शहर के उत्तर में बड़ी टेकडी पर स्थित उस भुतहा महल के बारे में सारा शहर जानता था कि वह जगह ठीक नहीं है पर मैं अज़ीब आदमी हूं , वह काम जरूर करता हूं जिसके लिए मना किया गया हो।
यह मेरी आज की आदत नहीं हैं, अब तो मैं पैंतीस वर्ष का परिपक्व समझदार पुरुष हूं, बचपन से ही हर वह कार्य मुझमें जिज्ञासा पैदा करता जिसके लिए मना कर दिया गया हो। बचपन में बाबूजी अक्सर कहते बिल्ली रास्ता काट जाए तो कुछ देर बैठकर पुनः निकलना चाहिए , उनके सामने तो मैं चुपचाप सुन लेता लेकिन मैंने अब तक बिल्ली के रास्ता काटने पर स्वयं को नहीं रोका एवं कभी कुछ प्रतिकूल हुआ भी नहीं , सच कहूँ तो बुरा जब भी हुआ यह वह दिन था जब बिल्ली ने रास्ता नहीं काटा था।
मेरी बुद्धि जाने क्यों हर बात पर तर्क ढूंढती है। मैं किसी भी बात के तर्कसिद्ध होने पर ही आश्वस्त होता हूं, अंधी आस्थाओं में मेरा कोई विश्वास नहीं वरन् यह मुझमें उत्सुकता , प्रश्न खड़ा करती है। ऐसी एक नहीं अनेक बातें हैं जिन्हें मैं बचपन से सुनता आया हूं। बाबूजी ही क्यों मां भी तो ऐसी बातें कहती थी… मंगलवार , शनिवार के दिन बाल नहीं कटाने चाहिए। किसी कार्य पर निकले और छींक आ जाए तो घड़ीभर बैठकर पुनः उस कार्य के लिए निकलना चाहिए। अमावस्या की रात श्मशान वाले रास्ते से नहीं गुजरना चाहिए, पड़वा को बावड़ी – तालाबों में नहीं नहाना चाहिए, कहते हैं उस दिन पानी भक लेता है। चौथ को चन्द्रमा नहीं देखना चाहिए ऐसा करने से चोरी का कलंक लगता है। गलती होने पर मां इन बातों का तोड़ भी बताती, पर मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बचपन से अब तक दसों बार चौथ का चांद देख चुका हूं, कभी कुछ नहीं हुआ। कई बार तो मुझे इस बात पर गुस्सा आता कि कैसे मूर्खों की बनाई धारणाओं पर विद्वानों ने मुहर लगा दी है। हमारे देश में यह रोग विषबेल की तरह फैले हैं।
बड़ी टेकड़ी वाले महल के भुतहा होने की सुनने के बाद बचपन से ही मेरे मन में कौतूहल था कि एक बार वहां जाकर देखना चाहिए कि वहां कोई भूत है कि नहीं पर ऐसा करने का यथेष्ट साहस मैं कभी नहीं जुटा पाया। अन्य किम्वदंतियां छोटी-छोटी थी एवं उन्हें ट्राई किया जा सकता था पर टेकड़ी वाले महल के भूत अगर सच निकल आए तो उनसे भिड़ना मेरे बूते की बात नहीं थी। चौथ का चांद आज देखें तो जाने कब कलंक लगे पर भूत तो हाथों -हाथ हिसाब करते हैं। यही सोचकर मैं वहां कभी नहीं गया हालांकि बचपन से अब तक यह उत्सुकता बनी रही कि जब सारे उल्टे कार्य कर लिए तो यह अंतिम बचा कौतूहल भी तुष्ट कर लेना चाहिए। वहां जाने में बाधा रास्ते में पड़ने वाला श्मशान भी था जहां मैं अपनी तर्कबुद्धि को सन्तुष्ट करने एक अमावस्या की शाम गया था पर रात में जाने की हिम्मत नहीं हुई।
