका आदर कर रहा था लेकिन अब आप स्पष्टतः सुन लें कि संसार में ऐसा कौन-सा योद्धा है जिसके डर के मारे रघुवंशी मस्तक झुकाते हैं। मृत्यु क्षत्रियों का शृंगार है। युद्ध में फिर चाहे हमें काल ही क्यों न ललकारे, हम पीठ नहीं दिखाते।’’ कहते-कहते राम ने एक अनंत रहस्य अपनी आँखों में समेटकर परशुराम की ओर देखा। यह सौ सुनार की हथौड़ियों के बाद एक लुहार के हथौड़े का प्रहार था।
श्रीराम के वीरोचित वचन एवं रहस्यभरी दृष्टि देखकर परशुराम की बुद्धि के पर्दे खुल गए। जंगल में सिंह जैसे गजराज का मानमर्दन करता है वही दशा परशुराम की थी। अपनी दिव्य दृष्टि से उन्होंने क्षणभर में पता लगा लिया कि उनके सामने नर रूप में नारायण खड़े हैं।
साक्षात् प्रभु को सामने पाकर उनका शरीर पुलकित हो गया। हाथ जोड़कर बोले, ‘‘प्रभु! अगर आप वही हैं जो मैं सोच रहा हूँ तो मेरे क्रोध को मेरे ही इस नारायण धनुष से वायव्य दिशा में भेज दीजिए। इसने मेरे वर्षों के तप को नष्ट कर दिया है।’’
परशुराम की आज्ञा शिरोधार्य कर राम ने नारायण धनुष पर उनके क्रोध को रखा एवं प्रत्यंचा खींच कर वायव्य दिशा में इसे संधान किया।
प्रभु को प्रणाम कर परशुराम सभागार से बाहर आए एवं वन की राह ली।
वन में थोड़ी ही दूर चले होंगे कि वायव्य दिशा में उन्हें एक तेज अग्निपुंज दिखाई दिया। वह साक्षात् अग्निप्रेत लग रहा था। परशुराम ने रुककर विनम्र आवाज में उससे पूछा, ‘‘तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?’’
‘‘मुनिवर! मैं अगियावेताल हूँ। जिस मस्तिष्क में भी प्रवेश कर जाता हूँ उसे क्रोध से उन्मत्त कर भाँति-भाँति के पाप करवाता हूँ। मेरी उपस्थिति उसके विवेक को पंगु कर देती है। मेरे सान्निध्य से उसके सारे तप एवं पुण्य क्षीण हो जाते हैं। जैसे कामदेव को युवती स्त्री का बल है, मुझे क्रोध का दंभ है। वह अनुचर की भाँति मेरे इशारे पर नाचता है। अब तक मैं आपके मस्तिष्क में निवास करता था। मैंने ही आपको बार-बार क्रोध से भरकर क्षत्रियों का नाश करवाया। मैंने ही आपको पिता से आज्ञा दिलवाकर आप ही के द्वारा आपकी माता का वध करवाया। मेरे ही कारण आप हर वक्त क्रोधित रहते थे। अपने क्रोध की शक्ति से मैंने आप जैसे ब्रह्मर्षि तक से निंदनीय कार्य करवा लिए। अब प्रभु राम ने मुझे आपके मस्तिष्क से निकाल दिया है। बताइये! अब मैं कहाँ निवास करूँ। आप तो इतने तपस्वी थे अन्य कोई तो मुझे झेल भी नहीं पाएगा।’’
परशुराम उसे देखकर मुस्करा दिए। उसकी ओर देखकर शांत भाव से बोले, ‘‘अब तुम उन गृहस्थियों के मस्तिष्क में जाकर निवास करो, जो हर समय क्रोध से जलते रहते हैं, जो व्यर्थ वाद-विवाद करते हैं, अकारण लड़ते-झगड़ते हैं एवं बिना किसी प्रयोजन के तेज आवाज में वार्तालाप करते हैं। उन उद्दण्ड एवं कुटिल वचन कहने वालों के विवेक में बसकर तुम उन्हें कमजोर, तेजविहीन कर दो। तुम्हारी उपस्थिति मात्र से वे दुर्भाग्य के चक्रव्यूह में घिर जाएंगे। उनके जीवन में चौतरफा समस्याएँ खड़ी हो जाएंगी।’’
‘‘लेकिन प्रभु! मैं अकेला यह कार्य कैसे सिद्ध करूंगा ? संसार में तो असंख्य क्रोधी जन हैं !’’
‘‘तुम चिंता न करो! तुम इसी क्षण मेरे तेज के प्रभाव से असंख्य भागों में विभक्त हो जाओगे। तुम्हारे हर एक अंश से एक अगियावेताल बनेगा। इसके पश्चात् तुम शहर-शहर, नगर-नगर, गाँव-गाँव एवं बस्ती-बस्ती में फैल जाओ। क्रोधी व्यक्तियों का मस्तिष्क ही तुम्हारा निवास होगा। लेकिन एक बात याद रखना! अगर वही व्यक्ति शांत होकर मौन का आश्रय ले, ईश्वर प्रणिधान एवं परोपकार की भावना से स्फूर्त हो जाए तो तुम एक पल भी वहाँ निवास नहीं करना। स्मरण रहे, बोधगम्यता होते ही तुम उसे मुक्त कर दोगे।’’
उसी समय अगियावेताल असंख्य भागों में विभक्त होकर गाँव-गाँव, नगर-नगर, शहर-शहर एवं बस्ती-बस्ती में फैल गया।
भाग-3
शीतल एवं योगिराज दोनों ने मिलकर अमित को अगियावेताल के बारे में समझाया। योगिराज के समझाने पर अमित ने शांति का मार्ग अख्तियार किया। दस रोज कठोर मौनव्रत धारण किया। मौन ने उसके भीतर शांति एवं सद्भाव का अंकुरण किया। अब ईश्वर प्रणिधान, मानवसेवा एवं परोपकार उनके जीवनचर्या के अंग बन गए।
भला ऐसे व्यक्ति के मस्तिष्क में अगियावेताल कैसे रहता ? शीघ्र ही उसने यहांँ से किनारा किया।
क्रोध एवं दुखों की अग्नि से जलता हुआ अमित एवं शीतल का परिवार शांत, सुखी एवं समृद्ध परिवार में बदल गया। महेन्द्र ही नहीं अमित के अन्य मित्र, रिश्तेदार एवं हितैषी भी पुनः अमित के यहाँ आने लगे। शांति एवं सद्भाव के तो सभी याचक हैं।
अगियावेताल ने अभी-अभी अमित का घर छोड़ा है। उसे तलाश है ऐसे घर की जहाँ क्रोधी निवास करते हों, जहाँ तेज़ आवाज़ में वाद-प्रतिवाद होता हो एवं जहाँ परोपकार एवं ईश्वर पूजा का किंचित् स्थान न हो।
भूखी आँखों से वह अपने शिकार को ढूंढ़ रहा है।
सावधान! कहीं ऐसे व्यक्ति आप तो नहीं हैं ?
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01.04.2006