आज अंततः मैं भुतहा महल पहुंच ही गया। हुआ यूं कि तीन दिन पूर्व शहर के एक थाने में पुलिस हिरासत में हुई पिटाई से एक युवक की मृत्यु हो गयी, छः माह पूर्व भी ऐसी एक वारदात हुई थी। इस बार जनविद्रोह चरम पर था, सारे शहर का आक्रोश फूट पड़ा। आज सारा शहर बंद था। एक भी सरकारी , निजी संस्थान नहीं खुले। दोपहर घर बैठा उकता रहा था कि यकायक दिमाग में एक विचार कौंधा , क्यों न आज भुतहा महल होकर आऊं ? एकबारगी सोचा बीबी -बच्चे सबको ले जाऊं फिर लगा श्रीमतीजी कहेंगी हमेशा उल्टा सूझता है अतः स्कूटर उठाया , भुतहा महल के नीचे पार्क किया फिर चढकर टेकड़ी पर आ गया। ऊपर चढ़ते हुए पसीने छूट गये लेकिन वहां से शहर को देखना मुझे आनंद-विभोर कर गया। ओह, कितना विहंगम दृश्य था। काश ! यह आनंद पूरा शहर लेता। मैं यह सोचकर क्लांत भी हुआ कि किस तरह एक गलत अफवाह शहरभर के निवासियों से उनका सहज आनंद छीन लेती है।
भुतहा महल एक भग्न अवशेष भर था जिसकी मात्र कुछ दीवारें एवं गुंबज बचे थे। दीवारें भी अब कमजोर होकर ढहने के कगार पर थी। मुझे लगा महल अंदर से भी देखा जाए।
मैं महल के मुख्य दरवाजे से भीतर घुसा ही था कि अधेड़ उम्र के एक सज्जन दिखाई दिए। वे सफेद चोला एवं धोती पहने थे। उनका भव्य ललाट , खिचड़ी दाढ़ी एवं चेहरे से टपकते तेज को देखकर कोई भी कह सकता था कि वे कोई ज्ञानी-मानी आदमी हैं। उनकी बड़ी-बड़ी चमकती आंखें ऐसी लगती थी मानो वे कुछ खोज रही हों। मैं घड़ीभर को सिहर गया। इस घने एकांत, भुतहा स्थान में क्या अन्य लोग भी आते हैं ?
शायद उन्होंने मेरी जिज्ञासा को पहचान लिया। स्वयं हाथ आगे बढ़ाकर बोले, “मेरा नाम एकेश्वरनाथ है। यहीं स्थानीय यूनिवर्सिटी में दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर हूं। आपकी तरह मुझे भी यूं एकांत, निर्जन स्थानों पर आना , खुला आकाश ,पक्षियों को उड़ते हुए देखना खूब भाता है। इन दिनों पंचतत्त्वों पर अनुसंधान कर रहा था । इतने अहम विषय पर घर-मौहल्लों के शोर-शराबों में चिंतन संभव नहीं है अतः यहां चला आया। यकीन मानिये मैं कोई भूत नहीं हूं। ’’ यह कहते हुए उन्होंने जोर से ठहाका लगाया।
उनकी हंसी, आत्मविश्वास से लबरेज आवाज एवं सपाटबयानी ने मुझे हौसला दिया, मैंने भी अपना परिचय दिया एवं उनके साथ-साथ चलने लगा। वे भी शायद महल देखने मुझसे कुछ क्षण पहले ही घुसे थे।
“आप यहां कब आए ? मुझे रास्ते में तो नहीं दिखे ? ’’ मैंने बात का आगाज़ किया। मेरे भीतर का भय इससे कुछ कम हुआ।
“मुझे आए एक घण्टा हो गया। बहुत देर बाहर बैठा था, फिर महल देखने अंदर चला आया। मैं भीतर खड़ा इस दरवाजे का स्थापत्य देख रहा था कि आप चले आए। आइए ! दोनों साथ-साथ महल देखते हैं।’’
मैं उनके साथ गुंबद के नीचे वाली छत की ओर बढ रहा था। अब हम दोनों बेतकल्लुफ थे। टेढ़ी-मेढ़ी , टूटी-फूटी पचास सीढ़ियां चढ़कर हम छत पर आ गये। यहां से शहर और सुंदर दिख रहा था। हम दोनों वहीं कोने पर पड़े एक लंबे पत्थर पर बैठ गए।
आज मौसम खुशगवार था। धूप में अब वह तेजी नहीं थी । भादो बरसने के बाद आसमान स्वच्छ था हालांकि एक-दो सफेद बादल यहां-वहां तैर रहे थे। यह बादल कभी सूर्य को ढक लेते तो कभी सूर्य इनमें से बाहर निकल आता। दीवार पर उगी घास हवा के झौंकों के साथ लहराने लगी थी। ऐसा नयनाभिराम दृश्य देखकर मेरा दर्शन भी विस्तार लेने लगा। मैंने पुनः बात छेड़ी।
“अभी-अभी आप बता रहे थे कि आप इन दिनों पंच तत्त्वों पर रिसर्च कर रहे हैं। यह पंचतत्त्व क्या होते हैं ? ’’ मैं इस प्रश्न का कुछ -कुछ उत्तर जानता था पर बात छेड़ने एवं प्रोफेसर साहब से ज्ञान प्राप्त करने के लिए यही अनुकूल प्रश्न था।
“ ये समूची प्रकृति पंचतत्त्वों का ही विस्तार है। मनुष्य भी पृथ्वी, वायु, आकाश , अग्नि एवं जल इन पांच तत्त्वों का पुतला है। ’’ उत्तर देते हुए वे खुले आकाश में झांकने लगे जहां अभी-अभी पक्षियों का एक झुण्ड हमारे सर के ऊपर से उड़कर गया था। यह झुण्ड आसमान में वर्तुलाकार उड़ रहा था , दूर पश्चिमी क्षितिज तक जाता एवं कुछ देर पश्चात पुनः चला आता।
“ यह बातें तो कुछ-कुछ सभी जानते हैं पर आपके अनुसंधान का खास मुद्दा क्या है ?’’ मैंने यह प्रश्न पूरे आत्म-विश्वास के साथ किंचित् तेज आवाज में किया ताकि वे जाने कि मैं भी कोई साधारण जिज्ञासु नहीं हूं । वे कृष्ण हैं तो मैं अर्जुन हूं।
“आप ठीक कहते हैं, पंचतत्त्वों के बारे में न्यूनाधिक रूप से सब जानते हैं। छिति पावक जल गगन समीरा , पंचरचित यह अधम शरीरा- मानस की ख्यात चौपाईयां हैं । मैं लेकिन इससे इतर रिसर्च कर रहा हूँ । ’’ उत्तर देते हुए प्रोफेसर साहब अपना चश्मा उतारकर रुमाल से धीरे-धीरे साफ करने लगे।
“वह क्या ?’’ मेरी उत्सुकता और बढ़ गई।
“मुझे लगता है पंच तत्त्वों को क्षुब्ध करके हम अपना रूप बदल सकते हैं, गायब भी हो सकते हैं यहां तक कि आप जो इच्छा करें वैसा पशु-पक्षी बन सकते हैं। पुरुष स्त्री बन सकता है, स्त्री पुरुष बन सकती है। इतना ही नहीं हम किसी उम्र की कोई प्रजाति यहां तक कि पेड़-पौधे तक बन सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने यह ज्ञान प्राप्त कर लिया था। हमारे अनेक पौराणिक किस्से-कहानियां इसकी प्रामणिकता पर मुहर लगाते हैं। कालान्तर में यह ज्ञान विलुप्त हो गया।’’ उत्तर देते हुए प्रोफेसर साहब ने अपना साफ चश्मा पुनः चढा लिया। उनकी आंखों का तेज अब पहले से अधिक दृष्टिगत होने लगा था।
“आपका मतलब अगर मुझे यह ज्ञान हो तो मैं जब चाहूं पक्षी बनकर उड़ सकता हूं, मनुष्य से शेर-चीता बन सकता हूं यहां तक कि सुंदर नारी का रूप भी धारण कर सकता हूं ?’’ प्रश्न करते हुए क्षणभर को मुझे लगा मैं पक्षी बनकर आकाश में उड़ रहा हूं एवं उसी झुण्ड का हिस्सा बन गया हूं जो अभी-अभी पुनः मेरे ऊपर से उड़कर गया है। मेरी कल्पना ने अब पूरे डैने खोल दिए। मैं झुण्ड से अलग होकर मेरे मकान की छत पर जाकर बैठ गया। वहां से मैं नीचे आंगन में आकर शेर बन गया। मैंने पंजों से दरवाजा खटखटाया, श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला एवं देखते ही बेहोश हो गयी। मैं मन ही मन मुस्कुराया, बहुत शेर बनती थी, अब मज़ा आया।
यकायक मैं चौंका। प्रोफेसर साहब मेरे प्रश्न का उत्तर दे रहे थे।
“निश्चय ही आप ऐसा कर सकते हैं पर अब तक तो यह विधा मेरे हाथ भी कहां लगी है ? मनुष्य के चिंतन का क्या है, वह बेसिर-पैर जाने क्या-क्या सोच लेता है। आप मेरी तरह सोचोगे तो थोड़े दिन में लोग आपको भी मेरी तरह पागलों में वर्गीकृत कर देंगे।’’ इस बार उत्तर देते हुए उन्होंने इतना तेज अट्टाहास किया कि आवाज़ गूंज गई।
तभी एक बिल्ली वहां सामने से रास्ता काटकर छत पार कर गई। अब पुराना विषय धरा रह गया एवं विषयांतर हो गया। यह विषय मेरी रुचि का था एवं इस विषय पर बातकर मैं प्रोफेसर साहब को बता सकता था कि आपका सामना किसी कमतर से नहीं पड़ा है।
मैंने बलात् विषय बदला।
“बचपन में मेरे पिता कहते थे, बिल्ली सामने से रास्ता काटकर निकल जाए तो समझो आगे कुछ अपशकुन होने वाला है। मैं लेकिन इन बातों में जरा भी विश्वास नहीं करता।’’
“यह जगत औंधी खोपड़ी है। यहां अधिकांश लोग भीतर से असुरक्षित हैं। यह सभी बातें हमारे मन की असुरक्षा को सहलाती हैं। हमारे देश में इसीलिए ऐसे अंधविश्वासों की बाढ़ है । ’’ प्रोफेसर साहब वहीं पत्थर के एक टुकड़े से कुछ कुरेदते हुए बोले।
“आप ठीक कहते हैं, इसीलिए देश में कोई भी अंधविश्वास, कुरीति समय के साथ समाप्त होने की बजाए दृढ़ बनती जाती है। अनेक बार इन कुरीतियों, आडंबरों एवं अन्धविश्वासों को पीढ़ियां तक ढोती हैं। ’’ मैंने बात आगे बढ़ाई।
“ऐसी एक नहीं अनेक किंवदंतियां , अंधविश्वास हमारे यहां घर-घर में फैले हुए हैं। शिक्षित-अशिक्षित सभी इनका शिकार हैं। जो कुरीतियां , विश्वास समाप्त हुए उसके लिए वर्षों संघर्ष किया गया। कोई प्रथा बन तो जाती है उसे हटाना मुश्किल है। सती-प्रथा , अग्नि-परीक्षा के चिह्न आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं। आज भी गांवों में स्त्रियों को अंगारों पर चलाया जाता है। आज भी भूत-प्रेतों, चुड़ैलों के नाम पर भोपे लोगों की पिटाई करते हैं। आप यहां कोई अफवाह फैला दो, थोड़े दिन में लोग उस पर विश्वास करने लग जाएंगे। उनकी धारणाएं एवं चिंतन का जन-सैलाब इसे और मजबूत बना देगा । अन्धविश्वासों की कच्ची मिट्टी फिर पत्थर बन जाएगी। इसी कारण आप-हम जहां बैठे हैं वह जगह इतनी सुंदर होते हुए भी लोग इसका लुत्फ नहीं ले पाते। ’’ इस बार उत्तर देने के बाद प्रोफेसर साहब कुछ क्षण के लिए मौन हो गए।
क्या वे कोई खास बात सोच रहे थे ? खुदा जाने।
अब तक पांच बज चुके थे। हमें शाम से पहले नीचे उतरना था। छत से उतरकर हम पुनः चौक में आए तो वहां कोने में मुझे कोई उल्टी पड़ी मूर्ति दिखाई दी। इस मूर्ति पर तीन-चार कौवे बैठे थे। शायद कौवों ने इसे अपने बैठने का स्थान बना लिया था। मूर्ति पर इसीलिए कौओं की विष्ठा पड़ी थी। मूर्ति कोई तीन फुट ऊंची एवं लगभग इतनी ही चौड़ी थी। मैं एवं प्रोफेसर साहब वहां तक आए, दोनों ने मिलकर इसे सीधा किया तो हम आश्चर्यचकित रह गये। यह गणेशजी की मूर्ति थी। मूर्ति का शिल्प अत्यन्त मनभावन था। अवश्य किसी कुशल कारीगर ने इसे गढ़ा होगा। संभव है यहां कभी गणेश -मंदिर रहा हो। ओह ! क्या देव भी दुर्दिनों का शिकार होते हैं ?
तभी प्रोफेसर साहब के मस्तिष्क में एक योजना कौंधी, उन्होंने मेरे कान के समीप आकर कुछ फुसफुसाया ।
हम दोनों जोर से हंस पड़े।
यह एक शानदार योजना थी।
हम दोनों टेकड़ी से नीचे उतरकर आए तब वहीं सड़क के आगे सात-आठ लोग झुण्ड में खडे थे। वे हमें देखकर दंग रह गयेे। शहर में कोई भुतहा-महल नहीं चढ़ता था अतः उनका अचंभित होना वाज़िब था।
“ ऊपर महल में क्या है ? ’’ झुण्ड में से किसी एक ने आश्चर्य से पूछा।
मैंने एवं प्रोफेसर साहब ने एक-दूसरे की ओर देखकर चेहरा ऐसा बनाया जैसे हमारी सोची योजना जगजाहिर करने के पूर्व एक दूसरे की सहमति ले रहे हों।
प्रोफेसर साहब ने मेरी ओर देखकर सहमति में गर्दन झुकाई।
अब मैं झुण्ड से मुख़ातिब हुआ।
“ऊपर हमें गणेश की एक प्राचीन मूर्ति मिली। वह मूर्ति हमें देखकर पहले तो मुस्कुराई फिर कहने लगी ….मेरी प्राण-प्रतिष्ठा करवाओ। साथ में रिद्धि-सिद्धि भी बिठवाओ। वर्षों में यहाँ बिना पत्नियों के पड़ा हूं। प्राण-प्रतिष्ठा के बाद कोई भी प्रेमी, प्रेमिका, कुंआरी लड़की, लड़का यहां विवाह की मनौती लेकर आएंगे तो मैं उनका मनोरथ पूरा करूंगा। वर्षों उल्टे पड़े मैंने प्रेम की कीमत पहचान ली है। मैं किसी प्रेमी को निराश नहीं करूंगा। इतना कहकर वह मूर्ति चुप हो गई। भयभीत हम दोनों वहां से नीचे उतर आए।’’
प्रोफेसर साहब ने भी वहीं खड़े मेरे सुर में सुर मिलाए।
झुण्ड के चेहरों पर आश्चर्य और बढ़ गया। इस आश्चर्य में भय एवं श्रद्धा के रंग भी घुल गये।
इससे पहले वे हमसे हमारा परिचय जानते, हम तेजी से चलकर वहीं कुछ दूर रखे हमारे वाहनों तक आए एवं उन्हें स्टार्ट कर चलते बने।
झुण्ड में खडे़ लोगों ने यह बात अन्य लोगों को बताई, अन्य ने कई अन्यों को । वाहट्सअप , फेसबुक एवं मीडिया पर यह बात चर्चा का विषय बन गई। इस चर्चा में टीवी, प्रिन्ट मीडिया भी जुड़ गया।
अब शहर के विकल प्रेमी-प्रेमिका, चिरकुंवारे वहां चढ़ने लगे। कुछ के मनोरथ पूरे हुऐ तो जनता वहां भग्न महल तुड़वाकर भव्य मंदिर बनवाने की मांग करने लगी। चुनाव नजदीक थे। सांसद-विधायक ने भी इस हेतु अपने कोटे से भरपूर रकम आवंटित की। शहर के रईसों ने इस पावन कार्य में उन्मुक्त हृदय से दान दिया। सार्वजनिक निर्माण विभाग ने टेकड़ी तक चढ़ने के लिए पक्की सड़क बनवाई। बिजली विभाग ने बिजली, पानी विभाग ने पानी एवं अन्य विभागों ने भी इस हेतु वांछित व्यवस्थाएँ प्रदान की।
दुनिया सच कहती है चमत्कार को नमस्कार है।
इस बात को अब दस वर्ष बीत चुके हैं।
अब वहां एक भव्य मंदिर बन गया है। देश-विदेश के कुंआरे, प्रेमीजन अपने मनोरथ-पूर्ति हेतु इस मंदिर में आते हैं। यहां दिनभर भीड़ लगी रहती है। वेलेंटाइन डे पर यहां पांव रखने को जगह नहीं होती। सुना यह भी है कि विधवा-विधुरजन, लिवइन के आकांक्षी यहां तक कि जिन विवाहित दंपतियों की आपस में नहीं बनती, मंदिर के गणेश जी की शरण में आते हैं। मंदिर का एक कर्मचारी कहता हैं कि यहां वे लोग-लुगाई भी आते हैं जिनके विवाहेतर संबंध हैं। एक अन्य कर्मचारी बताता है यहां नपुंसकता से पीड़ित लोग भी घण्टा हिलाने आते हैं। कुल मिलाकर जितने मुंह उतनी बातें हैं एवं इसी के चलते यह मन्दिर उतना ही विस्मयकारी बन गया है जितना विस्मयकारी प्रेम का तत्त्व है।
अब तो गुंबज पर स्वर्ण-कलश एवं आंगन में चांदी के दरवाजे तक लग गए हैं। मंदिर शहर का एक प्रसिद्ध दर्शनीय-स्थल बन गया है। यहां अब भारी रकम का पुजापा भी आता है। बड़े-बड़े राजनेता, मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी तक यहां दर्शन कर कृतार्थ होते हैं।
शहर के लोग इस मंदिर को ‘ इश्किया गणेश जी ’ के नाम से जानते हैं।
दिनांक: 11/09/2019